मंगलवार, 31 जुलाई 2018

अमिताभ, जिन्होंने सबसे ज्यादा रोग-ग्रस्त पात्रों को अभिनीत किया !

अपने शुरूआती दौर में ही अमिताभ ने  फिल्म ''रेशमा और शेरा" में गूंगे-बहरे का किरदार निभाया। उसके बाद उनकी अनेक ऐसी फिल्में आईं  जिसका मुख्य किरदार किसी न किसी असाध्य बीमारी से पीडि़त था। जैसे फिल्म मजबूर में ब्रेन-ट्यूमर, ब्लैक में अल्जीमर्स, पा में प्रोजेरिया,  दिवार में ब्रोंकाइटिस से ! फिल्म वक्त में कैंसर से ! पीकू में कॉन्स्टिपेशन से ! फिल्म पिंक में बाइपोलर डिसऑर्डर से ! वजीर में विकलांग ! शमिताभ में ईर्ष्या, द्वेष, मूक ! आँखें में तेज मिजाज, गुस्सैल, टी. वी. धारावाहिक युद्ध में भी वे हंगरीस्टन रोग से पीड़ित दिखे ! लगता है अमिताभ और हारी-बिमारियों का आपस में कुछ ज्यादा ही लगाव है तभी तो इतनी सारी फिल्मों में ऐसे किरदार निभाने के अलावा ऐसी भी कई फिल्मों में काम किया, जिसमें वे खुद बीमार नहीं थे, पर उसमें दूसरे पात्र बिमारी से जूझ रहे थे जैसे ''आनंद'', "मिली", "चीनी कम" इत्यादि.......!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
फ़िल्में देश व समाज का आईना होती हैं। जो मनोरंजन के साथ-साथ अभिव्यक्ति का भी बहुत सशक्त माध्यम हैं। इसीलिए दर्शक उनसे और उनमें काम करने वाले पात्रों से अतीव जुड़ाव महसूस करता है। ज्यादातर फिल्मों में वही सब दिखाया जाता है जो हमारे समाज में घटित होता रहता है। फिल्मकार समाज और उसमें रहने वालों की दिनचर्या, जीवनयापन, रहन-सहन और आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को अपने नजरिये से देख,  कथा में पिरो हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देता है। मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव के साथ-साथ हारी-बिमारी भी एक अभिन्न अंग है, इसीलिए व्याधियों, बीमारियों, रोगों का फिल्मों और उनके पात्रो से शुरुआती दौर से ही नाता रहा है। रोग पर आधारित बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं जो सफल भी रही हैं। ऐसी फ़िल्में बहुत संवेदनशील होती हैं इसीलिए उसी भावना में बह कर दर्शक उनके पात्रों से गहराई से जुड़ फिल्म को सफल करवा देता है।    
आनंद 

मिली 

चीनी कम 
ऐसा भी नहीं है कि जागरुक फिल्मकारों ने सिर्फ दर्शकों की भावनाओं का फायदा उठा अपनी फिल्म को सफल बनाया हो। ऐसे कई निर्माता-निर्देशक हुए हैं जिन्होंने ऐसी-ऐसी बीमारियों से आम दर्शक को जागरूक कर उसकी रोक-थाम करने के लिए प्रेरित भी किया है, जिनका नाम भी आम आदमी ने नहीं सुना होगा पर उनसे पीड़ित कई-कई लोग अपने देश में जूझ रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने हमें Autism, Dyslexia, Progeria, Paraplegia, Alzheimer, Amnesia, Schizophrenia और न जाने कितनी ऐसी बीमारियों के बारे बताया, चेताया और जागरूक किया।  
रेशमा और शेरा 

पा 

ब्लैक 
फिल्मों के शुरूआती दौर से ही इस तरह की फ़िल्में बनती रही हैं, हिंदी फिल्म जगत का शायद ही कोई बड़ा अभिनेता या कलाकार होगा जिसने परदे पर किसी रोगी की भूमिका न की हो। पर इसमें भी सबसे आगे #अमिताभ_बच्चन का ही नाम आता है। उन्होंने अपने फ़िल्मी सफर में गंभीर, हास्य, गुस्सैल, नायक, खलनायक, चरित्र, अच्छा-बुरा, छोटा-बड़ा हर तरह के पात्रों को जी कर दर्शकों के दिल पर वर्षों राज किया है। आज भी किसी फिल्म में उनकी उपस्थिति दर्शकों को उस फिल्म का कुछ अलग होने का अहसास करवा देती है। इसी के साथ उन्होंने किसी भी और अभिनेता से ज्यादा उन फिल्मों के पात्रों को सजीव किया है जो किसी न किसी रोग से ग्रसित हैं। बिना झिझक उन्होंने वे फ़िल्में स्वीकारीं और उन्हें सफल भी बनवाया। यही कारण है कि अपने जीवन के सत्तर के दशक में दर्शकों के चहेते बन उन्होंने सदी के महानायक का ख़िताब हासिल किया हुआ है।  

वजीर 

पीकू 

पिंक 
अपने शुरूआती दौर में ही उनको ऐसी फिल्म ''रेशमा और शेरा" मिली जिसमें उन्हें गूंगे-बहरे का किरदार निभाना था। उसके बाद उनकी अनेक ऐसी फिल्में आईं  जिसका मुख्य किरदार किसी न किसी असाध्य बीमारी से पीडि़त था। जैसे वे फिल्म मजबूर में ब्रेन टयृमर से ग्रस्त रोगी के रूप में दिखाई दिए। फिल्म ब्लैक में अल्जीमर्स के रोगी के रूप में, पा में में ओरो बने अमिताभ प्रोजेरिया नामक बीमारी से ग्रस्त दिखे, जो उनकी बेहतरीन यादगार फिल्मो में भी सर्वोपरि है।  दिवार में ब्रोंकाइटिस से ! फिल्म वक्त में कैंसर से ! पीकू में कॉन्स्टिपेशन से ! फिल्म पिंक में बाइपोलर डिसऑर्डर से ! वजीर में विकलांग ! शमिताभ में ईर्ष्या, द्वेष, मूक ! आँखें में तेज मिजाज, गुस्सैल का किरदार निभाने के अलावा अपने टी. वी. धारावाहिक युद्ध में भी हंगरीस्टन रोग से पीड़ित दिखे।     


टी.वी. सीरियल युद्ध 

102 नॉट-आउट 
लगता है अमिताभ और हारी-बिमारियों का आपस में कुछ ज्यादा ही लगाव है तभी तो इतनी सारी फिल्मों में उन्होंने ऐसे किरदार निभाए, इसके अलावा ऐसी भी कई फिल्मों में काम किया, जिसमें वे खुद बीमार नहीं थे, पर उसमें दूसरे पात्र बिमारी से जूझ रहे थे जैसे ''आनंद'', "मिली", "चीनी कम" इत्यादि इसके अलावा वे खुद अपने जीवन में किसी न किसी कष्ट का सामना कर ही रहे हैं। पर दाद देनी पड़ेगी उनकी जिजीविषा की, उनके काम के प्रति समर्पण की, निष्ठा की, मेहनत की जो आज भी वे बिना थके-हारे अपने काम को उसी लगन से करते आ रहे हैं। क्या कोई बिना प्रशंसा किए रह सकता है उनके "102 नॉट-आउट" के जिंदादिल, ख़ुशी और जिंदगी से भरपूर बुजुर्ग के किरदार को देख !     

रविवार, 29 जुलाई 2018

निजाम का स्वर्ण दान ! विवशता या डर ?

