मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

डॉक्टरी नुस्खों की कलिष्ट भाषा

दूर पोस्टिंग पर गए डॉक्टर ने घर पत्र लिखा तो माँ ने बहू से कहा जा सामने वाले केमिस्ट से पढवा कर ला। थोड़ी देर बाद बहू लौटी तो माँ ने पूछा क्या लिखा है चिठ्ठी में ? बहू बोली पता नहीं माँ दूकान वाले ने तो ये दवा पकड़ा दी है :-)  

यह तो हुई मजाक की बात। पर सच्चाई यही है कि अभी भी डाक्टरों के द्वारा लिखे गए नुस्खे और उनमें दी गयी हिदायतें आम मरीजों या उनके घरवालों की समझ से बाहर होती हैं। शायद एक-दो प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो दूकान से दवा ले कर फिर से डाक्टर को दिखाने जाते होंगे, नहीं तो सभी केमिस्ट के भरोसे ही चलते और रहते हैं। यह तो हुई दवा की बात, उसके सेवन की मात्रा और बारंबारता को भी सरल भाषा में ना लिख कर वही वर्षों से चली आ रही लेटिन भाषा के चिन्हों से ही दर्शाया जाता है। जैसे BDS, CST, a.c.,a.c. & h.s., c.m.s., alt.dieb, ind, mane, p.c., q.d.am, q.d.pm आदि। यदि इन्हें सरल शब्दों में लिखा जाए जैसे दिन में एक-दो बार, खाने-सोने के पहले, खाली पेट इत्यादि, तो मरीज और उनके घर वालों को सहूलियत हो जाए बजाए बार-बार डॉक्टर या दवा की दूकान पर जा कर पूछने से। वैसे कुछ डॉक्टर इस बात की तरफ ध्यान देने लगे हैं पर अधिकतर नुस्खे अभी भी उसी ढर्रे पर लिखे चले आ रहे हैं। पता नहीं इस ओर संबंधित लोगों का ध्यान जाता नहीं कि जान बूझ कर ऐसा किया जाता है। वैसे भी डॉक्टरों के इर्द-गिर्द ऐसा आभामंडल रच दिया गया है जिससे साधारण आदमी उनसे ज्यादा बात करने में भी संकोच करने लगा है। विडंबना ही है कि डॉक्टरों, अस्पतालों की आकाश छूती फीस चुकाने के बाद भी आम आदमी अपनी समस्या या जिज्ञासा पर डॉक्टर से पूरी तरह खुल कर बात करने झिझकता है। इसमें डॉक्टरों का भी दोष नहीं है। अपनी तरफ से तो वे पूरी बात समझा देते हैं फिर मरीजों की लंबी कतारें उन्हें भी मजबूर कर देती हैं सबको जल्दी-जल्दी निपटाने के लिए। इसी पूछने की जहमत या झिझक के कारण कई बार मरीज द्वारा दवा लेने में गलतियों का होना भी नकारा नहीं जा सकता। ऐसा होने पर इस बात का दोष मरीज या उसके घरवालों का ही माना जाता है।   

मरीज को डॉक्टर से और डॉक्टर को मरीज से अलग नहीं किया जा सकता, पर नुस्खे और हिदायतों को सरल भाषा में लिख कर कुछ तो एक दूसरे की सहायता की जा सकती है। आशा है समय के साथ इस पर भी ध्यान दिया जाएगा।      

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

रावण दहन की आग पर सिकना रोटियों का

जगह हो न हो छोटे-छोटे पार्कों में ही खतरा मोल ले तीन-तीन पुतलों का दहन किया जाने लगा है। एक बात और हो सकता है कुछ लोगों को अखरे भी, पर सच्चाई यही दिख रही है कि ये आयोजन कुछ लोगों के अहम को पूरा करने या फिर भविष्य का मंच तैयार करने के लिए करे या करवाए जाते हैं। इसी बहाने उन्हें अपनी दूकान सजाने का भी अवसर जो मिल जाता है। 

दशहरा, देश के बड़े त्योहारों में से एक। बुराई पर अच्छाई की प्रतीतात्मक जीत को दर्शाने का माध्यम। रामलीला का मंचन, धूम-धड़ाका, आतिशबाजी, हाट-मेला-बाज़ार, भीड़-भाड़, लोगों का रेला, मौज-मस्ती,
उत्साही बच्चे। ऊँचे से ऊँचे पुतले बनाने की होड़, दिन ब दिन बढ़ते आयोजन, छुटभइये नेताओं को भी मिलते अवसर। 

