बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

मैं और माइक, माइक और मैं !

लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" हूँ। होता क्या है कि जब किसी जुगाड़ु मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर डालनी पड़ती है कि सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुस बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि अपनी जगह जड़-मुद्रा में एक ही जगह फिक्स हों तो अपनी आवाज, चेहरे के लगातार चलायमान रहने और इनसे तालमेल न बैठने के कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है........!
#हिन्दी_ब्लागिंग      
यहां मैं सिर्फ अपनी बात कर रहा हूँ, कोई अपने पर ना ले, आगे ही क्लेश पड़ा हुआ है। हाँ तो मैं कह रहा था कि इस दुनिया में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिनके आप कितने भी  "used to" हो जाओ, तो भी वे आपको घास नहीं डालेंगी। अब जैसे माइक को ही लेंअरे ! ही माइक्रोफोन ! जिसे बोलते समय मुंह के सामने रखते हैं, जिससे म्याऊं जैसी आवाज भी दहाड़ में बदल जाती है ! जिससे जो नहीं भी सुनना चाहता हो उसे भी जबरिया सुनना पड़ता है ! 
इस नामुराद यंत्र को थामने का मैंने दसियों बार अवसर जुगाड़ा है, 15-20 से ले कर 100-150 तक, मुझे झेलने वाले श्रोताओं के सम्मुख ! पर आज तक यह मुझसे ताल-मेल नहीं बैठा पाया है ! मुझे तो पसीना आता ही है वह तो अलग बात है !! होता क्या है कि जब किसी मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर डालनी पड़ती है कि सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुस बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि अपनी जगह जड़-मुद्रा में एक ही जगह फिक्स हों तो अपनी आवाज, चेहरे के लगातार चलायमान रहने और इनसे तालमेल न बैठने के कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है ! यदि काबू में रखने के लिए इन्हें हाथ में जकड़ लेता हूँ तो ध्यान इसी में रहता है कि बोलते समय ये कहीं नाक या चश्में के सामने ना जा खड़े हों ! लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" रहता हूँ। इनका एक और भी अवतार है जो बदन पर सितारे की तरह टांक लिया जाता है पर उनसे मिलने का मुझे कभी मौका नहीं मिला। 
यह सही है कि इसका मेरा दोस्ताना रिश्ता नहीं बन सका, पर फिर भी कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल आता है कि यदि ये ना होता तो क्या होता, क्या होता यदि ये ना होता ? कैसे नेता-अभिनेता जबरन जुटाई भीड़ के अंतिम छोर पर मजबूरी में खड़े व्यक्ति को अपने कभी भी पूरे न होने वाले वादों से भरमाते ! कैसे धर्मस्थलों से धर्म के ठेकेदार अपनी आवाज प्रभू तक पहुंचाते ! शादियों की तो रौनक ही नहीं रहती ! कवि तो ऐसे ही नाजुक गिने गए हैं सम्मेलनों में तो अगली पंक्ति तक को सुनाने के लिए उन्हें मंच से नीचे आना पड़ता ! गायकों के गलों की तो ऐसी की तैसी हो गयी होती ! ऐसे ही छत्तीसों काम जो आज आसान लगते हैं, हो ही नहीं पाते !  
ना चाहते हुए भी तारीफ़ करुं क्या उसकी, जिसने इसे बनाया ! 1876 में, एमिली बर्लिनर (Emile Berliner)  से जब इसकी ईजाद हो गयी होगी तब उसे क्या पता था कि उसने कौन सी बला. दुनिया को तौहफे में दे डाली है, जिसका आनेवाले दिनों में टेलिफोन, ट्रांसमीटरों, टेप रेकार्डर, श्रवण यंत्रों, फिल्मों, रेडिओ, टेलीविजन, मेगाफोनों, कम्प्यूटरों  और कहाँ-कहाँ नहीं होने लगेगा। उस बेचारे को तो यह भी नहीं पता होगा कि भविष्य में ध्वनि प्रदूषण जैसी  समस्या होगी जिसमें उसकी यह ईजाद मुख्य अभियुक्त हो जाएगी !  

अब जरुरी तो नहीं कि जिससे मेरी न पटती हो उसकी किसी से भी न पटे ! हमारा आपसी रिश्ता जैसा भी हो पर है तो यह गजब की चीज इसमें कोई शक नहीं है: है क्या ?    

4 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हर्ष जी, आप बुलाएं और हम ना आएं ऐसा कैसे हो सकता है ! आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-02-2017) को "त्योहारों की रीत" (चर्चा अंक-2890) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
हार्दिक आभार

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