कोई माने या ना माने मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस दिन सच्चे मन से निकली गुहार के कारण ही प्रभू ने हमारी सहायता की थी। प्रभू कभी भी अपने बच्चों की अनदेखी नहीं करते और यह मैने सुना नहीं देखा और भोगा है।
घटना करीब तीस साल पुरानी है। शादी को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे। तब हम दिल्ली के राजौरी गार्डेन में रहते थे। मेरी बुआ जी की बेटी यानि मेरी फुफेरी बहन का रिश्ता हरियाणा के करनाल शहर में तय हुआ था। उसी के सिलसिले मे वहां जाना था। मैने नया-नया स्कूटर लिया था, जो अभी तक दो सौ कि. मी. भी नहीं चला था. सो शौक व जोश में मैंने अपने चाचाजी से गुजारिश की कि स्कूटरों पर ही करनाल चला जाए. उन दिनों सडकों पर इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी। सो थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद उन्होंने स्वीकृति तो दी ही खुद भी स्कूटर पर चलना तय कर लिया। परिवार के आठ जनों ने जाना था। जिसमें छह लोग तीन स्कूटरों पर और मेरी दो बुआओं का बस से जाना तय हुआ। सबेरे सात बजे हम सब करनाल के लिए रवाना हो लिए। यात्रा बढ़िया रही, वहां भी सारे कार्यक्रम खुशनुमा माहौल में संपन्न होने के बाद हम सब करीब पांच बजे वापस दिल्ली के लिए वापस हो लिए।
लौटने का क्रम भी सुरक्षा और सावधानी हेतु सुबह की तरह ही रखा गया था। सबसे आगे चाचाजी तथा चाची जी अपने स्कूटर पर, बीच में मैं सपत्निक, तथा तीसरे स्कूटर पर मेरे दोनों फूफाजी। सब ठीकठाक ही चल रहा था कि अचानक दिल्ली से करीब 35किमी पहले मेरा स्कूटर बंद हो गया। मेरे आगे एक स्कूटर तथा पीछे एक स्कूटर था. आगे वालों का ध्यान कोशिशों के बावजूद हैम आकर्षित नहीं कर सके। सो वे तो चलते चले गये। पर मन में संतोष था कि पीछे दो लोग आ रहे हैं। पर देखते-देखते, मेरे आवाज देने और हाथ हिलाने के बावजूद उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं गया, एक तो शाम हो चली थी दूसरा हेल्मेट और फिर उनकी आपसी बातों की तन्मयता की वजह से वे मेरे सामने से निकल गये।
इधर लाख कोशिशों के बावजूद स्कूटर चलने का नाम नहीं ले रहा था। जहां गाडी बंद हुए थी, उसके पास एक ढ़ाबा था वहां किसी मेकेनिक मिलने की आशा में मैं वहां तक स्कूटर को ढ़केल कर ले गया, परंतु वहां सिर्फ़ ट्रक ड्राइवरों का जमावड़ा था। अब कुछ-कुछ घबडाहट होने लगी थी। ढ़ाबे में मौजूद लोग सहायता करने की बजाय हमें घूरने में ज्यादा मशरूफ़ थे। मैं लगातार मशीन से जूझ रहा था। मेरी जद्दोजहद को देखने धीरे-धीरे तमाशबीनों का एक घेरा हमारे चारों ओर बन गया था। कदमजी मन ही मन (जैसा कि उन्होंने मुझे बाद में बताया) लगातार महामृत्युंजय का पाठ करे जा रहीं थीं। हम दोनो पसीने से तरबतर थे, मैं स्कूटर के कारण और ये घबडाहट के कारण। अनजान जगह, ढाबे को छोड़ दूर-दूर तक किसी बस्ती का नामोनिशान नहीं। वहाँ मौजूद दस-पंद्रह जनों में आधे से ज्यादा बंदे नशे की गिरफ्त में. अंधेरा घिरना शुरु हो गया था.
अचानक स्पार्क प्लग में एक चिंगारी छूटी और इंजिन में जान आ गयी। मैने वैसे ही चालू हालत में स्कूटर को कसा-ढ़का और प्रभू को याद कर सड़क पर आ गया। उन दिनों दिल्ली में बाढ़ आई हुई थी। उस समय स्कूटरों में तकनीकी उतनी अच्छी नहीं होती थी सो गति धीमी होते ही हेड लाइट भी हलकी पड़ जाती थी सो चलते हुए कुछ ज्यादा ही सावधानी बरतनी पड रही थी ऊपर से यह आशंका कि कहीं गाड़ी फिर बंद ना हो जाए. राम-राम करते रात करीब साढ़े दस बजे जब घर पहुंचे तो घर वालों की हालत खस्ता थी। उन दिनों मोबाइल की सुविधा तो थी नहीं और गाडी फिर ना बंद हो जाए इसलिए रास्ते से मैने भी फोन नहीं किया था। जैसा भी था हमें सही सलमात देख सबकी जान में जान आई।
दूसरे दिन मेकेनिक ने जब स्कूटर खोला तो सब की आंखे फटी की फटी रह गयीं क्योंकी स्कूटर की पिस्टन रिंग टुकड़े-टुकड़े हो चुकी थी जो कि नये स्कूटर के इतनी दूर चलने का नतीजा था। ऐसी हालत में गाडी कैसे स्टार्ट हुई कैसे उसने दो जनों को 50-55किमी दूर तक पहुंचाया कुछ पता नहीं। यह एक चमत्कार ही था। उस दिन को और उस दिन के माहौल के याद आने पर आज भी मन कैसा-कैसा हो जाता है।
कोई माने या ना माने मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस दिन सच्चे मन से निकली गुहार के कारण ही प्रभू ने हमारी सहायता की थी। प्रभू कभी भी अपने बच्चों की अनदेखी नहीं करते और यह मैने सुना नहीं देखा और भोगा है।
7 टिप्पणियां:
"जब जानकीनाथ सहाय करें तो कौन बिगाड़ करे नर तेरो !!"
उस दिन सकुशल आना लिखा था तो ईश्वर ने व्यवस्था कर दी।
अपने भक्तों का रखें, प्रभु जी नियमित ध्यान ।
हम ही अक्सर भूलते, वशीभूत अज्ञान ।
वशीभूत अज्ञान , बने प्रभु आज परीक्षक ।
साहस श्रद्धा धैर्य, हुवे रविकर संरक्षक ।
ईश्वर पर विश्वास, पूर्ण कर देता सपने ।
नमो नमो ले जाप, कष्ट मिट जाएँ अपने ।।
तभी तो कहते हैं कि वो बहुत बिज़ी रहता है दुनिया के काम से, मगर दुनिया भर पर नज़र रखता है!!
कुछ चमत्कार जिंदगी में होते है जिसका कोई आधार नजर नहीं आता ...वही हमें ईश्वर पर विश्वास करना सिखाता है!
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कालीपद जी, वही तो. जब ऐसा कुछ होता है तो वह स्वाभाविक सा ही लगता है. ऐसा लगता है कि हमारे प्रयास से ही ऐसा हो गया। जब कि होता वह चमत्कार ही है। कभी-कभी सोचता हूँ कि कैसे सात-आठ टुकड़े हुई पिस्टन रिंग से "वैक्युम" बना होगा कैसे इतनी दूर तक गाड़ी चली होगी !!!
जेहि के रही भावना जैसी ......
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