खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने वाली दुकानों का स्कूल के अधिकारियों से दूर-दूर का वास्ता न हो, इसका ध्यान रखा जाए. सप्लायर और स्कूल के गठबंधन पर नजर रखी जाए. यदि कोइ समिति बने तो उसमें स्कूल के छात्रों के पालक जरूर शरीक किए जाएं। क्योंकि अपने बच्चों के हित के लिए वे कुछ भी गलत होने से रोकेंगे।
केंद्रीय तथा राज्य सरकारों ने देश में शिक्षा के गिरते ग्राफ को थामने के लिए स्कूलों में बच्चों को दोपहर का भोजन देने की योजना को 5 अगस्त 1995 से ही लागू कर दिया था. तब इसके तहत स्कूल में 80 '/. उपस्थिति दर्ज करवाने वाले बच्चों को हर महीने तीन किलो अनाज देने का प्रावधान था. पर कहते हैं न की गाँव बसा नहीं लुटेरे हाजिर. अब निर्धन, अशिक्षित गरीब बच्चों और उनके माँ-बाप के लिए कहां संभव था की वे अनाज की उचित मात्रा तौलें, उसकी गुणवत्ता देखें। उन्हें तो जो मिल गया वही नियामत था. फिर चाहे उसमें आधा किलो रेत या कंकड़ ही क्यूँ न मिले हों. फिर उस देश में जहां मृत लोग सरकारी योजनाओं के कागजों में ज़िंदा हो उठते हों वहाँ बच्चों की उपस्थिति में हेरा-फेरी कर माल इधर से उधर करना कौन सी बड़ी बात थी. बातें उठीं शिकायतें हुईं जिससे 2004 से योजना में तब्दीली कर, पहली से पांचवीं तक की कक्षाओं को पका हुआ खाना देने की शुरुआत की गयी. जिसे 2007 से बढ़ा कर आठवीं क्लास तक कर दिया गया. मकसद वही था खाने के बहाने बच्चों को स्कूल तक लाना.
हमारे यहाँ घपले तो किसी भी योजना के साथ ही शुरू हो जाते हैं या यूं कहिए कि घपलों को जामा पहनाने के लिए ही योजनाएं शुरू की जाती हैं. उसी तर्ज पर ज्यादातर सरकारी योजनाओं की तरह इसका फ़ायदा भी मानव रूपी गिद्धों ने उठाना शुरू कर दिया. पौष्टिकता तो बहुत दूर की बात थी, बाजार का घटिया, निकृष्टतम अनाज स्कूलों में खपाया जाने लगा. मुफ्त का होने तथा सदा की तरह रसूखदारों के सगे-संबन्धी-मित्रों के दबदबे की वजह से कोई जल्द शिकायत भी नहीं करता था. पर लालच की इंतहा ने जब मासूमों की जिंदगियों से खेलना शुरू कर दिया तब भी मुख्य मुद्दा छोड़, उनकी लाशों पर पक्ष-विपक्ष ने गंदी राजनीति का मंचन अपने हितों के लिए करना शुरू कर दिया. तरह-तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस योजना को बंद करने की आवाज तो उठी पर किसी ने इसे सुधारने या "फूड माफिया" से बचाने की पहल किसी ने नहीं की.
केंद्रीय तथा राज्य सरकारों ने देश में शिक्षा के गिरते ग्राफ को थामने के लिए स्कूलों में बच्चों को दोपहर का भोजन देने की योजना को 5 अगस्त 1995 से ही लागू कर दिया था. तब इसके तहत स्कूल में 80 '/. उपस्थिति दर्ज करवाने वाले बच्चों को हर महीने तीन किलो अनाज देने का प्रावधान था. पर कहते हैं न की गाँव बसा नहीं लुटेरे हाजिर. अब निर्धन, अशिक्षित गरीब बच्चों और उनके माँ-बाप के लिए कहां संभव था की वे अनाज की उचित मात्रा तौलें, उसकी गुणवत्ता देखें। उन्हें तो जो मिल गया वही नियामत था. फिर चाहे उसमें आधा किलो रेत या कंकड़ ही क्यूँ न मिले हों. फिर उस देश में जहां मृत लोग सरकारी योजनाओं के कागजों में ज़िंदा हो उठते हों वहाँ बच्चों की उपस्थिति में हेरा-फेरी कर माल इधर से उधर करना कौन सी बड़ी बात थी. बातें उठीं शिकायतें हुईं जिससे 2004 से योजना में तब्दीली कर, पहली से पांचवीं तक की कक्षाओं को पका हुआ खाना देने की शुरुआत की गयी. जिसे 2007 से बढ़ा कर आठवीं क्लास तक कर दिया गया. मकसद वही था खाने के बहाने बच्चों को स्कूल तक लाना.
