सोमवार, 27 नवंबर 2017

जवाब तो जिम्मेदारों से मांगा जाना चाहिए !!

कोई आम आदमी एक ठेला तो लगा कर  दिखा दे कहीं, उसे छठी का दूध न याद दिला दें पुलिस और कमेटी वाले तो कहिएगा ! पर सारे देश में हजारों-लाखों ऐसी जगहें बना दी गयी  हैं जहां बिना हरड-फिटकरी लगे करोड़ों का वारा-न्यारा हो रहा है ! जवाब तो उनसे माँगा जाना चाहिए जिनकी इजाजत के बगैर कहीं एक ईंट भी नहीं लग सकती पर उनकी ही मेहरबानी से सारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह पूजा स्थल उगते जा रहे है ! 
#हिन्दी_ब्लागिंग 
अभी पिछले दिनों अखबारों में करोलबाग़ और झंडेवाला के बीच स्थित संकट मोचन धाम की, क़ुतुब मीनार की तरह दिल्ली की पहचान सी बन गयी, 108' ऊँची हनुमान जी की मूर्ति को हटाने की काफी चर्चा रही। तय है कि इस पर तरह-तरह के विवाद भी जन्म लेंगे ! हम ज्यादातर धर्म-भीरु लोग हैं। हमें इससे कोई मतलब नहीं
कि फलाना मंदिर कहाँ बना, कैसे बना, किसने बनवाया, क्यूँ बनवाया ! वहाँ विधिवत पूजा होती भी है कि नहीं, पूजा करने वाले को इस विधा का ज्ञान है भी कि नहीं !  हमें तो सिर्फ वहाँ स्थापित मूर्ति से मतलब होता है ! फिर चाहे वह विवादित स्थल पर बनी हो, चाहे नाले पर, चाहे सड़क के किनारे, चाहे कूड़ेदान के पास या फिर किसी पेड़ के नीचे ही कुछ रख दिया गया हो ! लोगों की आस्था और भावनाओं का फायदा उठा कुछ भी कहीं भी बना दिया जाता है और लोग पहुँच जाते हैं पैसा चढ़ाने, मत्था टेकने, मन्नत मांगने ! विश्वास नहीं होता तो आइए जनकपुरी के "ग्रैजुएट बालाजी धाम" जो डिस्ट्रिक सेंटर के कुछ पहले, पैदल पथ पर बना हुआ है। लोग मंगल-शनि यहां चढ़ावा चढ़ा मन्नतें माँगते हैं। जबकि इसकी एक दीवाल पर शीशा टांग हजामत भी बनाई जाती है और वही सज्जन आरती वगैरह का जिम्मा भी उठाते हैं: वह भी कभी-कभी बिना नहाए-धोए ! पर हमें इन सब चीजों से कोई मतलब नहीं है ! हमें तो अपनी मनोकामना की पूर्ती चाहिए, बस !!

शातिर लोग जानते हैं कि मानव इच्छा चीज ही ऐसी है जो कई बार बिना कहीं गए प्रभू की अनुकंपा से ही, बिना मन्नत के भी पूरी हो जाती है, सौ-पचास में पांच-सात तो ऐसे लोग होते ही हैं। जब उनका काम हो जाता है तो श्रद्धा-वश वे सारा श्रेय उस जगह को देने लगते हैं और उनके  इस मुख-प्रचार  (mouth publiity)  से सैंकड़ों लोग
वहाँ पहुँचने लगते हैं और उन ठगों की बन आती है। लोगों की यादाश्त तो कमजोर होती ही है जिससे कुछ ही दिनों बाद ऐसी जगहें "प्राचीन" और "सिद्ध" जैसे विशेषणों से सुशोभित होने लगती हैं ! सवाल यह नहीं है कि ऐसे पूजा स्थल क्यूँ बन रहे हैं: सवाल यह है कि यदि जगह विवादित, सरकारी, हथियाई गयी या घेरी गयी है तो वहाँ निर्माण की इजाजत किसने दी ? क्योंकि बिना किसी का पीठ पर हाथ हुए कोई ऐसी हिम्मत कर ही नहीं सकता ! कोई आम आदमी एक ठेला तो लगा कर  दिखा दे सड़क के किनारे: शाम होते-होते उसे छठी का दूध न याद दिला दें पुलिस और कमेटी वाले तो कहिएगा ! पर सारे देश में हजारों-लाखों ऐसी जगहें बना दी गयी  हैं जहां चंट लोग बिना हरड-फिटकरी लगाए करोड़ों का वारा-न्यारा कर रहे हैं। जवाब तो उनसे माँगा जाना चाहिए जिनकी इजाजत के बगैर कहीं एक ईंट भी नहीं लग सकती पर उनकी ही मेहरबानी से सारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह पूजा स्थल उगते जा रहे है !

