धर्म-जाति-क्षेत्रियता के नाम पर भोले-भाले लोगों को बरगला कर कुछ मुट्ठी भर लोग अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हुए हैं,पर फिर भी इमान, इंसानियत, सच्चाई अभी बिल्कुल खत्म नहीं हुए हैं संसार में अच्छे, सीधे, परोपकारी, संत स्वभाव के लोगों की संख्या ज्यादा है, पर संख्या और प्रतिशत में कम होने के बावजूद कुटिल लोग उन पर वैसे ही भारी पड जाते हैं जैसे ढेरों दूध पर एक बूंद खटाई की।
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संसार में अच्छे, सीधे, परोपकारी, संत स्वभाव के लोगों की संख्या ज्यादा है, पर संख्या और प्रतिशत में कम होने के बावजूद कुटिल लोग उन पर वैसे ही भारी पड जाते हैं जैसे ढेरों दूध पर एक बूंद खटाई की। पर लगातार ठगे जाने, धोखा खाने के बावजूद सुदूर गांवों में, पहाडों पर अभी भी निश्छल मानवता जिंदा है। पर इसके साथ ही यह भी सही है कि लगातार बढते शहरीकरण, टी.वी.-सिनेमा में आए घातक बदलाव, बाजार की मॉल संस्कृति का जहरीला धूंआ धीरे-धीरे उस निष्कपटता को आच्छादित करता जा रहा है। धर्म-जाति-क्षेत्रियता के नाम पर भोले-भाले लोगों को बरगला कर कुछ मुट्ठी भर लोग अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हुए हैं। पर फिर भी ईमान, इंसानियत, सच्चाई अभी बिल्कुल खत्म नहीं हुए हैं इसका उदाहरण या साक्ष्य आए दिन डरावनी खबरों से भरे अखबारों के किसी कोने में, तपते रेगिस्तान के नखलिस्तान के रूप में सद्भावना का संदेश देती कोई खबर मिल ही जाती है। जिसे पढ वर्षों पहले घटी इंसानियत की मिसाल की दो घटनाओं की सहसा याद आ जाती है।
यह तब की बात है जब पहाडों का मतलब काश्मीर हुआ करता था। मेरे पिताजी जिन्हें सब बाबूजी कहा करते थे, सदा काम में मशगूल रहने वाले इंसान थे। बहुत कम कहीं आते-जाते थे. हम दो भाई, माँ तथा बाबूजी, छोटा सा संपन्न परिवार। एक बार हमारे बहुत इसरार करने पर उन्होंने काश्मीर चलने की हमारी बात मान ली। हमें जैसे कोइ खजाना मिल गया हो. कलकत्ते से दिल्ली ट्रेन द्वारा तथा वहां से सांयकालीन बस द्वारा श्रीनगर जाना तय हुआ। दिल्ली पहुंच अंतर्राजीय बस अड्डे से बस ली गयी। सब तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हो रहा था। सुबह बस पहाडों में थी। ऐसे यात्रा का पहला मौका था सो एक-एक दृश्य को आंखों में समो लेने की तदबीर हो रही थी। इसी बीच कुछ जल-कलेवे के लिए ड्रायवर ने बस को एक ढाबे पर रोका। सभी यात्री उतर कर “रिलैक्स” होने लगे। हल्के-फुल्के जलपान के बाद सब बस में सवार हुए और बस फिर अपने गंतव्य की ओर बढ चली। कुछ ही मिनटों के बाद मां को पता चला कि उनका हैंड बैग पीछे ही छूट गया है। बस में गहमागहमी मच गयी, किसी भी शहराती यात्री को बैग मिलने की उम्मीद नहीं थी। पर कंडक्टर और ड्रायवर ने ढाढस बंधाया, बस लौटाई गयी, ढाबे के मालिक को जैसे ही सब बताया उसने तुरंत अपने कांउंटर से बैग ला मां को थमा दिया, सारा सामान, नगदी यथावत थी। सुखद आश्चर्य ने जान में जान डाली। सभी यात्री हमारी तकदीर का गुणगान कर रहे थे पर कंडक्टर और ड्रायवर जो पहाडों के वासी थे उनके लिए इस में कोई अनहोनी बात नहीं थी। यह हमारी आम शहरी मान्यताओं के लिए एक सुखद झटका था।
दूसरा दिन, होटल से निकल हम चारों जने तफरीह के मूड में घूम रहे थे कि अचानक पीछे से एक आदमी को जोर-जोर से पुकारते-दौडते अपनी ओर आते देखा। पहले हमने सोचा कि वह किसी ओर को बुला रहा होगा पर वह हमें ही रुकने का इशारा कर रहा था। कुछ ही पलों में वह हमारे पास आ पहुंचा और अपने हाथ का पर्स बाबूजी को थमाने लगा। बाबूजी बिना अपनी जेब देखे मना कर रहे थे कि यह मेरा नहीं है पर वह मान ही नहीं रहा था। नई जगह, अनजाने लोग, मैदानी शहरों की मानसिकता कि कहीं कोई फंसा ही ना रहा हो। तभी वहां एक और व्यक्ति आया जो हिंदी बोल-समझ लेता था। उसने बताया कि आप का पर्स पिछली दूकान में गिर गया था यह उसी को वापस कर रहा है। तभी मां के कहने पर बाबूजी ने अपनी जेब टटोली तो वहां क्या होना था, जैसे ही सारी बात साफ हुई पर्स सही जगह पहुंचा वैसे ही लाने वाले के चेहरे पर पसरा तनाव गायब हो गया जैसे कोई भारी बोझ से मुक्ति मिली हो। बाबूजी ने उसे कुछ देना चाहा तो वहां से ऐसे सिर-हाथ हिलाते भाग लिया जैसे सांप देख लिया हो।
दो दिनों में ये दो सुखद झटके हम तथाकथित समझदार शहरी लोगों की कई मान्यताओं को बदल कर रख गये। आज भी जब ऐसे लोगों की याद आती है तो वर्तमान के प्रति कडवाहट कम तो होती ही है भविष्य भी आशा बंधाता नजर आता है।