अभी पिछले दिनों फिर एक बार 65 के युद्ध के बाद भारत सरकार को हैदराबाद के निजाम द्वारा स्वर्ण दिए जाने की बात चर्चा में रही थी। बात ठीक थी, समय पर देश को आर्थिक सहारा भी मिला था पर सारे घटनाक्रम पर एक सवाल भी अपना सर उठाता है कि अचानक भारत विरोधी, पाक परस्त, अत्यंत कजूंस माने जाने वाले निजाम में ऐसा बदलाव कैसे आ गया ? उसकी सोच कैसे बदल गयी ? कौन सी ऐसी परिस्थितियां थीं, कैसे हालात थे जो उसे देश की भलाई की याद आई ?

#हिन्दी_ब्लागिंग
इतिहास के पन्ने पल्टे जाएं तो पता चलता है कि  जिस समय भारत में ब्रिटिश शासन ख़त्म हुआ, उस समय यहाँ के 562 रजवाड़ों में से सिर्फ़ तीन को छोड़कर सभी ने भारत में विलय का फ़ैसला कर लिया था। ये तीन रजवाड़े थे कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद। कश्मीर और जूनागढ़ देश की सीमाओं पर स्थित थे, उनकी सरहदें पहाड़ों और समुद्र तट को छूती थीं पर हैदराबाद, जो एक विशाल और सम्पन्न रियासत थी, चारों ओर से भारत से घिरा हुआ था। उसका स्वतंत्र रहना या पकिस्तान में मिलना, देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता था। पहले दो का तो कुछ जद्दोजहद के बाद भारत में विलय हो गया पर हैदराबाद मुसीबतें खड़ी करता रहा। उस समय हैदराबाद की आबादी का अस्सी फ़ीसदी हिंदू लोग थे जबकि अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमान प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे ! 

अराजकता का यह हाल था कि रज़ाकार हैदराबाद की आज़ादी के समर्थन में जन सभाएं करते थे, उस इलाक़े से गुज़रने वाली ट्रेनों को रोक कर ग़ैर-मुस्लिम यात्रियों पर हमले कर उनके जान-माल को तो नुक्सान पहुंचाते ही थे इसके अलावा रियासत से सटे हुए भारतीय इलाक़ों में रहने वाले लोगों को भी परेशान किया करते थे। निज़ाम, हैदराबाद के भारत में विलय के किस क़दर ख़िलाफ थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिन्ना को संदेश भेजकर ये जानने की कोशिश की थी कि क्या वह भारत के ख़िलाफ़ लड़ाई में हैदराबाद का समर्थन करेंगे ! जिन्ना ने इसका जवाब देते हुए कहा था कि वो मुट्ठी भर आभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए पाकिस्तान के अस्तित्व को ख़तरे में नहीं डालना चाहेंगे। उधर नेहरु, इस पूरे मसले का हल बात-चीत से करना चाहते थे। पर सरदार पटेल इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि उस समय का हैदराबाद, भारत के पेट में कैंसर के समान था, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था। पटेल को इस बात का अंदाज़ा था कि हैदराबाद पूरी तरह से पाकिस्तान के कहने में था, क्योंकि पाकिस्तान उसका समझौता पुर्तगाल के साथ कराने की फ़िराक़ में था जिसके तहत हैदराबाद गोवा में बंदरगाह बनवाएगा और ज़रूरत पड़ने पर पकिस्तान उसका इस्तेमाल अपने हक में कर सकेगा। आसन्न युद्ध को देखते हुए निज़ाम ने यूरोप से हथियार खरीदने की कोशिश भी की थी पर सफल नहीं हो पाया था।क्योंकि हैदराबाद को एक आज़ाद देश के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। 

जब विलय की सारी कोशिशें नाकाम होती नज़र आईं तो सरदार पटेल ने सीधी कार्यवाही करने का निश्चय किया, जिसमें दो बार नेहरू और राजाजी द्वारा रोक भी लगाई गयी, क्योंकि उनको डर था कि सैन्य कार्यवाही से पकिस्तान रुष्ट हो दिल्ली पर हमला कर देगा। पर सारी अटकलों पर विराम लगाते हुए अंततः सरदार पटेल ने "'आप्रेशन पोलो'' के तहत सेना को हैदराबाद भेज दिया। पांच दिनों तक चली इस कार्रवाई में 1373 रज़ाकार मारे गए. हैदराबाद स्टेट के 807 जवान भी खेत रहे. भारतीय सेना ने अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान घायल हुए पर उनकी क़ुरबानी रंग लाई और हैदराबाद का विलय भारत में हो गया। 
अब हैदराबाद भारत का अंग तो बन गया, पर निजाम का मन अपने द्वारा की गयी हरकतों के कारण सदा आशंकित रहता था। दुनिया के सबसे समृद्ध लोगों में से एक होते हुए भी उसे अपने और अपने परिवार के भविष्य की चिंता बनी रहती थी। उसी समय भारत को तीन साल में दो बड़े युद्ध झेलने पड़े। आर्थिक रूप से देश बेहद कमजोर पड गया था, धन की सख्त जरुरत थी जिसके लिए राष्ट्रिय सुरक्षा कोष की स्थापना की गयी। तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने खुद देश वासियों से सहयोग करने को कहा गया। इसी के लिए वे हैदरबाद पधारे और निजाम से सहायता की गुजारिश की। निजाम ने बिना देर किए करीब पांच टन सोना सरकार को सौंप दिया। यह अब तक का सरकार को किसी के भी द्वारा दिया गया सबसे बड़ा दान है। 

पर ऐसा क्या हुआ कि निजाम में अचानक दरियादिली जाग उठी। इससे उसकी वाह-वाही हुई, प्रशंसा के पुल बांधे गए, नाम हुआ ! पर यह था क्या ? देशभक्ति तो नहीं ही थी ! क्योंकि यह होती तो उसने भारत में विलय का इतना विरोध नहीं किया होता ! कजूंस इतना कि उसकी बेगमें और औलादें सीलन भरे कमरों में नौकरों से भी बदतर अपनी जिंदगी के दिन काटने पर मजबूर थे। हैदराबाद की सस्ती चारमीनार सिगरेट के बचे टोटों से तंबाखू निकाल पाईप में पीने वाला इंसान एक झटके में इतना पैसा कैसे दे सका ? जब कि हकीकत यह थी कि उसके पास बेइंतहा दौलत थी, देश-दुनिया के कई देशों से भी ज्यादा ! कहते हैं, नवाब की तिजोरी से लेकर तहखाने तक बेशकीमती हीरे-जवाहरातों से भरे पड़े थे। कई टन सोने से लदे ट्रक निजाम के तहखाने में खड़े रहते थे। इसीलिए लगता है कि जब देश के लिए कुछ देने की बात आई तो उसने एक तीर से कई निशाने साध लिए। अपने अथाह सागर से कुछ भाग दान कर उसने अपना, अपने परिवार और अपनी सम्पत्ति का भविष्य कुछ हद तक सुरक्षित कर लिया। विलय के समय की बदनामी को भी कुछ कम करने में सफलता पाई। उस समय उसकी उम्र भी तकरीबन 75-76 साल की हो चुकी थी। बुढ़ापा हावी था। इसके अलावा पत्नियों, करीब बीस बेटे और उन्नीस बेटियों, 42 रखैलों, 200 बच्चों, 300 नौकरों वाले परिवार में संपत्ति को लेकर कलह शुरु हो चुकी थी। इन सब के चलते वह तनावग्रस्त, चिंतित और परेशान रहता था। यह भी हो सकता है कि उसे लगा हो कि देश के सबसे बड़े, घर आए वजीर को मना करने से कहीं उसकी सारी सम्पत्ति ही ना जप्त कर ली जाए। इसीलिए शायद उसने उस समय अपनी अकूत संपत्ति का कुछ भाग दान कर दिया हो।  कारण कुछ भी रहा हो, उस समय देश की जरुरत तो कुछ हद तक पूरी हो ही गई थी।   








शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

सोनम वांगचुक, थ्री इडियट्स से मैगसेसे तक

आज अखबार में पुरस्कार मिलने की बात आने पर लोगों को #सोनम_वांगचुक और उनके कार्यों को जानने की उत्सुकता होगी बहुत से लोग पहली बार उनको जानेंगें; पर उनसे प्रभावित हो 2009 में एक फिल्म "थ्री इडियट्स" भी बनी थी। जिसमें आमिर खान ने इनके जीवन से प्रभावित हो  'फुनशुक वांगड़ू' का किरदार निभाते हुए मुख्य भूमिका की थी। पर फिर भी देश के अधिकाँश लोग उनसे, उनके कार्यों से तथा शिक्षा के प्रति उनके समर्पण से अनभिज्ञ ही रहे। क्योंकि ऐसे लोग अपने काम में डूबे रहने के कारण प्रचार से कुछ दूर ही रहते हैं। पर क्या ऐसे लोगों के नाम का विचार अपने देश के अलंकरणों को दिए जाते समय नहीं किया जाना चाहिए ?           

#हिन्दी_ब्लागिंग
सैकड़ों नकारात्मक खबरों के बीच आज एक बहुत अच्छी खबर पढ़ने को मिली कि अपने देश के "भारत वटवानी" तथा "सोनम वांगचुक" को इस वर्ष के रैमन मैगसेसे पुरस्कार, से सम्मानित किया जाएगा।  
रैमन मैगसेसे  अवार्ड 
डॉक्टर वटवानी 1989 से मानसिक रूप से कमजोर, बेसहारा लोगों का इलाज, उनके रहने के प्रबंध के साथ-साथ ऐसे लोगों को अपने परिवार के पास पहुँचाने का प्रयत्न करते आ रहे हैं। वहीं सोनम वांगचुक एक लद्दाखी अभियंता, अविष्कारक और शिक्षा सुधारवादी हैं। जो गुमनाम सा रहते हुए वर्षों से लगातार अपने वैकल्पिक तरीके से बच्चों को सशक्त व वास्तविक जीवन कौशल की शिक्षा से शिक्षित करने की मुहीम चलाए हुए हैं। आज सोनम जी को समर्पित यह पोस्ट !

सोनम वांगचुक का जन्म 1 सितम्बर 1966 को लद्दाख के आल्ची कस्बे के पास एक गांव Uley-Tokpo में हुआ था। उस वक्त इस गांव में सिर्फ 5 परिवार रहा करते थे। उन्होंने अपने जीवन के शुरूआती 9 वर्ष वहीं बिताए और घर पर ही वर्णमाला का ज्ञान अपनी माताजी से सीखा क्योंकि वहाँ गांव में कोई स्कूल नहीं था। उम्र के नौंवें
सोनम वांगचुक 
साल में उन्हें श्रीनगर के स्कूल में भर्ती कराया गया। परन्तु वहाँ भाषा के कारण उन्हें ढेर सारी दिक्कतों का सामना करना पडता था। वर्ष 1988 में मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद, सोनम ने कुछ स्थानीय निवासियों और अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर एक संस्था शुरू की। इस संस्था का नाम स्टूडेंट एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख था, जिसे SECMOL भी कहा जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने की चाहत थी। जिसके तहत स्थानीय स्कूलों की शिक्षा को स्थानीय भाषा में देने का प्रबंध किया गया। क्योकि सोनम का मानना था की बच्चों को सवालों के जवाब पता तो होते हैं, लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा परेशानी भाषा की वजह से होती है। उनके इस प्रयास का उसका असर यह  हुआ, कि 10वीं की परीक्षा में पास होने वाले छात्रों की संख्या 5 फीसदी से बढ़कर 75 फीसदी हो गई, जिसका असर साक्षारता दर पर भी पड़ा आज लद्दाख में साक्षरता दर यदि 77.20 प्रतिशत है तो उसका श्रेय जाता है सोनम वांगचुक को ! इसी दौरान उन्होंने एकमात्र लद्दाखी पत्रिका Ladags Melong भी निकली। कई सरकारी गैर सरकारी काम करते हुए वे समाज सेवा करते रहे।  2005 में प्राथमिक शिक्षा के नेशनल गवर्निग कौंसिल के सदस्य, 2007-10 में एक डेनिश  एन जी ओ के एजुकेशन सलाहकार भी बने। 

वांगचुक का अर्थ बलशाली और ऐश्वर्यवान होता है जो तिब्बती भाषा में शिव जी का एक नाम है। उनके पिता एक नेता थे, जो बाद में राज्य सरकार में मंत्री भी बने। अगर 'सोनम वांगचुक' चाहते, तो राजनीति का रास्ता
SECMOL भवन
चुनकर, सुख और चैन की ज़िन्दगी व्यतीत कर सकते थे। लेकिन उन्होंने समाज की मदद करने की ठानी। उन्हें सरकारी स्कूल व्यवस्था में सुधार लाने के लिए सरकार, ग्रामीण समुदायों और नागरिक समाज के सहयोग से 1994 में ऑपरेशन न्यू होप शुरु करने का श्रेय भी प्राप्त है। उनके द्वारा  डिजाइन किया गया SECMOL भवन पूरी तरह से सौर-ऊर्जा पर चलता है, और खाना पकाने, प्रकाश या तापन (हीटिंग) के लिए किसी भी प्रकार के ईंधन का उपयोग नहीं किया जाता। 
बर्फ स्तूप 

प्राकृतिक तौर पर लद्दाख भले ही स्वर्ग जैसा हो पर वहाँ के इलाके में पानी की भारी कमी रहती है। इस क्षेत्र में जल संकट से निपटने  तथा उसे सदा के लिए दूर करने के समाधान को खोजने में सालों से जुटे सोनम इसके लिए कुछ अलग तरीके का समाधान निकालने में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में उन्होंने एक तकनीक, "बर्फ-स्तूप" का आविष्कार किया है। जो कृत्रिम हिमनदों (ग्लेशियरों) का निर्माण करता है, शंकु आकार के इन बर्फ के ढेरों को सर्दियों के पानी को संचय करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पर यह इतना आसान नहीं है हड्डियों को जमा देने वाली ठण्ड में आधी रात के समय काम करना आम इंसान के बस का रोग नहीं है। पर सोनम और उनकी टीम 11000 फ़ुट (3500 मीटर) की ऊंचाई पर दुनिया की सबसे ठंडी जगहों में मध्य-रात्रि के समय जब यहां का तापमान -30 डिग्री सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है तब उन्होंने और उनके 10 कार्यकर्ताओं ने अपने विचार को अमली जमा पहनाया। बर्फ के स्तूप बनाने की तकनीक आसान है। शुरू में पाइप को ज़मीन के नीचे डालते हैं ताकि बर्फीले पानी को ज़मीन के निचले स्तर तक ले आया जा सके। पाइप के आख़िरी हिस्से को लंबवत रखा जाता है। ऊंचाई और गुरुत्वाकर्षण की शक्ति में अंतर के कारण पाइप में दबाव पैदा होता है। बहता हुआ पानी ऊपर की ओर जाता है और किसी फ़व्वारे की तरह से इसमें से पानी निकलता है। शून्य से
बर्फ स्तूप 
नीचे तापमान होने की वजह से पानी जम जाता है और धीरे-धीरे यह एक पिरामिड की तरह बन जाता है। उन्हें उम्मीद है कि ये ग्लेशियर साल की शुरुआत में पिघल जाएंगे और खेतों और गांवों में पानी की ज़रूरत को पूरा करेंगे। उनका मानना है कि पहाड़ों की तकलीफों का समाधान पहाड़ के लोगों को ख़ुद ढूंढना होगा। खुद के लिए अपने द्वारा किए गए काम से स्थानीय लोगों में इसे लेकर एक अपनेपन का भाव भी पैदा होता है जो उन्हें और कुछ भी करने के लिए उत्साहित करता है। 


