गुरुवार, 28 अगस्त 2014

क्या आँखों देखा सदा सच होता है ?

सदा से धारणा रही है की कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए, जब तक कि आँखों से देख नहीं लिया जाए. पर क्या आँखें सदा सच दिखलाती हैं ?  नीचे दिए चित्र तो कुछ और ही बताते हैं :-

लगता नहीं कि मोहतरमा जादुई कालीन पर खड़े हो भाषण दे रही हैं ? 


ये क्या ?  इतना धुँआ वह भी मूर्ती के बिगुल से ?

गजब! मुंह से इन्द्रधनुष 



ये कौन है भाई ? अर्द्ध घोडीश्वर 
तो अब क्या विचार है ?  

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

यह कहानी है "टूथ पेस्ट" की


जब कोई  वस्तु आसानी से उपलब्ध हो तो उस पर या उसकी उत्पत्ति पर ध्यान नहीं जाता। पर किन हालात में उसका आविष्कार कैसे, क्यों और कब हुआ, यदि यह सोचा जाए तो काफी कुछ नयी जानकारी मिल जाती है। आज सुबह मुंह में झाड़ू लगाते समय ऐसे ही ख्याल आया कि "टुथ पेस्ट" का जन्म क्यों, कैसे और कब हुआ होगा ? पेस्ट के पहले मुंह साफ करने के लिए सूखे चूर्ण का उपयोग शुरू हुआ था। जिसमें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तत्व काम में लाए जाते रहे थे। अपने देश की बात करें तो यहां सदियों से सुबह सबसे पहले मुख साफ करने की प्रथा का विवरण मिलता है। चाहे वह विभिन्न वृक्षों की पतली टहनियों से बनाई गई दातौन हो या फिर नमक, फिटकरी, मिट्टी या कोयले की राख के  मंजन हों। विदेशों में हड्डी के चूरे के उपयोग का भी विवरण मिलता है. पर ये सब सूखे चूर्ण के रूप में ही काम में लाए जाते थे। फिर सहूलियत को देखते हुए पेस्ट की ईजाद हुई होगी। हो सकता है पहला "पेस्ट" जो दांतों और मसूढ़ों को निरोग रखने के लिए प्रयोग में लाया गया हो वह अपने अौषधीय गुणों के कारण शहद हो, जिसने सूखे चूर्ण की जगह ली हो। वैसे हजारों साल पहले चीन, भारत और मिस्र में "टूथ पेस्ट" के चलन का विवरण मिलता है। चीन में नरम कोपलों, नमक, हड्डी के चूर्ण और सुगंधित फूलों की पंखुड़ियों को पीस कर  पानी में मिला गाढ़ा पेस्ट बना दाँतो को साफ करने का चलन था।  तरह-तरह के प्रयोग करते हुए उन्होंने इसमें जिनसेंग, जड़ी-बूटियों तथा नमक इत्यादि का भी खूब उपयोग किया।   


