कल बयान किया था कि मां के दरबार मे जाऊं या ना जाऊं कि ऊहापोह के बीच शुरु हुए सफ़र मे शुरु से ही अडचने आती रहीं पर दूर भी खुद ब खुद होती चली गयीं। पर दरबार के बिल्कुल पास आ बर्फ ने जो परेशानी खडी की उससे उस समय कैसे पार पाया था सोच कर ही ताज्जुब होता है। अब आगे -
सूर्य देवता अस्ताचलगामी हो चुके थे। गनीमत यह रही कि अंधेरा होते-होते हम परिसर में पहुंच गये थे। पर यहां का तो नज़ारा ही विचित्र था। हर ओर आदमी ही आदमी। हर कमरा, गलियारा, बाल्कनी, बरामदा, हर कोना भरा पडा था इंसानों से। दर्शन कर लौट ना पाने वालों का हुजुम था यहां। कहीं कोई जगह नहीं। भवन की धर्मशाला के पीछे खुलने वाला हिस्सा, जिसके फर्श पर बर्फ का कालीन बिछा हुआ था, वहां भी किसी तरह लोग सिमटे-सिकुडे पडे हुए थे। हमारे पास तो जरूरत के कपडे भी नहीं थे, कहीं से मिलने की उम्मीद भी नहीं दिख पा रही थी। और कोई उपाय ना पा हमने किसी तरह बर्फ हटा अखबारों को बिछा उसी खुले में अपना डेरा डाल दिया। दो शालों में तीन जने सिकुड कर बैठ गये। रात के गहराने के साथ-साथ ठंड का प्रकोप भी बढता जा रहा था जिसके चलते रह-रह कर शरीर में कंपकपी उठ रही थी जो रोके ना रुक पा रही थी।
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बर्फ ही बर्फ चारों ओर |
31 तारीख। साल का अंतिम दिन। किसी तरह आंखों ही आंखों में रात कटी। सही-सही तो याद नहीं पर शायद हमें तीन-चार सौ के बीच कोई नंबर मिला था, दर्शनों के लिए। करीब साढे पांच बजे मैं अपना नंबर देखने उठा, शरीर अकडा पडा था किसी लकडी के फट्टे की तरह। पर किसी तरह की थकान महसूस नहीं हो रही थी। बोर्ड के पास जा कर देखा तो सौ से कुछ ही ऊपर बचे थे नंबर। मैने आकर दोनों को बताया और हम फटाफट नहाने के लिए बढ लिए। उन दिनों स्नानागर में नलों के अलावा मोटे-मोटे पाइपों से
जल की धार अनवरत बहती रहती थी। सुबह का समय, बेतहाशा ठंड। लोग झट से पानी के नीचे जा पूरा भीगने के पहले ही भाग लेते थे। हड्डियों को कंपाने वाली ठंड के मारे हमारी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कपडे उतारने की।जूते पहन लाइन में जा लगे। समय यही तय रहा कि हाथ-मुंह धो लेते हैं, वैसे यह भी कोई आसान काम नहीं था अपने आप में उस माहौल में। तभी वहां एक आठ-दस साल का बालक दौडता हुआ आया, झट से कपडे उतारे, जै माता दी का जयकारा लगाया और पानी के नीचे जा खडा हुआ। हमें अपने पर शर्म आयी उस छोटे से बच्चे की हिम्मत देख कर। किसी तरह एक-एक कर कपडे उतारे, सांस रोक जैसे ही पानी के नीचे गये लगा किसी ने चाबुक मार दिया हो, करंट सा झटका, शरीर सुन्न। तौलिया भी तो नहीं था किसी तरह रुमाल से ही पोंछ-पांछ कर जल्दी से कपडे-था सुबह के सवा छह।
सबको आशा थी कि दो-तीन घंटे में दर्शन हो जाएंगे। इसीलिए कई लोग श्रद्धावश बर्फ पर भी नंगे पैर खडे थे। उन्हें देख हमने मां से क्षमा मांगी और अपने, जो था उसी जिरह-बख्तर समेत डटे रहे। पर एक ही जगह खडे-खडे नौ बज गये। ठंड के प्रकोप से दो-तीन महिलाएं बेहोश हो गयीं। किसी तरह चाय वाले की अंगीठी के पास ले जा कर उनकी सुश्रूषा की गयी। लाइन एक इंच भी नहीं सरक रही थी। उसी स्थिति में खडे-खडे एक बज गया। कोई बता नहीं पा रहा था कि ऐसा क्यों है। इसी बीच खबर आई कि रास्ता खुल गया है। लोग धीरे-धीरे लौटने लगे थे। तभी देखा एक पुरोहित अपने यजमान पति-पत्नी को भवन के ठीक नीचे ले गया और बोला यहीं से ध्यान लगा मां को प्रणाम कर लें। दोनों ने हाथ जोड वहीं प्रार्थना की और वापस हो लिए। पता नहीं उनकी क्या मजबूरी रही होगी कि इतने पास आ कर भी दर्शनों को मोहताज रह वापस लौटना पडा।
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माँ का दरबार |
करीब तीन बजे पुलिस आई, पता चला कि पैसे ले कर बिना लाइन के लोगों को आगे से ले जा कर दर्शन करवाए जा रहे थे। इनमें दो-तीन दिन से फंसे लोग भी थे जो लौटते-लौटते फिर “पुण्य” कमाने के लिए बाकी लोगों की तकलीफें बढा रहे थे। मन के किसी कोने से आवाज उठी, मां के सामने ऐसा अन्याय?