एक समय था दिल्ली में जगह-जगह माता के जगराते हुआ करते थे। ज्यादातर टैक्सी या त्रि-चक्र स्कूटर स्टैंडों के सदस्य इस तरह के आयोजन किया करते थे या फिर दशहरे पर सार्वजनिक पुतला दहन, वह भी कहीं-कहीं आयोजित होता था। पर अब तो चाहे कोई भी उत्सव हो, चाहे गणेशोत्सव हो, दुर्गा पूजा हो, दशहरा हो, होली-दिवाली मिलन हो, इन सब के कार्यक्रम हर गली-मौहल्ले में होने लगे हैं। जैसा कि अभी दशहरे के पुतला दहन का आयोजन।  एक ही कालोनी में दो-तीन जगह पुतले खड़े कर दिए गए दिखे। जगह हो न हो छोटे-छोटे पार्कों में ही खतरा मोल ले तीन-तीन पुतलों का दहन किया गया। एक बात और हो सकता है कुछ लोगों को अखरे भी, पर सच्चाई यही दिख रही है कि ये आयोजन कुछ लोगों के अहम को पूरा करने या फिर भविष्य का मंच तैयार करने के लिए करे या करवाए जाते हैं। इसी बहाने उन्हें अपनी दूकान सजाने का भी अवसर जो मिल जाता है। प्रभू राम तो गौण होते जा रहे हैं। भीड़ के लिए आज का दिन या तो रावण के नाम रहता है, जिसके पुतलों की भव्यता पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है, उसका किरदार निभाने वाले कुछ ख़ास और जाने-माने नामों को चुना जाने लगा है या फिर आज उन छुटभइये नेताओं की निकल पड़ती है जिन्हें भारी-भरकम नेताओं के सामने खड़े होने का भी अवसर नहीं मिलता। वे भी भीड़ के सामने आ अपनी पहचान करवाने का मौका पा जाते हैं। उनके शुभ चिंतक बार-बार उनका नाम ले-ले कर जबरदस्ती तालियां बजवा कर अपने लिए भी कहीं जगह बनवाने की जुगाड़ कर लेते हैं।  
                          
बड़े आयोजनों को ही देख लें। श्रीराम पक्ष के कुछ किरदारों की आरती-तिलक कर अौपचारिकता पूरी होते ही सब का ध्यान पधारे हुए विशिष्ट जनों पर केंद्रित हो जाता है। जितनी आव-भगत उन में से हरेक की होती है उतनी तो पूरे राम-दल की भी नहीं होती। फिर उनमें भी होड़ सी करवा दी जाती है रावण के पुतले पर तीरों की बौछार करवाने में। ऊपर बैठा रावण भी हाथ जोड़ कर कहता होगा, हे प्रभू, उस समय तो अपने कर्मों के कारण आपने मेरा वध किया था, वह सम्मानजनक अंत था मेरा। तब  मुझे उतनी तकलीफ नहीं हुई थी पर इस अपमानजनक स्थिति से हर साल दो-चार होने में बहुत कष्ट होता है।  किसी तरह मुझे निजात दिलवाइए इन भक्तों के चंगुल से !        

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

लगना हलवे का कड़ाही में, चिंता कंजकों की

काम पर जाने वाले हम जैसे लोग, हाथ में पानी का लोटा या जग लिए घर के दरवाजे पर खड़े रहते थे कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार, स्वागत कर अपने काम पर जाएं। देर हो रही होती थी, पर आफिस के बॉस से तो निपटा जा सकता था घर के बास से कौन पंगा ले, वह भी तब, जब बात धर्म की हो, आस्था की हो। वैसे निश्चिंतता इस बात से भी रहती थी कि आज के दिन तो आफिस का बॉस भी "अपने बॉस" से डरता अपने घर लोटा लिए खड़ा  होगा .…… 

आज सुबह, करीब पौने सात का समय था, थोड़ी हवाखोरी के लिए निकला तो  देखा बच्चियों के झुण्ड हाथ में प्लेट नुमा थाली लिए आ-जा रहे हैं। उनके साथ ही दो-तीन नन्हें बालक, जिन्हें "लैंकडा" कहा जाता है वे भी काफी व्यस्त दिख रहे थे। सुबह-सुबह सारे बच्चे नहाए-धोए, टीप-टॉप नज़र आ रहे थे। बच्चियों के कंधों पर बाकायदा पर्स नुमा बैग लटके हुए थे। कमाई और उपहार सहेजने के लिए। नवरात्र की अष्टमी जो थी, कमाई के साथ-साथ मौज-मस्ती का दिन। बच्चों को तो मौज-मस्ती का कोई न कोई बहाना चाहिए। उन्हें ना खाने से मतलब होता है ना पैसों से। रोजमर्रा के बंधे-बधाए नियमों से छुटकारा ही उनको प्रफुल्लित करने के लिए बहुत होता है। नहीं तो इन्हें ही रोज स्कूल भेजने के लिए सुबह उठाते-उठाते माँ-बाप की परेड हो जाती है।  कुछ सालों पहले स्कूल वगैरह में इन दिनों लंबी छुट्टियां हुआ करती थीं। हड़बड़ाहट नहीं होती थी, सो ऐसे दृश्यों की शुरुआत साढ़े आठ-नौ बजे दिन से शुरू होती थी। पर
समय के साथ घटती छुट्टियों और बढ़ती आपा-धापी ने इस उत्सव के साथ भी तनाव को जोड़ दिया है। अल-सुबह कार्यक्रम की शुरुआत होने लगी है। आस्तिक गृहणियां इन दिनों सदा से ही चिंतित रहती हैं, कन्याओं की आपूर्ती को लेकर। जरा सी देर हुई और कहीं अघाई कन्या ने खाने से इंकार कर दिया तो हो गया अपशकुन। इसीलिए होड़ रहती है पहले अपने घर कन्या बुला कर जिमाने की। हैं तो आखिर बच्चियां ही ना ! कम-ज्यादा
खा लेने से कहीं तबियत ही ना बिगड़ जाए, इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। 

