पहले बड़े-बड़े निर्माताओं, कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। क्रिकेट के टेस्ट मैचों की तरह साल-दो साल में उनकी फ़िल्में परदे तक पहुंचा करती थीं। हर निर्माता, निर्देशक, कलाकार की और उनके हुनर की अपनी अलग पहचान हुआ करती थी। आज की तरह-तरह उन्हें अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नाहीं अलग से धन की जरुरत होती थी नाहीं प्रमोशन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था। उनका नाम ही काफी होता था.......
आज कल हर बड़ा निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के प्रदर्शन के लिए स्पर्द्धा रहित खुला मैदान चाहता है। पर दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले देश में ऐसा होना संभव नहीं हो सकता। इसीलिए बार-बार बड़ी
फिल्मों का आपसी टकराव होता रहता है। पिछले कुछ सालों से ख़ास-ख़ास अवकाशों और त्योहारों पर बड़े कलाकारों और निर्माताओं की फिल्मों के प्रदर्शन का रिवाज चल पड़ा है। कुछ ने तो कुछ ख़ास मौकों को अपनी धरोहर बना रख छोड़ा है। वैसे भी हर निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के लिए साल के ख़ास मौके पर तीन चार छुट्टियों वाले सप्ताहांत पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरने की फिराक में रहता है। आधुनिक व उत्कृष्ट तकनीक के कारण अब फ़िल्में जल्दी और व्यवस्थित रूप से बनने लग गयी हैं, जिससे उनके प्रदर्शन की तारीख तय करना भी संभव हो गया है। इसी कारण कुछ सक्षम फिल्मकार साल की छुट्टियों को ध्यान में रख अपनी फिल्मों को उसी हिसाब से पूरी करने में जुट जाते हैं।
बात बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है, तकरीबन नब्बे के दशक के मध्य तक, जब तक देश में मल्टीप्लेक्सों की बाढ़ नहीं आई थी, बड़े-बड़े निर्माताओं, कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। क्रिकेट के टेस्ट मैचों की तरह साल-दो साल में उनकी फ़िल्में परदे तक पहुंचा करती थीं। अपनी गुणवत्ता, कथानक, अभिनय और निर्देशन के बल पर, साथ-साथ रिलीज हो कर, मनोरंजन के साथ-साथ अच्छा-खासा व्यवसाय भी किया करती थीं। हर निर्माता, निर्देशक, कलाकार की और उनके हुनर की अपनी अलग पहचान थी। आज की तरह-तरह उन्हें अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नाहीं अलग से धन की जरुरत होती थी ना हीं प्रमोशन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था। उनका नाम ही काफी होता था। अपने और अपने काम पर पूरा विश्वास और पकड़ होने के कारण वे लोग कभी लंबे अवकाश वाले सप्ताहंत या किसी ख़ास दिन-त्यौहार का विशेष इंतजार नहीं करते थे। फिल्म के पूरा होते ही उसे सिनेमा हॉल तक दर्शकों के लिए पहुंचा दिया जाता था। उन दिनों फिल्मों की सफलता उनके सिनेमा हॉल में टिके रहने के दिनों पर आंकी जाती थी। आज शायद विश्वास ही ना हो कि एक ही हॉल में, जिनकी क्षमता 400-500 से लेकर 1200-1300 तक होती थी। दर्शक एक ही फिल्म को, उसकी कहानी, संगीत, गुणवत्ता और अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए बार-बार जाता था। इसीलिए लगातार तीन शो में पच्चीस हफ्ते चलने पर किसी फिल्म को सिल्वर जुबली, पचास हफ्ते चलने पर गोल्डन जुबली और पचहत्तर हफ़्तों तक लगातार चलने पर डायमंड जुबली मनाने वाली फिल्म का खिताब दिया जाता था। पर आजकल हफ्ते के अंतिम तीन दिन ही फिल्म को सफल-असफल मानने-बनाने का
