हमारे धमा-चौकड़ी मचाते तक वह पीपल के पेड़ के पत्ते में पीपल का सफेद दूध इकट्ठा करता रहता था। एक-एक बूंद से अच्छा खासा द्रव्य इकट्ठा कर वह दोने को हमें पकड़ा देता था उसी के साथ पत्ते की नाल को मोड़ एक रिंग नुमा गोला भी थमा देता था। उसने हमें बताया हुआ था कि उस से बुलबुले कैसे बनाये जाते हैं। आज के परिवेश को देखते हुए जब सोचता हूं तो अचंभा होता है। क्या जरूरत थी शिबु को सिर्फ हमारी खुशी के लिए लंबा चक्कर काटने की ? अपना समय खराब कर धैर्य पूर्वक पीपल का रस इकट्ठा करने की ? हमें हंसता-खुश होता देखने की ? हमारी खुशी के लिए अपना पसीना बहा रोज रेस लगाने की ? वह भी बिना किसी आर्थिक लाभ के !
समय के साथ-साथ मनुष्य के मन की कोमल भावनाएं कैसे तरोहित होती चली गयीं पता ही नहीं चला। बच गयी तो प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य, व्यवसायिकता। किसी के पास क्षण भर को ठहर कर अपने चहुं ओर देखने का समय ही नहीं बचा। लोग अपना ही ख्याल नहीं रख पा रहे हैं तो दूसरों का हाल क्या पूछेंगे ! और-और पाने की चाह में एक अंधी दौड़ चल पड़ी है।
समय के साथ-साथ मनुष्य के मन की कोमल भावनाएं कैसे तरोहित होती चली गयीं पता ही नहीं चला। बच गयी तो प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य, व्यवसायिकता। किसी के पास क्षण भर को ठहर कर अपने चहुं ओर देखने का समय ही नहीं बचा। लोग अपना ही ख्याल नहीं रख पा रहे हैं तो दूसरों का हाल क्या पूछेंगे ! और-और पाने की चाह में एक अंधी दौड़ चल पड़ी है।
पिछले अंक में रिख्शे वालों की बात कर रहा था, जो मुझे और मेरे हमउम्र साथियों को स्कूल ले जाया करते थे।कितनी आत्मीयता होती थी उन दिनों उनकी बच्चों के प्रति। स्कूल की तरह ही रिक्शेवाले भी वर्षों वर्ष एक ही रहते थे, लाने-ले-जाने के लिए। इससे बच्चे भी उन्हें परिवार का ही अंग समझने लगते थे। उनसे जिद्द, मनुहार आम बात होती थी। अभिभावक भी उनके संरक्षण में बच्चों को छोड़ निश्चिन्त रहते थे। हमारा स्कूल कोई कोई सात-आठ किमी दूर था। जितना याद पड़ता है, मेरे रिक्शे वाले की उम्र ज्यादा नहीं थी, कोई तीसेक साल का होगा। उसको सब शिबु कह कर पुकारते थे। उसके हम पर स्नेह के कारण शायद उसका नाम मुझे अभी तक याद है। हमारे यहां से स्कूल की तरफ चार या पांच रिक्शा वाले अपनी-अपनी "बच्चा सवारियों" के साथ निकलते थे। बहुतेरी बार अपने रिक्शे से किसी और रिक्शे को आगे होते देख बाल सुलभ इर्ष्या के कारण हम शिबु को और तेज चलाने के लिए उकसाते थे और इस तरह रोज ही ‘रेस-रेस खेल’ हो जाता था। स्कूल आने-जाने के दो रास्ते थे। एक मुख्य सड़क से तथा दूसरा भीतर ही भीतर घुमावदार, कुछ लंबा। शिबु अक्सर हमें लंबे रास्ते से वापस लाया करता था। उस रास्ते पर एक बड़ा बाग हुआ करता था। बाग में एक खूब बड़ी सीमेंट की फिसलन-पट्टी थी। हमें खुश करने के लिए वह अक्सर वहां घंटे-आध-घंटे के लिए रुक जाता था। जब तक हम वहां धमा-चौकड़ी मचाते थे तब तक वह पीपल के पेड़ के पत्ते में पीपल का सफेद दूध इकट्ठा करता रहता था। एक-एक बूंद से अच्छा खासा द्रव्य इकट्ठा कर वह दोने को हमें पकड़ा देता था उसी के साथ पत्ते की नाल को मोड़ एक रिंग नुमा गोला भी थमा देता था। उसने हमें बताया हुआ था कि उस से बुलबुले कैसे बनाये जाते हैं। आजकल साबुन के घोल से जैसे बनाते हैं वैसे ही। उन दिनों यह सब सामान्य लगता था। पर आज के परिवेश को देखते हुए जब सोचता हूं तो अचंभा होता है। क्या जरूरत थी शिबु को सिर्फ हमारी खुशी के लिए लंबा चक्कर काटने की? अपना समय खराब कर धैर्य पूर्वक पीपल का रस इकट्ठा करने की? हमें हंसता खुश होता देखने की? हमारी खुशी के लिए अपना पसीना बहा रोज रेस लगाने की? खूद गीले होने की परवाह ना कर बरसातों में हमें भरसक सूखा रखने की? जबकी इसके बदले नाही उसे अलग से पैसा मिलता था नाही और कोई लाभ। जबकि इन सब में व्यतीत हुए समय का उपयोग कर वह कोई और सवारी ले कुछ आमदनी कर सकता था। कभी देर-सबेर की कोई शिकायत नहीं। क्या ऐसी बात थी कि उसके रहते हमारे घरवालों को कभी हमारी चिंता नहीं रहती थी। उसके इसी स्नेह से हम रोज स्कूल जाने के लिए भी उत्साहित रहते थे। आज के युग में ऐसा होना तो छोड़ कोई शायद इस तरह की कल्पना भी नहीं कर सकता।
7 टिप्पणियां:
kash gujra hua waqt bapis aa jaye
सच आज पहले जैसे लोग ढूंढे नहीं मिलते
मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मेरा भारत महान - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
yade achchhe dino ki bhulaye nahi bhoolati ..badiya prastuti ..
उत्तम लेखन
उत्तम लेखन
बहुत बढ़िया
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