पिछले रविवार, एक स्टूल से उतरते समय अपने कदमों को जमीन पर रखने से पहले फूंकना भूल गया और पैरों के बजाए कमर के बल फर्श पर लंबायमान हो गया। इस क्रिया के दौरान हाथों ने पैरों की नाफ़र्मानि को सुधारने की कोशिश की होगी, पर जिसका काम उसी को साजे वाली कहावत को ध्यान में नहीं रख पाए होंगे और बस आका को बचाने की कोशिश में खुद को चोटिल कर बैठे....
कहते हैं ना कि चलना ही जिंदगी है। जानवरों की तो रहने दें, वे तो जन्म लेते-लेते ही रेंगने-दौड़ने लगते हैं। हाँ, इंसान इस क्रिया को आरंभ करने में चार-छह महीने लगा देता है। पर एक बार जो शुरू हुआ तो अपनी अंतिम यात्रा तक चलता ही चला जाता है। घुटनों से पैरों तक आने में जो भी वक्त लगे, फिर उसके पाँव एक जगह टिक नहीं पाते हैं। इसीलिए इस क्रिया को लेकर तरह-तरह के ढेरों मुहावरे भी चलन में चलते आ रहे हैं। उसी में एक कहावत है, "फूँक-फूँक कर कदम रखना।" वैसे तो इसका भावार्थ है, कि किसी भी काम को करने के पहले सोच-विचार कर, एहतियाद बरत कर, सावधानी पूर्वक काम करना चाहिए। पर शाब्दिक अर्थ के भी कुछ ऐसे ही
मायने बनते हैं। जैसे ही चालन क्रिया हरकत में आती है और बच्चा जैसे-जैसे घुटनों से पैरों तक आता जाता है उसे संभालना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है। हर समय ध्यान रखना पड़ता है कि किसी चीज से उसके हाथ-पैरों में चोट ना लग जाए। फूँक-फूँक कर जगह साफ़ रखनी होती है। फिर जब वह किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखता है तो बहुत संभावना रहती है कि उसकी चाल, उसकी दिशा सही हो। यह वह समय होता है जब बिन पीए ही इंसान के दिग्भ्रमित होने के आसार बन जाते हैं। दिमाग में महत्वकांक्षाऐं घर कर लेती हैं। दिलो-दिमाग पर बस नहीं रहता। ऐसे में पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। जरूरी हो जाता है, उसके हर कार्य को मर्यादा के दायरे में लाना। फूँक-फूँक कर हर कार्य का निर्धारण करना पड़ता है। फिर आता है बुढ़ापा, आँखों से दिखना कम हो जाता है, शरीर के अंग बेकाबू से होने लगते हैं। तब दिमाग से नहीं शारीरिक कमजोरी के कारण पैरों पर भी नियंत्रण कम होने लगता है। पैरों को रखना कहीं होता है पर वे निगोड़े पड़ते कहीं और जा कर हैं। उनका यह कहीं और जा पड़ना, बचपन और जवानी से ज्यादा खतरनाक साबित होता है। बचपन की चोट, जवानी की भूल ठीक होने में ज्यादा वक्त नहीं लेती पर बुढ़ापे की चूक हफ़्तों, कभी-कभी महीनों, बिस्तर के आगोश में पड़े रहने को मजबूर कर देती है। उस पर भी उसका दर्द जिंदगी भर सालता रह सकता है। यही वह समय होता है जब सही मायनों में कदम रखने से पहले फूंकना यानी देखना और संभलना जरुरी हो जाता है। अब चाहे जैसे भी फूँकें, फूंके जरूर।
अब देखिए नसीहत देना कितना आसान है! दो पैरा लिख मारे !! पर खुद पिछले रविवार, एक स्टूल से उतरते समय अपने कदमों को जमीन पर रखने से पहले फूंकना भूल गया और पैरों के बजाए कमर के बल फर्श पर लंबायमान हो गया। इस क्रिया के दौरान हाथों ने पैरों की नाफ़र्मानि को सुधारने की कोशिश करते हुए बीच में आ संभालने की चेष्टा की, पर जिसका काम उसी को साजे वाली कहावत को ध्यान में नहीं रख पाए और आका को बचाने की कोशिश में खुद को चोटिल कर बैठे। हफ्ता ख़त्म होने को आया मालिश, सेक, परहेज के बावजूद अभी भी दाएं वाला अपने काम पर बदस्तूर हाजिर नहीं हो पा रहा है।
काश ! उतरते समय, कदम रखने से पहले फूँक लिया होता !!
7 टिप्पणियां:
सच है, बस थोड़ी सी सावधानी..
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 07 फरवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
दिग्विजय जी,
आभार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-02-2016) को "हँसता हरसिंगार" (चर्चा अंक-2245) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सुपरस्टार कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग नहीं रहे - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वाह ,पढ़कर मज़ा आ गया ।क्या खूब लिखा है ।
Shubha ji,
Dhanywad.
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