गुरुवार, 17 जून 2021

 

क्या आप भी बिस्कुट को चाय में डुबो कर खाते हैं

कोई चाहे कुछ भी कहे ! पर बिस्कुट को चाय में भिगो कर खाने का मजा कुछ और ही है ! पर  इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या बेकरी के उत्पादों के भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमक्रैकर'' जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता.........!!

हमारी कई ऐसी नैसर्गिक खूबियां हैं, जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनीज-मिनीज-गिनीज रेकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाई हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश या दावा ही नहीं किया है ! ऐसी ही एक नायाब कला है, बिस्कुट को चाय में डुबो, बिना गिराए मुंह तक ले आ कर खाने की ! सुनने-दिखने में बेहद मामूली सा यह काम उतना आसान नहीं है, जितना लगता है। इस सारी प्रक्रिया में बेहद तन्मयता, एकाग्रता, विशेषज्ञता और कारीगरी की जरुरत होती है। यह अपने आप में एक विज्ञान है ! इसके पीछे पूरा एक गणित काम करता है ! हम ऐवंई नहीं गणित में जगतगुरु बन गए थे ! पर चूँकि हमारे यहां और हमारे लिए यह एक आम बात है तथा हम इसे बिना किसी विशेष प्रयास के सरलता से अंजाम दे देते हैं, इसलिए इसे बच्चों का खेल समझ इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। पर अपने-आप को मॉडर्न समझने वाले या नीम-विदेशी इसे चाहे कितनी भी हिकारत की नज़र से देखें, उससे इस विज्ञान की अहमियत कम नहीं हो जाती।


तक़रीबन हर नई तकनीक, विधा, खोज, शहरों से गांवों की तरफ जाती है। पर मुझे लगता है, चाय-बिस्कुट की यह कला गांवों से शहर की ओर आई होगी। अंग्रेजों ने 1826 में हमसे चाय का इंट्रो करवाया ! उसके करीब 66 वर्षों बाद 1892 में हमने बिस्कुट का स्वाद चखा। पर इन ''नेमतों'' को गांव-देहात पहुँचने में काफी वक्त लग गया ! यह और बात है कि चाय पहले पहुँच लोगों के ऐसे मुंह लगी कि सर पर चढ़ कर बैठ गई। अब गांव में काम पर जाने के पहले रोटी चाय के साथ खाई जाने लगी ! हो सकता है रोटी को चाय में डुबो कर खाने में उसका स्वाद और नरमाई ज्यादा स्वादिष्ट लगने के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हो गई हो और सालों बाद जब गांव और शहर के फासले मिटने लगे, दूरियां कम हो गईं तब यह कला रोटी से बिस्कुट तक आ शहरों तक आ गई !


वैसे इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है ! जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या ''बेकरी'' के उत्पादों को भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीम-क्रैकर जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस्क या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" सेट कर ली है। 

यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है। और बिस्कुट की तो बात ही छोड़ें, वह तो प्याले में गोता लगा, किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर हमारे यहां ऐसे हादसे नहीं के बराबर ही होते हैं। इक्का-दुक्का होता भी है तो, ट्रेनिंग के दौरान बच्चों से या चाय पीते वक्त ध्यान कहीं और होने से हो जाता है ! अब चूंकि विदेशी हमारी इस विधा को समझ नहीं पाए और उनकी नक़ल में उनके पिच्छलग्गु हमारे तथाकथित विकसित देशवासी, इस कला को अपना नहीं पाए, इसीलिए उन सबने इस उच्च कोटि की विधा को फूहड व कमतर आंकने या अंकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो, कोई कुछ भी कहे ! कितना भी भरमाए ! हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है ! इस कला को पोषित करते रहना है ! इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है, बिस्कुट को भिगो कर ही खाना है ! 

@ जरुरी सलाह - यदि कभी गलती से बिस्कुट कप में गिर जाए तो उसे कभी भी बचाने या निकालने की कोशिश ना करें ! आज तक इसमें कभी सफलता नहीं मिल पाई है।
@ सभी चित्र अंतर्जाल से  

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