अब इस मंदिर को ही लें, जिसको बनने में करीब तेरह साल लगे, मूर्ति कोई तीन-चार फिट की नहीं जो किसी को दिखी ही ना हो, वह भी दिल्ली के बीचो-बीच, सबकी निगाहों में ! फिर कैसे, किसकी शह पर, बिना किसी डर व  झिझक के आस-पास अतिक्रमण होता चला गया ? कौन हैं वे लोग जिनको इंसान तो क्या भगवान् का भी डर नहीं ! क्यों नहीं मंदिर के आस-पास की सफाई के पहले उनकी धुलाई की जाए, जिससे भविष्य में कोई  ऐसी बेजा हरकत करने के पहले दस बार सोचे ! पर कड़वी सच्चाई यही है कि हमारे देश में रसूख और जुगाड़ बहुत बड़ी बीमारी है जिसका इलाज बहुत मुश्किल है, पर लाइलाज नहीं है। एक बार इस तरह के लोगों के गिरेबान पर कानून का शिकंजा कस जाए तो काफी हद तक इस नासूर से मुक्ति मिल सकती है। वैसे ज्यादा मुश्किल भी नहीं है: सिर्फ जिम्मेदार लोगों को फरमान मिल जाना चाहिए कि उनके कार्यक्षेत्र के तहत कुछ भी गलत होता है तो दंड भी उन्हें ही भुगतना पडेगा, सारी बात साफ़ होने तक उन्हें निलंबित तो किया ही जाए पर बिना किसी तनख्वाह के: अभी तो लोग काम पर भी नहीं जाते और घर बैठे आधा पैसा ले मौज करते हैं !  बस !! इतना ही काफी है अपराधों में 60 से 70 प्रतिशत की कमी लाने के लिए। 

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

यहां 15-20 की.मी. के लिए 1000/- तक मांगने वाले वाहन चालकों से बचें !!

पर्यटकों को होने वाली असुविधाओं को देखते हुए देश के दक्षिणी हिस्से से आए दो युवाओं को उत्तराखंड के इस हिस्से में "ओला कैब" जैसी सुविधा प्रदान करने का ख्याल आया और उन्होंने इस तरह की सेवा का भविष्य भांप एक टैक्सी सेवा #GO-9 के नाम से शुरू कर दी। उनके अनुसार उत्तराखंड में यह पहली टैक्सी सेवा है जिसे आप सिर्फ एक फोन कर या उनकी वेब-साइट पर जा बुक कर सकते हैं.........

#हिन्दी_ब्लागिंग   
कुछ सालों पहले तक किसी नई, अनजानी जगह जाने के पहले लोग दस बार सोचते थे। क्योंकि वहाँ के बारे में उसके नाम या छोटी-मोटी जानकारी को छोड़ और कुछ भी खबर नहीं रहती थी। इसलिए ज्यादातर लोग वहीँ जाना पसंद करते थे जहां या तो उनके परिचित रहते हों या फिर कोई जान-पहचान का जा-आया हो। क्योंकि नई जगह में परिवार के साथ जाने में थोड़ी हिचकिचाहट होती ही थी। संचार क्रान्ति के बाद आज देश-विदेश की सारी जानकारी हमें घर बैठे उपलब्ध हो जाती है। प्रसिद्ध जगहों में रहने-ठहरने, आने-जाने की सारी बुकिंग चलने के पहले ही की जा सकती है। निर्धारित स्थल पर पहुँचने पर किसी तरह की चिंता नहीं रहती। पर अभी भी ऐसे अनेक पर्यटन स्थल हैं, जहां होटल वगैरह में भले ही पहले से बुकिंग हो जाए पर घूमने के लिए वाहन इत्यादि के लिए वहाँ के वहां-चालकों की गोलबंदी से जूझना ही पड़ता है। भले ही आपको रूट या किराए का अंदाज हो पर वहाँ जेब ढीली होने से बचा नहीं जा सकता। नेट की जानकारी भी पूरी तरह खरी नहीं उतरती। 