हमारे यहाँ घपले तो किसी भी योजना के साथ ही शुरू हो जाते हैं या यूं कहिए कि घपलों को जामा पहनाने के लिए ही योजनाएं शुरू की जाती हैं. उसी तर्ज पर ज्यादातर सरकारी योजनाओं की तरह इसका फ़ायदा भी मानव रूपी गिद्धों ने उठाना शुरू कर दिया. पौष्टिकता तो बहुत दूर की बात थी, बाजार का घटिया, निकृष्टतम अनाज स्कूलों में खपाया जाने लगा. मुफ्त का होने तथा सदा की तरह रसूखदारों के सगे-संबन्धी-मित्रों के दबदबे की वजह से कोई जल्द शिकायत भी नहीं करता था. पर लालच की इंतहा ने जब मासूमों की जिंदगियों से खेलना शुरू कर दिया तब भी मुख्य मुद्दा छोड़, उनकी लाशों पर पक्ष-विपक्ष ने गंदी राजनीति का मंचन अपने हितों के लिए करना शुरू कर दिया. तरह-तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस योजना को बंद करने की आवाज तो उठी पर किसी ने इसे सुधारने या "फूड माफिया" से बचाने की पहल किसी ने नहीं की.
अभी घटा बिहार जैसा काण्ड पहली बार नहीं हुआ है. सितम्बर 2008 में झारखंड में दूषित भिजन के कारण 60 बच्चों को अस्पताल में भर्ती करवाना पडा था. 2009 में देश की राजधानी दिल्ली में सवा सौ के करीब बच्चियां बीमार हो गयीं थीं. अब बिहार की ताजा घटना सब के सामने है, पर इन सब से किसी ने ना तो सबक लिया नाहीं कुछ सुधार के कदम उठाए। अब तो इस योजना पर ही प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गए हैं, यहाँ तक कि इसे निरस्त करने की मांगें भी उठानी शुरू हो गयी हैं. पर जिस देश में लाखों बच्चे हर साल कुपोषण का शिकार हो दम तोड़ देते हों, वहाँ ऐसी योजना को बंद तो नहीं ही करना चाहिए. भले ही भोजन बहुत पौष्टिक न भी हो पर पेट भरने लायक तो होना ही चाहिए। भूख के कारण किसी की मौत ना हो इसका ख्याल रखना हर सक्षम नागरिक का कर्तव्य है.
अभी घटी घटनाओं का फ़ायदा उठाने के लिए डिब्बाबंद खाने की सिफारिशें भी सर उठाने लगी हैं. जाहिर है यह ऐसा खाना बनाने और बेचने वाले बड़े ठेकेदारों और कंपनियों की लाबी के दाँव-पेंच हैं. जो लाखों रुपये के इस बाजार को हथियाना चाहते हैं. जब कि चिकित्सा विज्ञान ऐसे "जंक फूड" से बच्चों को दूर रखने को कहता है.
फिर उपाय क्या है?
उपाय तो हैं, बशर्ते उन्हें दृढ प्रतिज्ञ हो कर लागू किया जाए. पहले तो सारी योजना का विकेंद्रीकरण किया जाए. खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने वाली दुकानों का स्कूल के अधिकारियों से दूर-दूर का वास्ता न हो, इसका ध्यान रखा जाए. सप्लायर और स्कूल के गठबंधन पर नजर रखी जाए. यदि कोइ समिति बने तो उसमें स्कूल के छात्रों के पालक जरूर शरीक किए जाएं। क्योंकि अपने बच्चों के हित के लिए वे कुछ भी गलत होने से रोकेंगे। किसी समर्पित एन. जी. ओ. को योजना से जोड़ा जाए तो निश्चित ही अच्छे परिणाम मिल सकते हैं.