रविवार, 27 सितंबर 2015

बढ़ते पंडाल घटती श्रद्धा

कुछ मंडप तो ऐसे भी देखने को मिलते हैं जहां आयोजक अपने "किसी जरुरी काम" से नदारद रहते हैं और निपट अकेले बैठे प्रभू भक्तों की बाट जोहते नज़र आते हैं। ऊपर से अखबारों और मिडिया की अनुकंपा से अस्तित्व में आई  #ग्रुफियों ने बंटाधार कर रखा है, जिसमे बप्पा को एक तरह से पूरी तरह दरकिनार कर अपनी ही अपनी फोटुएं उतारी जाती हैं। विघ्नहर्ता भी सोचते होंगे कि कहां दस दिनों के लिए आ फंसा। 

त्योहारों के मौसम का श्री गणेश, गौरी पुत्र गणपति बप्पा की स्थापना के साथ हो चुका है। भिन्न-भिन्न रूपों में
जगह-जगह, गली-गली विघ्नेश्वर विराजे हैं। ऐसा लगता है जैसे होड़ मच गयी हो इनके स्वागत की। इस बार मेरे इलाके के आधा की. मी. के दायरे में ही आठ-नौ सार्वजनिक पंडाल हैं। घरो की बात तो छोड़ ही दी जाए, हर तीसरे-चौथे घर से सुबह-शाम आरती की आवाजें सुनी जा सकती हैं। पता नहीं लोग सचमुच धार्र्मिक या श्रद्धालु हो गए हैं या कोई और बात है !

अतीत में झांका जाए तो सार्वजनिक मूर्ती स्थापना की परंपरा सबसे ज्यादा बंगाल में चली रही है। जहां भव्य दुर्गोत्सव के बाद माँ काली, देवी लक्ष्मी, जगद्धात्री माता की मूर्तियों की सार्वजनिक पंडाल में पूजा की जाती रही है। छोटे-बड़े कारखानों में विश्वकर्मा जी की प्रतिमा भी स्थापित कर पूजन होता रहा है। उधर महाराष्ट्र में सदा गणेशोत्सव की धूम रही है। 

समय की करवट के साथ जीवन-यापन की तलाश में लोग प्रदेश-प्रदेश आने-जाने लगे तो अपने साथ अपनी संस्कृति, अपने संस्कार, अपने रीति-रिवाज भी लेते आए। जिससे हर जगह हर तरह के त्यौहार मनाने का चलन शुरू हो गया। इंसान होता ही उत्सव प्रिय है, कुछ दिनों के लिए ही सही देश भर में मौज-मस्ती-उल्लास
का समा बनने लगा। लोग एक-दूसरे से मिलने लगे, एक-दूसरे के रीति-रिवाजों को समझने और अपनाने लगे। इन दिनों एक खुशनुमा माहौल छाता नज़र आने लगता है। 

पर जैसे दिन के साथ रात, ख़ुशी के साथ गम, अच्छाई के साथ बुराई जुडी होती है ठीक वैसे ही इस सामाजिक कृत्य के साथ कुछ असामाजिक कुकृत्य भी पनपने लगे। ठीक वही हुआ जो वर्षों पहले बंगाल में हुआ था। पंडालों की सजावट और उसमे इनाम पाने की होड़ ने गलत प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दे दिया। बढे हुए खर्च के लिए लोगों से जबरन चंदा उगाही होने लगी। फिर उस अपार तथा अबाध धन राशि को देख नियतों में फर्क आने लगा। चढ़ावे की बिन हिसाब की राशि भी आपसी मन-मुटाव का कारण बनने लगी।  कुछ असामाजिक तत्वों ने इसे अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का जरिया बना डाला। लाखों के बजट  के खेल को देख नेता गण भी मैदान में उतर आए। बस सार्वजनिक आयोजन अतिसार्वजनिक हो गया और अति तो हर चीज की बुरी होती है, जो समारोह लोगों को कभी एकजुट करते थे वही विघटन का कारण बनने लगे। मौहल्ले बंट गए, गलियां  बंट गयीं, लोग बंट गए और इसके साथ श्रद्धा घटती चली गयी। 

ऐसे आयोजन अब ज्यादातर मौज-मस्ती मनाने का अवसर बन गए हैं। युवाओं के लिए घर से बाहर ज्यादा समय गुजारने का जरिया बन गए हैं। अब भक्ति-भावना तिरोहित हो चुकी है। ज्यादातर ठियों पर माहौल बदला-बदला सा नज़र आता है। पुरानी समितियों और जिम्मेदार आयोजनों की बात छोड़ दें पर गली-गली उग आए छोटे-छोटे तंबुओं में सिर्फ अपना शौक पूरा करने के लिए ऐसा करने वालों का उत्साह दो-तीन दिनों बाद ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कई जगहों पर एक तरफ अकेले चौकी पर विराजे बप्पा नज़रंदाज़ हो टुकुर-टुकुर अपने सामने बैठे भक्तो को विदेशी पकवान उदरस्त करते और "हौजी" खेलते देखते रहते हैं। कुछ मंडप तो ऐसे भी देखने को मिलते हैं जहां आयोजक अपने "किसी जरुरी काम" से नदारद रहते हैं और निपट अकेले बैठे प्रभू भक्तों की बाट जोहते नज़र आते हैं। ऊपर से अखबारों और मिडिया की अनुकंपा से अस्तित्व में आई  "ग्रुफियों" ने बंटाधार कर रख दिया है। जिसमे बप्पा को एक तरह से पूरी तरह दरकिनार कर अपनी ही अपनी फोटुएं उतारी जाती हैं। विघ्नहर्ता भी सोचते होंगे कि कहां दस दिनों के लिए आ फंसा।      

पता नहीं इस ओर उन लोगों की नज़र क्यूं नहीं जाती जिनकी भावनाएं ज़रा-ज़रा सी बात पर ठेस खा-खा कर समाज की ऐसी की तैसी करती रहती हैं। 

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-09-2015) को "बढ़ते पंडाल घटती श्रद्धा" (चर्चा अंक-2112) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
अनन्त चतुर्दशी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कविता रावत ने कहा…

आपने तो मेरे मन की बात कह दी ...
विचारणीय प्रस्तुति हेतु आभार!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Kavita ji sadaa swagat hai

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