दुनिया भर में पेस्ट बनाने में तरह-तरह के तत्व काम में लाए गए।  अच्छी-बुरी हर वस्तु को आजमाया गया।यहां तक कि साबुन को भी इसमें मिलाया गया। क्योंकि उद्देश्य सिर्फ दांत साफ करना ही नहीं था बल्कि दुर्गन्धित सांस से छुटकारा पाने की भी इच्छा इसके पीछे थी। आज उपलब्ध पेस्ट का पितामह, पर्शियन संगीतकार "जिराइब" द्वारा ईजाद एक गाढ़े पदार्थ को माना जा सकता है। उसे किन चीजों से बनाया गया था यह जानकारी तो आज उपलब्ध नहीं है। पर वह चीज अपने उद्देश्य में खरी उतरती थी इसलिए अपने समय में काफी लोक-प्रिय थी। इस पर शोध होते रहे, अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग जगहों पर इसे और लोकप्रिय बनाने का काम जारी रखा। पर पेस्ट को पूरा ध्यान 1850 में मिलना शुरू हुआ। उस समय पेस्ट को डिब्बों में भर कर बेचा जाता था, जिसे "Creme Dentifrice" नाम दिया गया था। इसी समय 1873 में कोलगेट का मंच पर अवतरण हुआ, जिसने व्यावसायिक तौर पर बड़े पैमाने में पेस्ट बनाने की शुरुआत की। इसी ने सबसे पहले 1890 में पेस्ट को ट्यूब में रख बाजार में उतारा। जिसका नाम "रिबन डेंटल क्रीम" रखा था, क्योंकि यह ट्यूब से रीबन की तरह निकलती थी। चूँकि यह ब्रश पर आसानी से लग जाती थी इसलिए ये बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गयी। यह अपने आप में एक अनोखा आविष्कार था। पर आज जिस तरह की लचीली ट्यूब में हम पेस्ट को पाते हैं उसकी खोज सबसे पहले 1892 में वाशिंगटन शेफील्ड ने की थी। धीरे-धीरे पेस्ट को सुगंधित करने के साथ-साथ उसमें औषधीय गुणों वाले पदार्थों को भी सम्मिलित किया जाने लगा, जिससे मुंह की सफाई के साथ-साथ दांतों की बीमारियों और उनके पीलेपन से भी निजात मिल सके। समय के साथ-साथ बहुतेरी कंपनियां बाज़ार में अपने-अपने दावों के साथ आ दटीं और दुनिया भर के पेस्ट बाज़ार में उपलब्ध होने लगे। लोगों को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे किए जाने लगे, साथ ही रंग-बिरंगे पेस्ट के साथ जेल जैसा उत्पाद भी बाज़ार में आ गया। पहली बार दांत साफ करने वाले बच्चों के लिए भी बाज़ार में पेस्ट उपलब्ध है जो निगले जाने पर भी नुकसानदेह नहीं होता। जान कर आश्चर्य  होना स्वाभाविक है कि इसकी ईजाद "नासा" ने अंतरिक्ष यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए की थी।  

समय के साथ-साथ लोगों का रुझान प्राकृतिक वस्तुओं की तरफ होने लगा है जिसको देखते हुए कंपनियों ने जड़ी-बूटियों से बने "हर्बल" पेस्ट भी बाज़ार में उतार दिए हैं।  धार्मिक ज्ञान या योग विद्या सिखाने वाली संस्थाएं इस तरह के उत्पादनों को बाज़ार में उतार चुकी हैं। वैसे इनमें से कई लाभप्रद भी साबित हुए हैं। अब तो घरेलू और पालतू जानवरों के लिए भी मुंह-दांत साफ करने के उत्पाद बाजार में उपलब्ध हैं।    

यानी पेस्ट अनंत, पेस्ट कथा अनंता हो गयी है।      

सोमवार, 18 अगस्त 2014

कौन थे वे छह शिशु जिन्हें कंस ने श्री कृष्ण के जन्म के पहले मारा था ?

आज उस महानायक का जन्म-दिवस है, जिसने पूरी दुनिया को अधर्म और अन्याय के खिलाफ खड़े होना सिखाया। जीवन-दर्शन का संदेश और ज्ञान गीता के द्वारा समझाया, भ्रमितों को राह दिखाई. दुखियों को न्याय दिलवाया। इसके लिए भारी कीमत भी चुकाई। जन्म लेते ही माँ-बाप से अलग होना पड़ा, जहां पला-बढ़ा, उस स्थान को भी छोड़ना पड़ा. बचपन से लेकर जीवन पर्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करने के बावजूद उसे बदनाम होना पड़ा, लांछन झेलने पड़े यहां तक कि  श्रापग्रस्त भी होना पड़ा. अपने जीवन काल में ही अपने वंश की दुर्दशा का सामना करना पड़ा पर इस सबके बावजूद चेहरे की मधुर मुस्कान को तिरोहित नहीं होने दिया। कभी अपने दुखों की काली छाया अपने भक्तों की आशाओं पर छाने नहीं दी. क्योंकि सभी का कष्ट हरने के लिए ही तो अवतार लिया था.     

