विरोध करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है फिर भले ही वह किसी अच्छे काम के लिए ही क्यों ना किया जा रहा हो। हमारी परंपरा रही है कि हम विरोध जरूर करते हैं, पर देखभाल कर, हर तरफ से निश्चिंत हो कर, सामने वाले को तौल-ताल कर। यदि राई-रत्ती भर की भी अपने अनिष्ट की आशंका होती है तो दीदे दिखा कर तुरंत पीछे जा खड़े होते हैं।
हमने राम को नहीं छोड़ा बाली वध पर प्रश्न खड़े कर-कर के अपने को विद्वान साबित करते रहे। कृष्ण की लीलाओं को सवालों से बिंधते रहे। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्होंने मंगल पाण्ड़ेय की क्रांति को धर्म से जोड़ उसकी अहमियत कम करनी चाही। मूढमतियों ने झांसी की रानी पर दोषारोपण किया कि जब तक झांसी पर आंच नहीं आई उनका विद्रोह उजागर नहीं हुआ। महात्मा गांधी को तो खलनायक ही बना दिया गया। बहूतेरे ऐसे ही उदाहरण मिल जाएंगे। पर किसी ने सत्ताधीश पर सीधे आकर आंख मिला आरोप लगाने की हिम्मत की? फिर चाहे चीनी तिगुने दामों वाली हो गयी हो, खाद्यानों की कीमत आकाश छू रही हो, पेट्रोल बजट में आग लगा रहा हो, शराब की कीमत से पानी का मूल्य ज्यादा हो गया हो और फिर भी साफ ना मिल पाता हो, 1-2 रुपये का नमक 20 का कर दिया गया हो, ईलाज करवाने से लोग ड़रने लगे हों, बच्चों को पढाना मुश्किल हो गया हो यहां तक कि अपने ही पैसे लेने के लिए पैसे देने पड़ते हों, विधवाओं, निराश्रितों, पेंशन याफ्ता लोगों को भी "गिद्ध' नोचने से बाज नही आते हों।
हां, नुक्ताचीनियां जरूर करते रहे, अपना दुखड़ा आपस में रोते रहे, बदहाली में जीते रहे पर ऐसा करने वाला या ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने वाला जब बगुला बन कभी "नीले चांद" के दिन सामने आ भी जाता हो तो सड़कों की ऐसी की तैसी कर दसियों द्वार बना, मनों फूल मालाएं लाद, चेहरे पर कृतज्ञता का भाव ला गला फाड़-फाड़ कर उसका स्तुतिगान करते नहीं थके।
इतिहास गवाह है कि जब-जब क्रांतियां हुई हैं उनका विरोध भी हुआ है। फिर उनके पीछे चाहे कार्ल्स रहे हों चाहे लेनिन चाहे सू, चाहे भगत सिंह और चाहे गांधी। उसी तरह आज भी जब एक चौहत्तर साल का इंसान भूखा-प्यासा रह, हर तरह से अघाए, दूध, चीनी, चावल-गेहूं को तो छोड़ दें, लोहा-लक्कड़, सिमेंट, गिट्टी, सड़क, पुल, जमीन, मशीन यहां तक कि देश के गौरव को भी हजम करने वालों के सामने सीना तान खड़ा हुआ है, वह भी अपने लिए नहीं, तो उसी की मंशा पर शक करने, उसकी कार्य पद्दति पर उंगली उठाने वालों की लाईन लग गयी है। गोया कि उसके साथ खड़े सारे देशवासी बेवकूफ हैं और ये जनाब विशेषज्ञ, वह भी छोटे-मोटे नहीं दसियों सालों से शोध करने वाले। ठीक है माना जा सकता है कि 90 प्रतिशत को बिल का मतलब पता नहीं होगा पर वह उसका अर्थ जान कर अपना ज्ञान बढाने नहीं खड़े हुए हैं वह सब आए हैं, तानाशाही, भुखमरी, लूट-खसोट, शांत जीवन की चाह में एकजुट हुए हैं।
राजस्थान में एक कहावत है कुछ ऐसी कि "रोतो जावेगो तो मरे की खबर लावेगो", तो मेरा यही मानना है कि पहले से ही अंजाम को शंका की दृष्टि से क्यों देखना। बनने दीजिए इस आंधी को तूफान जिससे सड़े-गले, सुखे-जर्जर, कंटीले पेड़ जमींदोज हो ही जाएं। वैसे असर शुरू हो गया है, कहते हैं चोरों में हिम्मत नहीं होती तो खबरें आ रही हैं कि हमारे देश के सेवकों की सुरक्षा बढाई जा रही है। जनता के प्रतिनिधियों को जनता से ही डर लगने लगा है इसीलिए उनके घरों को और महफूज किया जा रहा है। जनता के पैसों को हड़पने वालों की सुरक्षा जनता के पैसों से ही की जा रही है।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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17 टिप्पणियां:
सोच तो सकारात्मक रखनी ही होगी......
bahut aacha
aap ne mera magar darsan karene ka sukariya
danyavad ji.......
जो एक बड़े जनबल को अपने समर्थन में खड़ाकर उजले स्वप्न दिखाता है ... यदि वह जनबल की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता तो उसको नाथूराम गोडसे जैसे प्रेमी मिल जाया करते हैं.
