इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
रविवार, 27 नवंबर 2011
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
उस दिन तो भगवान ने ही स्कूटर चलाया
घटना करीब तीस साल पुरानी है। मेरी शादी को अभी सात एक महीने ही हुए थे। तब हम दिल्ली के राजौरी गार्डेन में रहते थे। उन्हीं दिनों मेरी चचेरी बहन का रिश्ता हरियाणा के करनाल शहर में तय हुआ था। उसी के सिलसिले मे वहां जाना था। मैने नया-नया स्कूटर लिया था, जो अभी तक दो सौ किमी भी नहीं चला था, सो शौक व जोश में स्कूटरों पर ही जाना तय किया गया। हम परिवार के आठ जने चार स्कूटरों पर सवार हो सबेरे सात बजे करनाल के लिए रवाना हो लिए। यात्रा बढ़िया रही, वहां भी सारे कार्यक्रम खुशनुमा माहौल में संपन्न होने के बाद हम सब करीब पांच बजे वापस दिल्ली के लिए चल पड़े। मैं सपत्निक तीसरे क्रम पर था।। सब ठीकठाक ही चल रहा था कि अचानक दिल्ली से करीब 35किमी पहले मेरा स्कूटर बंद हो गया। मेरे आगे दो स्कूटर तथा पीछे एक स्कूटर था , आगे वालों को तो जाहिर है कुछ पता नहीं चलना था सो वे तो चलते चले गये। पर मन में संतोष था कि पीछे दो लोग आ रहे हैं, सहायता मिल जाएगी। पर देखते-देखते, मेरे आवाज देने और हाथ हिलाने के बावजूद उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं गया, एक तो शाम हो चली थी दूसरा हेल्मेट और फिर उनकी आपसी बातों की तन्मयता की वजह से वे मेरे सामने से निकल गये। इधर लाख कोशिशों के बावजूद स्कूटर चलने का नाम नहीं ले रहा था। जहां गाडी बंद हुए थी, उसके पास एक ढ़ाबा था वहां किसी मेकेनिक के मिलने की आशा में मैं वहां तक स्कूटर को ढ़केल कर ले गया, परंतु वहां सिर्फ़ ट्रक ड्राइवरों का जमावड़ा था। अब कुछ-कुछ घबडाहट होने लगी थी। ढ़ाबे में मौजूद लोग सहायता करने की बजाय हमें घूरने में ज्यादा मशरूफ़ थे। मैं लगातार मशीन से जूझ रहा था। मेरी जद्दोजहद को देखने धीरे-धीरे तमाशबीनों का एक घेरा हमारे चारों ओर बन गया था। कदमजी मन ही मन (जैसा कि उन्होंने मुझे बाद में बताया) लगातार महामृत्युंजय का पाठ करे जा रहीं थीं। हम दोनो पसीने से तरबतर थे, मैं स्कूटर के कारण और ये घबडाहट के कारण। अंधेरा घिरना शुरु हो गया था कि अचानक एक स्पार्क हुआ और इजिन में जान आ गयी। मैने उसी हालत में ही स्कूटर को कसा-ढ़का, और प्रभू को याद कर हम घर की ओर चल पड़े। उन दिनों यमुना में बाढ़ आई हुई थी। जगह-जगह पानी भरा हुआ था। किसी भी तरह का जोखिम न लेते हुए मैं लम्बे रास्ते से होता हुआ रात करीब दस बजे जब घर पहुंचा तो पाया कि घर वालों की हालत खस्ता थी। उन दिनों मोबाइल की सुविधा तो थी नहीं और गाडी फिर ना बंद हो जाए इसलिए रास्ते से मैने भी फोन नहीं किया। जैसा भी था हमें सही सलमात देख सबकी जान में जान आई।
दूसरे दिन मेकेनिक ने जब स्कूटर खोला तो सब की आंखे फटी की फटी रह गयीं क्योंकी स्कूटर की पिस्टन रिंग टुकड़े-टुकड़े हो चुकी थी जो कि नये स्कूटर के इतनी दूर चलने का नतीजा था। ऐसी हालत में गाडी कैसे स्टार्ट हुई कैसे उसने दो जनों को 50-55किमी दूर तक पहुंचाया कुछ पता नहीं। यह एक चमत्कार ही था। उस दिन को और उस दिन के माहौल के याद आने पर आज भी मन कैसा-कैसा हो जाता है।
