कुँए में तो मैं उतर रहा था, भाई लोग तो दोनों हाथों में लड्डू लिए ऊपर जगत को पकड़े अंदर झांकते हुए मौका ताड़ रहे थे । व्यवसाय जम गया तो नाम और दाम का बड़ा हिस्सा उनका नहीं जमा तो अभी का जमा-जमाया काम तो है ही। और हुआ वही जो ऐसे जुओं में होता आया है, सारे प्लान चारों खाने चित्त रहे थे .....
ज्यादातर देखा गया है कि अपने अतीत से गौरवांतित होने की प्रथा रही है, चाहे देश हो, समाज हो, लोग हों। मुझ में भी है ! पर कभी अकेले में बैठ कर मन विवेचन करता है तो अपने कई निर्णय बेतुके और नादानी भरे लगते हैं जो तथाकथित मित्रों के बहकावे में आ कर ले लिए थे।
कॉलेज से निकलते ही एक अच्छी-खासी नौकरी के झोली में आ पड़ने से एक लापरवाही और अति-आत्मविश्वास मन में घर कर गया था। जिसका फायदा मेरे दोस्त (?) और उसके घर वालों को मिला। अपने बाबूजी के लाख समझाने के बावजूद, जिन्होेंने इजाजत देने के साथ ही कहा था कि बिना किसी अनुभव के व्यवसाय रूपी अंधे कुँए में छलांग लगाने जा रहे हो। तब छोटी उम्र थी, समझ कम थी, इतना भी समझ नहीं आया कि दांव पर तो मेरा ही सब कुछ लग रहा है। कुँए में तो मैं ही उतर रहा हूँ, भाई लोग तो दोनों हाथों में लड्डू लिए जगत से झांकते हुए मौका ताड़ते रहेंगे। व्यवसाय जम गया तो नाम और दाम का बड़ा हिस्सा उनका नहीं जमा तो अभी का जमा-जमाया काम तो है ही। और हुआ वही जो ऐसे जुओं में होता आया है, सारे प्लान चारों खाने चित्त रहे थे।
इधर बलिहारी मेरी अक्ल की, कुछ ना होने के बावजूद लौटने पर विचार भी नहीं किया, जबकि चार-पांच माह बीत जाने के बाद भी मेरा स्तीफ़ा मंज़ूर नहीं किया गया था। नौकरी भी कैसी जहां सिर्फ कपडे और बर्तन आपके बाकी सारा कुछ, टहल के लिए बंदों के साथ सब कुछ कंपनी का। पर लौटने पर लोग क्या कहेंगे जैसी बेबुनियादी बातों और अपने को सिद्ध करने अड़ ने दिशा बदलने नहीं दी।
समय एक सा तो रहता नहीं, मौका सब को देता है। कुछ समय बाद जब कुछ स्थायित्व आता नज़र आया तो फिर एक बार उठा-पटक हो गयी। इस बार माध्यम बने अभिभावक। संयुक्त परिवार मुझे सदा लुभाता रहा है चाहे किसी का भी हो मुझे उस पर ईश्वर की कृपा नज़र आती है। साथ रहने की ललक, फिर अभिभावकों की बढ़ती उम्र ने फिर एक बार अजीबोगरीब फैसला करवा डाला। स्थानांतरण हुआ, पर कुछ ही समय बाद एक-दो "हितैषियों" क बहकावा मेरे ऊपर कहर बन टूटा जिसका अंजाम बेहद नाख़ुशग़वार रहा। असलियत सामने आते तक बहुत देर हो चुकी थी। जिसका पछतावा बाबूजी को अपने अंत समय तक रहा। पर तब तक तो गंगा में ढेर सारा पानी बा ह चुका था। समय तो रुकता नहीं, जिंदगी भी बढ़ती चली जाती है पर गया समय तो किसी भी तरह वापस नहीं पाया जा सकता ना !
आज सब इसलिए दिमाग के चित्रपट पर कौंध रहा है क्योंकि अब एक बार फिर इतिहास दोहराई की बेला आन पड़ी है। माध्यम बना है बच्चों के प्रति कुछ फर्ज, उनकी मजबूरियां और अपनी उम्र का तकाजा, जिसे ना चाहते हुए भी किसी सहारे की जरुरत तलब होने लगती है। इस बार-बार की उठा-पटक को ज्योतिषी लोग शनि का प्रकोप कहते हैं। जिससे स्थायित्व नहीं आ पाता जिंदगी में। पर मुझे लगता है कि यह सब इतना बुरा भी तो नहीं रहा। दसियों जगहें देखीं, सैकड़ों लोगों से मिलना हुआ, हज़ारों तरह के अनुभवों की प्राप्ति हुई। और ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही थोड़े ही हुआ होगा मेरे जैसे हज़ारों-लाखों लोगों को ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा।
तो क्यों एवईं परेशान होना, जो होगा अच्छा होगा। अभी तो सोया जाए ..........एक बज रहा है रात का !!