लद्दाख 
आज अखबार में पुरस्कार मिलने की बात आने पर लोगों को सोनम वांगचुक और उनके कार्यों को जानने की उत्सुकता होगी बहुत से लोग पहली बार उनको जानेंगें; पर उनसे प्रभावित हो 2009 में एक फिल्म "थ्री इडियट्स" भी बनी थी। जिसमें आमिर खान ने इनके जीवन से प्रभावित हो  'फुनशुक वांगड़ू' का किरदार निभाते हुए मुख्य भूमिका की थी। पर फिर भी देश के अधिकाँश लोग उनसे, उनके कार्यों से तथा शिक्षा के प्रति उनके समर्पण से अनभिज्ञ ही रहे। क्योंकि ऐसे लोग अपने काम में डूबे रहने के कारण प्रचार से कुछ दूर ही रहते हैं। पर क्या ऐसे लोगों के नाम का विचार अपने देश के अलंकरणों को दिए जाते समय नहीं किया जाना चाहिए ? 

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

एक था सम्पाती  !

महाकाव्य रामायण में  कुछ अहम पात्र ऐसे भी हैं जिनका कथा में योगदान तो बहुत महत्वपूर्ण है पर उनके बारे में  विस्तृत जानकारी नहीं मिलती।  ऐसा ही एक पात्र है, सम्पाती ! जिसने सीताजी के लंका में रावण की कैद में होने के बारे में सही दिशा निर्देश दे, श्री राम जी की सहायता की थी। कौन था यह सम्पाती ?       

#हिन्दी_ब्लागिंग 
ऋषि कश्यप और विनीता के दो पुत्र थे, गरुड़ और अरुण। गरुड़, भगवान विष्णु के वाहन बने और पक्षीराज  
कहलाए। उधर अरुण सूर्यदेव के रथ के सारथी बने। इन्हीं अरुण के दो पुत्र हुए सम्पाती और जटायू। जटायु से राजा दशरथ का परिचय पंचवटी में एक आखेट के दौरान हुआ था। तभी से वे दोनों मित्र बन गए थे। दोनों भाइयों जिनमें सम्पाती बड़ा और जटायु छोटा था। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म गृद्धराज पर्वत पर हुआ था। इस जगह का उल्लेख हमारे ग्रंथों में कई बार मिलता है, जो आजके मध्यप्रदेश के सतना जिले में पड़ता है। आज भी यह जगह देश में ही नहीं विदेशों में भी गिद्धों के प्राकृतवास के रूप में जानी जाती है।

सम्पाती और जटायू दोनों वृहदाकार और अत्यंत बलशाली थे। विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहते हुए ये दोनों
निशाकर ऋषि की सेवा करते हुए संपूर्ण दंडकारण्य क्षेत्र में विचरण करते रहते थे। इनका सामना करने की हिम्मत किसी में नहीं थी इसलिए ये आपस में ही स्पर्द्धा करते रहते थे। ऐसे में  ही  दिन दोनों ने सूर्यदेव का पीछा करने की ठानी और आकाश में उडते हुए उनके नजदीक चले गए परिणामस्वरुप इनकी त्वचा जलने लगी, छोटे भाई को बचाने खातिर सम्पाती ने अपने पंखों से जटायू को तो ढक कर बचा दिया पर खुद बुरी तरह जल गया और शक्तिहीन हो विंध्य पर्वत के पास धरा पर जा गिरा। ऋषि चन्द्रमा की  चिकित्सा से वह कुछ ठीक तो हो गया पर पहले जैसी शक्ति और सौंदर्य न पा सका। ऋषि ने उसे आश्वासन दिया कि राम वन गमन पर जब वह उनकी सहायता करेगा तो उसे पूर्ण निरोगिता प्राप्त हो जाएगी।  इसलिए वह वहीँ समुंद्र किनारे एक गुफा में रहने लग गया। उसके आहार और देख-भाल वगैरह उसका बेटा सुपार्श्व किया करता था। ऐसे ही वह समय भी आ गया जब जामवंत, अंगद और हनुमान जी के साथ वानर सेना सीताजी को ढूंढते हुए सम्पाती की गुफा तक आ पहुंची। इतने सारे जीवों को एक साथ देख सम्पाती बड़ा खुश हुआ कि भगवान ने कई दिनों के लिए उसके भोजन की व्यवस्था कर दी। जैसे ही वह उन्हें खाने के लिए लपका, उसके विशाल शरीर को देख वानरों में खल-बली मच गयी पर तभी जामवंत जी बोले, भगवान् की माया देखो, एक यह गिद्ध है जो हम थके, लाचार लोगों को अपना आहार बनाना चाहता है: दूसरा वह जटायू था जिसने एक लाचार स्त्री को बचाने के लिए अपनी जान दे दी ! सम्पाती ने जैसे ही जटायू का नाम सुना वह थम गया और इनसे पूरी बात बताने को कहा। जैसे ही उसे रावण
द्वारा जटायू वध और सीता हरण की बात का पता चला वह निढाल औरअत्यंत दुखी हो बैठ गया। कुछ देर बाद उसने रुंधे गले से बताया कि मैं उसी जटायू का भाई सम्पाती हूँ; बताओ मैं तुम लोगों की क्या सहायता कर सकता हूँ ? मुझे गरुड़ जी की कृपा से सैंकड़ों योजन तक देख पाने की क्षमता प्राप्त है। जामवंत जी ने उससे सीताजी का पता लगाने में सहयोग माँगा। सम्पाती ने अपनी दिव्य-दृष्टि से पता लगा बताया कि सीताजी यहां से सौ योजन दूर सागर के बीच स्थित लंका में एक वाटिका में रावण की कैद में हैं। उसने इन सब को वहाँ जाने लिए प्रोत्साहित भी किया। जैसे ही उसने यह बात बताई पूरी वानर सेना ख़ुशी से उछल पड़ी।
उधर जैसे ही सम्पाती ने सीताजी का पता लगा राम काज में सहयोग किया वैसे ही उसमें शक्ति का संचार होना आरंभ हो गया तथा इसके साथ-साथ उसका शरीर भी फिर पंखों से ढकने लग गया।   


@चित्र अंतरजाल के सौजन्य से 

रविवार, 22 जुलाई 2018

फल (आम) ही नहीं, मिठाई भी लंगड़ी होती है !