अभी पिछले महीने अल्मोड़ा जाना हुआ था। उसके लिए काठगोदाम उतरना हुआ। सुबह जब अल्मोड़ा के लिए वाहन की खोज शुरू हुई तब नेट की सारी जानकारी धरी की धरी रह गयी। जहां नेट पर काठगोदाम से अल्मोड़ा की दूरी 60-70 की.मी. बताई गयी थी वह 96 की.मी. निकली, आभासी जानकारी में जहां सड़कों की हालत अच्छी बताई जा रहा थी, वहीँ एक जगह कच्चे पहाड़ों के बीच करीब दस की.मी. की सड़क तकरीबन गायब ही थी और किराया 1400-1500/- की जगह 1800/- से 2000/- के बीच; कोई-कोई तो 3000/- तक को सही ठहरा रहा था, इनके अनुसार  वापस लौटने में सवारी नहीं मिलती और इन्हें खाली आना पड़ता है। हालांकि इनकी आपस में सब सेटिंग होती है पर ग्राहकों को यही बताया जाता है। हाँ यदि किसी लौटने वाले वाहन से सम्पर्क हो जाए तो 1000-1200 में बात बन जाती है। पर यह बात अनजान मुसाफिर को कोई क्यूँ और कौन बताए ? और फिर घूमने-फिरने आए पर्यटक 400-500/- के लिए अपनी छुट्टियों को बेमजा नहीं करना चाहते और सौ-सवा सौ कम करवा खुश हो लेते हैं क्योंकि टैक्सी के बिना घूमने के लिए और कोई  ढंग की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है। बसें तो हैं पर उनका कोई ख़ास फायदा घूमने आए पर्यटक के लिए नहीं है।

यही मोनोपली, परिस्थितियां, परेशानियां नए उद्योगों की प्रेरणा बनती हैं और जोखिम उठा हिम्मत करने वालों के लिए नई राहें खोल देती हैं। ऐसे ही देश के दक्षिणी हिस्से से आए दो युवाओं को उत्तराखंड के इस हिस्से में "ओला कैब" जैसी सुविधा प्रदान करने का ख्याल आया और उन्होंने पर्यटकों की असुविधाओं को ध्यान में रख एक टैक्सी सेवा #GO-9 के नाम से शुरू कर दी। उनके अनुसार उत्तराखंड में यह पहली टैक्सी सेवा है जिसे आप सिर्फ एक फोन कर या उनकी वेब-साइट पर जा बुक कर सकते हैं। अभी यह शैशवावस्था में ही है और कम ही टैक्सी चालक इनसे जुड़े हैं पर धीरे-धीरे इनका ग्राफ ऊपर की ओर उठ रहा है। शुरुआत में इन्होंने नौ जिलों नैनीताल, रानीखेत, हल्द्वानी, कसौनी, पिथौरगढ़, रुद्रपुर, बागेश्वर और भीमताल से अपना काम शुरू किया है इसीलिए अपना नाम भी #GO-9 रखा है। इनका पता हमें अल्मोड़ा पहुँचने पर ही लगा। इनकी मिलनसारिता, पेशेवर अंदाज और सहयोग के कारण अगले तीन दिन इन्हीं ने हमारी यात्रा का बंदोबस्त किया। कहने का अभिप्राय यह है कि जब भी किसी ऐसी जगह जाना हो; जहां यातायात का पुख्ता इंतजाम न हो; तो ऐसी किसी सेवा का जरूर पता कर लें। नहीं तो 20-30 की.मी. आने-जाने का किराया 1000/- तक मांगने वाले वाहन चालकों की कहीं कोई कमी नहीं है !!  

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

यहाँ मानव भस्मी-विसर्जन शुचिता के साथ संभव है

हिंदू परंपरा के अनुसार शव-दाह के बाद अस्थियों का किसी धार्मिक स्थल पर विसर्जन तथा भस्मी को बहते जल में प्रवाहित करने का विधान है। पर अब नदियों-सरोवरों की स्वच्छता को बनाए रखने के हेतु भस्मी-विसर्जन के लिए दिल्ली में कुछ स्थान निर्धारित कर दिए गए हैं। दिल्ली के अंतर्राजीय बस-अड्डे के पास, यमुना से लगा, मजनू के टिला भी एक ऐसा ही स्थान है। लोगों की भावनाओं को समझते हुए, सिख समुदाय ने यहां भस्मी-विसर्जन की अति उत्तम व्यवस्था कर एक बड़ी समस्या को हल कर समाज के सामने एक मिसाल पेश की है.....   

समय बहुत तेजी से घूम रहा है। आज की ईजाद दूसरे दिन पुरानी पड़ जाती है। रोज ही किसी ना किसी क्षेत्र में बदलाव महसूस किया जा रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी में भी विभिन्न प्रकार के पहलू सामने आ रहे हैं। हर क्षेत्र अपने उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह की सहूलियतें देने पर उतारू है। पर कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां के बदलावों का, मानव जीवन का अभिन्न अंग होते हुए भी, जल्द पता नहीं चलता ! हालांकि वहाँ कार्यरत या वहाँ से संबंधित लोग अपनी तरफ से आम लोगों की परेशानियों को समझते हुए कुछ ना कुछ बेहतरी के लिए कदम उठाते ही रहते हैं। ऐसी ही एक जगह है, मानव के ब्रह्म-लोक की यात्रा पर निकलने के पहले इस धरा पर का अंतिम पड़ाव, मुक्तिधाम !     
   