मापदंड बन गए हैं, लागत वसूलने के लिए तरह-तरह के स्रोत और सही-गलत तरीके भी अपनाए जाने लगे हैं। जिनमें खुद और अपनी फिल्म को विवादित करवाना भी एक हथकंडा है। इधर फिल्म वालों में यह धारणा घर कर गयी है कि दर्शक हफ्ते में एक ही फिल्म देखेगा ! क्या उन्हें भारतीय लोगों का फिल्मों के प्रति जनून मालुम नहीं है ? अरे तुम काम तो अच्छा करो उसे सराहने वाले उसे पाताल में भी जा ढूंढ निकालेंगे।
सच्चाई तो यही लगती है कि अब कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ इस क्षेत्र में इस विधा के प्रति समर्पण की भावना तिरोहित हो चुकी है। मुख्य मुद्दा पैसे बनाना है। कहीं की ईंट कहीं के रोड़े को ले इमारत खड़ी करने की कोशिश की जाती है। कुछेक मुख्य कलाकारों के चहरे को ही सफलता का मापदंड मान लिया गया है, जिनके चारों ओर चापलूसी, अहम्, अतिविश्वास की दीवारें चिन दी गयी हैं। मौलिकता करीब-करीब ख़त्म हो चुकी है। ऐसे में हफ्ते के तीन दिन और लोगों की छुट्टियों का ही भरोसा है, अपने काम पर नहीं। क्योंकि मन ही मन उन्हें अपने काम की उत्कृष्टता पर खुद ही विश्वास नहीं होता। आज कोई भी छाती ठोंक के नहीं कह सकता, रजनीकांत का नाम अपवाद हो सकता है पर सिर्फ दक्षिण भारत में, कि मैं कभी भी कहीं भी अपनी फिल्म प्रदर्शित कर उसे सफल करवा सकता हूँ। इसका फ़ायदा भी है फिल्म अपनी गुणवत्ताविहीन होने के कारण पिट भी जाती है तो उसकी असफलता का ठीकरा एक ही दिन प्रदर्शित हुई दो फिल्मों पर मढ़ दिया जाता है। इसलिए फिल्मों से जुड़े लोग पूरी तरह समर्पित हो यदि सप्ताहांत नहीं मासांत के लिए फिल्म बनाएंगे तो उन्हें किसी छुट्टी, किसी त्यौहार या किसी तारीख की जरुरत नहीं पड़ेगी।
आज कल हर बड़ा निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के प्रदर्शन के लिए स्पर्द्धा रहित खुला मैदान चाहता है। पर दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले देश में ऐसा होना संभव नहीं हो सकता। इसीलिए बार-बार बड़ी
फिल्मों का आपसी टकराव होता रहता है। पिछले कुछ सालों से ख़ास-ख़ास अवकाशों और त्योहारों पर बड़े कलाकारों और निर्माताओं की फिल्मों के प्रदर्शन का रिवाज चल पड़ा है। कुछ ने तो कुछ ख़ास मौकों को अपनी धरोहर बना रख छोड़ा है। वैसे भी हर निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के लिए साल के ख़ास मौके पर तीन चार छुट्टियों वाले सप्ताहांत पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरने की फिराक में रहता है। आधुनिक व उत्कृष्ट तकनीक के कारण अब फ़िल्में जल्दी और व्यवस्थित रूप से बनने लग गयी हैं, जिससे उनके प्रदर्शन की तारीख तय करना भी संभव हो गया है। इसी कारण कुछ सक्षम फिल्मकार साल की छुट्टियों को ध्यान में रख अपनी फिल्मों को उसी हिसाब से पूरी करने में जुट जाते हैं।
