सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पर्यावरण सुधारना है तो सख्ती करनी ही पड़ेगी !

आपको क्यों नहीं सुनाई पड रहा कि सी.एन.जी. के स्टीकरों की काला बाजारी हो रही है ? तो क्यों नहीं ऐसी गाड़ियों को भी इस स्कीम के तहत बंद रखा जाए ? उन जुगाडुओं की पहचान और रोक-थाम का कोई उपाय है जो रोज अपनी नंबर प्लेट बदल अपनी गाडी सड़क पर उतार देते हैं ? या फिर गलियों-गलियों से होते हुए कहीं भी पहुंचने वाले, रोके जाने पर भाग जाने वाले, पैसे के बल पर दोनों नंबर की गाड़ियां रख सड़क पर भीड़ बढ़ाने वालों पर शिकंजा या नकेल डालने का कोई उपाय है ? नहीं ना ! तो सीधी सी बात है, दस दिनों तक समुद्र से प्रार्थना करने के पश्चात तो प्रभु को भी गुस्सा आ गया था !आप तो मनुष्य हो, कब तक फूल भेंट करते रहोगे ?  अब चालान नहीं उनका लायसेंस जब्त करें या फिर गाडी ही जब्त हो, जो भारी जुर्माने के साथ स्कीम ख़त्म होने पर ही मिले। अपनी बड़ी-बड़ी फोटो, इश्तेहार लगाने के बदले लोगों को भविष्य के प्रति चेताएं , जागरूक बनाएं, समझाएं .....

पर्यावरण के सवाल को हल करने के लिए सम-विषम के गणित के फार्मूले को दिल्ली की जनता के सामने परीक्षा के लिए फिर पंद्रह दिनों के लिए रख दिया गया है। मुंडे-मुंडे मतिरिभिन्ना, जाहिर है कुछ जागरूक लोग, जो बढ़ते प्रदूषण को लेकर सचमुच चिंतित हैं वे इसके पक्ष में हैं और कुछ को इसकी सफलता में संदेह है वे इसके विपक्ष में हैं। वेिपक्ष में वे लोग भी हैं जो अपनी निजी जिंदगी में किसी तरह का बंधन स्वीकार नहीं कर पाते। इसके अलावा सक्षम लोग, तथाकथित क्रीमी लेयर, विरोधी दलों के लोग, जिन्हें सत्तारूढ़ दल की किसी भी सफलता से अपना भविष्य खतरे में नज़र आने लगता है, और वे भी जो जुगाड़ में सिद्धहस्त हैं ये सब ऐसी स्कीमों पर विश्वास नहीं रखते। 

बात किसी के मानने ना मानने की नहीं है। इस स्कीम को भी किसी ने जनहित या प्रदूषण की चिंता से तब तक कहां लागू किया गया था, जब तक न्याय-पालिका ने अपना डंडा नहीं खड़खड़ाया। यह सच है कि यह व्यवस्था पूर्णरुपेण खामी रहित नहीं है, पर उन खामियों को दूर करने के लिए विपक्ष में खड़ा जत्था कोई सलाह नहीं दे रहा, उसका एक ही मकसद है कि यह सिस्टम बंद हो। पर पक्ष में खड़े लोगों का मानना है कि चाहे दस प्रतिशत ही सुधार हुआ हो, पर हुआ तो है। क्योंकि यह सभी की जिम्मेदारी बनती है कि अपने बच्चों के लिए, आने वाली पीढ़ी के लिए वातावरण, पर्यावरण, माहौल को इतना बेहतर तो बना दें कि वे खुल कर सांस ले सकें। यह बात भी सच है कि सिर्फ गाड़ियां ही पर्यावरण के प्रदूषण की जिम्मेवार नहीं हैं पर कुछ प्रतिशत तो उनकी भागेदारी तो है ही ! सड़क पर गाड़ियां कम होंगी तो यातायात सुधरेगा, यातायात में सुधार होगा तो पर्यावरण में भी फर्क जरूर पडेगा।  

कहने-सुनने में बुरा लगता है, पर हमारी आदत है कि डर के बिना, सीधे शब्दों में कहें तो लतियाये बिना, हम किसी काम को नहीं करते। शायद इसी लिए अंग्रेजों के समय कानून-व्यवस्था चाक-चौबंद थी। अब तो एक कानून बनता है तो उसके दस तोड़ पहले ही सामने ला दिए जाते हैं। और कुछ नहीं तो सौ-पचास लोग आ जुटेंगे नारे-धरने के साथ। कइयों को तो अपना जन-बल दिखाने का मौका मिल जाता है। अब इसी सम-विषम के जोड़-घटाव को लें। सरकार यदि पूर्णतया कटिबद्ध हो पर्यावरण के सुधार के लिए तो क्या नहीं हो सकता ! इसके लिए क्यों किसी को भी छूट दी जाए। सदा बराबरी की रट लगाने वाली महिलाओं को भी पुरुषों की बजाय ज्यादा छूट दे दी गयी तो क्या जब महिला गाडी चलाती है तो कार धूआं कम छोड़ती है ? चलो ठीक है, दे दी तो दे दी, पर फिर उस गाडी में पुरुष के बैठने में आपत्ति क्यों ? उन भले लोगों को भी तो किसी ना किसी तरह अपने गन्तव्य तक पहुँचना ही है, यदि महिला गाड़ीवान के साथ तीन पुरुष चले भी गए तो उस एक वाहन की तो बचत हो ही जाएगी जिसमें ये लोग जाते। 