वर्षों के बाद इस बार इन दिनों दिल्ली में होने का सुयोग मिला है। तो फिर पुरानी यादें ताजा हो गयीं हैं। अस्सी
के दशक की याद आती है।      दिल्ली में हमारी  कालोनी में,  खास कर अष्टमी के दिन, कैसे  आस - पडोस की अभिन्न सहेलियों में भी अघोषित युद्ध छिड़ जाता था।   सप्तमी की रात से  ही कंजकों  की बुकिंग शुरु हो जाती थी। फिर भी सबेरे-सबेरे 'हरकारे' दौड़ना शुरु कर देते थे। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी तक आई क्यूं नहीं ? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ? "पिंकी" आ कर फिर कहाँ चली गयी ?  कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है !         
इधर काम पर जाने वाले हम जैसे लोग, हाथ में लोटा - जग लिए घर के  दरवाजे पर खड़े रहते थे कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार, स्वागत कर अपने काम पर जाएं। देर हो रही होती थी, पर आफिस के बॉस से तो निपटा जा सकता था, घर के इस बास से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो। वैसे निश्चिंतता इस बात से भी रहती थी कि आज के दिन तो आफिस का बॉस भी "अपने बॉस" से डरता अपने घर लोटा लिए खड़ा होगा । 

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

रामलीला के संवादों में हिंग्लिश की सेंध

कुछ लोगों का मानना है कि  रामलीला में  "इस लक्ष्मण रेखा को पार मत कीजिएगा" जैसे संवाद में  आजकल के बच्चे रेखा शब्द का अर्थ नहीं समझ पाते इसलिए अब इस संवाद को बदल कर "यह लाइन मत क्रॉस करना" कर देने से बात सब की समझ में आ जाएगी। "लक्ष्मण रेखा लांघना" और "लाइन क्रास करना" दोनों  के भावों में जमीन-आसमान का फर्क है।  पर उनके अनुसार हिंग्लिश जैसी भाषा, जो आम बोली जाती है के उपयोग में कोई बुराई नहीं है। गोया कि बच्चे को सात्विक भोजन के गुण न समझा कर उसके मन का फास्ट-फ़ूड परोस दिया जाए !!!

समय करवट ले रहा है। यह तो सनातन प्रक्रिया है। बदलाव में प्रगति निहित है। पर कभी-कभी लगता है कि इस क्रिया में कुछ लोग अति-उत्साहित हो अतिरेक भी कर जाते हैं। अब जैसे शारदीय नवरात्र के अवसर पर देश भर
में सैंकड़ों जगह आयोजित की जाती हैं राम-लीलाऐं। समय के साथ-साथ इनमें भी भारी बदलाव आए हैं।फिर चाहे वे तकनीकी में हों, "ग्लैमर" में हो, मंच-सज्जा में हों, वेश-भूषा, परिधान में हों, सब स्वागत योग्य ही हैं, बशर्ते यह सब ग्रंथ की गरिमा के अनुरूप हों। सबसे बड़ी बात है इन कथाओं में प्रयुक्त होने वाले संवाद और उनकी भाषा। यह सही है कि संवाद ऐसे होने चाहिए जो हर तरह के अवाम को समझ में आ जाएं। पर ऐसे भी ना हों कि आम नाटकों की तरह उनमें चलताऊ भाषा का प्रयोग किया गया हो। पर कुछ ऐसे ही बदलावों की पदचाप सुनाई देने  लगी है।


