मंगलवार, 5 जुलाई 2016

बुजुर्गों का ख्याल रखना सामाजिक कर्तव्य है

आज कुत्ते-बिल्लियों तक के लिए कानून बने हुए हैं पर मानव ही सबसे ज्यादा उपेक्षित है, खासकर बुजुर्ग, और यह तब है जबकि सभी को इस उम्र से गुजरना है। इसीलिए सरकार, स्वंयसेवी संस्थाओं और एन.जी.ओ. इत्यादि को इस समस्या के समाधान के लिए कुछ तो सार्थक कदम उठाने ही चाहिए। यह सब तो जब होगा तब होगा फौरी तौर पर तो हमें ही पहले ध्यान देना चाहिए कि हमारे अड़ोस-पड़ोस में या जान-पहचान में ऐसा कोई भी व्यक्ति या दंपति हो तो उसका हम ध्यान रखें और किसी भी अनहोनी पर उनकी सहायता के लिए तैयार रहें      

कल मैनपुरी से शिवम जी ने फोन कर, दिल्ली में मेरे नजदीक ही रह रहे, अपने भाई साहब के निवास के ऊपर अकेले निवासित एक निःसंतान वृद्ध दंपति के बारे में बताया कि किस तरह रात को अचानक तबियत बिगड़ने पर उन्हें कैसी-कैसी समस्याओं से जूझना पड़ा। आज बुजुर्गों का अकेलापन खुद अपने आप में एक समस्या है जो दिनों-दिन विकराल रूप लेती जा रही है। हादसे कभी बतला कर नहीं आते। चाहे-अनचाहे हजारों ऐसे वयोवृद्ध लोगों को अकेले रहने का दुःख तो भोगना ही पड़ता है, साथ-साथ  हारी-बिमारी की समस्या, रोजमर्रा के कामों में आने वाली तरह-तरह की परेशानियां और खतरे भी बने रहते हैं।          

जिस दंपति की बात कर रहा था, श्री और श्रीमति कोहली, दोनों की उम्र अस्सी साल के आस-पास है। दोनों अपने निवासस्थान पर अकेले रहते हैं। दो दिन पहले श्री कोहली रात को टॉयलेट जाने के लिए उठे तो अचानक ही उनकी तबियत बुरी तरह बिगड़ गयी। किसी तरह घिसटते हुए कमरे तक आ उन्होंने पत्नी को जगाया, जिन्होंने फोन कर अपने नीचे रहते विक्रम जी को सहायता के लिए बुलाया। रात का समय, नींद की खुमारी, जल्द कुछ समझ में भी तो नहीं आता, ऐसे में ही विक्रम जी नेअपने पहचान के डॉक्टर को फोन किया पर उसने घर आने से मना कर दिया। फिर समय की नाजुकता को देखते हुए विक्रम जी, कोहली जी को पास के एक नर्सिंग होम ले गए पर वहां उचित चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी, हाँ, उन्होंने इतनी सहायता जरूर की कि एम्बुलेंस को फोन कर दिया। पर करीब आधे घंटे तक भी गाडी के ना आने पर दूसरी जगह कोशिश की गयी तो वहां से ड्रायवर के ना होने की मजबूरी जता दी गयी। फिर 102 न. की हेल्प लाइन पर कोशिश की गयी तो वहां से मांगी गयी दसियों जानकारियां देने के पश्चात उन्होंने बताया कि वे सिर्फ सरकारी अस्पताल ही ले जा सकते हैं। यह सब जानकारियां रोगी को सुरक्षित पहुंचा कर भी तो ली जा सकती थीं। खैर इतने में पहले फोन वाली एम्बुलेंस आ गयी और कोहली जी को दूसरे अस्पताल ले जाया गया पर वहां सारे परीक्षणों की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। हड़बड़ाहट में  फिर तीसरी जगह पहुंचे तो वहां टेस्ट तो हो गए पर भर्ती करने की समस्या सामने आ खड़ी  हुई। समय सरकता जा रहा था, इलाज शुरू नहीं हो पा रहा था। साथ के लोगों की चिंता और रक्तचाप बढ़ते जा रहे थे। ऐसे में ही तीसरे अस्पताल से रिपोर्ट ले कर भागते हुए फिर पहले अस्पताल पहुंचे और वहां आई.सी.यु. में कोहली जी को दाखिल करवाया जा सका। भगवान का शुक्र है कि इतनी देर होने के बावजूद वे खतरे से बाहर हैं। पर इस तरह के बुजुर्ग दंपतियों पर इस तरह का खतरा तो बना ही रहता है। हर किसी को सहृदय विक्रम जी जैसा पड़ोसी तो मिलता नहीं। आज तो हालात यह हैं कि अधिकांश लोगों को अपने पडोसी का चेहरा तक देखे अर्सा बीत जाता है। यह तो दिल्ली का हाल है, छोटे शहरों की हालत की तो कल्पना ही की जा सकती है !