मुक्तिधाम या श्मशान या कायांत ! शम का अर्थ है शव और शान का अर्थ शयन यानी बिस्तर। जहां मरे हुए शरीरों को रखा जाता है। मौत के बाद काया या शरीर का अंत होता है जीवन का अंत नहीं होता है, इसीलिए यह कायांत है, जीवांत नहीं। पर इस दुनिया में देह से ही मोह है, संबंध हैं, रिश्ते-नाते हैं, अपनत्व है, ममता है, इसीलिए इसके ख़त्म होने पर, नष्ट होने पर परिजनों का दुखी होना अत्यंत स्वाभाविक है। दुखी और व्यथित दिलो-दिमाग से उस समय सारे इंतजाम करना, व्यवस्था करना बहुत मुश्किल हो जाता है। उन हालातों और परेशानियों को समझते हुए अब सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त, उस समय की जरुरत की सारी सामग्री और वस्तुओं को एक ही जगह उपलब्ध करवाने की व्यवस्था मुक्तिधामों में ही कर दी गयी है। नहीं तो बांस, बल्ली, पुआल, पूजा का सामान, कपडे-लत्ते, जूता-चप्पल इत्यादि दसियों तरह के सामान के लिए अलग-अलग जगहों पर जाना पड़ता था। अब तो जैसे क्रिश्चियन समाज में ताबूत मिलते हैं उसी तरह बनी-बनाई अर्थी भी उपलब्ध होने लगी है। इससे समय और परेशानी में काफी कमी आ गयी है। 

हिंदू परंपरा के अनुसार शव-दाह के बाद अस्थियों का किसी धार्मिक स्थल पर विसर्जन तथा भस्मी को बहते जल में प्रवाहित करने का विधान है। पर अब नदियों-सरोवरों की स्वच्छता को बनाए रखने के लिए हर जगह भस्मी विसर्जन नहीं किया जाना उचित तो है पर एक समस्या का सबब भी बनता जा रहा है। क्योंकि दोनों ही कार्य अपनी जगह अति आवश्यक हैं। इसलिए भस्मी-विसर्जन के लिए दिल्ली में कुछ स्थान निर्धारित कर दिए गए हैं। जिससे किसी की भावना को ठेस भी ना पहुंचे और वातावरण भी सुरक्षित रहे। ऐसा ही एक स्थान है दिल्ली के अंतर्राजीय बस-अड्डे के पास, यमुना से लगा, मजनू के टिले का स्थान। जहां इसी नाम से एक भव्य गुरुद्वारा भी बना हुआ है। लोगों की भावनाओं को समझते हुए, सिख समुदाय ने यहां भस्मी-विसर्जन की अति उत्तम व्यवस्था कर एक बड़ी समस्या को हल कर समाज के सामने एक मिसाल पेश की है। 
  






गुरूद्वारे के ठीक नीचे, बगल से दूषित जल-निरूपण के बाद पानी की एक धारा यमुना में मिलती है। उसी के ऊपर एक चबूतरा बना ऊके एक किनारे "फ्नेल" जैसा छेद बना भस्मी को पानी में डालने की व्यवस्था कर दी गयी है। जिससे लोगों को पानी-कीचड़ से छुटकारा तो मिल ही गया है, भस्मी का भी हवा में उड़ने से होने वाली समस्या से मुक्ति मिल गयी है। साफ़-सुथरे, सम्मान जनक तरीके से यह काम पूरा होने लगा है। इसके साथ ही पहले जो भस्मी के बोरे वगैरह को लोग यूँ ही इधर-उधर फेंक देते थे उसके लिए भी संस्था ने एक जगह बना, एक ना दिखने वाली बड़ी समस्या का निदान कर दिया है। सलाम है ऐसे लोगों को जिन्होंने इन सारी समस्याओं का निदान किया !       

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

इस मंदिर की घंटियों की संख्या का अंदाज भी नहीं है किसी को...

इस मंदिर में भक्तों द्वारा जो घंटियां चढ़ाई जाती हैं उन्हें उतार कर दोबारा ना हीं बेचा जाता है और ना हीं उनका उपयोग कहीं और किसी और रूप में किया जाता है।  ये सभी घंटियां मंदिर के प्रांगण में ही बंधी रहती हैं। जगह कम पड़ने पर कुछ को उतार कर सुरक्षित रख दिया जाता है।  इसीलिए इस मंदिर में घंटियों का ढेर लगा हुआ है.........