राजकुमारी की लैंग्चा खाने की इच्छा उसके मायके कृष्णनगर पहुंचाई गयी ! अब लैंग्चा क्या होता है यह किसी को भी पता नहीं था। वहाँ किसी भी हलवाई को इस तरह की किसी मिठाई के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। दरअसल राजकुमारी भी इस मिठाई का नाम भूल चुकी थी उसे सिर्फ यह याद था कि उसके गृह नगर में एक स्वादिष्ट मिठाई बनती थी और उसको बनाने वाला कारीगर लैंग्चा यानी लंगड़ा था.........! 
#हिन्दी_ब्लागिंग 
फलों के राजा आम की एक नस्ल "लंगड़ा" के बारे में तक़रीबन सारा देश जानता होगा, पर अपने ही देश के एक प्रदेश, बंगाल की एक मिठाई का नाम भी लंगड़ा है यह बात बहुतों को पता नहीं होगी ! "लैंग्चा" ! जी हाँ ! यही नाम है उस गहरे लाल-भूरे रंग की मिठाई का, जिसका अर्थ बंगला भाषा में लंगड़ा होता है ! अपनी छेने की मिठाइयों के लिए दुनिया भर में मशहूर बंगाल के रसगुल्ले, संदेश, की तरह वहाँ के "पांतुआ" (गुलाबजामुन) परिवार की, यह एक बेहतरीन स्वादिष्ट मिठाई है। जिसको खाते हुए पेट तो भर जाता है पर मन कभी भी नहीं भरता। आज यह बंगाल के हर शहर-कस्बे की सभी मिठाई की दूकानों का एक आवश्यक अंग है। वैसे तो इसको बनाने वाला कारीगर बंगाल के ही एक और शहर कृष्णनगर का था, पर आज इसका असली घर कोलकाता से करीब अस्सी की.मी. दूर बर्दवान (वर्द्धवान) शहर के एक कस्बे शक्तिगढ़ में है। जहां का चप्पा-चप्पा लैंग्चा से आच्छादित है और जिसकी पहचान का कारण ही लैंग्चा है। पर यह लैंग्चा यानी लंगड़ा होते हुए भी गंगा पार कर वर्दवान कैसे पहुंच गया ! इसके पीछे भी एक मनोरंजक जनश्रुति है ! वैसी ही जैसी बनारस के सुप्रसिद्ध लंगड़े आम की है ! 

वर्षों पहले कृष्णनगर की राजकुमारी का विवाह वर्दवान के राजकुमार के साथ हुआ था। अपने गर्भावस्था के दौरान उसकी तबियत बिगड़ने के कारण उसकी कुछ भी खाने की इच्छा नहीं होती थी। पर जब अति होने लगी तो उसने लैंग्चा खाने की इच्छा जाहिर की ! यह खबर उसके मायके कृष्णनगर पहुंचाई गयी ! अब लैंग्चा क्या
होता है यह किसी को भी पता नहीं था। वहाँ किसी भी हलवाई को इस तरह की किसी मिठाई के बारे में जानकारी नहीं थी। दरअसल राजकुमारी भी इस मिठाई का नाम भूल चुकी थी उसे सिर्फ यह याद था कि उसके गृह नगर में एक स्वादिष्ट मिठाई बनती थी और उसको बनाने वाला लैंग्चा यानी लंगड़ा था। फिर काफी तलाश के बाद एक ऐसे कारीगर का पता चला, जिसका नाम लैंग्चा दत्ता था। उसे तुरंत परिवार सहित वर्दवान भेज वहीँ उसके रहने का प्रबंध भी कर दिया गया जिससे भविष्य में कभी राजपरिवार लैंग्चा से वंचित न हो सके। इस सब में किसी को भी मिठाई के नाम की नहीं सूझी और वह शक्तिगढ़ का लैंग्चा के नाम से उसी तरह प्रसिद्ध हो गयी, जिस तरह आगरे का पेठा, बीकानेर का भुजिया या हैदराबाद की बिरयानी है।   


आज शक्तिगढ़ तो लैंग्चामय हो चुका है। एक ही सड़क पर एक डेढ़ की.मी. तक लाइन से बीसियों दुकानें और सब की सब लैंग्चा बेचते नज़र आती हैं। दुकानों के नाम भले ही भिन्न-भिन्न हों पर उन नामों में लैंग्चा जरूर जुड़ा मिलता है। यथा लैंग्चा महल, लैंग्चा घर, लैंग्चा भंडार, लैंग्चा निकेतन, लैंग्चा भवन इत्यादि, इत्यादि ! शक्तिगढ़ के आधे से ज्यादा परिवारों का जीवन यापन इसी लैंग्चा के द्वारा ही होता है। शक्तिगढ़ के इस लैंग्चा बाजार से तक़रीबन एक लाख लैंग्चा रोज बिक जाते हैं। इसके बारे में एक अच्छी बात यह भी है कि सुस्वादु और पाचक होने के बावजूद इसकी कीमत हरेक की जेब के मुताबिक पांच से दस रूपये के भीतर ही है। ऊपर से थोड़ी "क्रंची" और भीतर से बिलकुल मुलायम यह मिठाई छेने-मावे-और मैदे को मिला, चीनी में पगा कर बनाई जाती है। सारा खेल इसके घटकों के मिश्रण का है जो किसी निष्णात कारीगर के वश की ही बात है।    
एक बात और भले ही शक्तिगढ़ लैंग्चा के लिए मशहूर हो पर कृष्णनगर के लोग भी इस कहानी को सुना-सुना कर अपने आप को कम गौरवान्वित नहीं समझते; आखिर उन्होंने ही इस अनोखी मिठाई को जगत्प्रसिद्ध होने का सुअवसर जो दिया था। वैसे तो यह बंगाल से लगे प्रांतों जैसे ओडिसा, असम में भी उपलब्ध है पर बंगाल की बात ही कुछ और है, तो अब जब कभी भी बंगाल जाने का अवसर मिले तो सिर्फ रसगुल्ले या राजभोग का भोग ही मत लगाइएगा, एक बार इस लंगड़ी मिठाई को भी जरूर चखिएगा !  

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

मातृभूमि ! ऐसा क्यों कहा जाता है ?

मातृभूमि ! ज्यादातर या सरल भाषा में कहा जाए तो जो इंसान जहां जन्म लेता है, वही उसकी मातृभूमि कहलाती है। पर आज दुनिया सिमट सी गयी है। रोजी-रोटी, काम-धंधे या बेहतर भविष्य की चाहत में लोग विदेश आने-जाने लगे हैं। तो ऐसे लोगों की संतान का जन्म यदि दूसरे देश में होता है तो उसकी मातृभूमि कौन सी कहलाएगी ? उसकी वफादारी किस देश के साथ होगी ? जहां उसने जन्म लिया है या फिर उस देश के प्रति जिसको उसने देखा ही नहीं है.......!