ज्यादातर देखा गया है कि अपने अतीत से गौरवांतित होने की प्रथा रही है, चाहे देश हो, समाज हो, लोग हों। मुझ में भी है ! पर कभी अकेले में बैठ कर मन विवेचन करता है तो अपने कई निर्णय बेतुके और नादानी भरे लगते हैं जो तथाकथित मित्रों के बहकावे में आ कर ले लिए थे।
कॉलेज से निकलते ही एक अच्छी-खासी नौकरी के झोली में आ पड़ने से एक लापरवाही और अति-आत्मविश्वास मन में घर कर गया था। जिसका फायदा मेरे दोस्त (?) और उसके घर वालों को मिला। अपने बाबूजी के लाख समझाने के बावजूद, जिन्होेंने इजाजत देने के साथ ही कहा था कि बिना किसी अनुभव के व्यवसाय रूपी अंधे कुँए में छलांग लगाने जा रहे हो। तब छोटी उम्र थी, समझ कम थी, इतना भी समझ नहीं आया कि दांव पर तो मेरा ही सब कुछ लग रहा है। कुँए में तो मैं ही उतर रहा हूँ, भाई लोग तो दोनों हाथों में लड्डू लिए जगत से झांकते हुए मौका ताड़ते रहेंगे। व्यवसाय जम गया तो नाम और दाम का बड़ा हिस्सा उनका नहीं जमा तो अभी का जमा-जमाया काम तो है ही। और हुआ वही जो ऐसे जुओं में होता आया है, सारे प्लान चारों खाने चित्त रहे थे।
इधर बलिहारी मेरी अक्ल की, कुछ ना होने के बावजूद लौटने पर विचार भी नहीं किया, जबकि चार-पांच माह बीत जाने के बाद भी मेरा स्तीफ़ा मंज़ूर नहीं किया गया था। नौकरी भी कैसी जहां सिर्फ कपडे और बर्तन आपके बाकी सारा कुछ, टहल के लिए बंदों के साथ सब कुछ कंपनी का। पर लौटने पर लोग क्या कहेंगे जैसी बेबुनियादी बातों और अपने को सिद्ध करने अड़ ने दिशा बदलने नहीं दी।
समय एक सा तो रहता नहीं, मौका सब को देता है। कुछ समय बाद जब कुछ स्थायित्व आता नज़र आया तो फिर एक बार उठा-पटक हो गयी। इस बार माध्यम बने अभिभावक। संयुक्त परिवार मुझे सदा लुभाता रहा है चाहे किसी का भी हो मुझे उस पर ईश्वर की कृपा नज़र आती है। साथ रहने की ललक, फिर अभिभावकों की बढ़ती उम्र ने फिर एक बार अजीबोगरीब फैसला करवा डाला। स्थानांतरण हुआ, पर कुछ ही समय बाद एक-दो "हितैषियों" क बहकावा मेरे ऊपर कहर बन टूटा जिसका अंजाम बेहद नाख़ुशग़वार रहा। असलियत सामने आते तक बहुत देर हो चुकी थी। जिसका पछतावा बाबूजी को अपने अंत समय तक रहा। पर तब तक तो गंगा में ढेर सारा पानी बा ह चुका था। समय तो रुकता नहीं, जिंदगी भी बढ़ती चली जाती है पर गया समय तो किसी भी तरह वापस नहीं पाया जा सकता ना !
आज सब इसलिए दिमाग के चित्रपट पर कौंध रहा है क्योंकि अब एक बार फिर इतिहास दोहराई की बेला आन पड़ी है। माध्यम बना है बच्चों के प्रति कुछ फर्ज, उनकी मजबूरियां और अपनी उम्र का तकाजा, जिसे ना चाहते हुए भी किसी सहारे की जरुरत तलब होने लगती है। इस बार-बार की उठा-पटक को ज्योतिषी लोग शनि का प्रकोप कहते हैं। जिससे स्थायित्व नहीं आ पाता जिंदगी में। पर मुझे लगता है कि यह सब इतना बुरा भी तो नहीं रहा। दसियों जगहें देखीं, सैकड़ों लोगों से मिलना हुआ, हज़ारों तरह के अनुभवों की प्राप्ति हुई। और ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही थोड़े ही हुआ होगा मेरे जैसे हज़ारों-लाखों लोगों को ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा।
तो क्यों एवईं परेशान होना, जो होगा अच्छा होगा। अभी तो सोया जाए ..........एक बज रहा है रात का !!
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-09-2015) को "हिंदी में लिखना हुआ आसान" (चर्चा अंक-2114) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-09-2015) को "हिंदी में लिखना हुआ आसान" (चर्चा अंक-2114) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Shastri ji
Aabhaar
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति
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