घंटियां ही घंटियां ! छोटी-बड़ी-मझौली हर आकार-प्रकार की ! हर तरफ ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं, चहूँ ओर, मंदिर में ऐसी कोई खाली जगह नहीं दिखती जहां घंटियां ना बंधी हों। कोई हाथ के अंगूठे जितनी बड़ी है, कोई हथेली जितनी है, तो कोई बित्ते भर की,  एक-दो तो हाथी के सर जैसी भारी-भरकम, जिसे तो घंटा ही कहा जा सकता है। टनों वजन की इन घंटियों की संख्या का अंदाज भी नहीं है किसी को, जिन्हें यहां श्रद्धालु भक्तगण अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर आ कर बांधते है। यह नजारा है उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले के चित्तई नामक ग्राम में स्थित गोलू देवता के मंदिर का।  








पहाड़ी अंचल को देवभूमि भी कहा जाता है। वहाँ के चप्पे-चप्पे पर शिव, शक्ति, विष्णु भगवान के बहुत सारे प्रसिद्ध और विश्व-विख्यात मंदिर तो स्थित हैं हीं उनके साथ ही अनेकों स्थानीय देवी-देवताओं के भी कई पूजा-स्थल मौजूद हैं, जो अपने-आप में अनोखे और अलग हैं। उनकी अपनी पहचान और मान्यता है तथा लाखों लोग उनमें आस्था रखते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल के अल्मोड़ा क्षेत्र के चितइ गांव में स्थित गोलू देवता का मंदिर भी ऐसा ही एक धर्म स्थल है। इन्हें न्याय का देवता माना जाता है। जिस किसी को भी कोई तकलीफ या मुसीबत से छुटकारा न मिल रहा हो, हर तरफ से निराश हो चुका हो, वह चाहे देश के किसी भी हिस्से में रहता हो, यहां सिर्फ एक अर्जी लगा अपने कष्टों से मुक्ति पा सकता है: पर उसकी शिकायत सच्ची होनी चाहिए, द्वेष, दुश्मनी, ईर्ष्या या किसी के बुरे के लिए की गयी गुहार मंजूर नहीं होती। अर्जियों के साथ ही घंटियां चढ़ाने की भी प्रथा है। यहां की एक खासियत है कि इस मंदिर में भक्तों द्वारा जो घंटियां चढ़ाई जाती हैं उन्हें उतार कर दोबारा ना हीं बेचा जाता है और ना हीं उनका उपयोग कहीं और किसी और रूप में किया जाता है।  ये सभी घंटियां मंदिर के प्रांगण में ही बंधी रहती हैं। जगह कम पड़ने पर कुछ को उतार कर सुरक्षित रख दिया जाता है।  इसीलिए इस मंदिर में घंटियों का ढेर लगा हुआ है। मूल मंदिर के निर्माण के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं हो सकीय पर व्यवस्थापकों के अनुसार 19वीं सदी के पहले दशक में इसका निर्माण हुआ था। मंदिर के अंदर घोड़े पर सवार, हाथ में धनुष-बाण लिए गोलू देवता की प्रतिमा स्थापित है।












