उस समय कलकत्ते में लगभग सौ सिनेमा हॉल थे। इलाके के हिसाब से उनमें फिल्मेँ लगा करती थीं। बहुत कम ऐसा होता था कि ये हॉल चली आ रही परंपरा को छोड़ किसी दूसरी भाषा की फिल्म लगा लेँ। जैसे श्याम बाजार के इलाके में एक-दो (दर्पणा, मित्रा और टाकी शो हाउस) को छोड़ कर सब में बांग्ला भाषा की फिल्में ही लगा करती थीं। धर्मतल्ला में भी हिंदी और अंग्रेजी फिल्मोँ के बंधे-बधाए हॉल हुआ करते थे।
बंगाल का दिल कोलकाता और कोलकाता की जान धर्मतल्ला, जिसे चौरंगी और एस्प्लेनेड के नाम से भी जाना जाता है। इस जगह से मेरी अनगिनत यादें जुडी हुई हैं. जिनमे ज्यादातर सिनेमा से संबंधित हैं। स्कूल से कालेज और फिर नौकरी, इस सफर में और इसके बाद भी कभी किसी व्यसन की लत नहीं पङी पर सिनेमा जरूर एक शौक रहा। इसीलिए मौका मिलते ही सिनेमा का चौका लग जाता था। इस चौके में किसी तरह का भेद-भाव नहीं था, फिल्म हिंदी की हो अँग्रेज़ी की या बंगला भाषा की सब अपने को प्रिय थीं। उन दिनों फिल्म जगत के दिग्गज निर्माता-निर्देशक सक्रीय भी थे। वैसे यह शौक मुझे विरासत में मिला था। :-)
बंगाल का दिल कोलकाता और कोलकाता की जान धर्मतल्ला, जिसे चौरंगी और एस्प्लेनेड के नाम से भी जाना जाता है। इस जगह से मेरी अनगिनत यादें जुडी हुई हैं. जिनमे ज्यादातर सिनेमा से संबंधित हैं। स्कूल से कालेज और फिर नौकरी, इस सफर में और इसके बाद भी कभी किसी व्यसन की लत नहीं पङी पर सिनेमा जरूर एक शौक रहा। इसीलिए मौका मिलते ही सिनेमा का चौका लग जाता था। इस चौके में किसी तरह का भेद-भाव नहीं था, फिल्म हिंदी की हो अँग्रेज़ी की या बंगला भाषा की सब अपने को प्रिय थीं। उन दिनों फिल्म जगत के दिग्गज निर्माता-निर्देशक सक्रीय भी थे। वैसे यह शौक मुझे विरासत में मिला था। :-)
पहली-पहली नौकरी का स्वाद उस समय के कलकत्ते के पास आगरपाड़ा और सोदपुर कस्बों के बीच स्थित कमरहट्टी नाम की जगह में कमरहट्टी जूट मिल मे चखने को मिला. यहां से धर्मतल्ला पहुँचने में मुश्किल से 45 - 50 मिनट लगते थे। पांच बजे अवकाश मिलते ही जरा सा फ्रेश हो टैक्सी या बस जो भी मिले ले कर हॉल मे हाजीरी लग जाती थी. कब कहाँ जाना है ये तो पहले से ही तय रहता ही था।
उस समय सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर ही हुआ करते थे. जिनमें कईयों की क्षमता हजार से ऊपर दर्शकों को समोने की थी। उस पर भी छुट्टियों के दिन या किसी ख्यातनाम हीरो की फिल्म लगने पर पांच-सात रुपये की टिकट पचास-साठ रुपये मे मिलनी मुश्किल होती थी। ज्यादातर अपरान्ह 3, 6, 9 बजे से शो शुरू होते थे। हिंदी फिल्मों के पहले डॉक्यूमेंटरी या न्यूज-रील दिखाने का चलन था और इंग्लिश पिक्चर उन दिनों इंटरवल के बाद शुरु होती थीं इस काऱण अपन कभी क्लास में लेट नहीं होते थे। वैसे तो उस समय कलकत्ते में लगभग सौ सिनेमा हॉल थे। इलाके के हिसाब से उनमें फिल्मेँ लगा करती थीं। बहुत कम ऐसा होता था कि ये हॉल चली आ रही परंपरा को छोड़ किसी दूसरी भाषा की फिल्म लगा लेँ। जैसे श्याम बाजार के इलाके में एक-दो (दर्पणा, मित्रा और टाकी शो हाउस) को छोड़ कर सब में बांग्ला भाषा की फिल्में ही लगती थीं. धर्मतल्ला में भी हिंदी और अंग्रेजी फिल्मोँ के बंधे-बधाए हॉल हुआ करते थे।
धर्मतल्ला तो जैसे पिक्चर हॉल का ग़ढ़ हुआ करता था. वहाँ डेढ़-दो किलोमीटर के दायरे में सब मिला कर करीब 17-18 सिनेमा हॉल थे. जिनमें मेट्रो, लाइट-हाउस, न्यू एंपायर, एलिट, ग्लोब, टायगर, मिनर्वा, चैप्लिन इँग्लिश फिल्मों और ज्योति, हिंद, पैराडाइज, ओरिएंट, रॉक्सी, सोसायटी, जनता, लोटस, न्युसिनेमा, ओपरा आदि हिंदी फ़िल्में दर्शकों को मुहैय्या करवाते थे। इनमें कुछ ऐसे हॉल थे जो अपनी विशेषताओं के काऱण दर्शकोँ मेँ कुछ ज्यादा लोक-प्रिय थे।
