पर क्या किसी काम का उद्देश्य कहीं कोई मायने नहीं रखता ? पैसा देने वाले को भी किसी के आभा-मंडल से इतना प्रभावित नहीं हो जाना चाहिए कि उसकी चकाचौंध से अच्छे-बुरे की पहचान ही न हो पाए। इसकी नज़ीर महाराष्ट्र सरकार ने पेश की जब एक अभिनेत्री के "ब्रैंड एम्बेसडर" बनने की अनुचित मांग ठुकरा दी........
गुजरे जमाने की फिल्मों में जब खलनायक के रूप में प्राण साहब या प्रेम चोपड़ा जी फ़िल्म के अंतिम भाग में नायिका को जबरदस्ती किसी पहाड़ी या तहखाने में शादी करने के लिए ले जाते थे, हालांकि ऐन वक्त पर नायक उपस्थित हो कर उनके मनसूबों पर पानी फेर देता था, तब भी मन में यह सवाल उठता था कि ऐसे जबरन की गई या थोपी गयी शादी के बाद क्या उनकी जिंदगी कभी भी सामान्य हो पाएगी ! फिल्म के सुखांत पर सवाल भी लोप हो जाता था। वह तो फिल्मों के काल्पनिक संसार की बात थी पर इन दिनों घट रहीं कुछ घटनाओं के कारण फिर वैसे ही सवाल फिजा में मंडराने लगे हैं।
सवाल एक :- कहते हैं ना कि "जिसके पैर न फटी बिवाई वह क्या जाने पीर पराई।" 2008 में एक कन्या के साथ दुष्कर्म हुआ। वर्षों बाद 2014 में आरोपी को जेल हुई पर साल भर बाद ही जज महोदय ने उसे रिहा ही नहीं कर दिया बल्कि पीड़िता को समझौता कर उसी दुष्कर्मी से उसे शादी करने की सलाह भी दे डाली। वह तो इसी बीच उच्चतम न्यायालय का एक फैसला आ गया "कि ऐसे मामलों में समझौता विकल्प नहीं हो सकता" तब हाई कोर्ट ने अपनी बात वापस ली। इस सच्चाई पर कब गंभीरता से चिंतन-मनन होगा कि दुष्कर्म से सिर्फ शरीर ही दूषित और पीड़ित नहीं होता बल्कि इसका असर स्थाई रूप से दिलो-दिमाग को प्रभावित कर डालता है। वे कुछ क्षण उसकी जिंदगी को नर्क बना कर रख देते हैं। वह अपनी ही नज़रों में कभी उठ नहीं पाता।
सवाल दो :- सुप्रसिद्ध धारावाहिक महाभारत में युद्धिष्ठिर की भूमिका निभा चुके गजेन्द्र चौहान को सरकार द्वारा FTII का पदभार सौंपे जाने पर छात्रों के विरोध से मचा बवाल माह भर गुजर जाने पर भी शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। फ़िल्म जगत की जानी-मानी हस्तियां भी छात्रों के पक्ष में अपने विचार प्रगट कर चुकी हैं। तो लगता नहीं कि सौजन्यता पूर्वक, नैतिकता के मद्देनजर गजेन्द्र जी खुद ही इस विवाद से अलग हो जाएं।यहां उनकी क्षमता पर सवाल नहीं उठाया जा रहा बल्कि ऐसे माहौल में वे कैसे काम कर पाएंगे और संस्थान का क्या भला हो पाएगा, यह सवाल उभर कर आ रहा है !
सवाल तीन :- उसी "शो" जगत की विराट शख्शियत अमिताभ बच्चन से भी एक विवाद तब आ जुड़ा जब उन्होंने "दूरदर्शन" द्वारा देश के किसानों के हित के लिए शुरू किए गए एक नए चैनल से अपने आप को जोड़ लिया। इस चैनल के करीब पैंतालीस करोड़ के बजट से श्री बच्चन को 6.31 रुपये का मेहनताना, जो ऐसे काम के लिए किसी भी "प्रमोटर" को दी जाने वाली सबसे बड़ी रकम है, दिया जाना ही विवाद का कारण बना है। साबुन, तेल, फोन, गाडी, खाद्य सामग्री की बात पर कोई ऊंगली नहीं उठाता पर जब किसी काम का उद्देश्य किसी बदहाल तबके का भला करना हो तो सिमित बजट का "Lion's share" किसी को भी देने या लेने पर उंगली तो उठेगी ही। यहां विरोधी पक्ष का कहना है कि जब किसान अपनी बदहाल अवस्था के कारण ख़ुदकुशी कर रहे हों तो ऐसी दशा में इतनी बड़ी रकम एक आदमी को देना कहां तक उचित है ? वहीँ उनके पक्ष में खड़े लोगों का मत है कि ये उनके मंहगे समय की कीमत है।
यह सही है कोई भी अपने काम का मूल्य खुद तय करता है। कोई उसे कम कीमत पर काम करने को मजबूर नहीं कर सकता। पर क्या किसी काम का उद्देश्य कहीं कोई मायने नहीं रखता ? इसके साथ ही पैसा देने वाले को भी किसी के आभा-मंडल से इतना प्रभावित नहीं हो जाना चाहिए कि उसकी चकाचौंध से अच्छे-बुरे की पहचान ही न हो पाए। इसकी नज़ीर महाराष्ट्र सरकार ने पेश की जब एक अभिनेत्री के "ब्रैंड एम्बेसडर" बनने की अनुचित मांग ठुकरा दी।