गोलू देवता की कहानी एक मनुष्य के देवता की मान्यता प्राप्त करने की कथा है। ऐसा माना जाता है कि गोलू देवता ने अपनी माता को न्याय दिलवाया था। गोलू देवता चम्पावत के राजा झालाराय के पुत्र थे। सात रानियों के होते हुए भी कोई संतान ना होने से वे बहुत दुखी रहा करते थे। अपने गुरु के कहने पर पुत्र प्राप्ति के लिए उनहोंने भैरव देवता की आराधना की। जिससे प्रसन्न हो भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम  किसी वीरांगना से आठवां विवाह करो तब मैं पुत्र रूप में तुम्हारे घर आऊंगा। इसके बाद राजा एक दिन शिकार के लिए गए थे तो उन्हें एक कन्या दिखाई दी जो दो लड़ते हुए सांडों को अलग कर रही थी। राजा उससे बहुत प्रभावित हुए और उसके घरवालों से बात कर, कलिंगा नाम की कन्या को अपनी रानी बना लिया। इससे बाकी रानियाँ द्वेष के मारे कलिंगा से ईर्ष्या करने लगीं और जब उनका संतान प्राप्ति का योग बना तब उन सब ने मिल कर उसके पुत्र को सील बट्टे से बदल दिया और बच्चे को एक लोहे के बकसे में रखकर पानी में बहा दिया। बहते बहते ये बक्सा एक मछुआरे के जाल में फंस गया। बक्से में जीवित बालक को इस नि:संतान दम्पति ने प्रभु का आशीर्वाद मान, अपना लिया और बच्चे का नाम गोरिल रख दिया। धीरे धीरे बालक अपनी बाललीला के साथ साथ चमत्कार भी दिखाने लगा और आस पास के लोग उसे चमत्कारी बालक मानने लगे। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो गोरिल ने बालहठ में आ कर घोड़े की मांग करी, अब गरीब मछुआरा असली का घोडा कहाँ से लाता, इसलिए उसने लकड़ी का एक घोडा बनवा कर गोरिल को दे दिया जिसे ले वह दूर दूर तक घूमने लगा।  एक दिन घूमते घूमते अपने पिता की राजधानी धूमाकोट पहुँच गया। उस समय वहां के शाही जलाशय में  राजा के साथ रानियां भी उपस्थित थीं। गोरिल ने उनसे जलाशय में अपने घोड़े को पानी पिलाने की अनुमति मांगी। रानियां उसका उपहास करते हुए बोलीं: बेवकूफ, कहीं लकड़ी का घोडा भी पानी पीता है ? तो बालक बोला, जब एक स्त्री सिल-बट्टे को जन्म दे सकती है तो लकडी का घोडा भी पानी पी सकता है। इस तरह से उसने अपने जन्म की पूरी कथा राजा को सुनाई और अपनी माता कलिंगा को न्याय दिलवाया। इसके बाद राजा ने उसे अपना राजपाट सौंप दिया और गोरिल राजा बन अपने आस पास के लोगों को न्याय दिलाने लगे और धीरे-धीरे गोलू देवता के नाम से विश्व-प्रसिद्ध हो गए। कहानियां तो कई जुडी हुईं हैं उनसे, पर सबसे ज्यादा यही कथा प्रचलित है। 









चितई मंदिर अल्मोड़ा से पिथौरागढ़  मार्ग पर शहर से करीब आठ-नौ किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे ही स्थित है। जैसा कि हर मंदिर के सामने दुकानों का जमघट होता है यहां भी वैसे ही दुकानें सजी मिलती हैं। जहां प्रसाद के साथ-साथ घंटियों भी उपलब्ध होती हैं। मंदिर के द्वार से ही घंटियों का खजाना दिखने लगता है। द्वार से लेकर मंदिर तक दर्शनार्थियों को धूप से बचाने के लिए प्लास्टिक सहित की छत डाली गयी है। उसमें लगे लोहे के डंडे दिखाई नहीं पड़ते सब को घंटियों ने ढांक रखा है। मंदिर परिसर में पेड़, छत, पाइप, रेलिंग, खंभे, दरवाजे कहीं भी इंच भर की जगह खाली नहीं दिखाई पड़ती सब जगह घंटियां ही घंटियां। जगह उपलब्ध करवाने के लिए इससे ज्यादा को हटा कर सुरक्षित भी रखा गया है। इनके साथ ही लोगों की हजारों-लाखों अर्जियां-चिट्ठियां खंभो पर टंगी हुई। ऐसी मान्यता है कि किसी इंसान द्वारा इन्हें पढ़ना वर्जित है और  गोलू देवता सच्ची अरदास पर तुरंत न्याय करते हैं। घंटियों और अर्जियों की असंख्य तादाद से लोगों का गोलू देवता पर विश्वास का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो यहां आकर गोलू देवता का दर्शन करने ना जाता हो। तमाम आधुनिकताओं के बावजूद लोगों की अपने धर्म, अपनी आस्थाओं, अपनी परंपराओं पर अटूट विश्वास का साक्षात उदहारण हैं, गोलू देवता। 

बुधवार, 1 नवंबर 2017

मैं छत्तीसगढ हूं, आज मेरी सालगिरह है

मेरे नाम में आंकड़े जरूर  "36"  के हैं पर प्रेम से भरे मेरे मन की यही इच्छा है कि मैं सारे देश में एक ऐसे आदर्श प्रदेश के रूप में जाना जाऊं,  जहां किसी के साथ भेद-भाव नहीं बरता जाता हो, जहां किसी को अपने परिवार को पालने में बेकार की जद्दोजहद नहीं करनी पडती हो, जहां के लोग सारे देशवासियों को अपने परिवार का सदस्य समझें।  जहां कोई भूखा न सोता हो, जहां तन ढकने के लिए कपडे और सर छुपाने के लिए छत सब को मुहैय्या हो। मेरा यह सपना दुर्लभ भी नहीं है। यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें  #छत्तीसगढिया_सबले_बढिया का खिताब हासिल नहीं हुआ है .....................................

