वही रोज की रुटीन, ना काम ना काज, ना थकान ना सुस्ती, ना हारी ना बीमारी, ना चिंता ना क्लेश, न लड़ाई न झगड़ा। कुछ भी तो नही था "टेस्ट" बदलने को. वैसे यह सब किस चिड़िया का नाम है, वहाँ के लोग जानते भी नहीं थे। समय पर इच्छा करते ही हर चीज उपलब्ध। बस सुबह-शाम भजन-कीर्तन, स्तुति गायन, मौज-मस्ती। एकरसता से जीवन जैसे ठहर गया था।
बात काफी पुरानी है। प्रभू ने नया-नया शौक पाला था, सृजन का। वे दिन-रात अपनी सृष्टि में मग्न रहा करते थे। नई-नई तरह की आकृतियां, वस्तुएं, कलाकृतियां बना-बना कर अपने क्रीड़ास्थल को सजा-सजा कर खुश होते रहते थे। समय के साथ और लगातार कुछ न कुछ निर्माण होते रहने से हो-हल्ला बढ़ने लगा. जगह की तंगी भी महसूस होने लगी। ऊपर से धीरे-धीरे स्वर्ग में रहनेवाली उनकी सर्वोत्तम रचनाएं वहां की एक जैसी जिंदगी और दिनचर्या से ऊबने लग गयीं। वही रोज की रुटीन, ना काम ना काज, ना थकान ना सुस्ती, ना हारी ना बीमारी, ना चिंता ना क्लेश, न लड़ाई न झगड़ा। कुछ भी तो नही था "टेस्ट" बदलने को. वैसे यह सब किस चिड़िया का नाम है, वहाँ के लोग जानते भी नहीं थे। समय पर इच्छा करते ही हर चीज उपलब्ध। बस सुबह-शाम भजन-कीर्तन, स्तुति गायन, मौज-मस्ती। एकरसता से जीवन जैसे ठहर गया था।
फिर वही हुआ जो होना था। सब जा-जा कर प्रभू को तंग करने, उनके काम में बाधा डालने लग गए। सुख का आंनद भी तभी महसूस होता है जब कोई दुख: से गुजर रहा होता है। अब स्वर्ग में निवास करने वाली आत्माएं जो परब्रह्म में लीन रह कर उन्मुक्त विचरण करती रहती थीं, उन्हें क्या पता था कि बिमारी क्या है, दुख: क्या है, क्लेश क्या है, आंसू क्यों बहते हैं, बिछोह क्या होता है, वात्सल्य क्या चीज है ममता क्या है, मंहगाई क्या है, अभाव क्या होता है। उन्हें आलू-प्याज या आटे-दाल का भाव क्या मालुम था।
भगवान भी वहां के वाशिंदों की मन:स्थिति से वाकिफ थे। वैसे भी वहां की बढती भीड़ ने उनके काम-काज में रुकावट डालनी शुरु कर दी थी। सो उन्होंने इन सब ऊबे हुओं को सबक सिखाने के लिये एक "क्रैश कोर्स" की रूपरेखा बनाई। इसके तहत सारी आत्माओं को स्वर्ग से बाहर जा कर तरह-तरह के अनुभव प्राप्त कर उसके अनुसार फिर अपना हक़ प्राप्त करना था। पर इसके लिये एक रंगमंच की आवश्यकता थी सो प्रभू ने काफी चिंतन-मनन के बाद पृथ्वी का निर्माण किया। वहां के वातावरण को रहने लायक तथा मन लगने लायक बनाने के लिये मेहनत की गयी। हर छोटी-बड़ी जरूरत का ध्यान रख उसे अंतिम रूप दे दिया गया। पर आत्माओं पर तो कोई गति नहीं व्यापति। इसलिये उन्हें संवेदनशील बनाने के लिये एक माध्यम की जरूरत महसूस हुई इस के लिये शरीर की रचना की गयी. एकरसता ना रहे इसका पूरा ध्यान रखा गया। किसी को गोरा, किसी को काला, किसी को पीत, किसी को गेहुंवां वर्ण दिया गया. रहने के लिए भी अलग-अलग वातावरणों की व्यवस्था की गयी। किसी भी तरह की किसी को भी कोई कमी न हो इसका पूरा ध्यान रख प्रभू ने सब को धरा पर भिजवा दिया। जहां स्वर्ग के एक क्षणांश की अवधि में रह कर हरेक को तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करने थे।
अब हर आत्मा का अपना नाम था, अस्तित्व था, पहचान थी। उसके सामने ढेरों जिम्मेदारियां थीं। समय कम था काम ज्यादा था। पर यहां पहुंच कर भी बहुतों ने अपनी औकात नहीं भूली। वे पहले की तरह ही प्रभू को याद करती रहीं। कुछ इस नयी जगह पर बने पारिवारिक संबंधों में उलझ कर रह गयीं। पर कुछ ऐसी भी निकलीं जो यहां आ अपने आप को ही भगवान समझने लग गयीं। अब इन सब के कर्मों के अनुसार भगवान ने फल देने थे। तो अपनी औकात ना भुला कर भग्वद भजन करने वालों को तो जन्म चक्र से छुटकारा मिल फिर से स्वर्ग की सीट मिल गयी। गृहस्थी के माया-जाल में फसी आत्माओं को चोला बदल-बदल कर बार-बार इस धरा धाम पर आने का हुक्म हो गया। और उन स्वयंभू भगवानों ने, जिन्होंने पृथ्वी पर तरह-तरह के आतंकों का निर्माण किया था, दूसरों का जीना मुहाल कर दिया था, उनके लिये एक अलग विभाग बनाया गया जिसे नरक का नाम दिया गया। पर कुछ पहुंचे हुए भी थे जो नरक के लायक भी नहीं थे, ऐसे महानुभावों के लिए के लिए पृथ्वी पर ही "व्यवस्था" कर दी गयी।
अब स्वर्ग में भीड़-भाड़ काफी कम हो गयी है। वहां के वाशिंदों को भी आपस में अपने-अपने अनुभव बता-बता कर अपना टाइम पास करने का जरिया मिल गया है।
10 टिप्पणियां:
क्या बात है भाई जी-
गजब प्रस्तुति-
आभार आपका-
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन संसद पर हमला, हम और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
धन्य है प्रभुजी !
रविकर जी, हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
ब्लॉग बुलेटिन का आभार
वाणी जी सदा स्वागत है
मन और मन की इच्छायें, बस इतना ही पर्याप्त है खेल रचने को।
गजब
प्रवीण जी, काफी समय बाद आना हुआ, स्वागत है।
मदन जी.
स्नेह बना रहे।
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