खैर पुलिस ने व्यवस्था संभाली, धांधली रुकी तो लाइन मे जान आयी। आडे-तिरछे खिसकते, अटकते, रेंगते, रुकते, चलते, जैकारा लगाते, भजन गाते करीब पौने बारह बजे जाकर हम गुफा के द्वार पर पहुंच पाये। उन दिनों एकतरफा आवागमन था। आठ-दस लोग भीतर जाते थे उनके बाहर आने पर ही दूसरे आठ-दस लोगों को भीतर जाने दिया जाता था। अंदर फिर वही हडबडी किसी को दस सेकेंड भी खडे होने का मौका नहीं मिल पाता था। पंडे सैंकडों मीलों से आए लोगों को अंदर पिंडियों को एक नजर देखने के पहले ही बाहर करने पर उतारू रहते थे। मजबूरी उनकी भी थी, नहीं तो कौन अंदर से हटना चाहेगा। जो भी था हम ठीक 12 बजे नये साल की शुरुआत पर मां के चरणों में थे। दर्शन लाभ ले बाहर आए।
कल और आज में जमीन आसमान का फर्क था। अफरात जगह खाली पडी थी। फंसे हुए लोग जा चुके थे। कमरे अपनी गर्माहट के साथ उपलब्ध थे। कंबलों के ढेर सुलभ थे ठंड से बचा अपने आगोश में लेने के लिए। रात बडे ही सकून से गुजरी।
1 तारीख। नया साल। सुबह माँ से विदा ले शाम को जम्मू से बस द्वारा दिल्ली का रुख कर लिया। इस यात्रा के दौरान कई विडंबनाएं दिखीं। बूढे से बूढे व्यक्ति को पैदल चढाई चढते देखा और वहीं, हृष्ट-पुष्ट जवान को घोडे या बंहगी में टंगे जाते देखा। मां के दरबार में भी पैसों के लिए धांधली देखी। रास्ता चलते अनजानों को भी प्रेम से एक दूसरे की निस्वार्थ मदद करते देखा। गरीबों की इमानदारी भी देखी। भक्तों की मासूमियत का लाभ उठा उनको ठगे जाते भी देखा। गर्भ जून की खोह में कैदी की तरह पैसों के ढेर पर बैठे पंडे को देखा। अबोध, मासूम बालिका को पैसों के कारण माँ-बाप द्वारा देवी का रूप धरवा, मार्ग पर बैठे देखा। हम जैसों को अडचनों पर पार पा अपनी यात्रा सफ़ल होते देखा। उसी के साथ इतनी दूर आ कर भी माँ के दर्शन न कर पाने वाले लोगों को भी देखा। प्रभू की माया अपरंपार है। कौन इसका भेद जान पाया है।
पर इन सब के साथ ही यह सवाल भी अनुत्तरित ही रहा कि क्या हम लोगों के लिए यह माँ का बुलावा था? यदि हां, तो कदम-कदम पर अडचनें क्यूं खडी मिलीं? क्यों हमें बार-बार गैर कानूनी रास्ते अख्तियार करने पडे, और यदि नहीं बुलाया था!!! तो दर्शन कैसे दे दिए?
है कोई जवाब?
जै माता दी।
खा। गरीबों की इमानदारी भी देखी। भक्तों की मासूमियत का लाभ उठा उनको ठगे जाते भी देखा। गर्भ जून एक एक खोहमें कैदी की तरह पैसों के ढेर एक पर बैठे पंडे को देखा। अबोध, मासूम बालिका को पैसों के कारण माँ-बाप द्वारा देवी का रूप धरवा, मार्ग पर बैठे देखा। हम जैसों को अडचनों पर पार पा अपनी यात्रा सफ़ल होते देखा। उसी के साथ इतनी दूर आ कर भी माँ के दर्शन न कर पाने वाले लोगों को भी देखा। प्रभू की माया अपरंपार है। कौन इसका भेद जान पाया है।
पर इन सब के साथ ही यह सवाल भी अनुत्तरित ही रहा कि क्या हम लोगों के लिए यह माँ का बुलावा था? यदि हां तो कदम-कदम पर अडचनें क्यूं खडी मिलीं और क्यों हमें बार-बार गैर कानूनी रास्ते