समय द्वापर का था. बड़ी भीषण परिस्थितियां थीं. राज्याध्यक्ष उच्श्रृंखल हो चुके थे। प्रजा परेशान थी. न्याय माँगने वालों को काल कोठरी नसीब होती थी। अराजकता का बोल-बाला था. भोग-विलास का आलम छाया हुआ था। उस समय मथुरा का राज्य कंस के हाथों में था। वह भी निरंकुश व पाषाण ह्रदय नरेश था. वैसे तो वह अपनी बहन देवकी से बहुत प्यार करता था पर जबसे उसे मालूम हुआ था कि देवकी का आठवां पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा तभी से उसने उसे काल कोठरी में डाल रखा था. किसी भी तरह का खतरा मोल न लेने की इच्छा के कारण कंस ने देवकी के पहले छह पुत्रों की भी ह्त्या कर दी। 
कौन थे वे अभागे शिशु ?                 

मथुरा जन्म भूमि 
ब्रह्मलोक में स्मर, उद्रीथ, परिश्वंग, पतंग, क्षुद्र्मृत व घ्रिणी नाम के छह देवता हुआ करते थे. ये ब्रह्माजी के कृपा पात्र थे. इन पर  ब्रह्मा जी की कृपा और स्नेह दृष्टि सदा बनी रहती थी. वे इन छहों की छोटी-मोटी बातों  और गलतियों पर ध्यान न दे उन्हें नज़रंदाज़ कर देते थे. इसी कारण उन छहों में धीरे-धीरे अपनी सफलता के कारण घमंड पनपने लग गया. ये अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझने लग गए. ऐसे में ही एक दिन इन्होंने बात-बात में ब्रह्माजी का भी अनादर कर दिया. इससे ब्रह्माजी ने क्रोधित हो इन्हें श्राप दे दिया कि तुम लोग पृथ्वी पर दैत्य वंश में जन्म लो। इससे उन छहों की अक्ल ठिकाने आ गयी और वे बार-बार ब्रह्माजी से क्षमा याचना करने लगे. ब्रह्मा जी को भी इन पर दया आ गयी और उन्होंने कहा कि जन्म तो तुम्हें दैत्य वंश में लेना ही पडेगा पर तुम्हारा पूर्व ज्ञान बना रहेगा.

समयानुसार उन छहों ने राक्षसराज हिरण्यकश्यप के घर जन्म लिया. उस जन्म में उन्होंने पूर्व जन्म का ज्ञान होने के कारण कोई गलत काम नहीं किया. सारा समय उन्होंने ब्रह्माजी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न करने में ही बिताया. जिससे प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उनसे वरदान माँगने को कहा. दैत्य योनि के प्रभाव से उन्होंने वैसा ही वर माँगा कि हमारी मौत न देवताओं के हाथों हो, न गन्धर्वों के, नहीं हम हारी-बीमारी से मरें. ब्रह्माजी तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो गए.


इधर हिरण्यकश्यप अपने पुत्रों से देवताओं की उपासना करने के कारण नाराज था. उसने इस बात के मालुम होते ही उन छहों को श्राप दे डाला की तुम्हारी मौत देवता या गंधर्व के हाथों नहीं एक दैत्य के हाथों ही होगी. इसी शाप के वशीभूत उन्होंने देवकी के गर्भ से जन्म लिया और कंस के हाथों मारे गए और सुतल लोक में जगह पायी.

कंस वध के पश्चात जब श्रीकृष्ण माँ देवकी के पास गए तो माँ ने उन छहों पुत्रों को देखने की इच्छा प्रभू से की जिनको जन्मते ही मार डाला गया था. प्रभू ने सुतल लोक से उन छहों को लाकर माँ की इच्छा पूरी की. प्रभू के सानिध्य और कृपा से वे फिर देवलोक में स्थान पा गए.

