बुधवार, 22 जनवरी 2014

ना वैसे सिंहासन रहे ना ही वैसे आरूढ़ होने वाले

पहले राजा-महाराजा, पंचपरमेश्वर या धर्माधिकारी इन गरिमामयी आसनों को अपनी लियाकत से हासिल कर उस पर बैठ अपने पराये को भूल न्याय करते थे। पर अब इन आसनों को अपनी योग्यता या काबिलियत से हासिल नहीं किया जाता। उसे पाने के लिए साम-दाम-दंड़-भेद  हर तरह की नीति अपनाई जाती है। शायद इसी लिए उस पर बैठते ही बैठने वाले पर कोई आसुरी शक्ति हावी हो जाती है, जिससे आसनारूढ को सब अपना ही अपना दिखने लगता है।

किसी समय राजाओं के सिंहासन, न्यायाधीश की कुर्सी या पंचायतों के आसन की बहुत गरिमा होती थी। उस पर बैठने वाले का व्यवहार पानी में तेल की बूंद के समान रहा करता था। उसके लिए न्याय सर्वोपरी होता था। उस स्थान को पाने के लिए उसके योग्य बनना पड़ता था। समय बदला, उसके साथ ही हर चीज में बदलाव आया। पुराने किस्से-कहानियों में वर्णित घटनाएं कपोलकल्पित सी लगने लगीं। प्राचीन ग्रंथों को छोड़ दें तो 60-70 साल पहले की कथाओं को भी पढने से लोग आश्चर्यचकित होते हैं कि कहीं ऐसा भी हो सकता था।

राजा विक्रमादित्य का जितना बखान उनकी वीरता, न्याय प्रियता, उनके ज्ञान, चारित्रिक विशेषता, गुण ग्राहकता के लिए हुआ है वह शायद ही किसी सम्राट के लिए हुआ हो। कहते हैं उनके इन्हीं गुणों से प्रसन्न हो राजा इंद्र ने उनको एक विराट सिंहासन भेंट स्वरूप दिया था, जिस पर बैठ कर वे न्याय किया करते थे। उस आसन के उपर तक पहुंचने के लिए बत्तीस सीढियां चढनी पड़ती थीं। हर सीढी की रखवाली एक-एक पुतली करती थी जिससे कोई अयोग्य आसनारूढ ना हो जाए।
विक्रम ने राज-पाट छोड़ते वक्त उस सिंहासन को भूमि में गड़वा दिया था। कालांतर में जब राजा भोज ने शासन संभाला और उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे जमीन से निकलवा, उस पर बैठ कर राज करने का निश्चय किया। शुभ मुहुर्त में जब उन्होंने उस पर पहला कदम रखा तब उस पायदान की रक्षक पुतली ने उन्हें राजा विक्रम से जुड़ी एक कथा सुनाई और पूछा कि राजन क्या आप अपने को इस सिंहासन के योग्य पाते हैं? राजा भोज ने विचार कर कहा, नहीं। फिर उन्होंने उस लायक बनने के लिए साधना की, अपने को उस योग्य बनाया। इस तरह उन्होंने बत्तीस पुतलियों को संतुष्ट कर अपने आप को उस सिंहासन के लायक बना उस को ग्रहण किया।

यह तो पुरानी बात हो गयी। अभी भी प्रेमचंदजी की कहानियों के पंचपरमेश्वर या और भी धर्माधिकारियों के किस्से मशहूर हैं, जो इन गरिमामयी आसनों पर बैठ अपने पराये को भूल सिर्फ न्याय करते थे। पर अब इन आसनों को अपनी योग्यता या काबिलियत से हासिल नहीं किया जाता। उसे पाने के लिए साम-दाम-दंड़-भेद  हर तरह की नीति अपनाई जाती है। शायद इसी लिए उस पर बैठते ही बैठने वाले पर कोई आसुरी शक्ति हावी हो जाती है, जिससे आसनारूढ को सब अपना ही अपना दिखने लगता है। वह अच्छे को छोड़ सिर्फ बुरा ही बुरा करने पर उतारू हो जाता है। अपनी गलत बातों का विरोध करने वाला उसे अपना कट्टर दुश्मन लगने लगता है। उस आसन पर बैठ सत्ता हासिल होते ही वह अपने आप को खुदा समझने लगता है।

हो सकता है कि तब गलत इंसान के गलत तरीके से सत्ता हथिया कर किए जाने वाले गलत कार्यों को उस आसन का श्राप मिलता हो कि जा निकट भविष्य में तेरा नाश अवश्यंभावी है? क्योंकि ऐसे अनगिनत उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं।

3 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

ज्ञानवर्धक लेखन,,,, आपके ऐसे ही शब्द रूपी लेख हमें विचार करने पर विवश कर देते है। सादर धन्यवाद।।

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प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सिंहासन न्याय को प्रेरित करता है, बस मूढ़ ही उस मनस्थिति को नकार पाते हैं।

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
शुभकामनायें आदरणीय

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