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मदर लैंड यानी मातृभूमि ! ज्यादातर या सरल भाषा में कहा जाए तो जो इंसान जहां जन्म लेता है, वही उसकी मातृभूमि कहलाती है। पर आज समय बदल चुका है, हमारी सनातन विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम् आज चरितार्थ होने लगी है। दुनिया सिमट सी गयी है। रोजी-रोटी, काम-धंधे या बेहतर भविष्य की चाहत में लोग विदेश आने-जाने लगे हैं। तो ऐसे लोगों की संतान का जन्म यदि दूसरे देश में होता है तो उसकी मातृभूमि कौन सी कहलाएगी ? उसकी वफादारी किस देश के साथ होगी ? जहां उसने जन्म लिया है या फिर उस देश के प्रति जिसको उसने देखा ही नहीं है ! देखा  जाए तो ऐसे प्रवासी लोगों  की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि इनके दो जगह से भावनात्मक संबंध बने होते हैं, पहला अपनी मातृभूमि से जहां उनका जन्म हुआ होता है दूसरा उनकी कर्मभूमि से जो उनको पालती-पोसती है। ऐसे में उनका अपने बच्चों के प्रति फर्ज बनता है कि उन्हें अपने देश, जहां उनकी जड़ें हैं, उसके बारे में भी उन्हें जरूर बताएं ! अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना इतिहास, अपने गौरव ग्रंथों से उनका परिचय करवाएं। क्योंकि जो रि‍श्ता एक माँ का अपनी संतान से होता है लगभग वही अटूट रि‍श्ता हर इंसान का अपनी मि‍ट्टी यानी अपनी मातृभूमि‍ से होता है और हमारी तो सनातन परंपरा रही है अपनी धरती को माँ मानने की। इसीलिए चाहे कोई अपने देश को छोड़ कितने समय के लिए भी, कहीं भी चला जाए, यह रि‍श्ता उस इंसान की हर बात में, उसके हर ख्याल में, उसके व्‍यवहार में सदा झलकता रहता है।  

"जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात् जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है । हमारे वेद पुराण तथा धर्मग्रंथ सदियों से दोनों की महिमा का बखान करते रहे हैं । जिस प्रकार माता बच्चों को जन्म देती है तथा उनका लालन-पालन करती है, अनेक कष्टों को सहते हुए भी बालक की खुशी के लिए अपने सुखों का परित्याग करने में भी नहीं चूकती उसी प्रकार जन्मभूमि जन्मदात्री की भाँति ही अनाज उत्पन्न करती है । उसी की नियामतों से हमारा गुजर-बसर होता है। उसी का दिया हुआ अन्न-जल-फल-फूल-जड़ी-बूटियां ग्रहण कर हम स्वस्थ व प्रसन्न रह पाते हैं। जिस व्यक्ति का जन्म जहाँ पर होता है उसे उस जगह, उस परिवेश से एक अनूठा लगाव हो जाता है। क्योंकि वह उस भूमि की गोद में ही अन्न-फल खा कर पला-बढ़ा-पोषित हुआ होता है, जिससे वह धरती उसकी माँ के समान हो जाती है, मातृभूमि हो जाती है। ऋणी हो जाता है वह उस जगह का ! जिस तरह माँ के प्यार, ममता व वात्सल्य की कोई तुलना नहीं है उसी प्रकार जन्मभूमि की महत्ता सर्वोपरि है। यही कारण है कि समय आने पर सदा ही शहीदों ने अपने परिवार, सगे-संबंधियों के बदले देश को तरजीह दी। मातृभूमि पर यदि कभी भी विपदा पड़ी है तो उसके बच्चों ने बिना एक पल गवाए अपनी क़ुरबानी दी है। 

हमारी मातृभूमि भारत है और हमें इससे बहुत प्यार है। प्रकृति ने भी दिल खोल कर इसे अपनी सौगातें बख्शी हैं। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश या जगह होगी जहां कायनात के, सागर-नदी-पहाड़-जंगल-मरुस्थल, इतने विभिन्न रूप देखने को मिलते होंगे। यह ऋषि-मुनियों की धरती कहलाती है। जिन्होंने सारी दुनिया को गणित, खगोल, चिकित्सा, योग, ज्योतिष, विज्ञान के साथ-साथ कला, संस्कृति और साहित्य का भी भरपूर ज्ञान प्रदान किया। समस्त मानव जाति को अपना बंधु मानने के साथ ही पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं से भी प्रेम करने का पाठ पढ़ाया। उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों में मानव जाति के कल्याण हेतु दिए गए दिशा-निर्देश आज भी सामयिक हैं। तभी तो हमारे देश को जगद्गुरु के रूप में जाना और माना जाता रहा है।

सर्वधर्म समभाव वाली हमारी इस पुण्य धरा पर देवावतारों के साथ-साथ अनगिनत महापुरूषों का भी जन्म हुआ है। जिन्होंने मानव हित हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर जगत का मार्गदर्शन किया। उन्हीं लोगों के आशीर्वाद, निर्देशन व मार्गदर्शन का फल है कि सैकड़ों सालों तक आक्रांताओं के हमले, लूट-खसोट, गुलामी के दंश सहने के बावजूद आज भी दुनिया में हमारी साख है, एक पहचान है। ढेरों कमियों, समस्याओं, आपदाओं आपसी वैमनस्यों के बावजूद हमने आगे बढ़ना नहीं छोड़ा है। कहीं कुछ चूक भले ही हो जाती हो, कोई कमी रह जाती हो जो की स्वाभाविक भी है, क्योंकि करीब डेढ़ अरब की आबादी को संभालना उनकी जरूरतें पूरी करना कोई आसान काम नहीं है। फिर भी चाहे आकाश हो, पाताल हो, दुर्गम हिमाच्छादित प्रदेश हो, आत्म निर्भरता की बात हो, हर बाधा को पार करते हुए हमने हर क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इन्हीं उपलब्धियों के कारण हम गर्व से कह सकते हैं "हमारा भारत महान" ! 

सोमवार, 9 जुलाई 2018

क्रिकेट के कुछ अजीबो-गरीब नियम !

मुद्दा क्या है, जमीन छूना या दूरी पार करना ! अब मान लीजिए एक बल्लेबाज रन लेते समय दूसरे छोर पर पहुँच, किसी क्षेत्ररक्षक द्वारा फेंकी गयी बॉल से अपने को बचाने के लिए छलांग भरते हुए, बिना जमीन को छुए, विकेटों के भी पार चला जाता है और बॉल विकेट में लगती है तो वर्तमान नियमों के अनुसार तो वह आउट कहलाएगा, जबकि वह रन की निर्धारित हद से भी ज्यादा दूरी को पार कर चुका होगा..........!
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अभी इंग्लैण्ड के साथ संपन्न हुई 20-20 श्रृंखला के एक मैच में शिखर धवन, खेल के नियमों के अनुसार, रन आउट हुए। पर उससे एक सवाल सर उठाता है कि एक रन कहाँ तक होता है ? जाहिर है पॉपिंग क्रीज के बीच की दूरी, जो बाइस गज की होती है। जब आप ने उस दूरी को नापते हुए लाइन पार कर ली तो रन तो पूरा हो गया
अब आपका कोई अंग या बैट, लाइन के दूसरी तरफ जमीन छुए या न छुऐ ! मुद्दा क्या है, जमीन छूना या दूरी पार करना ! अब मान लीजिए एक बल्लेबाज रन लेते समय दूसरे छोर पर पहुँच, किसी क्षेत्ररक्षक द्वारा फेंकी गयी बॉल से अपने को बचाने के लिए छलांग भरते हुए, बिना जमीन को छुए, विकेटों के भी पार चला जाता है और बॉल विकेट में लगती है तो वर्तमान नियमों के अनुसार तो वह आउट कहलाएगा, जबकि वह रन की निर्धारित हद से भी ज्यादा दूरी को पार कर चुका होगा ! 