दिल्ली की एक रामलीला कमेटी के कर्ता-धर्ता की तरफ से कुछ ऐसा ही बयान सामने आया है, जिसमें उन्होंने संवादों में अंग्रेजी शब्दों यानी युवाओं में लोकप्रिय हिंग्लिश के उपयोग की हिमायत की है। उदाहरण स्वरुप उनका कहना है कि अब तक सीता जी के जोर देने पर लक्ष्मण, राम की खोज में जाने के पहले कुटिया के द्वार के आगे एक लकीर खींच कर सीता जी से कहते रहे हैं कि इस लक्ष्मण रेखा को पार मत कीजिएगापर आजकल के बच्चे रेखा शब्द का अर्थ नहीं समझ पाते इसलिए अब इस संवाद को बदल कर "यह लाइन मत क्रॉस करना" कर देने से बात सब की समझ में आ जाएगी। हमारी संस्कृति में लक्ष्मण रेखा एक आदर्श बन चुकी है। इस संवाद ने लोकोक्ति का रूप ले लिया है। जो गहराई इस संवाद में है वह लाइन क्रास करने में कहाँ से आ पाएगी। राम कथा का एक-एक संवाद अपने-आप में पूर्ण शिक्षा है। ऐसे कदम हमारी शिक्षा प्रणाली पर भी सवाल खड़ा करते हैं। क्या आज की शिक्षा इतनी लचर है कि वह बच्चों को रेखा जैसे हिंदी के आसान शब्दों का अर्थ भी नहीं समझा सकती। जिस रामायण ने वर्षों भारतीयों को दुःख में सुख में, लाचारी में बेबसी में, देश में विदेश में अपनी संस्कृति से बांधे रखा।  सर्वाधिक लोकप्रिय जो कथा देश के नागरिकों के रोम-रोम में समाई हुई है। जो आज तक गांव-गवईं, अनपढ़, अशिक्षित सभी की समझ में आती रही, उसे ही लोग शायद अपने-आप को कुछ ज्यादा ही प्रगतिशील और खुले विचारों का दर्शाने के लिए मिटाने पर तुले हुए हैं।

विडंबना है कि कोशिश यह नहीं की गयी कि बच्चों को रेखा का अर्थ समझाया जाए, उसके बदले संवाद की आत्मा पर ही हमला कर दिया गया है। "लक्ष्मण रेखा लांघना" और "लाइन क्रास करना" दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। उनका कहना है कि पहले रामलीला के संवाद संस्कृत में होते थे फिर उसका स्थान हिंदी ने ले लिया तो अब हिंग्लिश जैसी भाषा, जो आम बोली जाती है के उपयोग में कोई बुराई नहीं है। गोया कि बच्चे को सात्विक भोजन के गुण न समझा कर उसके मन का फास्ट-फ़ूड परोस दिया जाए। पर बात यहीं ख़त्म नहीं हो रही। कुछ लोग हिंदी रजतपट के "बैड मैंनों" की लोकप्रियता को भुनाने के लिए अपने यहां बुला रहे हैं और इतना ही नहीं आने वाले वे लोग अपनी फिल्मों के पुराने किरदारों द्वारा बोले गए तथाकथित लोकप्रिय संवाद तथा लटके-झटके यहां मंच पर भी चिपकाएंगे, और फिर बात यहीं तक रह जाएगी यह भी तो तय नहीं है। अपने-अपने खेल को और प्रचार दिलाने, अधिक से अधिक भीड़ जुटाने के लिए आयोजक किस हद तक जाएंगे कैसे-कैसे हथकंडे अपनाएंगे यह कौन कह सकताा है। हो सकता है फिल्मों की तरह द्वि-अर्थी और गाली-गलौच से भरपूर संवाद असुरों को और नीच-हीन दिखाने के नाम पर ठूंस दिए जाएं !  

धीरे-धीरे बची-खुची श्रधा, भक्ति, आस्था जैसी भावनाऐं तिरोहित होती जा रही हैं या कहिए कर दी जा रही हैं और उनकी जगह बाज़ार अपने पूरे लाव-लश्कर और बुराई के साथ हावी होने की फिराक में आ खड़ा हुआ है।  हर काम की तरह न्यायालय का मुंह जोहने से तो अच्छा है कि ऐसी बातों पर शुरू से ही अकुंश लग जाए।     

शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

M.T.N.L. की बलिहारी, तारे दियो दिखाए

पिछले रविवार को श्रीमती जी को नर्सिंग होम में भर्ती करवाना पड़ा था। लगातार दोस्त-मित्र-रिश्तेदारों के फोन आ रहे थे, मोबाइल भी व्यस्त होना ही था, उपर से इस फर्जी की वही टेढ़ी चाल।  हद तो तब हो गयी जब डाक्टर से बात करते-करते ही ये सुप्तावस्ता में चला गया। किसी तरह बात संभाली। एक बार तो मन बना ही लिया था कि उपभोक्ता फोरम में चला जाए पर फिर … 

दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, पता नहीं कितने अनुभवों के बाद किसी ने यह निष्कर्ष निकाला होगा। वर्षों तक #भारत संचार निगम लिमिटेड (B.S.N.L.) को झेलते हुए लगता था कि उसके बड़े भाई #महानगर टेलेफोन निगम लिमिटेड (M.T.N.L.) की कार्य कुशलता प्रभू के प्रसाद की तरह उच्च कोटि की और बेहतर होगी। पर छोटे मियाँ तो छोटे मियाँ, बड़े मियाँ सुभान-अल्ला।       

होता यह है कि दिन भर की भागा-दौड़ी और मोबाइल की सुविधा (?) के कारण घर के अचल फोन की गड़बड़ी पर तब तक ध्यान नहीं जाता जब तक कि कोई बड़ा बखेड़ा ही खड़ा न हो जाए। महीनों से तारों से बंधा यह फोन अपनी मर्जी के मुताबिक़ ही काम कर रहा था। रिसीवर उठाने के बाद भी घंटी घनघनाना, उठाने पर बात कम घड़घड़ाहट ज्यादा सुनाई देना, बात करते-करते कनेक्शन कट जाना रोजमर्रा की बात थी। सामने वाले की अक्सर शिकायत होती थी  कि आप बीच में ही फोन काट देते हो, बुरा भी लगता था कि जरूरी बात पूरी नहीं हो पाती। अपनी गलती न होने की बात बार-बार समझाना भी मुश्किल होता था। पर जैसे शरारती बच्चे के सुधरने की उम्मीद  उसके अभिभावक नहीं छोड़ते वैसे ही हम भी इस सरकारी नकचढ़े से जुड़े रहे।

पिछले रविवार को कुछ तकलीफ के कारण श्रीमती जी को नर्सिंग होम में भर्ती करवाना पड़ा था। लगातार दोस्त-मित्र-रिश्तेदारों के फोन आ रहे थे, मोबाइल भी व्यस्त होना ही था, उपर से इस फर्जी की वही टेढ़ी चाल।  हद तो तब हो गयी जब डाक्टर से बात करते-करते ही ये सुप्तावस्ता में चला गया। किसी तरह बात संभाली। एक बार तो मन बना ही लिया था कि उपभोक्ता फोरम में चला जाए पर फिर … क्योंकि उधर कोई असर नहीं पड़ने वाला, जेब से पैसा लगे तो चिंता होती है। सरकारी पैसे के नुक्सान पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। 

ऐसा नहीं है कि शिकायतें नहीं कीं पर इन्हें ना सुधरना था सो नहीं सुधरे ! उधर जले पर नमक तब पड़ जाता है जब इनसे जुड़े लोगों की कॉल आती है, फोन ठीक हो गया ? आज भी पहले फोन पर ऐसा पूछने और मेरे नहीं कहने पर उधर से फोन रख दिया गया। कुछ देर बाद फिर ऐसा ही पूछा गया तो पूरी बात बताते-बताते लाइन कट गयी। घंटे बाद फिर फोन आया कि फॉल्ट क्या है ? आप तो बीच में ही फोन रख देते हैं, ये सुनते ही आपे को बाहर जाने से जबरन रोका और बताया कि यही फॉल्ट है, देखें अब क्या होता है। संबंधित लोग अपने खटिए के नीचे भी सोंटा घुमाते हैं या सिर्फ निजी कंपनियों पर ही नकेल कस अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। 

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

महाराज अग्रसेन के जन्मदिवस पर विशेष


अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे। जिन्होंने प्रजा की भलाई के लिए वणिक धर्म अपना लिया था। इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम भाग में महाभारत काल में हुआ था। ये      प्रतापनगर के राजा बल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्रजी, जो खुद भी वैश्य समुदाय से थे, ने 1871 में "अग्रवालों की उत्पत्ति" नामक प्रमाणिक ग्रंथ लिखा है जिसमें विस्तार से इनके बारे में  बताया गया है। इसी में 'अग्रवाल का अर्थ भी समझाया गया है कि अग्रवाल यानी "महाराज अग्रसेन के वंशधर या बच्चे"।          
वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था। उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।

समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेकों राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं। पर इस विवाह से इंद्र जलन और गुस्से से आपे से बाहर हो गये और उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया। चारों ओर त्राहि-त्राही मच गयी। लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने लगे। तब महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। चूंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी।
        
कुछ समय बाद महाराज अग्रसेन ने अपने प्रजा-जनों की खुशहाली के लिए काशी नगरी जा शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे शिवजी ने प्रसन्न हो उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने परोपकार हेतु की गयी तपस्या से खुश हो उन्हें दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और वैश्य परम्परा के अनुसार अपना व्यवसाय करें तो उन्हें तथा उनके लोगों या अनुयायियों को कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होगी।
  
अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेडिये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास थी। उसका नाम अग्रोहा रखा गया। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और माँ वैष्णव देवी का भव्य मंदिर है।

