वह पंद्रह-बीस जनों की प्रोफेशनल पार्टी थी, जो जगह-जगह जा वर्षों से भागवत की व्याख्या, उसके उपदेश व उस पर प्रवचन देती आ रही है। उतनी रात को भी मेरे ज्ञान-चक्षु चैतन्य हो गए कि जरुरी नहीं कि हमारा आचरण हमारे कर्म के अनुकूल ही हो !!!
दुनिया में तरह-तर के लोग होते हैं। आम धारणा के अनुसार इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है। हिंसात्मक कर्म करने वाले को कठोर और कला से, पूजा-पाठ या आध्यात्म से जुड़े हुए लोगों को साधारणतया विनम्र समझा जाता है। होते भी हैं ऐसे लोग। पर अक्सर ऐसे उदाहरण भी सामने आ जाते हैं जिनके कर्म और आचरण में बहुत फर्क होता है। सीमा पर दुश्मन पर घातक हमला करने वाला जवान अपनी निजी जिंदगी में सरल और विनम्र पाया जाता है। रजत-पट पर दिल दहला देने वाली हरकतों को अंजाम देने वाला खूंखार खलनायक जरूरी नहीं कि वास्तविक जिंदगी में भी वह वैसा ही हो, वह एक नेक और रहम-दिल इंसान होता है। इसके विपरीत समाज के कल्याण का दावा करने वाले, सदा विनम्रता का मुख़ौटा लगाने वाले कुछ लोग देश तक का सौदा कर डालते हैं। चेहरे पर सदा मुस्कान लपेटे रखने वाले अपने हित पर आंच आते ही उग्रता की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं। ऐसे लोगों से अक्सर सामना हो ही जाता है।
दुनिया में तरह-तर के लोग होते हैं। आम धारणा के अनुसार इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है। हिंसात्मक कर्म करने वाले को कठोर और कला से, पूजा-पाठ या आध्यात्म से जुड़े हुए लोगों को साधारणतया विनम्र समझा जाता है। होते भी हैं ऐसे लोग। पर अक्सर ऐसे उदाहरण भी सामने आ जाते हैं जिनके कर्म और आचरण में बहुत फर्क होता है। सीमा पर दुश्मन पर घातक हमला करने वाला जवान अपनी निजी जिंदगी में सरल और विनम्र पाया जाता है। रजत-पट पर दिल दहला देने वाली हरकतों को अंजाम देने वाला खूंखार खलनायक जरूरी नहीं कि वास्तविक जिंदगी में भी वह वैसा ही हो, वह एक नेक और रहम-दिल इंसान होता है। इसके विपरीत समाज के कल्याण का दावा करने वाले, सदा विनम्रता का मुख़ौटा लगाने वाले कुछ लोग देश तक का सौदा कर डालते हैं। चेहरे पर सदा मुस्कान लपेटे रखने वाले अपने हित पर आंच आते ही उग्रता की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं। ऐसे लोगों से अक्सर सामना हो ही जाता है।
माँ के दिवंगत होने पर लगातार, अलग-अलग जगहों के सफर के दौरान मेरा तरह-तरह के लोगों से सामना हुआ। अभी पिछली पोस्ट में हरिद्वार स्टेशन पर रात अढ़ाई बजे एक सज्जन की आत्मश्लाघा के बारे में लिखा था। वैसा ही एक और वाकया रायपुर लौटते वक्त घटा था।
निजामुद्दीन से चली गोंडवाना जैसे ही मथुरा स्टेशन पर रुकी, डिब्बे के दरवाजे के सामने दो कुलियों की मदद से एक "ठेला" आ खड़ा हुआ जिस पर पच्चीसों ब ड़े- छोटे नग लदे हुए थे। गाडी कुछ ही देर वहां रुकती है ऊपर से अंदर का संकरा दरवाजा ! सो हमारे उस वातानुकूलित डिब्बे में तो जैसे भूचाल आ गया। बिना आगा-पीछा देखे सामान को अंदर फेंका जाने लगा। देखते-देखते मुख्य द्वार पर अंबार सा लग गया। अंतिम नग आते-आते गाडी ने रेंगना शुरू कर दिया था। वे लोग आठ सीटों के अधिकारी थे पर सामान पंद्रह जनों का था जिसे ठिकाने लगाने की कवायद शुरू हो चुकी थी। जहां भी ज़रा सी जगह दिखती वहीँ नगों को ठूसा जाने लगा, बिना अन्य यात्रियों की असुविधा और उनके सामान की फ़िक्र किए। इतना ही नहीं, उनके और साथी दूसरे डिब्बों में भी थे, अब इतने लोग, उतना सामान, इधर-उधर होना लाजिमी ही है। कुछ ही देर बाद उधर के योग अपना सामान इधर खोजने आने लगे ! अपना तो अपना पहले से बैठे लोगों के सामानों की भी जांच होने लगी जिससे जाहिर है डिब्बे में असंतोष फैलता जा रहा था। पर मथुरा से चढ़े यात्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, विरोध ज्यादा बढ़ने पर उनकी दबंगई के साथ ही कठोर वचन भी प्रवचन के रूप में सामने आने लगे । गाडी के आगरा पहुंचने तक वैसी ही अफरा-तफरी मची रही। पर आना-जाना, शोर-गुल देर रात तक चलता रहा। उन लोगों के साथ दो-तीन सेवक रूपी सहायक भी थे पता नहीं उनके लिए क्या इंतजाम था क्योंकि देर रात तक मैंने उन्हें दरवाजे के पास ही खड़े और बतियाते पाया !!
