इसका हल तो तभी निकल सकता है जब शिक्षा विभाग की बाग-डोर राजनयिकों के हाथ से निकाल कर शिक्षा के सही जानकारों को सौंप दी जाए और उन पर किसी लाल-पीले-नीले फीते की बंदिश न हो। नहीं तो आने वाले समय में इस देश में इतने पढ़े-लिखे अनपढ़ हो जाएंगे जो अपने आप में ही एक समस्या होंगे।
खबर है कि राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन ने चीनी राष्ट्रपति के नाम "शी जिनपिंग" के पहले नाम "Xi" को रोमन गिनती का नंबर समझ उसे "इलेवन" पढने वाली एंकर को बर्खास्त कर दिया है। अब वहाँ के जिम्मेदार लोग सफाई देते फिर रहे हैं कि वह तो "कैजुएल" कर्मी थी। वर्तनी की ऐसी गलतियां इस चैनल पर होना आम है पर आज दूरदर्शन पर चीनी राष्ट्रपति का नाम जिस तरह पढ़ा गया वह तो "ब्लंडर" था। ऐसे समय जब किसी राष्ट्राध्यक्ष, वह भी ऐसे अहम देश के, बारे में बुलेटिन हो तब तो ख़ास एहतियात बरती जानी बहुत जरूरी थी। पर हुआ इसका उल्टा, तो फिर इस विशेष अवसर को "कैजुएली" लेते हुए एक "कैजूएल" वाचक को वहाँ बैठने की अनुमति देने वाले को भी उतना ही दोषी माना जाना चाहिए।
कहते हैं और सुनने में आता है कि समाचार वाचक जो कैमरे के रूबरू हो कर समाचार पढ़ते हैं वे भाषा में पारंगत होते हैं तथा पढ़ते समय सौ प्रतिशत शुद्ध उच्चारण के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। ऐसे लोगों से अच्छे सामान्य ज्ञान, समसामयिकी के बोध और प्रत्युत्पन्नमति होने की भी अपेक्षा रहती है। यहां तक कि छात्रों को सलाह दी जाती है कि वे खबरें सुन अपनी भाषा सवारें। पर आज तक जिस तरह हर चैनल पर भाषा की बेकद्री हो रही है तो कोई क्या सीखेगा और क्या समझेगा।
पत्र अपनी कहानी खुद कह रहा है |
इसी के साथ देश में खुली सैंकड़ों-हजारों पढ़ाई की दुकाने कैसे शिक्षार्थीयों का उत्पादन कर रही हैं उस पर भी शिक्षा विभाग को ध्यान देने की जरूरत है। ज्यादातर इन रट्टू तोतों के हाथ में किसी भी तरह हासिल की गयी विश्व-विद्यालयों की सिर्फ कागज की डीग्री होती है शिक्षा नहीं। इनका एक ही मकसद होता है येन-केन-प्रकारेण सरकारी नौकरियों को हथियाना, क्योंकि प्रायवेट लिमिटेड कंपनियों के यहां इनकी दाल नहीं गलती। हर साल हजारों लाखों इंजीनियर, एम. बी. ए., पोस्ट ग्रैजुएट, बी. एड. पैसों के बदले उपाधियां जुगाड नौकरियों के लिए धक्के खाते दिख जाते हैं। क्या यह सब हमारी शिक्षा प्रणाली का दोष नहीं है ? क्या शिक्षा को तमाशा बनाने वाले तथाकथित शिक्षा विदों से इस बेकारी का जवाब मांगा जाता है ? क्या हर साल इस पर प्रयोग करने वालों ने कभी देश के भविष्य के बारे में सोचा है ? जवाब एक ही है, नहीं !!! और सोचेगा भी कौन जबकि दुधारू गाय बन गया है यह शिक्षा का व्यवसाय और अधिकाँश संस्थान खुद नेताओं द्वारा स्थापित किए गए हैं। इसीलिए अधिकांश फैसले देश को नहीं अपनी कुर्सी को मद्दे-नज़र रख किए जाते हैं। आज अंग्रेजी के फैशन के चलते न तो कोई ढंग से हिंदी बोल-लिख पाता है ना ही अंग्रेजी। सरकार को भी साक्षर की परिभाषा बदलने की जरूरत है।देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है। आज छात्रों को College और Collage या Principal और Principle में फर्क नहीं पता। अंग्रेजी को तो छोड़ें हिंदी तक में स्नातक स्तर के छात्र ढंग से एक प्रार्थना-पत्र तक नहीं लिख पाते।
सिर्फ अपना नाम लिख लेने से ही कोई साक्षर नहीं हो जाता, जैसा दिखा-दिखा कर कर सरकारी महकमे अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं।
विडंबना है कि शिक्षित करने का जिम्मा इनका रहेगा |