महाराज अग्रसेन के राजकाल में अग्रोहा ने दिन दूनी- रात चौगुनी तरक्की की। कहते हैं कि इसकी चरम स्मृद्धि के समय वहां लाखों व्यापारी रहा करते थे। वहां आने वाले नवागत परिवार को राज्य में बसने वाले परिवार सहायता के तौर पर एक रुपया और एक ईंट भेंट करते थे, इस तरह उस नवागत को लाखों रुपये और ईंटें अपने को स्थापित करने हेतु प्राप्त हो जाती थीं जिससे वह चिंता रहित हो अपना व्यापार शुरु कर लेता था।    

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।   

उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।

महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे।  इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे।  पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी।  वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2015

ऋषि पतंजलि तो खुश हो रहे होंगे

#ऋषि_पतंजलि तो ख़ुश हो रहे होंगे कि उनके जाने के सैंकड़ों सालों बाद भी कोई उनका नाम जीवित रख रहा है। नहीं तो आज कितने लोगों को "चरक", "वाग्भट" जैसे महान विद्वानों के नाम याद हैं ? स्वर्ग इत्यादि जैसी यदि कोई जगह है तो ये लोग वहाँ बैठे हुए पतंजलि जी को बधाइयां ही देते होंगे कि उनके ज्ञान का उपयोग आज भी लोगों की भलाई के लिए हो रहा है। 


पहले यह साफ़ कर देना जरूरी है कि ना तो मैं बाबा रामदेव का अनुगामी हूँ और नाही उनके दो-चार उत्पादों को छोड़ सब का उपयोग करता हूँ नाही उनके योग शिविरों में आता-जाता हूँ। पर जब तकरीबन रोज लोगों की प्रतिक्रियाएं पढने को मिलती हैं जो बाबा रामदेव के बढ़ते-फैलते  व्यापार पर तंज कसती हैं तो समझ में नहीं आता कि ऐसे लोग चाहते क्या हैं ? उन्हें तकलीफ किस बात की है, क्या उत्पादित वस्तुएं मापदंड पर खरी नहीं उतर रही हैं ? क्या उनके उपयोग से ग्राहक को कोई नुक्सान पहुँचने का खतरा है ? क्या वे बाजार में
बिकने वाली अपनी समकक्ष चीजों से ज्यादा कीमत पर बेचीं जा रही हैं ? क्या उत्पाद करते समय किसी कानून का उललंघन हो रहा है ? क्या इन सब चीजों के लिए विदेशी मुद्रा का नुक्सान हो रहा है ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तब तो यही लगता है कि भड़ास सिर्फ मानव सुलभ ईर्ष्या के कारण निकाली जा रही है। यह कुछ लोगों को हजम नहीं हो पा रहा है कि कैसे एक आदमी कुछ ही दिनों में बाज़ार पर कब्जा कर बैठा, वह भी भगवा कपडे पहन कर !  ऐसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता जब विदेशी कंपनियां अपने घटिया, हानिकारक और मंहगे उत्पाद हमारे मत्थे मढ़ती जाती हैं और हम खुशी-ख़ुशी खुद तो काम में लेते हैं ही अपने बच्चों को भी उनका उपयोग करवा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। 
      
आज ही फेस बुक पर पढ़ा कि ऊपर बैठे ऋषि पतंजलि भी अपने अनुगामियों द्वारा अपनी विद्या के इस तरह के उपयोग पर दुःखी हो रहे होंगे। ये भी तो संभव है कि उन्हें ख़ुशी हो कि उनके जाने के सैंकड़ों सालों बाद भी कोई उनका नाम जीवित रख रहा है। नहीं तो आज कितने लोगों को "चरक", "वाग्भट" जैसे महान विद्वानों के नाम याद हैं ?  हमारी नई पीढ़ी के अधिकाँश सदस्यों ने तो शायद ये नाम सुने भी नहीं होंगे !  स्वर्ग इत्यादि जैसी यदि कोई जगह होगी तो ये लोग तो पतंजलि जी को बधाइयां ही देते होंगे कि उनके ज्ञान का उपयोग आज भी लोगों की भलाई के लिए हो रहा है। 

वैसे भी हमें ख़ुशी होनी चाहिए की जो काम अकेले अपने बूते पर टाटा, बिड़ला, अंबानी नहीं कर पाए वह एक भगवाधारी बाबा ने कर दिखाया, भले ही पूरी सफलता नहीं मिली हो, पर शुरुआत तो हुई, कोई तो खड़ा हुआ "मल्टीनेशनल कंपनियों" की हिटलरशाही के विरुद्ध। हम सामान खरीदें या ना खरीदें ये हमारी मर्जी है पर इतना तो कर ही सकते हैं कि फिजूल की बातों से किसी को हतोत्साहित ना करें।  

फोटो के लिए अंतरजाल का आभार 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

अपने हाथ तो जगन्नाथ बना लिए, पर ……

जिन्न को वापस बोतल में भेजना शायद उतना मुश्किल नहीं होता होगा, जितना बिखरे सामान को समेटना। ऊपर से सामान की मालकिन को अपनी हर चीज जरूरी लगती है, भले ही वर्षों से उसका उपयोग न हुआ हो, पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड जाए ! फिर पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड पै जांदी ए" .  अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन गया  ना  !!!  
                     
