आज कालोनी में एक अजीब सी स्थिति आ खड़ी हुई ! एक घर में गमी छाई हुई थी; आंसुओं, सिसकियों से भरा उदासी-गम का माहौल था ! ना पूरी होने वाली क्षति हुई थी ! दूसरी तरफ एक ने नया घर लिया था, इस उपलब्धि पर उसका अपने परिवार-परिजनों के साथ खुश होना वाजिब था। बैंड, ढोल, ताशे बज रहे थे ! इस खुशी और गम के बीच सिर्फ दो मकान थे !!
शहरों को कंक्रीट का जंगल कहा जाता है ! पर प्रकृति निर्मित जंगल फिर भी बेहतर हैं। भले ही वहाँ जंगल राज चलता हो पर वहां के रहवासी एक-दूसरे को, उनकी प्रकृती को जानते-समझते तो हैं ! इन शहरी कंक्रीट के जंगलों में तो इंसान अपने परिवार तक ही सिमट कर रह गया है। समय ही नहीं है किसी के पास किसी के लिए। पहले छोटे शहरों-गावों में अधिकाँश लोग एक परिवार जैसे हुआ करते थे। सब का सुख-दुख तक़रीबन साझा हुआ करता था।
समय काफी बदल गया है; गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है जो अपने साथ-साथ लोगों की आँख का पानी भी बहा कर ले गया है ! अब तो मौहल्ले, कालोनी को छोड़िए लोग अपने पड़ोसी तक को पहचानने से गुरेज करने लगे हैं ! आस-पड़ोस के लोगों की पहचान भी घरों के नंबर से होने लगी है, किसी से पूछिए मल्होत्रा जी कहाँ रहते है तो छूटते ही उलटा पूछेगा, कौन 312 वाले ? जो गंजे से हैं ? किसी कालोनी में जा किसी बच्चे से कोई पूछे कि शर्मा जी को जानते हो तो पलट कर वही पूछेगा, घर का नंबर क्या है ? यदि बताया जाएगा कि 162 में ग्राउंड फ्लोर; तो वह घर की दिशा ही बता पाएगा। यदि गलती से दो-तीन लोगों के बीच जा, पूछा जाए कि सदानंद वर्मा जी कहाँ रहते हैं तो पहले वे आपस में ही तसल्ली करेंगें; वही, जिनका हार्ट का ऑपरेशन हुआ था ? अरे नहीं वे तो थर्ड फ्लोर पर हैं अग्रवाल, वर्मा जी उनके नीचे रहते हैं, 224 में। तीन साल हो गए, एक-दो बार दुआ-सलाम ही हुई है, बस !!
अब ऐसे में जब जान-पहचान ही नहीं है तो कौन किसके सुख-दुःख में शामिल होगा ! क्या कोई किसी के काम आएगा ! क्या किसी के प्रति किसी की संवेदना रहेगी ! ऐसे में क्या ठीक है क्या नहीं या कौन सही है कौन गलत; इसका फैसला करना भी मुश्किल है।
कल मेरे बगल वाले मकान में एक सज्जन का देहांत हो गया। सारा क्रिया-कर्म संध्या तक जा कर हो पाया। उनके घर से ठीक दो मकान छोड़ तीसरी बिल्डिंग में गृह-प्रवेश था। वहाँ आज सुबह से ही उत्सव का माहौल बना हुआ था। नौ बजे से ही बैंड-बाजे के साथ नाच-गाना शुरू हो गया। कुछ अजीब सी स्थिति लगी। घंटे-पौन घंटे के बाद शोर थमा तो लगा कि अगले की भी तो अपनी ख़ुशी मनाने का पूरा हक़ है, चलो घंटे भर ही सही शोर बंद तो हुआ। पर कुछ देर बाद फिर वहीँ ढोल बजना शुरू हो गया जिसके साथ-साथ फिर वैसा ही शोर-शराबा ! कुछ देर बाद ताशे बजने लगे; फिर तुरही-शहनाई जैसा कुछ !! यानी अगले ने अपने आने की घोषणा पूरे जोशो-खरोश से सबके कानों तक पहुंचाई। किसी के दुःख-दर्द का बिना एहसास किए; और यह सब करीब दोपहर एक बजे तक चलता रहा ! खुशी और गम के बीच सिर्फ दो मकान थे !!