कोई माने या ना माने मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस दिन सच्चे मन से निकली गुहार के कारण ही प्रभू ने हमारी सहायता की थी। प्रभू कभी भी अपने बच्चों की अनदेखी नहीं करते और यह मैने सुना नहीं देखा और भोगा है।
रविवार, 20 नवंबर 2011
रहस्य के कोहरे में लिपटे दो जीव
दुनिया के सैकड़ों-हजारों जीव- जंतुओं मे कुछ ऐसे प्राणी हैं जिनके अस्तित्व पर मनुष्य ने रहस्य और ड़र का कोहरा फैला रखा है। इनमे दो प्रमुख हैं। पहला है बिल्ली और दूसरा सांप। वैसे इस मामले में बिल्ली सांप से कहीं आगे है। इसी की जाति के शेर, बाघ, तेंदुए आदि जानवर ड़र जरूर पैदा करते हैं पर रहस्यात्मक वातावरण नहीं बनाते। पर अफ्रीकी मूल के इस प्राणी, "बिल्ली" को लेकर विश्व भर के देशों में अनेकों किस्से, कहानियां और अंधविश्वास प्रचलित हैं।
जहां जापान मे इसे सम्मान दिया जाता है, क्योंकि किसी समय इसने वहां चूहों के आतंक को खत्म कर खाद्यान संकट का निवारण किया था। वहीं दूसरी ओर इसाई धर्म में इसे बुरी आत्माओं का साथी समझ नफ़रत की जाती रही है। फ्रांस मे तो इसे कभी जादूगरनी तक मान लिया गया था। हमारे यहां भी इसको लेकर तरह-तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक ओर तो इसके रोने की आवाज को अशुभ माना जाता है। आज के युग मे भी यदि यह रास्ता काट जाए तो अच्छे-अच्छे पढे-लिखे लोगों को ठिठकते देखा जा सकता है। रात के अंधेरे में आग के शोलों कि तरह दिप-दिप करती आंखों के साथ यदि काली बिल्ली मिल जाए तो देवता भी कूच करने मे देर नहीं लगाते। संयोग वश यदि किसी के हाथों इसकी मौत हो जाए तो सोने की बिल्ली बना दान करने से ही पाप मुक्ति मानी जाती है। दूसरी ओर दिवाली के दिन इसका घर में दिखाई देना शुभ माना जाता है। पता नहीं ऐसा विरोधाभास क्यों?
दुनिया भर की ड़रावनी फिल्मों मे रहस्य और ड़र के कोहरे को घना करने मे सदा इसकी सहायता ली जाती रही है। यह हर तरह के खाद्य को खाने वाली है, पर इसका चूहे और दूध के प्रति लगाव अप्रतिम है। इसे पालतू तो बनाया जा सकता है पर वफादारी की गारंटी शायद नहीं ली जा सकती।सांपों को लेकर भी तरह-तरह की भ्रान्तियां मौकापरस्तों द्वारा फैलाई जाती रही हैं। जैसे इच्छाधारी नाग-नागिन की विचित्र कथाएं। जिन पर फिल्में बना-बना कर निर्माता अपनी इच्छायें पूरी कर चुके हैं। एक और विश्वास बहुत प्रचलित है, नाग की आंखों मे कैमरा होना, जिससे वह अपना अहित करने वाले को खोज कर बदला लेता है। चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने मे हो। सपेरों और तांत्रिकों द्वारा एक और बात फैलाई हुई है कि सांप आवश्यक अनुष्ठान करने पर अपने द्वारा काटे गये इंसान के पास आ अपना विष वापस चूस लेता है। पर सच्चाई तो यह है कि दूध ना पीने वाला यह जीव दुनिया के सबसे खतरनाक प्राणी, इंसान, से ड़रता है। चोट करने या गलती से छेड़-छाड़ हो जाने पर ही यह पलट कर वार करता है। उल्टे यह चूहे जैसे जीव-जंतुओं को खा कर खेती की रक्षा ही करता है। जिससे इसे किसान मित्र भी कहा जाता है।
दुनिया के दूसरे प्राणियों की तरह ये भी प्रकृति की देन हैं। जरूरत है उल्टी सीधी अफवाहों से लोगों को अवगत करा अंधविश्वासों की दुनिया से बाहर लाने की।
शनिवार, 12 नवंबर 2011
क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आता है?
बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का चारों ओर जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है।
पशु-पक्षियों में कौवे की बड़ी धाक थी। उसने कुछ ऐसी भ्रान्ति फैला रखी थी कि उस जैसा समझदार पूरे जंगल में कोई नहीं है। तकदीर तेज थी मौके-बेमौके उसका सिक्का चल ही जाता था। ऐसे ही वक्त बीतता गया। समयानुसार गर्मी का मौसम भी आ खड़ा हुआ अपनी पूरी प्रचंडता के साथ। सारे नदी-नाले, पोखर-तालाब सूख गए। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसे ही एक दिन हमारा कौवा पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। उसकी जान निकली जा रही थी, पंख जवाब दे रहे थे, कलेजा मुहँ को आ रहा था। तभी अचानक उसकी नजर एक झोंपडी के बाहर पड़े एक घडे पर पड़ी। उसमे पानी तो था पर एक दम तले में , पहुँच के बाहर। उसने इधर-उधर देखा तो उसे पास ही कुछ कंकड़ों का ढेर नजर आया। कौवे ने अपनी अक्ल दौड़ाई और उन कंकडों को ला-ला कर घडे में डालना शुरू कर दिया। परन्तु एक तो गरमी दुसरे पहले से थक कर बेहाल, ऊपर से प्यास , कौवा जल्द ही पस्त पड़ गया । अचानक उसकी नजर झाडी के पीछे खड़ी एक बकरी पर पड़ी जो न जाने कब से उसका क्रिया-कलाप देख रही थी। यदि बकरी ने उसकी नाकामयाबी का ढोल पीट दिया तो ? कौवा यह सोच कर ही काँप उठा। तभी उसके दिमाग का बल्ब जला और उसने अपनी दरियादिली का परिचय देते हुए बकरी से कहा कि कंकड़ डालने से पानी काफी ऊपर आ गया है तुम ज्यादा प्यासी लग रही हो सो पहले तुम पानी पी लो। बकरी कौवे कि शुक्रगुजार हो आगे बढ़ी पर जैसा जाहिर था वह खड़े घडे से पानी ना पी सकी। कौवे ने फिर राह सुझाई कि तुम अपने सर से टक्कर मार कर घडा उलट दो इससे पानी बाहर आ जायेगा तो फिर तुम पी लेना। बकरी ने कौवे के कहेनुसार घडे को गिरा दिया। घडे का सारा पानी बाहर आ गया, दोनों ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई।
बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का चारों ओर जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है।
नहीं तो क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आया है ?
सोमवार, 7 नवंबर 2011
नाक कटने से बचाने का कोई उपाय है क्या?
करीब डेढ़-दो साल पहले प्राणायाम करते समय नाक के बाएँ नथुने में 'कुछ' होने जैसा महसूस किया था। ऐसे ही होगा ठीक हो जाएगा की सोच के साथ समय और वह दोनों अपनी गति से बढ़ते गए। पतंजलि से संपर्क किया तो जैसी की आशा थी उन्होंने इसे किसी और कारण से होने का बताया, साथ ही कुछ घरेलू उपाय बताए पर उन्हें और अपने तौर पर कुछ न कुछ करते रहने के बाद भी जब 'उसने' अवैध कब्जा न छोड़ा और धीरे-धीरे बायाँ छिद्र पूर्णतया बंद हो गया। फिर एलोपैथी से सहायता की गुजारिश की। पता चला कि यह "पोलिप" कहलाता है, इलाज शुरू हुआ पर कोई फ़ायदा नहीं मिल पाया। हाँ 'प्रकृति-विरुद्ध' दवाओं से कुछ अलग सी समस्याएँ और जरूर हो गयीं। फिर कुछ दिनों बाद होम्योपैथी की शरण ली, बातों-बातों में डाक्टर साहब ने बताया कि वह भी इससे जूझ चुके हैं। उनका मस्सा तो नाक के बाहर आ जाता था। यहाँ कुछ आशा बंधी। दवा-दारू चालू हुई, थोड़ा असर दिखने भी लगा, पर एक जगह आ 'उसकी' हठधर्मिता के सामने कोई बात नही बन पाई। इसी बीच दाएं नथुने पर भी असर शुरू हो गया था। रात सोते समय दोनों छिद्र बंद हो हवा को