एक बार फिर अवतार लो मेरे देवा

हे प्रभू आज हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है। एक बार सिर्फ एक बार अपने सुंदर, सजीले, उतंग शिखरों वाले मंदिरों से बाहर आकर आप अपनी मातृभूमि की हालत देखो। तुम तो अंतर्यामी हो, दीनदयाल हो, सर्वशक्तिमान हो, तुम्हारे लिए तो कुछ भी अगम नहीं है।

हे श्री कृष्ण,
कोटिश: प्रणाम।
तुम्हारा जन्म दिवस फिर आया है। चारों ओर उल्लास छाया हुआ है। भक्तिमय वातावरण है। पूजा अर्चना जोरों पर है। पर यह सब भी आज के भौतिक युग की बाजारू संस्कृति का ही एक अंग है। एक बहुत छोटा
सा प्रतिशत ही होगा जो सच्चे मन से तुम्हें याद कर रहा होगा। आधे से ज्यादा लोग तो सिर्फ तुम्हारे नाम से मिलने वाले आज के अवकाश से खुश हैं। कुछ लोगों की दुकानदारी है और कुछ लोगों की तुम्हारे नाम की आड़ में अपनी रोटी सेकने का बहाना।


तुम्हारे जन्म दिवस का तो सब को याद है, पर तुम्हारे उपदेश, तुम्हारे त्याग, तुम्हारे आदर्शों, तुम्हारी मर्यादा, तुम्हारे चरित्र, तुम्हारी बातों का इस देश से तिरोधान होता जा रहा है।

तुमने बड़ों की बातों को आज्ञा मान शिरोधार्य किया, आज-कल के तो माँ-बाप ड़रे रहते हैं कि ऐसा कुछ मुंह से निकल जाए जिससे उनके कुलदीपक को कुछ नागवार गुजरे। आज माँ-बाप की बात मानना तो दूर उनकी बात सुननी भी बच्चे गवारा नहीं करते। तुमने नारी का सम्मान करने की बात कही तो आज यहां हालात ऐसे हैं कि जन्म से पहले ही कन्या को परलोकगमन की राह दिखा दी जाती है। नारी उद्धार के पीछे अपना उद्धार करने के लिए लोग कटिबद्ध हैं आज के समाज के कर्णधार। तुमने भाईयों को एकजुट रहने की सलाह दी आज अपने लिए लोग भाईयों को त्यागने में नहीं हिचकते। तुमने अपनी शरण में आनेवाले का सदा साथ दिया चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़ी हो पर आज मुसीबत में पड़े लोगों से भी कीमत वसूली जाती है। तुमने कर्म को प्रधानता दी, फल गौण रखा.  आज फल को सामने रख कर्म किए जाते हैं.  धन-दौलत-एश्वर्य, आज यही प्रतिष्ठा का माध्यम हैं। तुम्हारे समय में शिक्षा, आध्यात्म, मोक्ष आदि पाने का जरिया होता था ऋषि, मुनियों का सान्निध्य, जिसमें वे आदरणीय पुरुष अपना जीवन लगा देते थे, आज के बाबा अपने एश्वर्य, भोग, लिप्सा के लिए दूसरों का जीवन ले रहे हैं। तुमने अपने धुर-विरोधियों को भी सम्मान दिया आज लोग अपने विरोधियों को मिटा देने में ही विश्वास करते हैं।

हे प्रभू आज हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है। एक बार सिर्फ एक बार अपने सुंदर, सजीले, उतंग शिखरों वाले मंदिरों से बाहर आकर आप अपनी मातृभूमि की हालत देखो। तुम तो अंतर्यामी हो, दीनदयाल हो, सर्वशक्तिमान हो, तुम्हारे लिए तो कुछ भी अगम नहीं है।

एक बार सिर्फ एक बार फिर अवतार लो मेरे देवा !!!!!!

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

आना फगवाड़े के नूरे का दिल्ली, किस्मत आजमाने।

चुटकुलों को यदि जोड़ा जाए तो अच्छी भली कहानी बन सकती है. इसी ख्याल से यह प्रयास किया है।  आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी.  