यह सब सही था या गलत इसके लिए कोई पैमाना तो है नहीं। एक के घर गमी थी; ना पूरी होने वाली क्षति ! उदासी-गम का माहौल ! दूसरी तरफ एक ने नया घर लिया था, इतनी बड़ी उपलब्धि पर उसका, परिवार-परिजनों के साथ खुश होना वाजिब था। बाकी के लोगों का दोनों घरों से कोई रिश्ता भी नहीं है, निरपेक्ष हैं सभी।पर क्या नवागत से, दूसरा परिवार कभी मन की कसक दूर कर पाएगा ? क्या दोनों एक-दूसरे से सहज हो पाएंगे ? कुछ तो कहीं था जो कचोट रहा था, ऐसा क्यों लग रहा था जैसे संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं, क्या उत्सव को बिना शोर-शराबे के संयमित हो नहीं मनाया जा सकता था ?
#हिन्दी_ब्लागिंग
17 टिप्पणियां:
जी,आपने बिल्कुल सही लिखा है,आज तो जैसे हम संवेदनविहीन होते जा रहे है।बहुत ही सोचनीय दशा है समाज की,सड़क पर चलते अनजान मुसाफिर और बगल में रहने वाले पड़ोसी मे मानो कोई अंतर ही न हो। पर शुक्र है अभी तक हमारे मुहल्ले में थोड़ा अपनत्व और अपनापन बचा हुआ है।
क्या कहा जाए श्वेता जी ! पर एक बात तो है हमें खुद आगे बढ़ कर अपनापा बनाए रखना होगा। कुछ लोग (मेरे जैसे) झिझक के मारे ही अपने आप में सिमटे रहते हैं
ब्लॉग बुलेटिन का आभार
शोर कम कर के मना सकते थे अगर मनाना ही था लेकिन सम्वेदनाओं का होना शायद अच्छा नहीं माना जाता है इस जमाने में ।
आज संवेदनहीनता बढती जा रही है | ये दृश्य हर शहर में आम हैं | सब दुखी हैं पर सब वही कर रहे हैं | कहीं न कहीं हम सब दोषी हैं | सुधार भी हमें ही करना होगा | बहुत अच्छा विषय उठाया आपने |
सुशील जी, अटपटा इस लिए लग रहा था क्योंकि दोनों घरों में सिर्फ़ 15-20 गज का ही फासला है
@atoot bandhan...पता नहीं आने वाला समय कैसा होगा !
आज हर किसी को सिर्फ़ अपनी ही पड़ी हैं। किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं हैं। लेकिन हम दूसरों को दोष देकर पल्ला नहीं झाड सकते हैं। हमें अपने आप को ही सुधारना होगा ताकि कुछ सुधार हो सके।
ज्योति जी,
सहमत हूँ पूरी तरह ! पर होगा कैसे यही चिंता है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (08-10-2017) को
"सलामत रहो साजना" (चर्चा अंक 2751)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी,
धन्यवाद
अत्यंत विचारणीय ! एवं मंथन योग्य विषय ! विचार करना होगा ! शुभकामनायें ,आभार
रोबोट से यंत्रचालित
नापकर मुस्कुराते
तौलकर बोलते,
आत्मकेंद्रित,सभ्य और शालीन,
लोगों की यह बस्ती है.
यहाँ बड़ी शांति है
अंतर्जाल के आभासी रिश्तों में
अपनापन ढूँढ़ने की कोशिश,
सन्नाटे से उपजता शोर
उस शोर से भागने की कोशिश !
अशांत मनों की नीरव शांति !
यह महानगरों की
फ्लैट संस्कृति है,
बंद दरवाजों की संस्कृति है,
यहाँ बड़ी शांति है!
फ्लैट संस्कृति में संवेदनाएँ भी गिरकर फ्लैट हो गई हैं!
वाह्ह्ह...बहुत सुंदर कविता मीना जी।सस्नेह बधाई।
ध्रुव जी,
ब्लॉग पर सदा स्वागत है
@बंद दरवाजों की संस्कृति है......बिलकुल सही ! पर पहले ऐसी तो ना थी !!
श्वेता जी,
कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है
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