रन लेते वक्त क्रीज के दूसरी तरफ की जमीन छूने का नियम तब बना था जब खेल पूरी तरह से मैदान पर मौजूद अंपायरों पर निर्भर करता था। कोई चूक न हो इसलिए क्रीज के पार बने ताजे दाग से फैसला किया जाता था कि बल्लेबाज रन पूरा कर पाया या नहीं ! यही बात "बेल्स" के लिए भी लागू होती है कि जब तक वे जमीन पर ना गिर जाएं "बोल्ड आउट" नहीं माना जाता, ऐसा सिर्फ मानवीय चूक से बचने के लिए किया जाता है। जबकि ऐसे कई मौके आए हैं जब कि बॉल ने विकेट को छुआ, बेल हिली पर गिरी नहीं और बल्लेबाज बच गया !
जबकि उसे बॉलर ने पूरी तरह परास्त कर दिया था और वह आउट था ! इसी तरह बल्लेबाज का रुमाल या टोपी, विकेट पर गिर जाने से उसे हिट-विकेट आउट कर दिया जाता है जबकि इसमें विपक्षी टीम का कोई शौर्य नहीं होता। वैसा ही कुछ ऊट-पटांग नियम हेल्मेट से बॉल टकराने पर पांच रन दिए जाने का प्रावधान है, क्यों नहीं हेल्मेट जरुरत के अनुसार मैदान के अंदर-बाहर किया जाता ? इसमें लगने वाले समय से ज्यादा तो तीसरा अंपायर कभी-कभी अपना निर्णय देने में ले लेता है। रही खेल को और रोमांचक बनाने की बात तो सीमा रेखा के पार कितनी भी दूर जाने वाली बॉल पर छह रन मिलते हैं, क्यों न दर्शक दीर्घा में पहुँचने वाली गेंद पर आठ रनों का ठप्पा लगा दिया जाए; तो और हंगामा देखने को मिल सकता है। 

आजकल तो सारे खेल उन्नत तकनीक से लैस हो चुके हैं। उनकी हर गतिविधि पर तरह-तरह के "गैजेट्स"और कैमरों की पैनी नजर गड़ी रहती है जिसके कारण बाल बराबर चूक की संभावना भी नहीं बनती ! ऐसे में क्या उचित नहीं होगा कि पुराने नियमों में और भी सुधार किया जाए ! क्रिकेट के खेल में जो भी बदलाव किए जाते हैं वह ज्यादातर बल्लेबाजी को ध्यान में रख होते हैं जिससे खेल रोमांचक हो जाए और ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटे। जबकि खेल में सारे पक्षों को पूरा-पूरा हुए समान मौका मिलना चाहिए। जैसे कि टेस्ट मैच में टॉस करने के बाद मैदान की हालत या वातावरण को ध्यान में रख बल्लेबाजी या क्षेत्ररक्षण का निर्णय लिया जाता है। जिसमें टॉस हारने वाली टीम इक्कीस  होने के बावजूद कभी-कभी मैच हार जाती है तो क्यों न दो एक जैसी पिचें बनाई जाएं जिस पर दोनों टीमें अपनी-अपनी शुरुआत कर अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर सकें। 20-20 के मैचों में पहले छह ओव्हरों के पॉवर-प्ले में बॉलरों की ऐसी की तैसी करने के बदले शुरू से ही दोनों  बराबर का मौका दिया जाए।   #कपिलदेव #सचिन #गांगुली जैसे महान खिलाड़ियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। जिससे इस लोकप्रिय खेल की आत्मा बनी रहे, खेल सर्कस या तमाशा बन कर ना रह जाए।     

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

किसी को याद है उस "बटर-ऑयल" की !

समय चक्र के घूमने के साथ ही अब फिर "घी" के दिन बहुरने लगे हैं। जी हाँ वही देसी घी जिसके पीछे, कुछ वर्षों पहले आहार, विहार, सेहत, स्वास्थ्य संबंधी विशेषज्ञ-डॉक्टर और ना जाने कौन कौन, पड़े हुए थे; इसकी बुराइयां और हानियाँ बताते हुए ! वैसे ही लोग उसी घी को आज फिर शरीर के लिए अमृत-तुल्य बता उसका गुणगान करते नहीं थक रहे.........!
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दिल्ली, अस्सी का दशक ! घी को बदनाम करने में सरकार भी पीछे नहीं रही थी। सोची-समझी साजिश के तहत कुछ बिकाऊ डॉक्टरों के द्वारा देसी घी के विरोध में, बयान जारी करवा कर लोगों को भ्रमित करना शुरू हो चुका था ! अचानक सरकार द्वारा, बटर-ऑयल के नाम से एक आयातित चिकनाई का परिचय यह कह कर प्रचारित करवाया जाता है कि यह सेहत के लिए बेहद फायदेमंद है। इससे क्लोस्ट्रॉल नहीं बढ़ता, इसमें "फैट" नहीं के बराबर है तथा यह दिल के लिए सर्वश्रेष्ठ चिकनाई है। इसे सिर्फ "मदर डेयरी" पर ही पांच किलो के टीन में बेचा जाता था ! पिघले हुए गाय के घी जैसी रंगत, कीमत थी सिर्फ 65 रूपए ! लोगों को और क्या चाहिए था ! सदियों से उपयोग में चले आ रहे घी को, मंहगा और सेहत के लिए हानिकारक समझ, लोगों ने किनारे कर, इस अनजानी वस्तु के लिए होड़ मचा दी। जिसे देखो वही इसे हाथ में उठाए चला आ रहा था। मदर डेयरी पर आता बाद में था बिक पहले ही जाता था। मदर डेयरी के बूथ संचालकों की पूछ बढ़ गयी थी। लोगों ने बुकिंग करवानी शुरू कर दी थी। मांग और खपत देखते हुए उस मुफ्त की मिली चीज की कीमत भी दस-दस रुपये बढ़ाते हुए 125/- तक कर दी गयी; पर लोगों में उसकी चाहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पर फिर तीनेक साल के बाद यह "चीज" अचानक बाजार से गायब हो गई। बाद में पता चला कि विदेशों में मक्खन-चीज़ वगैरह निकाल लेने के पश्चात बची सैंकड़ों टन तलछट से अपने पर्यावरण को बचाने के लिए उन्होंने इसे हमें मुफ्त में उपलब्ध करवाया था और हमारे कर्णधारों-हितचिंतकों-माननीयों ने इसे कीचड़ की तरह जहाजों में भर कर वहां से ला, यहां टीन में पैक कर हमें पैसे ले कर "उपकृत" किया था।

इसी तरह कुछ सालों पहले हमारे यहां आदि काल से उपयोग में आ रहे सरसों के तेल को भी जहर स्वरुप बता, पता नहीं कैसे-कैसे आयातित तेलों को हमारे रसोई घरों में स्थाई निवास प्रदान करवा दिया गया था। जिसका खुलासा भी हुआ कि समृद्ध देशों ने अपने तेलों के "बम्पर स्टॉक" को यहां खपाने के लिए सरसों के तेल को हानिकारक प्रचारित कर बदनाम करवाया था। हमारे भ्रस्ट माननीयों की सहायता से खतरनाक और  निम्न कोटि का सामान यथा, दूध, मक्खन, पानी, दवाइयां, शराब, सिगरेट, प्रसाधन, कपडे, मशीन, यंत्र और ना जाने क्या-क्या, किस-किस रूप में यहां आ हमें अपना आदी बना हमें और हमारे देश को खोखला करता जा रहा है। जिसमें भले ही अब कुछ कमी आई हो पर अभी भी आना और ले आया जाना जारी है ! 

हमारी आबादी सदा से ही समृद्ध देशों और उनके उत्पादों की खपत के लिए "टारगेट" रही है। कभी भरमा कर, कभी उकसा कर, कभी ललचा कर हमारा भरपूर फायदा उठाया जाता रहा है। इस लक्ष्य को साधने में हमारे अपने ही लोग अपना कांधा प्रदान करते रहे हैं। सुनने में आया था कि अस्सी के दशक में तो एक "महानुभाव" ने गोबर के आयात की संभावनाओं को परखने के लिए सपरिवार स्वीडेन का टूर तक बना लिया था। पर अब तो हर वस्तु की गुणवत्ता, खासियत की जांच-परख, जानकारी उपलब्ध है सो हम उपभोक्ताओं को ही सावधानी बरतने, जागरूक होने की जरुरत है। बाजार और उसके नुमाइंदे तो बाज आने से रहे अपनी हरकतों से !   