दुनिया जानती है हमारी फितरत को, हमारे जुगाडपन को, तो आप क्यों आँख बंद किए बैठे हैं ? आपको क्यों नहीं सुनाई पड रहा कि सी.एन.जी. के स्टीकरों की काला बाजारी हो रही है ? क्या कोई उपाय है जो इस धांधली को रोक या पहचान सके ? तो क्यों नहीं ऐसी गाड़ियों को भी इस स्कीम के तहत बंद रखा जाए ? एक बात और उन जुगाडुओं की पहचान और रोक-थाम का कोई उपाय है जो रोज अपनी नंबर प्लेट बदल अपनी गाडी सड़क पर उतार देते हैं ? या फिर गलियों-गलियों से होते हुए कहीं भी पहुंचने वाले, रोके जाने पर भग लिए जाने वाले, पैसे के बल पर दोनों नंबर की गाड़ियां रख सड़क पर भीड़ बढ़ाने वालों पर शिकंजा या नकेल डालने का कोई उपाय है ? नहीं ना ! तो सीधी सी बात है, दस दिनों तक समुद्र से प्रार्थना करने के पश्चात तो प्रभु को भी गुस्सा आ गया था।  आप तो मनुष्य हो, कब तक फूल भेंट करते रहोगे ? अब चालान नहीं उनका लायसेंस जब्त करें, या फिर गाडी ही जब्त हो जो भारी जुर्माने के साथ स्कीम ख़त्म होने पर ही मिले। इस दायरे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाया जाए। अपनी बड़ी-बड़ी फोटो, इश्तेहार लगाने के बदले लोगों को भविष्य के प्रति चेताया जाए, जागरूक बनाया जाए, समझाया जाए। यह भी सच्चाई है कि बदलाव तुरंत तो नहीं आएगा पर धीरे-धीरे ही सही लोगों को समझ में आएगा, जागरुकता बढ़ेगी तो फर्क जरूर पड़ेगा।       

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

I.P.L. में ऐसी कौन सी देश हित की भावना जुडी है ?

पानी की समस्या सिर्फ हमारी ही नहीं है सारा संसार इस से जुझ रहा है। पर विडंबना यह है कि अपने देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने मतलब के सिवा और कुछ भी नज़र नहीं आता। धन-बल और सत्ता के मद में वे कोर्ट के आदेश की भी आलोचना से बाज नहीं आते और अपनी गलत बात पर अड़े रहते हैं...

अपनी बात कहने से पहले नम्रता पूर्वक यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि क्रिकेट बचपन से ही मेरा प्रिय खेल रहा है और अभी भी अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में, जहां खिलाड़ी देश के लिए खेलते हैं, गहरी रूचि है। पर समझ नहीं आता कि I.P.L. जैसे तमाशों का, जो पैसे और सिर्फ पैसों के लिए आयोजित किए जाते हों, वह भी आज की विषम परिस्थितियों और परिवेश में आयोजन करने का क्या औचित्य है ? अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र में पानी 
की भारी कमी के कारण कानून की  फटकार खाने के बाद ही वहां होने वाले मैचों को दूसरे राज्यों में शिफ्ट किया गया। क्या आयोजकों को यह गंभीर संकट दिखाई नहीं पड रहा था ? फिर सवाल यह भी उठता है कि क्या दूसरे राज्यों में पानी की इतनी बहुलता है कि उसे इस भयंकर गर्मी में खेतों-खलिहानों में उपयोग करने के बजाए  खेल के मैदानों के रख-रखाव में बर्बाद कर दिया जाए ? गर्मी के मौसम में ऐसे नौटंकीनुमा खेलों को अपने देश के किसी भी राज्य या फिर विदेश में करवाने से पानी की बचत तो नहीं हो जाएगी। क्योंकि सच्चाई यही है कि यह समस्या सिर्फ हमारी ही नहीं है सारा संसार इस से जूझ रहा है। पर विडंबना यह है कि अपने देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने मतलब के सिवा और कुछ भी नज़र नहीं आता। धन-बल और सत्ता के मद में वे कोर्ट के आदेश की भी आलोचना करने से 
बाज नहीं आते और अपनी गलत बात पर अड़े रहते हैं।  ऐसे लोगों का बेहूदा तर्क रहता है कि खेल के बदले वह राज्य के राजस्व में योगदान दे रहे हैं ! कोई उनसे पूछे कि उनके दिए गए पैसों से घटते जल-स्तर की भरपाई

कैसे हो सकती है ? अब सवाल यह भी उठता है कि इस तमाशे का आयोजन गर्मी में ही क्यों ? तो आयोजकों का कहना है कि दुनिया भर के कार्यक्रमों से ताल-मेल बिठा कर ऐसा करना पड़ता है,     तो हमारे यहां ही 

ऐसा मौसम क्यों चुना जाता है ?  जब कि दुनिया भर के क्रिकेट के खेल की नकेल हमारे हाथों में है !