दिल्ली पहुंचने के बाद ठाकुर जी का फोन आया मेरी खोज-खबर-जानकारियों के लिए और इधर अपनी ढिबरी टाइट हुई पड़ी थी, सामान को ठिकाने लगाते-लगाते। यह बात जब उन्हें बताई तो वो भी बोले अरे आप कहां थकते हो ! तो उनसे कहा भाई शरीर की एक सीमा तो है ही। अब पहले जैसा तो रहा नहीं ! पर जब कोई कहता है कि सर आपको देख कर लगता नहीं कि आप साठ पार कर चुके हो, तो यह बताने पर कि भइए साठ नहीं पैंसठ गुजरे भी एक अरसा हो गया है तो अगले का चेहरा देखने पर मजा तो आता ही है। ये अलग बात है कि इन बातों को सुनने के चस्के को बरकरार रखने के लिए रोज कुछ तो पसीना बहाना ही पड़ता है। पर ठाकुर साहब  बाहर के तो ठीक है घर के बच्चे भी अभी तक पापा को बाहुबली ही समझते हैं। कुछ भी हो, पापा हैं ना। पर अपनी हद मुझे  तो मालुम है ना ! सो धीरे-धीरे आराम से निपटाने की कोशिश हो रही है। इधर अभी तक कोई सहायक या सहायिका ना मिल पाने के कारण हाथ तो जगन्नाथ बन गए हैं पर तन-बदन तो वही है ना इसलिए थकान कुछ ज्यादा ही हावी हो गयी है।  

घर के अंदर सिमटे असबाब का पता नहीं चलता पर जब बाहर आ वह अंगड़ाइयां लेना शुरू करता है तो अच्छी भली जगह कम पड़ती दिखती है। जिन्न को वापस बोतल में भेजना उतना मुश्किल नहीं होता जितना बिखरे सामान को समेटना। वैसे भी चालीस साल की गृहस्थी में जरूरी के साथ गैरजरूरी का जुटते चले जाना और फिर यहां बच्चों का अपना जमावडा, सब मिला कर मजाक-मजाक में कुछ ज्यादा ही हो गया लगता है। ऊपर से सामान की मालकिन को हर चीज जरूरी लगती है भले ही सालों से उसका उपयोग न हो रहा हो पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड जाए !  फिर पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड पै जांदी ए".  अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन गया हूँ। पर ठाकुर जी सर पर पड़ी को निपटाना तो है ही। वैसे मैं अकेले ही नहीं लगा हुआ हूँ, मेरे साथ-साथ आपकी भाभी जी भी अपनी हद से ज्यादा ही साथ दे रही हैं। थकान से दोनों ही लस्त-पस्त हैं। नहाने-खाने का भी ठिकाना नहीं हो पा रहा है।

चलिए आप बताइए कैसे हैं ? ठाकुर जी बोले, सोच रहा हूँ, दिवाली के बाद हरिद्वार जाने का, अगर आप साथ चलें तो बहुत अच्छा रहेगा !  मैं बोला वैसे तो कोई ख़ास प्रोग्राम अब तक नहीं है पर तब तक की कह नहीं सकता, पर आप अपने कार्यक्रम के बारे में अवगत जरूर करवा देना।  हो सका तो जरूर चलुंगा।

तभी जैसे ठाकुर जी को मेरे हालात का ख्याल हो आया, बोले अच्छा फिर फोन करता हूँ , आप भी आराम कर लें।मैं तो चाहता ही यही था, सो तुरंत फोन रख बिस्तर पर पसर गया।      

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

मैंने भी कहा, चलो !!

फिर शनि महाराज को मेरी याद हो आई, बोले बेटा एक बार फिर दिल्ली चलना है ? मैंने कहा आप तो अपनी बात मनवा कर ही रहोगे मेरी कौन सी सुनवाई होनी है ! पर महाराज ! नन्हा सा बीज आसानी से धरती में पनप जाता है। छोटे पौधे भी थोड़ी सी देख-भाल से अपने-आप को संभाल लेते हैं।  पर  विकसित वृक्ष को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह लगाने में असीमित खतरे रहते हैं। शनि महाराज मुस्कुराए बोले, मैं हूँ ना ! अब और क्या कहना था मैंने भी कहा,   चलो !!