#हिन्दी_ब्लागिंग 
मैं #छत्तीसगढ हूं। आज एक नवम्बर है, मेरी जन्मतिथि। आज मैं सत्रह साल का हो गया हूँ। जो सपनों का साल, बाल्यावस्था
से किशोरावस्था में पदार्पण करने का साल। कुछ कर गुजरने का साल, सपनों को हकीकत में बदलने के लिए जमीन तैयार करने का साल है। आज सुबह से ही आपकी शुभकामनाएं, प्रेम भरे संदेश और भावनाओं से पगी बधाईयां पा कर अभिभूत हूं। मुझे याद रहे ना रहे पर आप सब को मेरा जन्म-दिन याद रहता है यह मेरा सौभाग्य है। किसी देश या राज्य के लिए सत्रह साल समय का बहुत बड़ा काल-खंड नहीं होता। पर मुझे संवारने-संभालने, मेरे रख-रखाव, मुझे दिशा देने वालों ने इतने कम समय में ही मेरी पहचान देश ही नहीं विदेशों में भी बना कर एक मिसाल कायम कर दी है।मुझे इससे कोई मतलब नहीं है कि मेरी बागडोर किस पार्टी के हाथ में है, जो भी यहां की जनता की इच्छा से राज सँभालता है उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि छत्तीसगढ के वासी अमन-चैन के साथ, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन, यहां बिना किसी डर, भय, चिंता या अभाव के अपना जीवन यापन कर सकें। मेरा सारा प्रेम, लगाव, जुडाव सिर्फ और सिर्फ यहां के बाशिंदों के साथ ही है। 

वन-संपदा, खनिज, धन-धान्य से परिपूर्ण मेरी रत्न-गर्भा धरती का इतिहास दक्षिण-कौशल के नाम से रामायण और महाभारत काल में भी जाना जाता रहा है। वैसे यहां एक लंबे समय तक कल्चुरी राज्यवंश का आधिपत्य रहा है। पर मध्य प्रदेश परिवार से जुडे रहने के कारण मेरी स्वतंत्र छवि नहीं बन पाई थी और देश के दूसरे हिस्सों के लोग मेरे बारे में बहुत कम जानकारी रखते थे। आप को भी याद ही होगा जब मुझे मध्य प्रदेश से अलग अपनी पहचान मिली थी तो  देश के दूसरे भाग में रहने वाले लोगों को मेरे बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, जिसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों में मेरे प्रति अभी भी कई तरह की भ्रांतियां पनपी हुई हैं। अभी भी लोग मुझे एक पिछडा प्रदेश और यहां के आदिवासियों के बारे में अधकचरी जानकारी रखते है। इस धारणा को बदलने में समय तो लगा, मेहनत करनी पड़ी, जितने भी साधन उपलब्ध थे उनका उचित प्रयोग किया गया, धीरे-धीरे तस्वीर बदलने लगी जिसका उल्लेख यहां से बाहर जाने वालों से या बाहर से यहां घूमने आने वाले लोगों की जुबानी देशवासियों में होने लगा।अब यहां से बाहर जाने वालों से या बाहर से यहां घूमने आने वाले लोगों को मुझे देखने-समझने का मौका मिलता है तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि युवावस्था के द्वार पर खड़ा मैं, इतने कम समय में, सीमित साधनों के और ढेरों अडचनों के बावजूद इतनी तरक्की कर पाया हूं। वे मुझे देश के सैंकडों शहरों से बीस पाते हैं। मुझे संवारने-संभालने, मेरे रख-रखाव, मुझे दिशा देने वालों ने इतने कम समय में ही मेरी पहचान देश ही नहीं विदेशों में भी बना कर एक मिसाल कायम कर दी है।


                                   

कईयों की जिज्ञासा होती है मेरी पहचान अभी सिर्फ सत्रह सालों की है उसके पहले क्या था? कैसा था? तो उन सब को नम्रता पूर्वक यही कहना चाहता हूं कि जैसा था वैसा हूं यहीं था यहीं हूं। फिर भी सभी की उत्सुकता शांत करने के लिए कुछ जानकारी बांट ही लेता हूं। सैंकडों सालों से मेरा विवरण इतिहास में मिलता रहा है। मुझे दक्षिणी कोसल के रूप में जाना जाता रहा है। रामायण काल में मैं माता कौशल्या की भूमि के रूप में ख्यात था। मेरा परम सौभाग्य है कि मैं किसी भी तरह ही सही प्रभू राम के नाम से जुडा रह पाया। कालांतर से नाम बदलते रहे, अभी की वर्तमान संज्ञा "छत्तीसगढ" के बारे में विद्वानों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग इसका कारण उन 36 किलों को मानते हैं जो मेरे अलग-अलग हिस्सों में कभी रहे थे, पर आज उनके अवशेष नहीं मिलते। कुछ जानकारों का मानना है कि यह नाम कल्चुरी राजवंश के चेडीसगढ़ का ही अपभ्र्ंश है। 