अब सारे मसले का लब्बो-लुआब यही है कि इन सब का मूल पैसा है। जिसके लिए बड़े से बड़ा खिलाड़ी वह चाहे देसी हो या विदेशी बिकने तक को तैयार रहता है, जैसे कोई उपभोक्ता वस्तु हो।  फिर नैतिकता जैसी कोई मजबूरी नहीं होती, चाहे जिस किसी की तरफ से किसी के विरुद्ध खिलवा लो। इनकी तुलना उन भाड़े के सैनिकों से की जा सकती है. जो पैसे के लिए किसी भी देश के लिए लड़ने पहुँच जाते थे। ये खिलाड़ी भाई लोग भी कहीं भी, कैसी भी जगह,     किसी के साथ  
भी, किसी भी बेढब मौसम में मैदान में उतर जाते हैं। कई खिलाड़ी तो अपने देश के बोर्ड से बगावत कर भारत सिर्फ पैसे के लिए खेलने आने लगे हैं। उस पर विडंबना देखिए कि जिन खिलाड़ियों के बल-बूते पर यह आयोजन सफल होता है, जिन्हें देखने भीड़ उमड़ती है, उन्हीं की मर्जी- नामर्जी का कोई मूल्य नहीं रहता।  ये बिके हुए खिलाड़ी यह भी प्रतिवाद नहीं कर सकते कि सारे खेल रात को ही हों।  टी. वी. प्रसारण की आमदनी के लालच में जिस दिन दो मैचों के आयोजन की मज़बूरी होती है, वैसे एक चौथाई मैच दोपहर बाद भरी गर्मी में ही शुरू करवा दिए जाते हैं। क्योंकि एक साथ एक ही समय दो मैच होने पर टी.वी. चैनलों पर दर्शकों की संख्या बंटने की स्थिति हो जाती है। जिससे तथाकथित T.R.P. पर फर्क पड़ता है।  अब गुलामों की क्या हैसियत कि मालिकों की इच्छा के विरुद्ध चूँ भी कर सकें ? जैसा कहा जाता है वैसा करने को वे मजबूर होते हैं।

इस तरह के आयोजन की सफलता में सबसे बड़ा हाथ दर्शकों का होता है जो इन तमाशों की असलियत जानते-बूझते हुए  भी अपनी उपस्थिति से इसे सफल बनाते हैं,  भले ही परिस्थितियां कैसी और कितनी भी  प्रतिकूल हों। आज देश के किसी भी स्टेडियम में जहां   I.P.L. खेली जा रही है, वहां दोपहर बाद की धूप से दर्शकों के बचाव के लिए पूरी छत नहीं है। आधे से अधिक दर्शकों को मंहगे टिकट खरीदने पर भी धूप में बैठ कर ही खेल देखना पड़ता है। गर्मी से बचाव तभी हो पाता है, जब सूर्य ढल जाए। पर फिर भी लोग तो जाते ही हैं ! क्या जाने वाले सारे लोग जल की कमी या वातावरण के प्रदूषण से अनभिज्ञ होते हैं ? नहीं ! यही बात और उन लोगों का इस खेल के प्रति प्रेम  इस आयोजन की सफलता का राज है।

घूम-फिर कर  के बात वहीं, जागरूकता पर आ जाती है कि जब तक हम इस जैसे क्षणिक रोमांचों के सुख को त्याग, सामने मुंह बाए खड़ी समस्याओं का सामना करने के लिए एकजुट हो कटिबद्ध नहीं होंगे, तब तक किसी भी समस्या का हल नहीं निकल पाएगा। फिर चाहे वह पानी की हो या हवा के प्रदूषण की !  

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

पड़ना असर थम्स-अप का सलमान पर

जिस तरह अभिनय सम्राट दिलीप कुमार दुखांत फ़िल्में करते-करते उनके आदी हो कुछ गमगीन से रहने लगे थे, ठीक वैसा ही हाल सलमान का इस विज्ञापन को करने के कारण हुआ है। पेय के जबरदस्त स्वाद और फ्लेवर के कारण वे इसको अपने से अलग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए यह जरूरी है कि पेय के निर्माता द्वारा सलमान के साथ एक आदमी स्थाई तौर पर  नियुक्त किया जाए जो हर समय उनको होने वाली आपूर्ति पर नजर रखे।  जिससे लाखों-करोड़ों दर्शकों के इस चहेते को अपनी जान जोखिम में डालने की जरुरत ना पड़े......... 

