शनिवार, 9 मई 2015

गांव से माँ आई है

अधिकतर कथा-कहानियों में संतान द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती इत्यादि को मुद्दा बना कर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं। होते हैं ऐसे नाशुक्रे लोग, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो मजबूरी-वश अपने माँ-बाप से अलग रहने को बाधित होते हैं। आज की विषम परिस्थितियों में, रोजी-रोटी के लिए चाह कर भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते।  ऐसी ही एक कल्पना है यह !  

गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह मालुम नहीं है। माँ तो शहर आई है अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है दोनों जगह न यहां न गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च होता है। यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी, शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी। पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने। उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद।

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है, यह कैसा शहर है जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है।

माँ तो गांव से आई है उसे कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं।

 माँ तो गांव से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं पर शहर के रसविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।        

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दि वापस चली जाए  उतना ही अच्छा।

5 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-05-2015) को "सिर्फ माँ ही...." {चर्चा अंक - 1971} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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मन के - मनके ने कहा…

एक तरफ जीवन के कटु सत्य हैं
दूसरी ओर---मा का शास्वत प्रेम,जो
निरबाध बहता है बे-शक नलों में पानी सूख जाय.

मन के - मनके ने कहा…

एक तरफ जीवन के कटु सत्य हैं
दूसरी ओर---मा का शास्वत प्रेम,जो
निरबाध बहता है बे-शक नलों में पानी सूख जाय.

Onkar ने कहा…

वस्तुस्थिति का वर्णन

कविता रावत ने कहा…

आज यह सच है कि विषम परिस्थितियों में, रोजी-रोटी के लिए चाह कर भी संयुक्त परिवार में लोग नहीं रह पा रहे हैं . जो कल्पना नहीं बल्कि कटु सच है ..आपने सही लिखा है ..फिर भी शहर हो या गांव माँ जैसा कोई नहीं नहीं मिल सकता है

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