कहावत है कि गंजेड़ी को गांजा, भगेंडी को भांग मिल ही जाती है। उसी तरह घुमक्कड़ को घुमक्कड़ी का अवसर मिल ही जाता है। पिछली अप्रैल को प्रेम भरी मनुहार के फलस्वरूप पुणे जाने का सुयोग सामने आया। इसी यात्रा का एक हिस्सा रहा, पंचगनी और महाबलेश्वर की प्राकृतिक सुरम्य गोद में जा बैठने का सुख। पहले पंचगनी की बात।
पुणे से करीब सौ की. मी. की दूरी पर, समुद्र तल से लगभग 1,350 मीटर की ऊँचाई पर, सहयाद्री पर्वत श्रृंखला में पांच पहाड़ियों के बीच कृष्णा नदी की घाटी में बसे पांच गांवों के केंद्र में स्थित है, महाराष्ट्र की यह खूबसूरत पहाड़ी सैरगाह पंचगनी। इसकी खोज अंग्रेजों ने गर्मियों से बचने के लिए की थी। उन्होंने यहां ब्रिटिश मूल के सैकड़ों पौधों को लगाया जिसमे सिल्वर ओक एवं पोइंसेत्टिया प्रमुख हैं। जो अब पूरी तरह से पंचगनी के ही समझे जाते हैं। महाबलेश्वर भी ब्रिटिश लोगों की पसंदीदा जगह थी लेकिन मानसून के दौरान वह रहने के लायक नहीं रह जाता था। पंचगनी का मौसम साल भर खुशनुमा रहता है इसीलिए इसको उनके द्वारा अपने आराम गृह के तौर पर विकसित किया गया। यहीं एशिया का दूसरा सबसे बड़ा पठार स्थित है जो लगभग 99 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह स्थान एक अजूबा ही है, जहां समय बिताना अपने-आप में एक उपलब्धि है। इसका असली जादू मानसून के दौरान ही जागता है, जब इसके कोने-कोने से पहाड़ी झरने अपनी धाराओं से स्वर्गिक दृश्य रचते हैं।
अपने वाहन का फायदा यह रहता है कि आप रास्ते भर पूरे परिवेश को अपनी मन-मर्जी से अपने में समेट सकते हैं। अप्रैल के महीने में धूप कुछ तेज थी पर माहौल खुशनुमा था। हमारा पहला पड़ाव इसका पठार ही था। वहाँ पहुँचने पर अपने-आप को एक अद्भुत जगह पर खड़े पाया। दूर-दूर तक फैला सपाट सा भूरे रंग का पथरीला मैदान। नीचे दूर दिखते छोटे-छोटे खेत और घर। उसके बाद चारों ओर फैली पहाड़ियों की श्रृंखलाएं। मंत्रमुग्ध करता नजारा। सामने ही एक बोर्ड पर देखने लायक स्थलों और घोड़ा गाड़ियों या कहें टम-टम के रेट की सूची, ग्राहकों को पटाने में लगे गाड़ीवानों की भीड़। सैकड़ों लोगों की उपस्थिति के बावजूद खाली-खाली महसूस होता परिवेश। एक अनोखा माहौल।
विस्तृत पठार |
हम छह अदद लोग थे। तीन महिलाओं समेत। पैदल घूमना संभव नहीं था। सो टम-टम पर चलना तय हुआ।जिसमें एक पर सिर्फ चार लोगों के बैठने की शर्त थी, सो दो गाड़ियां करनी पड़ीं, 500/-, 500/- के किराए पर। हमें लगा था कि घंटा भर तो लग ही जाएगा पूरी जगह देखने में पर जैसा तक़रीबन सभी पर्यटक स्थलों पर होता है, कहा कुछ जाता है किया कुछ जाता है, हमें भी छह जगहों के बदले तीन दिखा कर वापस ले आया गया। घोड़ागाड़ी में लकड़ी के छक्कों की बजाए टायर लगे होने के बावजूद सतह इतनी उबड़-खाबड़ थी कि हर सेकंड लगते झटकों से कुछ ही देर में पेट का सारा पानी हिल गया। यदि कस कर कुछ पकड़ा ना गया हो तो भू-लुंठित होने में समय नहीं लगता। देखने के नाम पर वहाँ एक विशाल छिद्र को रेलिंग से घेर कर रखा गया है जिसे भीम का चूल्हा बताया जाता है। कहते हैं पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान कुछ दिन यहां भी रुके थे।
भीम का चुल्हा ?? |
पांडवों के पदचिन्ह ?? |
गुफा में खान-पान |
नीचे गुफा की ओर जाती सीढ़ियां |
10 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : सुनील दत्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
हर्षवर्धन जी,
आभार!
बहुत बढ़िया
सुमन जी,
सदा स्वागत है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (08-06-2017) को
"सच के साथ परेशानी है" (चर्चा अंक-2642)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुन्दर विवरण। उम्मीद है महाबलेश्वर का वृत्तांत भी आयेगा।
शास्त्री जी,
स्नेह बना रहे।
विकास जी,
"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है । महाबलेश्वर पर भी आपका इन्तजार रहेगा।
सटीक विवरण
धन्यवाद, ओंकार जी
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