जानकारों, डाक्टरों, विशेषज्ञों आदि का कहना है कि आदमी को अपने जीवन में किसी ना किसी हॉबी को जरूर अपनाना चाहिए।  यह किसी भी चीज की हो सकती है, खेलने की, घूमने की, खाने की, बागवानी की, जानवर पालने की यानि किसी भी तरह की हॉबी किसी में भी पल सकती है। हॉबी को हिंदी में शौक और उसे रखने वाले को शौकीन कहते हैं। शौकीन शब्द को हिंदी में कुछ अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता इसीलिए हमारी नई पीढ़ी ने शौक की जगह हॉबी पालना बेहतर समझा। पर शौक हो या हॉबी, उसकी फितरत है कि वह धीरे-धीरे आदत में बदल जाती है। अब आदत का मतलब लत भी होता है और   हमारे पुराने बुजुर्ग कह गए हैं   कि  लत किसी भी
चीज की बुरी ही होती है। इस बात की सच्चाई को जानने के लिए कुछ सर्वे करने की सोची गयी और इसके लिए ऐसे लोगों को चुना गया जो लोकप्रिय हों, प्रतिष्ठित हों और शहर और गांव सब जगह उनकी पहचान हो। 

तो सबसे पहले सर्वे टीम में जो नाम बिना किसी विरोध के उभर कर सामने आया वह था, हिंदी फिल्म जगत के हातिमताई, सबके चहेते, सलमान खान का। चूंकि परदे पर कहानी का पात्र अभिनय करता है, और सर्वे का उद्देश्य "लत" की कहावत की सच्च्चाई को परखना था, इसलिए सारा ध्यान सलमान द्वारा किए गए विज्ञापनों पर, क्योंकि वहां सलमान ही सलमान के रूप में होते हैं, केंद्रित कर आजकल के एक बहुप्रसारित विज्ञापन को चुना गया। गहरे विश्लेषण, खोज और तहकीकात के बाद जो सच सामने आया वह आश्चर्यजनक रूप से कहावत की सच्चाई सिद्ध करता था कि, लत कोई भी अच्छी नहीं होती।
  
यह बात प्रमाणित हुई सलमान के "थम्स-अप" के विज्ञापनों का विश्लेषण करने पर। इस पेय का प्रचार उन्होंने 2002  में शुरू किया था जो अनुबंध समाप्त होने पर बंद हो गया था। इस विज्ञापन को करने के दौरान उन्हें बार-बार इसे पीना पड़ता था और उसके बेहतर स्वाद के कारण वह उन्हें इतना पसंद आ गया था कि मौका मिलते ही उन्होंने फिर उसकी मशहूरी करनी प्रारंभ कर दी। शुरू में तो सब ठीक रहा, अपने दोस्त-मित्रों के साथ दूकान, पार्टी, मॉल वगैरह में जाना थम्स-अप की मांग करना, पीना-पिलाना, पेय की अच्छाइयों को बताना इत्यादि। उनके विज्ञापन से इसकी मांग इतनी बढ़ गयी कि सलमान को भी इसकी कमी का सामना करना पड़ने लगा। तो वे जहां भी इसकी कमी देखते या स्टॉक ख़त्म पाते वहां किसी ना किसी तरह उसे लेकर ही आते और आपूर्ति होने के बाद वहाँ अपनी प्यास बुझाते थे।
फिर चाहे वह कोई दुकान हो, कालेज हो, मॉल हो या पार्टी हो।  उनके द्वारा येन-केन-प्रकारेण की गयी इसकी आपूर्ति की कोशिशों को भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। सब कुछ सब को पसंद भी आ रहा था पेय की खपत और लोगों में उसकी मांग भी बढ़ रही थी। पर  किसी ने सल्लू भाई पर इसके पड़ते असर को नहीं आंका। वह बेचारे सब को खुश करने की चाहत में इसकी लत लगा बैठे। सर्वे टीम ने यह बात उनके ताजा विज्ञापन में नोट की, जिसमें स्टॉक ख़त्म होने की बात सुन अपने साथी पर भी ध्यान ना देते हुए, बढ़ी  हुई दाढ़ी और गमगीन चेहरे पर उदास सी मुस्कान के साथ सागर, पहाड़, ऊबड़-खाबड़ राह को नजरंदाज करते हुए अपनी जान को जोखिम में डाल, चलते ट्रक से, बिना उसकी कीमत अदा किए जिस तरह थम्स-अप उठाते हैं वह खतरनाक और नैतिकता के विरुद्ध तो है ही, उसके लिए उनकी दीवानगी  भी चिंताजनक है।

अभियान पूरा होने और कहावत सही सिद्ध होने के उपरांत सर्वे टीम के सदस्यों ने, जो लाखों लोगों की तरह सलमान के जबरदस्त प्रशंसक हैं, देश-विदेश में विशेषज्ञों से सलाह की।   जिसका निष्कर्ष यह निकला कि
जिस तरह अभिनय सम्राट दिलीप कुमार दुखांत फ़िल्में करते-करते उनके आदी हो कुछ गमगीन से रहने लगे थे, ठीक वैसा ही हाल सलमान का इस विज्ञापन को करने के कारण हुआ है। पेय के जबरदस्त स्वाद और फ्लेवर के कारण वे इसको अपने से अलग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए यह जरूरी है कि पेय के निर्माता द्वारा सलमान के साथ एक आदमी स्थाई तौर पर  नियुक्त किया जाए जो हर समय उनको होने वाली आपूर्ति पर नजर रखे।  जिससे लाखों-करोड़ों दर्शकों के इस चहेते को अपनी जान जोखिम में डालने की जरुरत ना पड़े। प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास हो गया है और सलमान को भी इसकी सूचना दे दी गयी है। 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