आज आपको एक प्यारे से भोले से बंदे के बारे में बताता हूं। इनका नाम है नूरा। ये पंजाब के सतनाम पुर जिले के फगवाड़ा शहर के पास के एक गांव उच्चा पिंड के रहने वाले हैं। इनकी खासीयत है कि ये जो भी काम हाथ में लेते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए, उसे पूरा जरूर करते हैं। चाहे लोग मजाक बनाएं या हसीं उड़ाएं ये अपने में मस्त रहते हैं।

तो जनाब एक बार नूराजी के कोई संबंधी दिल्ली के मूलचंद अस्पताल में भर्ती थे। तो इन्हें दिल्ली आना पड़ा था। ये नई दिल्ली स्टेशन से पूछते-पूछाते क्नाट प्लेस आए और वहां एक आफिस जाते भले आदमी ने इन्हें बताया कि 342 नं की बस मूलचंद अस्पताल जाएगी। शाम को उसी आदमी ने अपने दफ्तर से लौटते हुए इनकी खास भेषभूषा की वजह से इन्हें पहचान और वहीं खड़े देख पूछा कि आप अभी तक यहीं खड़े हो तो इन्होंने खुश हो कहा कि बस 340 बसें निकल गयी हैं मेरी वाली भी आती ही होगी। नूरा जी अपनी जगह ठीक थे क्योंकि ये जहां रहते हैं वहां यात्री बस दिन में चार बार ही गुजरती है तो लोग बस को उसके नंबर से नहीं उनके क्रम से ही उन्हें अपनी सुविधानुसार काम में लेते हैं। पहली, दूसरी, तीसरी ईत्यादि के रूप में। वही बात इन्होंने यहां भी अपनाई थी।

इनके भोलेपन के ऐसे ही क्रिया-कलापों को भाई लोगों ने चुटकुलों का रूप दे, जगह और किरदार बदल-बदल कर सैंकड़ों बार सैंकड़ों जगह फिट कर दिया है।

अपने नूरा भाई पैदाईशी भोले हैं। युवावस्था का सूर्य उदय होते-होते इन्हें एक कन्या अच्छी लगने लगी थी। पर वह इनके भोलेपन का फायदा उठा  अपना मतलब निकालती रहती थी। पर जब इनके प्रस्ताव बढने लगे तो उसने एक फरमाइश रख दी कि मुझे "क्रोकोडाइल बूट" ला कर दो तब मैं तुम्हारी बात सुनुंगी। अब क्या था नूराजी चल दिए जंगल के दलदल की ओर। एक दिन, दो दिन हफ्ता बीत गया। घर में हड़कंप मच गया कि लड़का गया तो कहां गया। खोज खबर हुई तो बात का पता चला। सब लोग जंगल पहुंचे तो देखते क्या हैं कि आठ-दस मगरमच्छ मरे पड़े हैं और नूरा एक और पर निशाना साधे बैठा है। लोगों ने कहा अरे तू कर क्या रहा है ? तो पता है इन्होंने क्या जवाब दिया, अरे मुझे इनके बूट चाहिये थे और ये सारे के सारे नंगे पैर ही घूम रहे हैं। अब बताइये इतना भोला पर लगन का पक्का इंसान आपने देखा है कभी। 

इधर जब से हमारा नूरा दिल्ली घूम कर अपने पिंड़ लौटा है तब से उसे शहर में कुछ करने का कीड़ा काट गया है। कहां, वहाँ की रौनक, खुशहाली और कहां गांव का सूनापन, सुस्त आलम. रातदिन अब नूरा की आँखों में शहर समाया रहने लगा है। पर अकेले वहां जाने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी, सो गांव के अपने तीन लंगोटियों के साथ माथा-पच्ची करने के बाद वे चारों इस नतीजे पर पहुंचे कि मां-बाप पर बोझ बनने से अच्छा है कि एक बार चल कर किस्मत आजमाई जाए। हिम्मत है, लगन है, पैसा है, मेहनती हैं, भगवान जरूर सफल करेगा। पर सामने सवाल था कि करेंगे क्या? इसमें भी नूरे का ही अनुभव काम आया, शहर जो जा आया था। उसने बताया कि दिल्ली में इतनी गाड़ियां हैं कि आदमी तो दिखता ही नहीं। गाड़ी पर गाड़ी चढी बैठी है। समझ लो जैसे अपने खेतों में धान की बालियां। अब जैसे खेतों में  पानी का पंप होता है वैसे ही वहां गाड़ियों के लिए पेट्रोल पंप होते हैं। अरे लाईनें लग जाती हैं, नम्बर नहीं आता। हम पेट्रोल पंप खोलेंगे।
पर लायसेंस कैसे मिलेगा ?  एक सवाल उछला। घबड़ाने की बात नहीं है। वहां सिन्धिया हाऊस में मेरे मामाजी रहते हैं। बहुत पहुंच है उनकी,  वे सारा काम करवा देंगे। जवाब भी साथ-साथ आया।