कुछ दुर्घटनाएं या बीमारियां ऐसी होती हैं जहां समय का बहुत महत्व होता है। जरा सी देर होने पर ही जान पर बन आती है। खासकर वयोवृद्ध अवस्था में। तो कुछ तो ऐसा होना चाहिए जिससे समाज को अपनी उम्र दे चुके, हमारी आबादी के करीब  8-9 प्रतिशत के इस वर्ग को जीवन के इस पड़ाव पर असुरक्षा महसूस न हो। चौबीसों घंटे उन्हें यह डर ना बना रहे कि हमारे साथ कुछ अघटित हो जाता है तो हम क्या करेंगे ! आज कुत्ते-बिल्लियों तक के लिए कानून बने हुए हैं पर मानव ही सबसे ज्यादा उपेक्षित है। और यह तब है जबकि सभी को इस उम्र से गुजरना है। इसीलिए सरकार, स्वंयसेवी संस्थाओं और एन.जी.ओ. इत्यादि को इस समस्या के समाधान के लिए कुछ तो सार्थक कदम उठाने ही चाहिए। खासकर उन बुजुर्गों के लिए जो बिलकुल ही अकेले रहते हों। जिस तरह बच्चियों और युवतियों के लिए "हेल्प लाइन" बनाई गयी हैं उसी तर्ज पर इनके लिए भी "हॉट लाइन" हो। छोटे-छोटे वार्ड बना कर उसमें रह रहे ऐसे लोगों के नाम एक जगह एकत्रित हों जिससे वहां फोन करते ही उचित सहायता उपलब्ध करवाई जा सके। सप्ताह में  दो-तीन बार उनकी खोज-खबर ले उनका ध्यान रखा जा सके। यह सब तो जब होगा तब होगा फौरी तौर पर तो हमें ही पहले ध्यान देना चाहिए कि हमारे अड़ोस-पड़ोस में या जान-पहचान में ऐसा कोई भी व्यक्ति या दंपति हो तो उसका हम ध्यान रखें और किसी भी अनहोनी पर उनकी सहायता के लिए तैयार रहें।

सच तो यह है कि जिस पर गुजरती है वही झेलता और संभालता है। हमारे यहां तो यह सब रोज का किस्सा बना हुआ है। दुर्घटना हो जाती है तो सहायता नहीं मिलती। सहायता मिल जाती है तो ढंग की जगह नहीं मिलती। जगह मिल जाती है तो समय पर उपचार नहीं मिल पाता। उपचार मिल जाता है तो पीड़ित को लाने वाले से ढेरों सवाल पूछे जाते हैं। विडंबना है कि कुछ भले लोग चाह कर भी, कानूनी और पुलिस के खमों-पेच से घबरा कर सहायता करने से गुरेज करते हैं।

इस समस्या के निवारण के लिए विज्ञ जनों के सुझाव आमंत्रित हैं।  

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