मेट्रो :- चौरंगी के बीचो-बीच स्थित एक बेहतरीन सिनेमा घर. इस की कई खासियतें थीं. इसकी कुर्सियां इतनी आरामदेह थीं कि वे सोफे को भी मात देती थीं। हॉल में प्रवेश द्वार से अंदर जाने पर सीटों की कतार शुरु होने के पहले करीब 50x8 फिट की जगह खाली रहती थी, जिससे फिल्म शुरु होने के बाद आने वालों को मार्ग-दर्शक द्वारा स्थान दिखाये जाने के पहले धक्का-मुक्की का सामना नहीं करना पड़ता था। पूरे हॉल में एक इंच मोटा कालीन बिछा होता था, जो आराम का एहसास देने के साथ-साथ पद-चाप की ध्वनि भी नहीं होने देता था।इसके स्क्रीन का काला बॉर्डर जरूरत के हिसाब छोटा बडा होता रहता था, जो आंखों पर अंधेरे-उजाले के खेल के प्रभाव को कुछ हद तक कम करता था। उसे विज्ञापनों और खबरों पर 35 मी.मी. और सिनेमा स्कोप पर अलग-अलग जरूरत के अनुसार यह फिट किया जाता था.
लाइट हाउस :- अपने समय के इस सबसे बड़े सिनेमा घर की बनावट बड़ी अनोखी थी. इसका पिछला हिस्सा नीचा था तथा फ्लोर जैसे-जैसे पर्दे की ओर बढ़ता था ऊंचा होता जाता था पर पीछे बैठने वाले को कभी भी सामने की कतार में बैठे दर्शक के सिर से अड़चन नहीँ होती थी। उन दिनों भी आज जैसी ही व्यवस्था थी कि बिना शो का टिकट लिए कोई किसी हाल का टॉयलेट काम में नहीं ला सकता था। पर लाइट-हाउस में यह सुविधा थी कि बिना पिक्चर का टिकट लिए भी इसके वाश-रूम का उपयोग किया जा सकता था। इसलिए कई जरुरतमंदों के लिए यह एक वरदान स्वरूप था, खासकर महिलाओँ के लिए। यह ध्यान देने की बात है कि उन दिनों के कलकत्ते में महिलाओं की तो छोड़िए पुरुषों तक के लिए इक्की-दुक्की जगहों को छोड़ टॉयलेट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।
ग्लोब |
पैराडाइज :- बेंटिक स्ट्रीट पर इंकम-टैक्स की इमारत से लगे हुए इस हॉल में सबसे पहले "बैक-पुश" कुर्सियां लगी थीं। यह राज कपूर का पसंदीदा हॉल था। उनकी "जिस देश में गंगा बहती है" तक की सारी फिल्में इसी में रीलीज होती रही थीं। उसके बाद किसी विवाद के बाद उन्होंने इसके बदले इसी के पास बने ओरिएंट सिनेमा घर को अपनी फिल्में देना आरंभ कर दिया था.
ज्योति |
ज्योति :- शहर का या यूं कहें बंगाल का पहला छवि-गृह जिसमें पहली बार 70 मी.मी. का "डीप कर्व्ड" स्क्रीन लगाया गया था। उस समय यह हॉल अपने पर्दे और ध्वनि सिस्टम के कारण एक अजूबा था लोगों के लिए। सामने परदे के पास वाले दर्शक तो पूरा दृश्य देखने के लिए गरदन ही घुमाते रह जाते थे। इसमें फ़िल्म देखने का असली आनंद ऊपर बालकनी मे बैठ कर ही लिया जा सकता था। कलकत्ता वासी इसके बड़े पर्दे पर "शोले" देख अभिभूत हो गये थे।
रॉक्सी :- एक बड़ा, भव्य और बेहतरीन सिनेमा-घर। यही वह हॉल था जिसमें अशोक कुमार की "किस्मत" फिल्म ने लगातार तीन साल चल कर कीर्तिमान बनाया था।
चैप्लिन |
बलि भी काल के हाथों चढ़ चुकी है।
समय बदला उसकी मार से ये बेहतरीन एकल स्क्रीन मनोंरंजन गृह भी अछूते नही रह पाए. अधिकांश को बदल कर मॉल या मल्टीप्लेक्स का रूप दे दिया गया है। जो बचे भी हैं वे भी अपने वजूद के लिए संघर्ष-रत हैं। किसी ने अपनी सीटें आधी कर दी हैं, तो कोई इसके साथ-साथ कमाई के लिए कुछ और उपाय करने मे जुटा है। पर आधुनिकता की इस आंधी से उपजे अंधकार में देश के बाकि हिस्सों के सिनेमा घरोँ की तरह इनका भविष्य भी धुंधला ही दिखाई पड़ रहा है।