मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

एक ऐसा विवाह जिसने पंजाब का इतिहास बदल दिया

कभी-कभी जाने-अनजाने वैभव प्रदर्शन भी घातक सिद्ध हो जाता है। यही हुआ था वर्ष 1837 में, महिना था मार्च का। उस समय महाराजा रणजीत सिंह की अथक मेहनत और चातुर्य से पंजाब सुख-समृद्धी से लबरेज था. जमीन सोना उगल रही थी, धन-धान्य की प्रचुरता थी, जन-जीवन खुशहाल था। हालांकि देश में अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ रहा था पर पंजाब में रंणजीत सिंह जी के शौर्य के कारण उन की हिम्मत पस्त थी सो मजबूरन उन्हें वहाँ दोस्ती का नाटक करना पड़ रहा था।  

नौनिहाल सिंह 
पर समय को कुछ और ही मंजूर था. उन्हीं दिनों महाराजा ने अपने पुत्र खड़गसिंह के सपुत्र नौनिहाल सिंह का विवाह अपने ही एक जागीरदार शामसिंह अटारीवाला की पुत्री से करवाना निश्चित कर दिया। अपने समय का यह सर्वाधिक चर्चित विवाह था। इसमें पूरे देश से लगभग पांच लाख मेहमानों को न्यौता दिया गया था।  जिसमें अंग्रेजों के कई स प्रतिनिधी भी शामिल थे। जिनकी अगवानी के लिए दूल्हे के पिता और चाचा के साथ-साथ अनेकों परिजन बेशकीमती कपड़ों, बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों और जेवरों को अपने वस्त्रों और पगड़ियों पर धारण कर सदा तत्पर रहते थे। खुद महाराजा रणजीत सिंह बेशकीमती वस्त्र धारण कर सारी व्यवस्था पर नजर रख रहे थे। उन्होंने अपनी बांह पर विश्व प्रसिद्ध हीरा कोहेनूर धारण कर रखा था। अतिथियों की आँखें इतना वैभव देख चौंधियायी जा रही थीं। वहाँ आने वाले हर मेहमान  को पांच-पांच हजार की थैली से नवाजा जा रहा था. इनके ठहरने की जगह की व्यवस्था तो और भी अनुपम थी। साक्षात इंद्रलोक को जमीन पर उतार दिया गया था।  

जब बारात अटारी की और चली तो वह नजारा भी अद्भुत था. हाथी पर सवार नौनिहाल सिंह के वस्त्रों, गले और पगड़ी पर बेशकीमती जवाहरात टंके हुए थे। ख़ास मेहमानों को भी हाथियों पर बैठाया गया था।  उनके पीछे तरह-तरह के वाहन थे जिसके बाद पैदल चलने वालों का अपार समूह था। उस दिन तो जैसे सारा लाहौर ही सडकों पर उतर आया था। क्या घराती, क्या बराती सभी ग़रीबों को दान देने में पीछे नहीं हटना चाह रहे थे।  

उधर लड़की वालों ने भी बरात के स्वागत का शानदार आयोजन कर रखा था। रास्ते कालीनों से अटे पड़े थे। सारा आकाश तोपों और बंदूकों की आवाज से कंपायमान था। नर्तकियां अपनी कला का प्रदर्शन कर रही थीं। बरात के पहुंचते ही महाराजा की सौ स्वर्ण मुद्राओं और पांच घोड़ों की भेंट दे मिलनी की गयी। दूल्हे के पिता खड़गसिंह की इक्यावन  स्वर्ण मुद्राओं और एक घोड़े की भेंट से तथा परिवार के अन्य सदस्यों की ग्यारह स्वर्ण मुद्राओं और एक-एक घोड़े की भेंट दे मिलनी की गयी.  दूल्हे-दुल्हन के बैठने की जगह पूरी तौर से स्वर्ण-रजत निर्मित थी. रात भर जश्न चलता रहा।  दूसरे दिन होली का त्यौहार था, किसी भी मेहमान को जाने नहीं दिया गया, पूरे उल्लास से सबने मिल कर त्यौहार मनाया।  फिर सब को भारी-भरकम भेंट दे विदा किया गया।

यहीं से विरोधियों और खासकर अंग्रेजों के दिलों में ईर्ष्या की भावना पैदा हुई।  इतना वैभव, इतना ऐश्वर्य, इतनी समृद्धि देख उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं।  अंग्रेज सेनाध्यक्ष के मन में पाप और लालच घर कर गया. दोस्ती धरी की धरी रह गयी. शादी के डेढ़ साल के अंदर महाराजा रणजीत सिंह का स्वर्गवास हो गया. दुर्भाग्य यहीं ख़त्म नहीं हुआ, षडयंत्र के तहत उन्हीं के वजीर ध्यान सिंह द्वारा दो साल के अंदर ही उनके बड़े बेटे खड़गसिंह और उसके कुछ दिनों बाद ही नौनिहाल सिंह की भी ह्त्या कर दी गयी। यहीं से जो भाग्य ने जो पल्टी खाई तो पंजाब, रणजीत सिंह जी के छोटे बेटे दिलीप सिंह के सत्ता में आते-आते पूरी तरह से ब्रितानिया सरकार की झोली में जा गिरा।                

6 टिप्‍पणियां:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

रविकर जी, हार्दिक धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…



बुलेटिन का आभारी हूँ

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

अब भी तो विवाहों को जीवन का एक संस्कार न मान कर दिखावे का माध्यम बना लिया गया है ,इस दिखावे ने कितना अहित किया है ,समाज का परिवारों का और व्यक्तियों का!

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

महत्वपूर्ण जानकारी


दिखावा आज भी है

Asha Joglekar ने कहा…

दिखावा ही तो ले डूबता है हमें। धन्यवाद िस ऐतिहासिक जानकारी के लिये।

Shilpakar Nandeshwar ने कहा…

Yahi to hota hai na hamesha
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