मौकापरस्ती ने चमगादड़ को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा

देश के कुछ हिस्सों में चुनाव चल रहे हैं।  उनमें राजनैतिक दलों द्वारा कैसे-कैसे गठबंधन और दांवपेंच खेले जा रहे हैं उसे देख-सुन कर आश्चर्य और कोफ़्त दोनों ही हो रहे हैं। साफ़ नजर आ रहा है कि शर्म-हया-उसूल-मर्यादा, सब को ताक पर रख किसी भी तरह सत्ता हथियाने या कम से कम उससे जुड़ ही पाने के लिए कोई भी दल किसी भी तरह का समझौता करने के लिए बिकने को तैयार खड़ा है, भले ही उसकी लानत-मलानत होती रहे। राजनीती के सरोवर में जहां कभी-कभी फूल खिल भी जाते थे अब तो वहाँ की सड़ांध के मारे लोग बिदकने लगे हैं पर मजबूरी है, चुनाव के तमाशे में भाग लेने की ! आज के माहौल को देख एक पुरानी कहानी याद आ रही है -               

वर्षों पहले की बात है, जंगल में पशु और पक्षी मिल-जुल कर रहा करते थे।  सबका आपस में भाईचारा, सौहार्द, प्रेम  की मिसाल दी जाती थी। अपनी जरुरत से ज्यादा कोई एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप नहीं करता था। अच्छा-भला समय गुजर रहा था। पर एक बार लंबा अकाल पड़ा। नदी नाले, सरोवर-झील-ताल सब सूखने की कगार पर आ गए। पानी के लिए हाहाकार मच गया। इसी के कारण जानवरों और पक्षियों में भी ठन गयी। जानवरों का तर्क था कि हम जमीन पर रहते हैं और वही ताल-तलैया हैं, इसलिए उन पर हमारा हक है। पक्षियों ने इसका विरोध किया कि पानी कुदरत की देन है और उसके बिना जीया नहीं जा सकता तो उस पर पशु अपना हक कैसे जमा सकते हैं ? बात बढ़ती चली गयी और नौबत युद्ध तक जा पहुंची। दोनों तरफ के लड़ाके आमने सामने आ डटे। लड़ाई शुरू हो गयी।

उसी जंगल में चमगादडों का भी झुंड़ रहा करता था। पर उनको किसी से कोई मतलब नहीं था, चिंता थी तो सिर्फ अपनी, बाकी कोई मरे-जिए उनकी बला से। पर जब पूरा जंगल दो गुटों में बंट गया तो उन्हें भी किसी का पक्ष लेना पड़ना था। तो उन्होंने आपस में सोच-विचार कर यह फैसला किया कि इंतज़ार कर माहौल देखेंगे और जो गुट जीतेगा उसी के पक्ष में वे खड़े हो जाएंगे। उधर एक-दो दिन के युद्ध में ही हजारों पक्षी हताहत हो गए, पशुओं का पलड़ा पूरी तरह भारी  हो गया। यह देख चमगादड़ पशुओं के राजा सिंह के पास जा हाथ जोड़ कर बोले, महाराज हम भी बच्चों को जन्म देते हैं और पशुओं की तरह उन्हें दूध पिलाते हैं इसलिए हम भी आपकी श्रेणी में ही आते हैं हमें अपनी शरण में ले लीजिए। शेर वैसे ही जीत के नशे में था उसे क्या फर्क पड़ता था चमगादड़ के आने-जाने से, सो उसने उन्हें पशुओं के साथ रहने की अनुमति दे दी।

इधर अपनी हार से हताश-निराश पक्षी गरुड़ महाराज के पास पहुंचे और अपनी हालत बयान की। सारी बातें सुन गरुड़ बोले, तुम्हारी हार का कारण तुम्हारा जमीन पर रह कर लड़ना है, तुम्हें तो भगवान ने पंख दिए हैं, तुम उड़ते हुए लड़ोगे तो बिना किसी क्षति के तुम्हारी जीत हो जाएगी। दूसरी सुबह गुरुमंत्र के साथ पक्षियों ने युद्ध आरंभ किया और शाम होते-होते पशुओं की सेना तितर-बितर हो गयी। यह देख मौकापरस्त चमगादड़ तुरंत पक्षियों के राजा के पास गए और बोले, महाराज ! हम तो पक्षियों की श्रेणी में आते हैं, पेड़ों पर रहते हैं, आप सब की तरह उड़ कर ही आते-जाते और शिकार करते हैं, हमें अपनी शरण में आने दीजिए। खगराज ने भी उन्हें पक्षी मान लिया।