अन्दर आने से रोकने में पूरी तरह सफल हो गए थे। मजबूरी में सहानुभूतिवश मूंह अपना द्वार खोल सांस लेने की क्रिया को सुचारू रूप देने का प्रयास करता रहता था। पर उससे जीभ, तालू, गला बुरी तरह सूख जाते थे। सर भी भारी रहने लगा था। इन सब को लिए-दिए फिर दिल्ली आना हुआ और फिर एक बार एलोपैथी की सरकार से इस नाजायज कब्जे की शिकायत की। इस बार उन्होंने अपना अंतिम निर्णय लेते हुए शल्य-चिकित्सा करवाने को कह दिया। हालांकि आजकल बिना पूर्ण बेहोश किए लेज़र की सहायता से यह उपचार संभव है, फिर भी यदि कोई इसका भुगत-भोगी हो तो उनके विचारों, ख्यालों और तजुर्बे का सदा स्वागत है।
आखिर नाक की इज्जत का सवाल है भाई।
आखिर नाक की इज्जत का सवाल है भाई।
शनिवार, 5 नवंबर 2011
पांच करोड़ जीतने के साथ मुसीबतें मुफ्त
अभी-अभी संपन्न हुए 'पंचकोटी महा-मनी' के विजेता बने सुशील कुमार की समस्याएँ शुरू होती हैं ........अब
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए। पिछले हफ्ते की ही बात है, बिहार के मोतीहारी जिले के सुशील कुमार ने टी.वी. के 'कौन बनेगा करोड़पति' के माध्यम से शायद देश की सबसे बडी इनामी राशि जीतने का गौरव लाखों लोगों के सामने हासिल किया।दुनिया के सामने रातों-रात मिले धन और प्रसिद्धि ने जहां ढेरों खुशियां झोली में डाल दीं वहीं कुछ अनपेक्षित समस्याएं भी बिन बुलाए आ खड़ी हुईं हैं।
उस समय उनकी माली हालत को देखते हुए बहुत से लोगों की सहानुभूति उनके साथ रही होगी, बहुतों को अच्छा लगा होगा, बहुतेरे मन मसोस कर रह गये होंगे, कुछ निरपेक्ष रहे होंगें और कुछ समय के बाद ऐसे सभी लोग अपने-अपने काम में मशगूल हो गये होंगें। पर असली खेल या कहिए सुशील की मुश्किलात का समय शुरु होता है अब;
सुनने में आ रहा है कि जीतने के बाद खेल में भाग लेने गये लोग वापस अपने घर जाने में हिचकिचा रहे हैं। वे ही नहीं उधर मोतीहारी में बैठे घर के सदस्य भी अपनी और सुशील की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। जिसकी वजह है बिहार के पुराने हालात, जहां छोटी-छोटी रकमों के लिए ही लोगों का अपहरण कर लिया जाता था और यह तो बहुत बड़ी धन-राशि है। हालात पहले से बहुत सुधरे हैं पर फिर भी ड़र बना हुआ है।
यह सारा कुछ उस कहावत की याद दिलाता है कि पैसा ना हो तो मुश्किल और हो तो भी मुश्किल। इतना ही नहीं सुशील कुमार के इतनी बड़ी रकम जितने के बाद उनके नजदीकी भाई-बंधुओं, दोस्त-मित्रों, सगे-सम्बंधियों ने अपने-अपने स्तर पर बहुतेरी आशाएं संजो ली होंगी और यदि किसी कारणवश वे पूरी नहीं हो पातीं तो रिश्तों में भी खटास आने की संभावना बढ जाएगी।
इन सबके अलावा बहुत सारे बीमा एजेंट, बैंकों के प्रतिनिधी, रियल एस्टेट वाले और भी ना जाने कितने ढेरों लोग अपने-अपने धंधों की स्कीमों को लेकर सुशील की राह में पलक-पांवड़े बिछाए इस मोतीहारी के नायक का बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगें। भले ही इन सारे लोगों की नियत में खोट ना भी हो तो भी रोज-रोज उनकी जिंदगी में दखलंदाजी कर और कुछ नहीं तो तनाव का तोहफा तो जरूर पूरे परिवार को देंगें ही। खैर जब लक्ष्मीजी आईं हैं तो इतना सब तो सहना ही पड़ेगा।
अब तो यही है कि यदि भगवान ने जिंदगी में सुखद समय लाने का प्रबंध किया है तो वह सही मायनों में सुखद हो।
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