रविवार, 31 मई 2015

तंबाखू निवारण, दिवस नहीं द्दृढ संकल्प की जरुरत है

यदि लाखों-करोड़ों की मुद्रा लगा कर कोई किसी चीज का कारखाना लगाएगा तो यह सोचना भी मूर्खता होगी कि वह अपना उत्पादन बेचने की कोशिश नहीं करेगा । अपना उत्पाद वह अपने घर या गोदाम में जमा कर तो रखेगा नहीं ! सबसे बड़ी बात कि तंबाखू कंपनियां इस बात पर अड़ी हुई हैं कि यह बात या परिक्षण अभी पूरी तरह "सिद्ध" ही नहीं हो पाया है कि किस प्रकार का तंबाखू का सेवन हानिकारक है .                              

आज  31 मई का दिन हर साल की तरह  "No Tobacco Day" के रूप में मनाया जाता है। सभी जानते है कि तंबाकू और धूम्रपान आपके स्वास्थय के लिए बेहद खतरनाक है। धूम्रपान के कारण ह्रदय रोग, रक्तवाहिका रोग, फेफड़ो की समस्याओं के साथ-साथ कैंसर जैसे घातक रोग की गिरफ्त में आने की आशंका बनी रहती है।डॉक्टरों और विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार हर साल 54-55 लाख लोगो की मृत्यु तंबाखू के इस्तेमाल से
होती है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि एक तरफ तो सरकार संचार के हर माध्यम द्वारा धूम्रपान की बुराइयों को उजागर करने में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाती है और दूसरी तरफ तंबाखू उत्पादकों को प्रोत्साहित किया जाता है खाद वगैरह पर सब्सिडी दे कर इसकी उपज बढ़ाने के लिए, इसके साथ ही सिगरेट कंपनियों से अनाप-शनाप मुद्रा कर के रूप में उगाह कर अपनी जरूरतें पूरी करने से नहीं चूकती। इसी कारन आज चीन और ब्राजील के बाद हम तीसरे न. पर हैं इसके उत्पादन को ले कर। जबकि वैज्ञानिक बताते हैं कि सिर्फ तंबाखू का उपयोग बंद कर देने से कैंसर में करीब 40% की कमी आ सकती है। 

यह हास्यास्पद नहीं लगता कि एक तरफ तो आप सिगरेट पीने वालों पर पाबंदियां लगाएं उन्हें कानून का डर दिखाएँ और दूसरी तरफ इस जहर के उद्गम को बंद करने के बजाए उसे संरक्षण प्रदान करें। यदि लाखों-करोड़ों की मुद्रा लगा कर कोई कारखाना लगाएगा तो यह सोचना भी मूर्खता होगी कि वह अपना उत्पादन बेचने की कोशिश नहीं करेगा। इसको लेकर सबके अपने-अपने तर्क हैं। सरकार के फिजूल के खर्चों की यहां से भरपाई होती है। उपयोग करने वालों के इसे ना छोड़ा पाने के अपने बहाने हैं। इसके पक्षकार इंसान की आजादी की दुहाई देते हैं। उनके अनुसार यह आदमी की अपनी विवेकशीलता पर निर्भर करता है कि वह अपनी अच्छाई और बुराई का खुद विवेचन कर अपने अच्छे-बुरे का ख्याल करे। 

रही तंबाखू और सिगरेट बनाने वाले उद्योगपतियों की तो उनका तर्क और भी विचित्र है उनके अनुसार उन्हें इसे जारी रखने के कई कारन हैं जैसे लोग इसका सेवन पसंद करते हैं और किसी को किसी का पसंदीदा कार्य करने से नहीं रोक जाना चाहिए। दूसरे यह एक फैशन की चीज है जो आज के समाज में जरूरी है। तीसरे बहुत से लोगों की धारणा है कि इसके सेवन से वे कई तरह की समस्याओं से बचे रहते हैं। चौथी बात जो लोगों के "इमोशन" से जुडी है कि कारखाने बंद हो गए तो लाखों परिवार खाने के मोहताज हो जाएंगे।  और सबसे बड़ी बात कि तंबाखू कंपनियां इस बात पर अड़ी हुई हैं कि यह बात या परिक्षण अभी पूरी तरह सिद्ध ही नहीं हो पाया है कि किस प्रकार का तंबाखू का सेवन हानिकारक है, जब तक पूर्णरूपेण इसका हानिकारक होना "सिद्ध" नहीं हो जाता तब तक कारखानों को बंद करना सवैधानिक नहीं होगा। 

यही वह पेंच है जिसके कारण तंबाखू के खतरनाक होने की तमाम जानकारियों के बावजूद यह उद्योग अपने उद्योगपतियों के साथ फलता-फूलता जा रहा है। इसलिए सिर्फ तंबाखू विरोधी दिवस मनाने से इससे मुक्ति नहीं मिल पाएगी बल्कि हानि-लाभ को तज कर अति दृढ संकल्प की जरुरत होगी इससे निजात पाने के लिए। 

शनिवार, 30 मई 2015

रेल सदा फेल ही क्यों ?