जिंदगी एक शिक्षक की तरह इंसान को काफी कुछ सिखाती रहती है। उसके शिक्षण से आदमी की कई धारणाएं बदलती रहती हैं और उसकी आशा के विपरीत बनती रहती हैं। जैसे मुझे ज्योतिष या भाग्य पर अविश्वास नहीं था तो विश्वास भी नहीं था। पर इस विधा में दखल रखने वालों का कहना है कि शनि ग्रह की प्रबलता इंसान को एक जगह टिकने नहीं देती। उसका स्थानातंरण होता रहता है। अब वह भले ही अच्छाई के लिए हो या बुराई के लिए यह अलग बात है। आज उम्र के इस पड़ाव पर आ कर  फुरसत में बैठ जिंदगी की रील को दोबारा देखने पर पाता हूँ कि सचमुच ही कितनी-कितनी बार उखड़ाव आया है जिंदगी में। और उसका दर्द वही जान सकता है जो उसे भोगता है। 

पंजाब के फगवाड़ा शहर में जन्म के पश्चात तीन साल की आयु में कलकत्ता ले जाया गया, जहां मेरे बाबूजी कार्य करते थे। जगह थी कोन-नगर। आठ-नौ वर्षों के बाद उनके कार्यक्षेत्र के बदलाव के कारण मुझे अपने स्कूल के चलते कलकत्ते में अपने काकाजी के पास रहना पड़ा।  जब समझा गया कि अब मैं लोकल ट्रेनों में अकेले सफर कर सकता हूँ तो फिर कलकत्ते से करीब पैंतीस की. मी. दूर कांकीनाडा, जहां पिताजी कार्यरत थे, आने-जाने की इजाजत मिल गयी। पर सात-आठ साल बीतते-बीतते जैसे ही स्नातक हुआ प्रभू की अनुकंपा से कलकत्ते के पास कमरहट्टी नामक स्थान पर इसी नाम की जूट मील में कार्य करने का मौका मिलते ही फिर एक बार जगह छोड़नी पड़ी। वहीँ गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया और जब एक स्थायित्व का अनुभव होने लगा तो कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी कि डोरी-लोटा ले कर दिल्ली जाना पड़ गया। घर तो था वहां पर बाकी जरूरतों के लिए, नई जगह नए परिवेश में मशक्कत तो करनी ही पड़ती है। अच्छा, ऐसा भी नहीं लग रहा था कि कोई अनहोनी हो रही है। सब नॉर्मल तरीके से होता गया और हम उसे स्वीकारते रहे। पर कितने दिन, वही दस-ग्यारह साल का अरसा बीतते न बीतते फिर इतिहास ने दोहराना शुरू किया अपने आप को और इस बार बहाना बना अभिभावकों का आग्रह और जिद। जगह हिस्से में आई तब के मध्य प्रदेश के रायपुर शहर की। पर इस बार जिंदगी मुस्कुराई नहीं बल्कि किसी के भी बुरे ना होते हुए भी एक कड़वाहट भाग्य की लकीर बन साथ में चस्पा हो गई। 

हालांकि रायपुर में पच्चीस-सत्ताईस साल की उम्र और गुजर गयी  पर इन सालों में स्थायित्व और मैं आगे-पीछे होते भागते रहे।  इन ढेर सारे सालों में छह बार अपना बोरिया-बिस्तर उठाना और लगाना पड़ा। इसी बीच शहर तरक्की करता गया, राजधानी बन गया छत्तीसगढ़ प्रदेश की। उसके साथ ही पिछले आठ-नौ साल ठीक-ठाक गुजरे।  बच्चे बड़े हो गए और इस लायक हो गए कि किसी भी तरह का भार उठा सकें तो फिर शनि महाराज को मेरी याद हो आई, बोले बेटा एक बार फिर दिल्ली चलोगे ? मैंने कहा आप तो अपनी बात मनवा कर ही रहोगे मेरी कौन सी सुनवाई होनी है ! पर महाराज ! नन्हा सा बीज आसानी से धरती में पनप जाता है। छोटे पौधे भी थोड़ी सी देख-भाल से अपने-आप को संभाल लेते हैं।  पर  विकसित वृक्ष को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह लगाने में असीमित खतरे रहते हैं। शनि महाराज मुस्कुराए बोले, मैं हूँ ना ! अब और क्या कहना था मैंने भी कहा,   चलो !! जब तुगलक बना ही दिया है। 

इस तरह एक बार फिर  "मुड़-मुड़ खोती, बौड़ हेठां" . "जहाज का पंछी फिर जहाज पर" . "सुबह का भुला................."  . घर के   ..................."   आदि मुहावरों को चरितार्थ किया और सोचा कौन जा सकता है दिल्ली की गलियां छोड़ कर !!!         

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