मंगलवार, 3 जुलाई 2018

जब शरीर, मन का "ओबीडियेंट सर्वेंट" नही रहता

अक्सर लोगों को कहते पाया जाता है कि उम्र तो सिर्फ एक नंबर है, उसके बढ़ने से क्या होता है; दिल तो  जवान है ! बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है, पर सच्चाई यह है कि दिल भले ही कितना भी जोश, उमंग, उत्साह से भरा रहे पर शरीर की मशीनरी एक उम्र के बाद धीमी पड़नी शुरु हो जाती है। दिमाग और अंग-प्रत्यंग का संबंध कमजोर होना शुरू हो जाता है। दिमाग के द्वारा भेजे गए संदेश धीमे पड़ने लगते हैं। जिससे ताल-मेल कम होने की वजह से कुछ का कुछ हो जाता है जो दुर्घटनाओं का वॉयस बन जाता है.........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
इंसान जैसे ही होश संभालता है उसका शरीर अपने दिलो-दिमाग के आदेशों का एक आज्ञाकारी सेवक की तरह उनके हर आदेश का तुरंत और सही तरीके से पालन करने लगता है। पर उम्र के साथ-साथ यह आज्ञाकारिता धीरे-धीरे काम होने लगती है। दिमाग और अंग-प्रत्यंग का संबंध कमजोर होना शुरू हो जाता है। दिमाग के द्वारा भेजे गए संदेश धीमे पड़ने लगते हैं। जिससे ताल-मेल कम होने की वजह से कुछ का कुछ हो जाता है जो दुर्घटनाओं का वॉयस बन जाता है। इसी बात पर दिल्ली के प्रसिद्ध स्नायु-विशेषज्ञ, डॉक्टर रमेश चंद्र पराशर जी ने अपने वर्षों के शोध से मिले अनुभव से पचपन पार के लोगों के फायदे के लिए कुछ सावधानियां और हिदायतों की एक सूचि तैयार की है, जो निम्नाकिंत है -

एक उम्र, खासकर पचपन-साठ के बाद, मन चाहे कितना भी जोशीला, उमंग व् उत्साह भरा रहे, तन उतना फ़ुर्तीला नहीं रह जाता ? शरीर ढलान पर होता है और ‘रिफ्लेक्सेज़’ कमज़ोर ! कभी कभी मन भ्रम बनाए रखता है कि ये काम तो चुटकी मे कर लूँगा, पर बहुत जल्दी एक नुक़सान के साथ सच्चाई सामने होती है !धोखा तभी होता है जब मन सोचता है "कर लूंगा" और शरीर करने से ‘चूक’ जाय ! परिणाम एक एक्सीडेंट और शारीरिक क्षति ! ये क्षति, हड्डी के फ़्रैक्चर से लेकर हेड इंज्यूरी तक हो सकती है ! कभी कभी जान लेवा भी ! इसलिये जिन्हें हमेशा हड़बड़ी मे रहने और काम करने की आदत हो, बेहतर होगा कि वे अपनी उम्र के साथ-साथ अपनी आदतें भी बदल डालें। भ्रम न पालें , सावधानी बरतें; क्योंकि अब शरीर पहले की तरह फ़ुर्तीला नहीं रह गया होता है ! छोटी सी चूक कभी-कभी बड़े नुक्सान का सबब बन जाती है। सीनियर सिटिज़न होने पर कुछ बातों का ख़याल जरूर रखा जाना चाहिये।  

सुबह नींद खुलते ही तुरंत बिस्तर छोड़ खड़े न हों ! पहले बिस्तर पर कुछ मिनट बैठे रहें, शरीर को पूरी तरह चैतन्य होने दें। कोशिश करें कि बैठे बैठे ही स्लीपर-चप्पलें पैरों मे डालें या खड़े होने पर मेज़ या किसी सहारे को पकड़ कर ही चप्पलें पहने ! अकसर यही समय होता है डगमगा कर गिर जाने का !

सबसे ज़्यादा गिरने के हादसे बॉथरूम, वॉशरूम या टॉयलेट मे ही होते हैं ! घर मे अकेले रहते हों तो अतिरिक्त सावधानी बरतें, क्योंकि गिरने पर यदि उठ न सके तो दरवाज़ा तोड़कर ही आप तक सहायता पहुँच सकेगी ! वह भी तब, जब आप पड़ोसी तक सूचना पहुँचाने मे समय से कामयाब हो पाएंगे ! बाथरूम मे भी मोबाइल किसी सूखी जगह साथ रखें ताकि वक़्त ज़रूरत काम आ सके।  

हमेशा ऊँचे  कमोड का ही इस्तेमाल करें ! कमोड के पास संभव हो तो एक हैंडिल लगवा लें ! कमज़ोरी की स्थिति मे यह उठने-बैठने में सहायक रहता है।  

हमेशा ऊँचे स्टूल पर बैठकर ही नहाएं ! बॉथरूम के फ़र्श पर रबर की मैट ज़रूर बिछा कर रखें जिससे गीले फर्श पर फिसलने से बचा जा सके। गीले हाथों से टाइल्स  लगी दीवार का सहारा कभी न लें, हाथ फिसलते ही आप असंतुलित होकर गिर सकते हैं। 

बॉथरूम के ठीक बाहर सूती मैट भी रखें जो गीले तलवों से पानी सोख ले ! कुछ देर उस पर खड़े होकर फिर फ़र्श पर सावधानी से पैर रखें !

अंडरगारमेंट हों या कपड़े, बाथरूम से बाहर आ कर ही पहनें। हमेशा बैठ कर ही अंडरवियर, पजामा या पैंट के पायचों मे पैर डालें, वर्ना दुर्घटना घट सकती है ? कभी-कभी जल्दीबाजी और स्मार्टनेस की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ जाती है !

अपनी दैनिक ज़रूरत की चीज़ों को नियत जगह पर ही रखने की आदत डाल लें , जिससे उन्हें आसानी से उठाया या तलाशा जा सके ? भूलने की आदत हो तो आवश्यक चीज़ों की लिस्ट मेज़ या दीवार पर लगा लें, घर से निकलते समय एक निगाह उस पर डाल लें, आसानी रहेगी !

जो दवाएँ रोज़ाना लेनी हों उन्हें प्लास्टिक के प्लॉनर मे रखें; जिसकी डिब्बियों मे हफ़्ते भर की दवाएँ दिनवार के हिसाब से रखी जाती है, क्योंकिं अक्सर कई लोगों को भ्रम हो जाता है कि दवाएँ ले ली हैं या नहीं ! प्लॉनर मे रखने से दवा खाने मे चूक नही होगी। 

सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते समय, सक्षम होने पर भी, हमेशा रेलिंग का सहारा लें ! मॉल्स, स्टेशन वगैरह के एक्सलेटर पर ख़ासकर ! जूते-चप्पल ऐसे हों जो फिसलन से बचाते हों। सुबह-सबेरे टहलते समय ऊबड़-खाबड़ सतहों पर चलने से बचें। सड़क पार करने में जल्दीबाजी ना करें। जहां संशय हो वहां रुक कर वाहन निकल जाने के बाद ही आगे बढ़ें।
सदा ध्यान रखें कि आपका शरीर अब आपके मन का पहले जैसा "ओबीडियेंट सर्वेंट" नही रहा है …

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...