उन्हीं से पता चला कि यह पंद्रह-बीस जनों की प्रोफेशनल पार्टी है जो जगह-जगह जा वर्षों से भागवत की व्याख्या, उसके उपदेश व उस पर प्रवचन देती आ रही है। उतनी रात को भी मेरे ज्ञान-चक्षु चैतन्य हो गए कि जरुरी नहीं कि हमारा आचरण हमारे कर्म के अनुकूल ही हो ! जय श्री कृष्ण !!
निजामुद्दीन से चली गोंडवाना जैसे ही मथुरा स्टेशन पर रुकी, डिब्बे के दरवाजे के सामने दो कुलियों की मदद से एक "ठेला" आ खड़ा हुआ जिस पर पच्चीसों ब ड़े- छोटे नग लदे हुए थे। गाडी कुछ ही देर वहां रुकती है ऊपर से अंदर का संकरा दरवाजा ! सो हमारे उस वातानुकूलित डिब्बे में तो जैसे भूचाल आ गया। बिना आगा-पीछा देखे सामान को अंदर फेंका जाने लगा। देखते-देखते मुख्य द्वार पर अंबार सा लग गया। अंतिम नग आते-आते गाडी ने रेंगना शुरू कर दिया था। वे लोग आठ सीटों के अधिकारी थे पर सामान पंद्रह जनों का था जिसे ठिकाने लगाने की कवायद शुरू हो चुकी थी। जहां भी ज़रा सी जगह दिखती वहीँ नगों को ठूसा जाने लगा, बिना अन्य यात्रियों की असुविधा और उनके सामान की फ़िक्र किए। इतना ही नहीं, उनके और साथी दूसरे डिब्बों में भी थे, अब इतने लोग, उतना सामान, इधर-उधर होना लाजिमी ही है। कुछ ही देर बाद उधर के योग अपना सामान इधर खोजने आने लगे ! अपना तो अपना पहले से बैठे लोगों के सामानों की भी जांच होने लगी जिससे जाहिर है डिब्बे में असंतोष फैलता जा रहा था। पर मथुरा से चढ़े यात्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, विरोध ज्यादा बढ़ने पर उनकी दबंगई के साथ ही कठोर वचन भी प्रवचन के रूप में सामने आने लगे । गाडी के आगरा पहुंचने तक वैसी ही अफरा-तफरी मची रही। पर आना-जाना, शोर-गुल देर रात तक चलता रहा। उन लोगों के साथ दो-तीन सेवक रूपी सहायक भी थे पता नहीं उनके लिए क्या इंतजाम था क्योंकि देर रात तक मैंने उन्हें दरवाजे के पास ही खड़े और बतियाते पाया !!
उन्हीं से पता चला कि यह पंद्रह-बीस जनों की प्रोफेशनल पार्टी है जो जगह-जगह जा वर्षों से भागवत की व्याख्या, उसके उपदेश व उस पर प्रवचन देती आ रही है। उतनी रात को भी मेरे ज्ञान-चक्षु चैतन्य हो गए कि जरुरी नहीं कि हमारा आचरण हमारे कर्म के अनुकूल ही हो ! जय श्री कृष्ण !!
7 टिप्पणियां:
ऐसे लोगों को अपने आचरण पर अफ़सोस भी नहीं होता
ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप को विश्व हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१० जनवरी - विश्व हिन्दी दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ब्लॉग बुलेटिन का शुक्रिया
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (12-01-2017) को "अफ़साने और भी हैं" (चर्चा अंक-2579) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
थोथा चना बाजे घना- कह-कह कर दिखानेवाले आचरण में प्रायः ही पीछे रह जाते हैं.
शास्त्री जी,
समय मगलमय हो
प्रतिभा जी,
नमस्कार । सदा स्वागत है
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