भारतीय गणराज्य में 31 अक्टूबर 1999 तक मैं मध्य प्रदेश के ही एक हिस्से के रूप में जाना जाता था। पर अपने लोगों के हित में, उनके समग्र विकास हेतु मुझे  अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया।   इस मुद्दे पर मंथन तो 1970 से ही शुरु हो गया था, पर गंभीर रूप से इस पर विचार 1990 के दशक में ही शुरु हो पाया  जिसका प्रचार 1996 और 1998 के चुनावों में अपने शिखर पर रहा जिसके चलते अगस्त 2000 में मेरे निर्माण का रास्ता साफ हो सका। इस ऐतिहासिक घटना का सबसे उज्जवल पक्ष यह था कि इस मांग और निर्माण के तहत किसी भी प्रकार के दंगे-फसाद, विरोधी रैलियों या उपद्रव इत्यादि के लिए कोई जगह नहीं थी।हर काम शांति, सद्भावना, आपसी समझ और गौरव पूर्ण तरीके से संपन्न हुआ। इसका सारा श्रेय यहां के अमन-पसंद, भोले-भाले, शांति-प्रिय लोगों को जाता है जिन पर मुझे गर्व है। आज मेरे सारे कार्यों का संचालन मेरी "राजधानी रायपुर" से संचालित होता है। समय के साथ इस शहर में तो बदलाव आया ही है पर राजधानी होने के कारण बढती लोगों की आवाजाही, नए कार्यालय, मंत्रिमंडलों के काम-काज की अधिकता इत्यादि को देखते हुए नए रायपुर का निर्माण भी शुरू हो चुका है। अभी की राजधानी रायपुर से करीब बीस की. मी. की दूरी पर यह मलेशिया के "हाई-टेक" शहर पुत्रजया की तरह निर्माणाधीन है। जिसके पूर्ण होने पर मैं गांधीनगर, चंडीगढ़ और भुवनेश्वर जैसे व्यवस्थित और पूरी तरह प्लान किए गए शहरों की श्रेणी में शामिल हो जाऊंगा।


मुझे कभी भी ना तो राजनीति से कोई खास लगाव रहा है नाहीं ऐसे दलों से। मेरा सारा प्रेम, लगाव, जुडाव सिर्फ और सिर्फ यहां के बाशिंदों के साथ ही है। कोई भी राजनीतिक दल आए, मेरी बागडोर किसी भी पार्टी के हाथ में हो उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि छत्तीसगढ के वासी अमन-चैन के साथ, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन, यहां बिना किसी डर, भय, चिंता या अभाव के अपना जीवन यापन कर सकें। मेरे नाम में आंकड़े जरूर "36" के हैं पर प्रेम भरे मेरे मन की यही इच्छा है  कि मैं सारे देश में एक ऐसे आदर्श प्रदेश के रूप में जाना जाऊं, जो देश के किसी भी कोने से आने वाले देशवासी का स्वागत खुले मन और बढे हाथों से करने को तत्पर रहता है। जहां किसी के साथ भेद-भाव ना बरता जाता, जहां किसी को अपने परिवार को पालने में बेकार की जद्दोजहद नहीं करनी पडती, जहां के लोग सारे देशवासियों को अपने परिवार का समझ, हर समय, हर तरह की सहायता प्रदान करने को तत्पर रहते हैं। जहां कोई भूखा नहीं सोता, जहां तन ढकने के लिए कपडे और सर छुपाने के लिए छत मुहैय्या करवाने में वहां के जन-प्रतिनिधि सदा तत्पर रहते हैं। मेरा यह सपना कोई बहुत दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें "छत्तीसगढिया सबसे बढिया" का खिताब हासिल नहीं हुआ है।


मेरे साथ ही भारत में अन्य दो राज्यों, उत्तराखंड तथा झारखंड भी अस्तित्व में आए हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हैं। मेरी तरफ से आप उनको भी अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करें, मुझे अच्छा लगेगा।  फिर एक बार आप सबको धन्यवाद देते हुए मेरी एक ही इच्छा है कि मेरे प्रदेश वासियों के साथ ही मेरे देशवासी भी असहिष्णुता छोड़ एक साथ प्रेम, प्यार और भाईचारे के साथ रहें।  हमारा देश उन्नति करे, विश्व में हम सिरमौर हों।
जयहिंद।
@सभी चित्र अंतरजाल से, साभार 

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