रेल गाड़ियों में सुरक्षा का मामला तो खैर दो  हाथों में है, पहला भगवान  और दूसरा खुद अपने !   पर खान-पान की हालत तो ना ही देखी-पूछी जाए तो बेहतर है।  यदि इनका रख-रखाव इतना ही दूभर होता जा रहा है तो क्यों नहीं प्रयोग के  तौर पर इसे कुछ समय के किए ही  सही  निजी हाथों में सौंप दिया जाए ?    पर ऐसा  होना बहुत मुश्किल है,  क्योंकि ऐसा हो गया तो  यह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी सदा के लिए  हाथों से निकल जाएगी।   
                           
इससे कहीं बेहतर लोकल गाड़ी के डब्बे हैं 

देश की सबसे प्रतिष्ठित रेल गाड़ियों में राजधानी एक्स. की गिनती होती है,  पर  अलग - अलग राज्यों   से  चलने वाली राजधानियों के साथ शायद व्यवहार    भी उनके स्थानों के हिसाब से किया जाता है।  इसका उदाहरण है,    छत्तीसगढ   से नई दिल्ली तक चलने   वाली राजधानी एक्स. का।    हर नज़र से,  हर हालत से, हर तरीके से यह अपनी हमनाम बहनों से उन्नीस ही नहीं पंद्रह-सोलह ही बैठती है।   एक विडंबना तो यही है कि राजधानी हो कर भी इसे राजधानी से नहीं चलाया जाता।      यह बिलासपुर से आरंभ होती है।    फिर मंत्रियों-         संतरियों-रसूखदारों  की वजह से दो-अढ़ाई सौ की. मी. की दूरी में ही   इसके  पांच-पांच  विराम स्थल हैं। 
अपनी हालत खुद बयां हो रही 
फिर जोड़-तोड़-जुगाड़  से        इसके लिए बोगियों का इंतजाम किया जाता है। उनकी हालत भी अपनी हालत पर आंसू बहाती लगती है। यह तो गाडी का हाल है तो उसमें मिलने वाली सुविधाओं का  हश्र क्या  होना है, इसका  अंदाज ही  लगाया जा सकता।     अब जो खुद ही भगवान भरोसे हो वह बेचारा अपने यात्रियों का क्या ख्याल रख पाएगा। उसमें मिलने वाले "बेडरोल"  को देख लें या फिर "कैटरिंग" को। लगता नहीं कि उनका इंतजाम       एक "प्रेस्टीजियस"  गाडी  के  यात्रियों  को ध्यान  में रख कर किया जाता है। ऐसा महसूस होता है कि यात्रियों के  खान-पान का जिम्मा संभालने वाली संस्था को नाहीं किसी का डर है नाहीं चिंता।  लाख शिकायतों के बावजूद खाने के स्तर का कोई स्तर नहीं है। अतिश्योक्ति नहीं है पर ऐसा  खाना शायद घर के पालतू भी न खाएं।                                                                                                                                                                
इस आधी सिकी चीज को परौंठा कहते हैं 
पर वे लोग भी  जानते हैं कि   किसने रोज-रोज आना हैं और आम आदमी की फितरत है  कि कोई  झूठ-झमेले में नहीं पड़ना चाहता  और   इसी  का   लाभ  उठा  वे  अपनी रोटियां सेके  जाते है।  यह भी हो सकता है कि इस   इस काम का ठेका किसी भतीजे-भांजे ने ले रखा हो तो बस किसका किसने क्या बिगाड़ लेना है ! इसीलिए यह तमाशा सबके आगे                                               
यह झाग जैसी चीज 'आइसक्रीम' कहलाती है 
सीना ठोक कर चले जा रहा है। इसकी सफलता का एक छोटा सा कारण यह भी है कि यात्रियों को ख़ास कर गृहणियों को यात्रा के दौरान खाने-पीने की सामग्री बनाने ले जाने के झंझट से छुटकारा मिल जाता है सो एक दिन की बात ध्यान में रख जो मिलता है उसे नाक-भौं सिकोड़ने के बावजूद ग्रहण कर अपनी यात्रा पूरी कर सब कुछ भुला देते हैं। इतना सब होने के बावजूद गंतव्य पहुँचाने के पहले "वेटर" आप को दी गयी "सेवा" के बदले टिप भी चाहने लगे हैं क्या रेलवे का फर्ज नहीं बनता कि ऐसे किसी भी तरह के गलत चलन को रोके ?  क्या कोई जिम्मेदार या सही मायनों में देश की इस सबसे अहम सेवा की चिंता करने वाला कोई इंसान इसकी ओर भी ध्यान देगा ?