अब होता क्या है कि दो-तीन दिन की लड़ाई में हुई बर्बादी देख दोनों पक्ष सहम गए और युद्ध ख़त्म करने की
घोषणा हो गयी। जंगल में आम सभा बुलाई गयी और सारे गिले-शिकवे-द्वेष भुला कर एक साथ रहने पर समझौता हो गया। पानी के बंटवारे पर जब दोनों दलों के हर सदस्य को सबके सामने बुला उसके हिस्से के बारे में बताया जाने लगा तब चमगादड़ की पोल खुल गयी कि कैसे उसने पशु और पक्षियों को बेवकूफ बना अपना स्वार्थ सिद्ध किया था। बस फिर क्या था दोनों पक्षों ने उसकी ऐसी खबर ली कि वह आज तक दिन में निकलने की हिम्मत नहीं कर पाता और सुनसान हो जाने पर रात को ही निकलता है।

यह ठीक है कि, हमारी यानि अवाम की यादाश्त कमजोर होती है और हम अपने नेता-अभिनेताओं के कद-पद के तिलस्म में फंस कर उनके कस्मे-वादे भूल जाते हैं पर ऐसा एक बार, दो बार, तीन बार हो सकता है पर बार-बार की इस नौटंकी को अब जनता भी समझने लगी है। उसे भी अच्छे-बुरे का ज्ञान हो चुका है। इसका प्रमाण भी मिलता रहा है, फिर भी कोई इस सच्चाई से आँख मूंद देश और जनता की भलाई को किनारे कर अपनी रोटी सेकना चाहेगा तो उसे अपने हश्र का अंदाज हो जाना चाहिए। 

रविवार, 17 अप्रैल 2016

क्या पानी साफ़ करने की आर.ओ. तकनीकी पूर्णतया सुरक्षित है ?

कई ऐसी बातें हैं जो हेमा, सचिन या फरहान नहीं बताते, जैसे इसका पानी बैक्टेरिया से पूर्णतया मुक्त नहीं होता। उनके सिस्ट (Cysts) पर मशीन का जोर नहीं चलता। यह विधि शुद्ध जल के साथ ही करीब उतना ही अशुद्ध जल भी उपलब्ध करवाती है, जिसका निस्तारण अपने आप में एक समस्या है। दूषित पानी पर खर्च होने वाली बिजली की खपत अपनी जगह है !  
     
जैसे-जैसे देश में पानी की किल्लत बढती जा रही है वैसे-वैसे पीने के पानी की शुद्धता का स्तर घटता जा रहा है, जिसका फ़ायदा सीधे-सीधे पानी का कारोबार करने वाली कंपनियों के खाते में जुड़ रहा है। इसीलिए पहले जहां इक्का-दुक्का नाम इस तरह के पानी में हाथ धोते थे वहीं अब पचासों लोग इस व्यापार से जुड़ नहा-धो रहे हैं। इनके तरह-तरह के दावे हैं, कोई कीटाणु-जीवाणु मुक्त पानी पेश करता है तो कोई भारी पानी को पीने लायक बनाने का दावा कर अपनी मशीन बेचने की कोशिश में लगा है तो कोई उसमें अपनी तरफ से लवण-विटामिन
मिला आपकी सेहत की फ़िक्र जता, प्रसिद्ध हस्तियों से अपनी सिफारिश करवाता नज़र आता है।

इसी कड़ी में पहले साधारण फ़िल्टर आए  फिर प्यूरीफायर, फिरआयोनाइजर, फिर आर.ओ., यू. वी., इन्फ्रारेड और ना जाने क्या-क्या, आज बाजार में जल-जनित बीमारियों का डर दिखा-दिखा कर लोगों की जेबें ढीली करवा रहीं हैं। जब से क्रिकेट की नौटंकी ने मीडिया के पल-छिन पर अपना साया डाला है तबसे लोगों के सामने आर.ओ. पानी और उभर कर सामने आया है। आर.ओ. यानि रिवर्स ओसमोसिस विधि द्वारा शुद्ध किया गया पानी। ऐसी मशीने बनाने वाली कंपनियां फ़िल्मी और खेल जगत की दिग्गज हस्तियों से अपने द्वारा शुद्धतम जल की उपलब्धता का प्रचार करवा आम-जन को आकर्षित कर अपना उत्पाद बेचने में दिन-रात एक किए हुए हैं। साधारणतया आम इंसान को जल-शोधन की पूरी जानकारी नहीं होती, उसे चिंता होती है अपने परिवार की सेहत की इसीलिए वह बेचने वाले चेहरे पर विश्वास कर कोई भी मशीन घर उठा लाता है, बिना यह जांचे-परखे कि उसके घर आने वाले पानी को आर.ओ. मशीन की जरूरत है भी कि नहीं। ऐसे पानी की आदत पड जाने पर बाहर का कोई दूसरा पानी सेहत पर विपरीत असर भी डाल सकता है। 