परन्तु हम इतना जानते हैं कि अन्ना की छवि कतई दागदार नहीं.... न कोई शराब... न कोई धन-लिप्सा... न कोई मीरा बेन ... न सत्ता-पक्ष की लल्लो-चप्पो वाली भाषा... .
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 22-08-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
प्रतुलजी, यह तो मानना ही पड़ेगा कि हर एक को तो भगवान भी खुश नहीं कर पाते तो इंसान की औकात ही क्या है। फिर अन्ना कोई जबरदस्ती तो किसी को अपने पक्ष में खड़ा करवा नहीं रहे। उन्हें लगा कि जो गलत है उसका खुल कर विरोध होना चाहिए और जब लोगों को वहां अपनी बात होती नजर आई तो समर्थन बढता चला गया। रही गोड़से की बात तो वह तो किधर से भी उठ खड़ा हो सकता है।
आज कुशल कूटनीतिज्ञ योगेश्वर श्री किसन जी का जन्मदिवस जन्माष्टमी है, किसन जी ने धर्म का साथ देकर कौरवों के कुशासन का अंत किया था। इतिहास गवाह है कि जब-जब कुशासन के प्रजा त्राहि त्राहि करती है तब कोई एक नेतृत्व उभरता है और अत्याचार से मुक्ति दिलाता है। आज इतिहास अपने को फ़िर दोहरा रहा है। एक और किसन (बाबु राव हजारे) भ्रष्ट्राचार के खात्मे के लिए कौरवों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है। आम आदमी लोकपाल को नहीं जानता पर, भ्रष्ट्राचार शब्द से अच्छी तरह परिचित है, उसे भ्रष्ट्राचार से मुक्ति चाहिए।
आपको जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं एवं हार्दिक बधाई।
जन्माष्टमी की शुभकामनायें स्वीकार करें !
बहुत सार्थक लेख....
महात्मा गांधी के ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए (गांधी बेनकाब) कुछ को नुँक्ताचीनी में मजा आता है... परन्तु ऐसी चीनियों की मिठास चार दिन में ही ख़त्म हो जाती है...
"किंचित मित्रं, मूढ़ चरित्रम
विघ्न्संतोषम परमसुखम" :)))
जन्माष्टमी की सादर बधाईयाँ...
बहुत ही बढ़िया लेख बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर
sach hai sakaraatmak soch rakhanaa chahiye.jarur kuch anter aayegaa/
भ्रष्टाचार अब ख़त्म होना ही चाहिए /क्योंकि ये जनहित के लिए बिल पास हो रहा है /अन्नाजी के माध्यम और उनके नेतृत्व में जनता जागी है /अब ये आन्दोलन सफल होना ही चाहिए / शानदार अभिब्यक्ति के लिए बधाई आपको /जन्माष्टमी की आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं /
आप ब्लोगर्स मीट वीकली (५) के मंच पर आयें /और अपने विचारों से हमें अवगत कराएं /आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें यही कामना है /प्रत्येक सोमवार को होने वाले
" http://hbfint.blogspot.com/2011/08/5-happy-janmashtami-happy-ramazan.html"ब्लोगर्स मीट वीकली मैं आप सादर आमंत्रित हैं /आभार /
गगन जी सार्थक , बेबाक लेख निम्न कथन बिलकुल सटीक आप का ..होश में आ नहीं रहे अब तीसरा पक्ष उभर दिया गया चिंता का विषय है अन्ना के लिए भी ..
...जन्माष्टमी की हार्दिक शुभ कामनाएं आप सपरिवार और सब मित्रों को भी
भ्रमर ५
ठीक है माना जा सकता है कि 90 प्रतिशत को बिल का मतलब पता नहीं होगा पर वह उसका अर्थ जान कर अपना ज्ञान बढाने नहीं खड़े हुए हैं वह सब आए हैं, तानाशाही, भुखमरी, लूट-खसोट, शांत जीवन की चाह में एकजुट हुए हैं।
ये जनता है सब कुछ जानती है , किन्तु अवसर गवा देती है ! खेद है !
महत्ता घटाने के बहाने नित ढूढ़े जाते हैं।
बहुत सटीक अवलोकन। उंगलियाँ उठाना सब से आसान काम है , शायद इसीलिए कुछ लोग इसमें शीघ्र ही लिप्त हो जाते हैं। जिनका कद ऊंचा होता है , उनसे अनायास ही लोग बैर पाल लेते हैं। बेहतर होता यदि यही विरोधी कुछ सकारात्मक योगदान देते तो।
@ZEAL
देते हैं ना, कल सारे आम-वाम-साम दल अन्ना के विरोध में खड़े हो गये थे। क्योंकि सर पर तलवार लटकती दिखने लगी थी। अस्तित्व पर ही अंधेरा छाने का ड़र जो सताने लगा था। वैसे जब पैसा या वेतन बढने की बात होती है तब भी एक सेकेंड़ नहीं लगता आपस में साथ देने में।
आपका आलेख शानदार है और जानदार भी ।
बहुत सुन्दर समीक्षा.
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