लाख वायदों-घोषणाओं के बावजूद रेल गाड़ियों  में यात्रियों की हालत जस की तस बनी हुई है। सुरक्षा का मामला तो खैर दो ही हाथों में है, पहला भगवान  और दूसरा खुद यात्री के ! खान-पान की हालत तो ना ही देखी-पूछी जाए तो बेहतर है। अपनी समस्याओं का हल सिर्फ किराया बढ़ा कर निकालने के अलावा इस मंत्रालय की आँखें बंद ही रहती हैं। यदि इसका रख-रखाव दूभर होता जा रहा है तो क्यों नहीं प्रयोग के तौर पर इसे कुछ समय के लिए ही सही निजी हाथों में सौंप दिया जाता ? पर ऐसा होना बहुत मुश्किल है क्योंकि इसका संचालन करने वालों को अच्छी तरह मालूम है कि ऐसा हो गया तो यह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी सदा के लिए उनके हाथों से निकल जाएगी।

बुधवार, 20 मई 2015

टेढ़ी नज़र पर सीधा चश्मा

पिछले कई दिनों से एक चश्मे ने गुल-गपाड़ा मचा रखा है।  बात, बात न रह कर बतंगड़ बन गयी है। अपने यहां की परिपाटी के अनुसार बात चाहे सही हो या गलत उस के पक्ष-विपक्ष में लोग खड़े हो कर जाने कहां-कहां के दबे मुर्दे उखाड़ने लगते हैं। 

सोचा था पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में घटे चश्मा प्रकरण पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की जाएगी।  बिना मतलब की बहसबाजी का क्या मतलब। पर कल कई दिनों बाद ठाकुर जी का आगमन हुआ। चाय-नाश्ते के साथ ही न चाहते हुए फिर वही बात उठ खडी हुई। वैसे ठाकुर जी आए उसी मकसद से ही थे। बोले, शर्मा जी, पिछले कई दिनों से एक चश्मे ने गुल-गपाड़ा मचा रखा है।  बात, बात न रह कर बतंगड़ बन गयी है। अपने यहां की परिपाटी के अनुसार बात चाहे सही हो या गलत उस के पक्ष-विपक्ष में लोग खड़े हो कर जाने कहां-कहां के दबे मुर्दे उखाड़ने लगते हैं। 

बात देश के एक छोटे से राज्य के एक शहर के कलेक्टर की है, जब उसका परिचय देश के प्रधान मंत्री से करवाया जाता है तो उसका कीमती चश्मा अपनी जगह नहीं छोड़ता।  देखा जाए तो इसमें कोई हर्ज नही है। पर यदि वह भला आदमी आधे मिनट के लिए चश्मा उतार ही लेता तो बड़ाई उसी की होती, होती की नहीं ?

मैं चुप ही रहा।  ठाकुर जी मुझसे किसी प्रतिक्रिया की आशा कर रहे थे पर मेरी चुप्पी देख बोले, कुछ खब्ती दिमाग वाले तो ये यह कहने से भी बाज नहीं आए हैं कि जब चीन में हमारे प्रधान मंत्री टेराकोटा म्यूजियम देखने गए थे तो उन्होंने भी चश्मा नहीं उतारा था। ऐसे लोग सिर्फ भड़ास निकालना जानते हैं, उन्हें जगह और मौके से कोई मतलब नहीं होता। आप ही बताइये दोनों बातों में कोई तुक है या सिर्फ विद्वेष ? ऐसे ही लोगों का कहना है कि धूल-धक्क्ड़ और सूर्य की खतरनाक किरणों से आँखों पर बुरा असर पड़ता है इसीलिए चश्मा नहीं उतारना अपनी जगह ठीक है। पर किसी ने किसी को पूरा दिन तो चश्मा उतारने को नहीं कहा था सिर्फ आधे-एक-मिनट की बात थी, इससे ज्यादा समय तो चश्मे के कांच को साफ करने में लग जाता है। और फिर क्या अपने यहां धूल-धक्कड़ सिर्फ दिन में ही रहता है ? तो क्या आप रात को भी चश्मा चढ़ा कर बाहर निकलते हैं? आप क्या कहते हैं ?