दूसरी अहम बात है कि अब तो वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि आर.ओ. विधि का अनियंत्रित प्रयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। क्योंकि इस विधि से पानी साफ़ करने पर उसका करीब 40 प्रतिशत पानी दूषित हो बेकार हो जाता है। जो अपने विषाक्त पदार्थों के साथ फिर वापस धरती में जा उसे प्रदूषित कर देता है। इसके साथ ही और भी कई वजहें हैं जो हेमा, सचिन या फरहान नहीं बताते, जैसे इसका पानी बैक्टेरिया से पूर्णतया मुक्त नहीं होता। उनके सिस्ट (Cysts) पर मशीन का जोर नहीं चलता। यह विधि शुद्ध जल के साथ ही करीब उतना ही अशुद्ध जल भी उपलब्ध करवाती है। जिसका निस्तारण अपने आप में एक समस्या है। दूषित पानी पर खर्च होने वाली बिजली की खपत अपनी जगह है। यदि बिना किसी परेशानी के साफ़ पानी उपलब्ध हो तो उस यंत्र की कीमत को नज़रंदाज किया जा सकता है पर इसकी कीमत अलग से जेब पर भारी पड़ती ही है। इन सब के बावजूद इसकी तकनीक में यदि कोई खराबी आ जाए तो वह उपभोक्ता को जल्द पता भी नहीं चलती। 

ऐसा नहीं है कि इस तकनीक में सब बुरा ही बुरा है। इसके द्वारा  भारी पानी को पीने योग्य बनाया जा सकता है। यह लेड, पारा, क्लोरीन जैसी अशुद्धियों को दूर करने में सक्षम है। इसके साथ ही सूक्ष्म पैरासाइट को भी ख़त्म करने की क्षमता रखता है। इसलिए घर पर आने वाले पानी और अपनी जरूरतों को पूरी तरह समझ कर ही किसी जल-शोधक को अपनाना चाहिए।     

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

तोला-माशा-रत्ती की "रत्ती"

यह लता जैसे पौधे के सेम रूपी फल के बीज होते हैं। प्रकृति का चमत्कार है कि इसके सारे बीजों का आकार और वजन एक समान, करीब 0.12125 ग्राम, होता है। हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने इसकी खासियत को पहचाना और इसे तौल के माप के रूप में अपना लिया था...... 

आज सुबह-सुबह मेरी छोटी भतीजी, ख़ुशी को उसकी दादी से किसी बात पर मीठी फटकार पड़ गयी कि, तुझे रत्ती भर अक्ल नहीं है ! उसी समय ख़ुशी मेरे पास आई और पूछने लगी, बड़े पापा यह रत्ती क्या होता है ?  मैंने पूछा, तुमने कहां सुन लिया ? वह बोली, दादी से। मैंने कहा यह एक पेड़ का बीज होता है, कुछ सालों पहले तक जब मीट्रिक प्रणाली नहीं आई थी तब सोना-चांदी जैसी कीमती धातुओं को तौलने का सबसे छोटा माप हुआ मैंने ख़ुशी को अपने पास बैठाया और पूछा कि क्या तुम सचमुच रत्ती वगैरह के बारे में जानना चाहती हो ? उसके हाँ कहने पर मैंने उसे विस्तार से बताना शुरू किया। 
रत्ती के बीज 
आज की युवा पीढ़ी को इन सब के बारे में कोई जानकारी नहीं है। तोला तो फिर भी कभी-कभार सुनाई दे जाता है पर माशा और रत्ती के बारे में तो शायद ही इन्होंने सुना होगा। 
करता था। ख़ुशी की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं, बोली बीजों से सोना तौलते थे ? उसकी बातें सुन मुझे एहसास हुआ कि 

रत्ती गहने आदि तौलने का हमारे देश में सबसे छोटा माप हुआ करता था। यह लता जैसे पौधे के सेम रूपी फल के बीज होते हैं। प्रकृति का चमत्कार है कि इसके सारे बीजों का आकार और वजन एक समान, करीब 0.12125 ग्राम, होता है। इनका आयुर्वेद में दवा के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने इसकी खासियत को पहचाना और इसे तौल के माप के रूप में अपना लिया था। उन्होंने आम आदमी की सहूलियत के लिए इन्हीं के सहारे तौल का एक ढांचा खड़ा किया था। जिसके अनुसार -                  

8 रत्ती = 1 माशा, 
12 माशा = 1 तोला, जो आज के 11.67 ग्राम के करीब होता है। 
80 तोले = 1 सेर और 
40 सेर का एक मन हुआ करता था। जो आज के 37. 3242 कीलो के बराबर का भार था। 
पर आजकल सोने के वजन के लिए अत्याधुनिक कंप्यूटरीकृत प्रणाली आ चुकी है और पुराने समय
रत्ती का पौधा 
के सभी माप-तौल बंद हो चुके हैं।
 यह समझ लो कि जैसे पहले दूध "सेर" के हिसाब से मिलता था और अब "लीटर" में, कपडे इत्यादि पहले "गज" से नापे जाते थे अब "मीटर" के हिसाब से मिलते हैं वैसे ही "पॉव और सेर" अब ग्राम और कीलो में बदल गए हैं। इससे गणना में थोड़ी सहूलियत भी हो गयी है। 
फिर ख़ुशी से पूछा, कुछ समझ आया ? तो उसने हां रुपी सर हिलाया और बोली कल स्कूल में अपनी फ्रेंड्स की क्लास लूंगी। मैंने कहा वह सब ठीक है, ज्यादा सर खपाने की जरुरत नहीं है पर सामान्य ज्ञान के नाते यह सब मालुम हो तो अच्छी बात है।       