बात तय हो गयी। चारों चौलंगे पहुंच गये दिल्ली। दौड़ भाग शुरु हुई, पता चला कि स्वतंत्रता सेनानी कोटे में एक पंप का आवंटन बचा है। सारे खुश। तैयारी कर पहुंचे गए इंटरव्यू देने। पता नहीं सरकारी अफसरों ने क्या देखा, क्या समझा, या फिर इनकी तकदीर का जोर था कि सारी औपचारिकताएं फटा-फट निपट गयीं और इन चारों भोले बंदों की मनचाही मुराद पूरी हो गयी. नूरा पार्टी को अपने लाभ से ज्यादा जनता का ख्याल था सो उनके हितों को मद्दे नज़र रख ऐसा इंतजाम किया गया कि इनके काम से सड़क वगैरह जाम ना हो और पंप खोल दिया गया। पर हफ्ता भर बीत गया, एक भी ग्राहक नहीं आया।
ऐसा क्यूं ?  क्योंकि भोले बंदों ने पंप पहली मंजिल पर खोला था। जिंदगी के पहले काम में ही असफलता।पर जो हिम्मत हार जाए वह नूरा कैसे कहलाए। उद्यमी बंदों ने सोच विचार कर उसी जगह एक रेस्त्रां का उद्घाटन कर दिया। पर भगवान की मर्जी यह भी ना चला। अब हुआ यह था, कि नए काम के उत्साह में ये लोग पेट्रोल पंप का बोर्ड़ हटाना ही भूल गये थे। बोर्ड़ बदला जा सकता था। पर जिद। जिस काम ने शुरु में ही साथ नहीं दिया वह काम करना ही नहीं। यह जगह ही मनहूस है। 


पर अब करें क्या गांव वापस जा हंसवाई तो करवानी नहीं थी. तभी मामाजी ने सुझाव दिया कि यहां टैक्सियों का कारोबार ज्यादातर अपने लोगों के हाथ में है वे तुम्हारी सहायता करेंगे, तो तुम लोग टैक्सी डाल लो. सुझाव सबको पसंद आया और सब बेच-बाच कर इस बार चारों ने एक सुंदर सी मंहगी गाड़ी खरीद ली।  गाड़ी आ गयी पूजा-पाठ कर सड़क पर उतार भी दी गयी। पर दिनो पर दिन बीत गये इन्हें एक भी सवारी नहीं मिली। कारण ?  चारों भोले बंदे, दो आगे, दो पीछे बैठ कर ग्राहक ढूंढने निकलते रहे थे। 

हर बार निराशा हाथ लगने से नूरे का दिमाग फिर गया.  हद हो गयी, यह शहर शरीफों का साथ ही नहीं देता। ईमानदारी से इतने काम करने चाहे, किसी में भी कामयाबी नहीं मिली। ठीक है, हमें भी टेढी ऊंगली से घी निकालना आता है। अब हम दिखाएंगे कि हम क्या कर सकते हैं.

चारों मित्रों ने मश्विरा कर उलटे काम करने की ठान ली। सारा आगा-पीछा सोच दूसरे दिन रात को प्लान बना अपने घर की पिछली गली से एक लड़के को अगवा कर उसे बुद्धा गार्डन ले गए. वहाँ जा कर उससे कहा कि वह अपने घर जाए और अपने बाप से चार लाख रुपये देने को कहे ऐसा ना करने पर तेरी जान ले ली जाएगी यह भी बता देना।
लड़का घर गया, अपने बाप को सारी बात बता दी। लड़के के बाप ने पैसे भी भिजवा दिए।
अरे!!!!  ये कैसे हो गया ?
ऐसा इसलिए क्योंकि लडके का बाप भी तो भोला बंदा ही था ना। :-) :-) :-)

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

शिवलिंग पर बेल पत्र ही क्यों चढ़ाए जाते हैं ?