मैं क्या कहूँ ! पर ठाकुर जी बात ऐसी है कि यदि आँखों में कोई तकलीफ हो तो अलग बात है पर साधारण शिष्टाचार या विवेक तो यही कहता है कि अपने से बड़े, चाहे उम्र में हों या ओहदे में, आंखों पर से काला पर्दा उतार कर ही बात करनी चाहिए। एकदम निश्चित नहीं है न ही बहस की बात है, फिर भी धूप का  चश्मा पहन कर किसी से बात करने पर ऐसा समझा जाता है कि आप अपने सामने वाले को गंभीरता से नहीं ले रहे या फिर उसमें आप को रूचि नहीं है, या फिर आप थोड़े से अहम भाव से ग्रस्त हैं। वैसे भी वार्तालाप करते समय सामने वाले की आँखों में देखते हुए ही बात करनी चाहिए न कि इधर-उधर ताकते हुए और गहरे रंग का चश्मा दो बात करने वालों के बीच एक पर्दा सा तो डाल ही देता है। इसलिए कभी भी किसी से भी बात करते समय यह आदमी के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि उसे उस समय कैसा व्यवहार करना चाहिए।  

ठाकुर जी शायद मेरी बात से सहमत थे या शायद उन्हें देर हो रही थी इसलिए फिर आने का वादा कर वे रुखसत हो गए।      

मंगलवार, 12 मई 2015

अब कुत्तों के लिए भी कारें मिलनी शुरू हो चुकी हैं,

विज्ञापन में  उसकी मुलाकात एक "बॉस" टाइप, तजुर्बेदार कुत्ते से होती है, जिसकी अपनी कार है और वह उसे चलाता भी खुद है......... !

अब तक तो यही सुना था कि देश-विदेश में पालतू कुत्तों की सार-संभार, साजो-सामान, खाने-सजाने के लिए भी दुकानें खुल चुकी हैं। उनके लिए भी "ब्रांडेड" सामान बनने-बिकने लगा है। जाहिर है यह सब सुविधाएं उनके मालिकों द्वारा ही उन्हें उपलब्ध करवाई जाती हैं। पर यह पता नहीं था कि अब कुत्तों के लिए उनकी पसंद की कारें भी मिलनी शुरू हो चुकी हैं, जहां से वे अपनी पसंद की कार अपने लिए ले कर खुद चला भी सकते हैं। विश्वास नहीं होता ! तो काफी दिनों से टी. वी. पर परोसा जा रहा एक विज्ञापन देखें जिसमें एक प्यारा सा कुत्ता, जिसे अपनी खुद की कार लेने और चलाने की इच्छा है, कार पाने के लिए सडकों पर गाड़ियों के पीछे दौड़ता रहता है क्योंकि उसे यह नहीं मालुम कि कारें कैसे और कहाँ से मिलती हैं !

तभी उसकी मुलाकात एक "बॉस" टाइप तजुर्बेदार कुत्ते से होती है, जिसकी अपनी कार है और वह उसे चलाता भी खुद है, वह बतलाता है कि हर तरह की चाहे जैसी भी कार लेनी हो उसे फलानी जगह से लिया जा सकता है। फिर क्या था अपना वह मासूम सा कुत्ता भी कार ले आता है और "बॉस" को "जॉय राइड" पर ले जाते हुए बिंदास सडकों पर कार दौड़ता है।  यह अभी ज्ञात नहीं हो पाया है कि इनके लिए यातायात नियम और "ड्रायविंग लायसेंस" की प्रक्रिया क्या होगी :-)  

विज्ञापन से एक बात और भी साफ नहीं होती कि क्या उस जगह से क्या सिर्फ कुत्ते ही कार खरीद सकते हैं ?    

शनिवार, 9 मई 2015

गांव से माँ आई है

अधिकतर कथा-कहानियों में संतान द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती इत्यादि को मुद्दा बना कर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं। होते हैं ऐसे नाशुक्रे लोग, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो मजबूरी-वश अपने माँ-बाप से अलग रहने को बाधित होते हैं। आज की विषम परिस्थितियों में, रोजी-रोटी के लिए चाह कर भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते।  ऐसी ही एक कल्पना है यह !  

गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह मालुम नहीं है। माँ तो शहर आई है अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है दोनों जगह न यहां न गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च होता है। यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी, शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी। पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने। उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद।

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है, यह कैसा शहर है जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है।

माँ तो गांव से आई है उसे कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं।

 माँ तो गांव से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं पर शहर के रसविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।        

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दि वापस चली जाए  उतना ही अच्छा।

सोमवार, 4 मई 2015

माँ की सीख जो आज भी सामयिक है

बचपन घी लगे, सिके और फूले हुए फुल्के (रोटी) की ऊपरी पतली परत बहुत स्वादिष्ट लगती थी तो कई बार थाली में रोटी आते ही उसे उतार कर खा लिया करता था। एक बार माँ ने देखा तो टोकते हुए बोलीं कि किसी के पर्दे नहीं उघाड़ने चाहिए। उस समय तो पूरी बात समझ में नहीं आई थी पर समय के साथ यह ज्ञान हुआ कि रोटी का उदाहरण दे माँ ने कितनी बड़ी बात समझा दी थी। 

बड़ों द्वारा दी गयी गयी कुछ नसीहतें या सीखें ऐसी होती हैं जो मन में गहरे पैठ सदा मष्तिष्क से संपर्क बनाए रखती हैं इससे भविष्य में कभी भटकन के दौरान सही-गलत का अंदाजा होता रहता है। मेरी माताजी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, पर व्यवहारिक ज्ञान, विवेकशीलता और दुनियादारी के चश्मे से देखा जाए तो वे विदुषी हैं। बातों-बातों में बड़ी सहजता से उन्होंने मानवता का दयालुता पाठ हमें पढ़ाया है। यही कारण है कि मनुष्य तो मनुष्य किसी जीव-जंतु, कीड़े-मकौड़े तक को अकारण कष्ट देना उचित नहीं लगता।   

आज कहीं ये लिखा पढ़ कर, कि दुनिया में सब खाली हाथ आते है और खाली हाथ ही जाते हैं, वर्षों पहले की उनकी एक बात याद आ गयी कि अपने-आप में शाब्दिक रूप में यह कहावत ठीक है और इससे यह सीख मिलती है कि जीवन की नश्वरता सबको याद रहे और इंसान लालच से बचे। यहां खाली हाथ जाने का मतलब यह है कि जाते समय कोई संपत्ति  यानी भौतिक संपदा नहीं ले जा पाता। पर कुछ लोग खाली हाथ नहीं जाते। क्योंकि  मनुष्य गुमनाम तो आता है, पर यह उसके परिश्रम और कर्मों पर निर्भर करता है कि जाते समय वह गुमनामी में न जाए। जाना तो सभी ने है। जिसने भी जन्म लिया है वो जाएगा जरूर। पर अच्छे कर्म करने वाले, दीन-दुखियों के सहायक, देश व समाज के प्रति समर्पित, इंसानियत के पैरोकार अपने पीछे अपनी कीर्ति-पताका को फहराता छोड़ जाते हैं और यही उनका खाली हाथ न जाना है। 

बचपन घी लगे, सिके और फूले हुए फुल्के (रोटी) की ऊपरी पतली परत बहुत स्वादिष्ट लगती थी तो कई बार थाली में रोटी आते ही उसे उतार कर खा लिया करता था। एक बार माँ ने देखा तो टोकते हुए बोलीं कि किसी के पर्दे नहीं उघाड़ने चाहिए। उस समय तो पूरी बात समझ में नहीं आई थी पर समय के साथ यह ज्ञान हुआ कि रोटी का उदाहरण दे माँ ने कितनी बड़ी बात समझा दी थी कि किसी भी हालात से मजबूर, समय के मारे, किसी मजलूम की हालत को सार्वजनिक नही करना चाहिए। सबको अपनी इज्जत प्यारी होती है पता नही किस की क्या मजबूरी हो ! तबसे हर बार खाने पर यह सीख याद आ जाती है।  

इसी तरह उनकी एक बात और नहीं भूलती। पुस्तक में एक पाठ हुआ करता था कि जोर के तूफान के आगे घास व नर्म पौधे तो बच जाते हैं पर बड़े-बड़े वृक्ष टूट कर ढह जाते हैं। माँ की व्याख्या कुछ अलग थी उन्होंने कहा, बेटा मौके की नजाकत को देख अपनी जान बचाने के लिए यदि सभी मौकापरस्त हो जाते तो देश को महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह, गांधी जी जैसे नर-नाहर कैसे प्राप्त होते। यदि हम जुल्म के सामने झुके रहते या उसका विरोध न करते तो क्या आज देश आजाद होता ?   

समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया है। अब उस बदलाव का क्या बार-बार उल्लेख करना !                         

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