बात बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है, तकरीबन नब्बे के दशक के मध्य तक, जब तक देश में मल्टीप्लेक्सों की बाढ़ नहीं आई थी, बड़े-बड़े निर्माताओं, कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। क्रिकेट के टेस्ट मैचों की तरह साल-दो साल में उनकी फ़िल्में परदे तक पहुंचा करती थीं। अपनी गुणवत्ता, कथानक, अभिनय और निर्देशन के बल पर, साथ-साथ रिलीज हो कर, मनोरंजन के साथ-साथ अच्छा-खासा व्यवसाय भी किया करती थीं। हर निर्माता, निर्देशक, कलाकार की और उनके हुनर की अपनी अलग पहचान थी। आज की तरह-तरह उन्हें अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नाहीं अलग से धन की जरुरत होती थी ना हीं प्रमोशन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था। उनका नाम ही काफी होता था। अपने और अपने काम पर पूरा विश्वास और पकड़ होने के कारण वे लोग कभी लंबे अवकाश वाले सप्ताहंत या किसी ख़ास दिन-त्यौहार का विशेष इंतजार नहीं करते थे। फिल्म के पूरा होते ही उसे सिनेमा हॉल तक दर्शकों के लिए पहुंचा दिया जाता था। उन दिनों फिल्मों की सफलता उनके सिनेमा हॉल में टिके रहने के दिनों पर आंकी जाती थी। आज शायद विश्वास ही ना हो कि एक ही हॉल में, जिनकी क्षमता 400-500 से लेकर 1200-1300 तक होती थी। दर्शक एक ही फिल्म को, उसकी कहानी, संगीत, गुणवत्ता और अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए बार-बार जाता था। इसीलिए लगातार तीन शो में पच्चीस हफ्ते चलने पर किसी फिल्म को सिल्वर जुबली, पचास हफ्ते चलने पर गोल्डन जुबली और पचहत्तर हफ़्तों तक लगातार चलने पर डायमंड जुबली मनाने वाली फिल्म का खिताब दिया जाता था। पर आजकल हफ्ते के अंतिम तीन दिन ही फिल्म को सफल-असफल मानने-बनाने का
मापदंड बन गए हैं, लागत वसूलने के लिए तरह-तरह के स्रोत और सही-गलत तरीके भी अपनाए जाने लगे हैं। जिनमें खुद और अपनी फिल्म को विवादित करवाना भी एक हथकंडा है। इधर फिल्म वालों में यह धारणा घर कर गयी है कि दर्शक हफ्ते में एक ही फिल्म देखेगा ! क्या उन्हें भारतीय लोगों का फिल्मों के प्रति जनून मालुम नहीं है ? अरे तुम काम तो अच्छा करो उसे सराहने वाले उसे पाताल में भी जा ढूंढ निकालेंगे।
सच्चाई तो यही लगती है कि अब कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ इस क्षेत्र में इस विधा के प्रति समर्पण की भावना तिरोहित हो चुकी है। मुख्य मुद्दा पैसे बनाना है। कहीं की ईंट कहीं के रोड़े को ले इमारत खड़ी करने की कोशिश की जाती है। कुछेक मुख्य कलाकारों के चहरे को ही सफलता का मापदंड मान लिया गया है, जिनके चारों ओर चापलूसी, अहम्, अतिविश्वास की दीवारें चिन दी गयी हैं। मौलिकता करीब-करीब ख़त्म हो चुकी है। ऐसे में हफ्ते के तीन दिन और लोगों की छुट्टियों का ही भरोसा है, अपने काम पर नहीं। क्योंकि मन ही मन उन्हें अपने काम की उत्कृष्टता पर खुद ही विश्वास नहीं होता। आज कोई भी छाती ठोंक के नहीं कह सकता, रजनीकांत का नाम अपवाद हो सकता है पर सिर्फ दक्षिण भारत में, कि मैं कभी भी कहीं भी अपनी फिल्म प्रदर्शित कर उसे सफल करवा सकता हूँ। इसका फ़ायदा भी है फिल्म अपनी गुणवत्ताविहीन होने के कारण पिट भी जाती है तो उसकी असफलता का ठीकरा एक ही दिन प्रदर्शित हुई दो फिल्मों पर मढ़ दिया जाता है। इसलिए फिल्मों से जुड़े लोग पूरी तरह समर्पित हो यदि सप्ताहांत नहीं मासांत के लिए फिल्म बनाएंगे तो उन्हें किसी छुट्टी, किसी त्यौहार या किसी तारीख की जरुरत नहीं पड़ेगी।