दुनिया में बहुत सारे ऐसे वृक्ष हैं जो बहुउपयोगी होने के साथ-साथ पवित्र भी माने जाते हैं, पर शिव अराधना के समय खासकर सावन में शिवलिंग पर बेल पत्र ही चढ़ाए जाते हैं। सब को छोड़ कर बिल्व के पत्ते ही क्यों यह सम्मान पाते हैं? 

बेल वृक्ष 
सावन का महीना आते ही शिव जी की आराधना के लिए जन समूह उमड़ पड़ता है. होड़ लग जाती है उन पर जल चढाने की. जगह-जगह, तरह-तरह के द्रव्यों से अभिषेक किया जाने लगता है. पर पूजा में सबसे प्रमुख जो वस्तु मानी गयी है वह है बेल पत्र या बिल्व पत्र। पुराणों के अनुसार यह भोले भंडारी को अत्यंत प्रिय है। जिसके बिना पूजा अधूरी समझी जाती है। ऐसा क्यों और क्या खासियत है इस बेल पत्र में जो इसे इतना महत्वपूर्ण समझा जाता है ?  दुनिया में बहुत सारे ऐसे वृक्ष हैं जो बहुउपयोगी होने के साथ-साथ पवित्र भी माने जाते हैं, पर उन्हें छोड़ कर बिल्व के पत्ते ही क्यों यह सम्मान पाते हैं?  इसके लिए इस वृक्ष को जानना जरूरी है।


बेल का फल 
स्कन्द पुराण के अनुसार एक बार माँ पार्वती मंदराचल पर्वत पर ध्यान लगाए बैठी थीं तभी उनके मस्तक से पसीने की कुछ बूँदें जमीन पर गिरीं, जिनसे बेल वृक्ष की उत्पत्ति हुई। ऐसी मान्यता है कि इस वृक्ष में माँ अपने सभी रूपों के साथ विद्यमान रहती हैं. गिरिजा के रूप में इसकी जड़ों में, माहेश्वरी के रूप में इसके तने में, दक्षयानी के रूप में इसकी डालियों में, पार्वती के रूप में इसके पत्तों में, माँ गौरी के रूप में इसके पुष्पों में और कात्यायनी के रूप में इसके फलों में माँ निवास करती हैं। इन शक्ति रूपों के अलावा माँ लक्ष्मी भी इस पवित्र और पावन वृक्ष में वास करती हैं. चूंकि माँ पार्वती का इस वृक्ष में निवास है इसीलिए भगवान शंकर को यह अत्यंत प्रिय है. जन धारणा तो यह है कि यदि कोई स्त्री या पुरुष इस पेड़ को छू भर लेता है तो उसी से उसके सारे पापों का नाश हो जाता है। इसके साथ ही इस शिव-प्रिय पत्र के बारे में यह भी कहा जाता है कि कोई भी नर या नारी शिव जी का सच्चे मन से ध्यान कर यदि बेल वृक्ष का एक भी पत्ता शिव लिंग को अर्पित करता है तो उसके कष्टों का शमन हो उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं.   
बेल पत्र 

बिल्व पेड़ की पत्तियां तीन के समूह में होती हैं. जिनके बारे में विद्वानों की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। कुछ इन्हें ब्रह्मा-विष्णु-महेश का रूप मानते हैं. कुछ इसे शिव जी के तीन नेत्रों का भी प्रतीक मानते हैं. कुछ लोग इसे परमात्मा के सृष्टि, संरक्षण और विनाश के कार्यों से जोड़ते हैं और कुछ इसे तीनों गुणों, सत, राजस और तमस के रूप में देखते हैं.  


हमारे धार्मिक ग्रंथों और आयुर्वेद में बेल वृक्ष के अौषधीय गुणों का उल्लेख मिलता  है। इसकी जड़, छाल, पत्ते, फूल और फल सभी बहुत उपयोगी होते हैं तथा तरह-तरह के रोग निवारण में काम आते हैं. शिव जी तो खुद बैद्यनाथ हैं शायद इसलिए भी उनको यह वृक्ष इतना प्रिय है.  

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...