ऐसे लोगों में लियाकत तो होती नहीं, इसलिए उन्हें सदा अपना स्थान खोने की आशंका बनी रहती है। इसी आशंका के कारण उनके दिलो - दिमाग में क्रोध और आक्रोश ऐसे पैवस्त हो जाते हैं कि उन्हें हर आदमी अपना दुश्मन और दूसरे की ज़रा सी विपरीत बात अपनी तौहीन लगने लगती है। ऐसे लोग ओछी हरकतें करने से भी बाज नहीं आते। मदांधता में इन्हें जनाक्रोश भी दिखाई नहीं देता........
जैसे ही मनुष्य को सत्ता, धन, बल मिलता है, उसका सबसे पहला असर उसके दिमाग पर ही होता है। अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना आम बात हो जाती है। उसे अपने सामने हर कोई तुच्छ कीड़ा - मकोड़ा नज़र आने लगता है। सैकड़ों साल पहले तुलसीदास जी ने कह दिया था कि समय के साथ भले ही लोगों के स्वभाव में, उनके विचारों में, उनके रहन-सहन में, कितने भी बदलाव आ जाएं पर मदांधता का स्वभाव कभी नहीं बदल पाएगा।
देश की जनता का एक बहुत बडा प्रतिशत नेताओं व उनके चमचो से असंतुष्ट है। उनकी असलियत भी जनता जानने लग गयी है। आज अंतिम सिरे पर खडा इंसान भी कुछ - कुछ जागरुक हो गया है। वह भी जानने लगा है कि अब वैसे नेता नहीं रहे, जिनके लिए देश सर्वोपरी हुआ करता था। आज तो सब कुछ ‘निज व निज परिवार हिताय’ हो गया है। कुछ लोग मेहनत या योग्यता की सहायता से नहीं बल्कि कुछ तिकड़म से, कुछ बाहुबल से और ज्यादातर धन - बल के सहारे "शक्ति" हासिल कर लेते हैं। ऐसे लोगों में लियाकत तो होती नहीं, इसलिए उन्हें सदा अपना स्थान खोने की आशंका बनी रहती है। इसी आशंका के कारण उनके दिलो-दिमाग में क्रोध और आक्रोश ऐसे पैवस्त हो जाते हैं कि उन्हें हर आदमी अपना दुश्मन और दूसरे की ज़रा सी विपरीत बात अपनी तौहीन लगने लगती है। ऐसे लोग ओछी हरकतें करने से भी बाज नहीं आते। मदांधता में इन्हें जनाक्रोश भी दिखाई नहीं देता।
अभी कुछ दिन पहले अपने पद, परिवार और राजनितिक संबंधों के गरूर में एक महिला - नेत्री ने पुलिस कर्मी पर हाथ उठा दिया था, जिसके जवाब में मिले झन्नाटेदार थप्पड़ ने उनके गरूर, अहम और हैसियत को धूल चटवा दी। पहले ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि आम जन किसी नेता पर हाथ उठा दे ! पर यह उस दबे-घुटे लावे का परिणाम था जो काफी समय से बाहर आने को उछाल मार रहा था, पर इंसानियत, नैतिकता या कहिए कुछ संकोच के कारण अंदर ही अंदर सालता रहता था ! पर अति तो अति ही होती है !! पर लगता है कि फिर भी इस जाति के लोगों को कुछ समझ नहीं आ रही ! क्योंकि कुछ दिनों बाद ही एक और ऐसे ही सिरफिरे नेता ने दूसरे राज्य में जा अपनी गलत बात न मानने पर वहाँ के एक होटल कर्मचारी पर हाथ उठाया, तो दौड़ा-दौड़ा कर मार खाने की नौबत आन पड़ी। क्या इज्जत-मान-प्रतिष्ठा रह गयी ?
प्रकृति का प्रकोप या अनहोनी अचानक ही नहीं घटित हो जाती। बहुत पहले से वह अपने अच्छे-बुरे बदलाव का आभास देने लग जाती है। ऐसे ही एक बदलाव की पदचाप दूर से आती महसूस होने लगी है। रोज-रोज भ्रष्टाचार तानाशाही, मंहगाई की मार से दूभर होती जिंदगी से देश का नागरिक त्रस्त है। अपने सामने गलत लोगों को गलत तरीके से धनाढ्य होते और उस धनबल से हर क्षेत्र में अपनी मनमानी करते और इधर खुद और अपने परिवार की जिंदगी दिन प्रति दिन दुश्वार होते देख अब एक आक्रोश उसके दिलो - दिमाग में जगह बनाता जा रहा है। यदि इसका कहीं विस्फोट हो गया तो ऐसे भ्रष्ट लोगों का क्या हश्र होगा तथा उनके संरक्षक किस बिल को ढूंढेंगे, अपना अस्तित्व बचाने के लिए, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभी भी हालात उतने नहीं बिगड़े हैं, अभी भी हाथ में समय है उन जड़-विहीन, बड़बोले, चापलूस, तिकड़मबाज तथाकथित नेताओं के पास कि बदलाव को समझें और अपना रवैया बदल, सुधर जाएं नहीं तो जनता तो सुधार ही देगी।
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-01-2018) को "हाथों में पिस्तौल" (चर्चा अंक-2841) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १०० में से ९९ बेईमान ... फ़िर भी मेरा भारत महान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शास्त्री जी,
स्नेह बना रहे
ब्लॉग बुलेटिन,
स्नेह ऐसे ही बना रहे
एक टिप्पणी भेजें