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

फिर एक बार सालासर बालाजी यात्रा

माँ अंजनी 
कुछ पर्यटन स्थल या धार्मिक स्थल ऐसे होते हैं जहां बार-बार जाने  के बाद भी वहां फिर से जाने की इच्छा बनी ही रहती है। ऐसा ही एक स्थान है राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ कस्बे से करीब 26-27 की. मी. की दूरी पर स्थित सुप्रसिद्ध सालासर बालाजी धाम, जो नेशनल हाईवे 65 पर पड़ता है। यहां साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है। चैत्र और आश्विन पूर्णिमा के समय यहां मेला भरता है जब लाखों लोग अपनी आस्था और भक्ति के साथ यहां आकर हनुमान जी के दर्शन का पुण्य लाभ उठाते हैं। यहां जाने पर एक अलौकिक शांति का अनुभव निश्चित तौर पर होता है। 

सालासर धाम की यात्रा के दौरान दो और धार्मिक स्थलों के दर्शन का सुयोग मिलता है, वह हैं झुंझनू में स्थित रानी सती मंदिर और दूसरा सीकर जिले के खाटू कस्बे में स्थित खाटू श्याम धाम। इसे त्रिकोणी धाम यात्रा भी कहा जाता है। यात्रा के आयोजक या खुद पर्यटक अपना कार्यक्रम इन तीनों जगहों को ध्यान  में रख कर ही बनाते हैं। पर कहते हैं ना कि 'तेरे मन कुछ और है, कर्ता के कुछ और', तो होता वही है जो प्रभू की इच्छा होती है। इस बार हम पांचों के सहयात्री सपत्नीक राजीव जी अपने दोनों बच्चों के साथ थे।पर चाह कर भी समय की पाबंदी के कारण शुक्रवार संध्या चार बजे के पहले निकलना संभव नहीं हो पाया। गाडी ZYLO और चालक संतोष, दो साल पहले की यात्रा वाले सहायक ही थे। पुराने अनुभवों के आधार पर रोहतक-भिवानी-लोहारू-झुंझनु वाला मार्ग ही अपनाया गया। ठहरने के लिए, मंदिर से कुछ दूर होने के बावजूद,  उसी चमेली देवी धर्मशाला को चुना गया
बालाजी महाराज 
जिसने पिछली यात्रा पर बहुत ज्यादा भीड़-भाड़ के बावजूद हमारे रहने  इंतजाम कर दिया था। वैसे भी साफ़-सफाई, भोजन का स्तर और अन्य सुविधाओं को मद्दे नजर रख उसे ही पड़ाव के लिए फिर चुना गया।  वैसे भी जगह जानी-पहचानी थी कहीं और भटकने का मतलब भी नहीं था। रास्ते में ज्यादा न रुकने  के बावजूद 'चेक इन' रात 11.40
 पर ही संभव हो पाया। वहां रात दस बजे तक ही भोजन की व्यवस्था रहती है इसीलिए उदर-पूर्ती का  थोड़ा-बहुत इंतजाम कर रखा गया था। फिर भी बिस्तर पर जाते-जाते 12.30 बज ही गए थे।
सुबह मुझे, अभय, अलका जी और दोनों बच्चों को छोड़ सारे जनों ने सुबह छह बजे की आरती का पुण्यलाभ लिया। दोबारा सब जने फिर 10.30 बजे दर्शन हेतु मंदिर जा डेढ़-दो घंटे में वापस आ गए थे। अप्रैल शुरू होते ही इस बार गर्मी ने भी दस्तक दे दी है। इसलिए फिर कहीं जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। कमरे की ठंडक में तीन-चार घंटे गुजारने के बाद अपरान्ह साढ़े चार के करीब सुजान गढ़ के करीब डूंगर बालाजी के दर्शन हेतु बाहर निकले, जिसकी सालासर से दूरी करीब चालीस की. मी. की है। लौटते हुए माँ अंजनी देवी के दर्शन कर करीब साढ़े आठ बजे वापस पड़ाव पर आ गए आ गए। भोजनोपरांत जिन्होंने 
सुबह की आरती में भाग नहीं लिया था उन्होंने रात दस बजे की आरती में दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई और प्रभु से फिर सकुटुंब आने की हिम्मत और अवसर उपलब्ध करवाने की याचना कर वापसी की अनुमति प्राप्त की।

वापसी में खाटू श्याम जी के दर्शन हेतु जब करीब बारह बजे खाटू पहुंचे तो वहां हज़ारों लोगों को दर्शन हेतु पहले से खड़ा पाया। रविवार का दिन था सो भीड़ पुण्यलाभ के लिए उमड़ी पड़ी थी। दर्शन के लिए कम से कम तीन चार घंटे का समय मामूली बात लग रही थी सो प्रभु से आज्ञा ले वापस दिल्ली की तरफ गाडी का रुख कर दिया और साढ़े सात बजे शाम को शाम घर का दरवाजा खुल चुका था। या सालासर महाराज के दर्शन हेतु मेरी चौथी यात्रा थी।

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