शनिवार, 22 अप्रैल 2017

सालासर बालाजी धाम जाएं तो तुलसीदेवी सेवासदन को जरूर आजमाएं

यदि किसी ख़ास दिन ही बालाजी के दर्शन की मानता ना मानी हो तो दिवाली के तुरंत बाद या इस समय, अप्रैल में, चाहे गर्मी भले ही हो, हनुमान जयंती के बाद जाना ही श्रेयस्कर है। भीड़-भाड़ कम हो जाने की वजह से प्रभु खुले दिल से निश्चिंतता से दर्शन देते हैं। कोई हड़बड़ी नहीं, कोई मारा-मारी नहीं, रहने को उचित जगह मिल जाती है। खान-पान साफ़-सुथरा..............

बालाजी महाराज 
साल शुरू होते ही नौकरीपेशा इंसान शायद सबसे पहले छुट्टियों की तारीखें ही ढूंढता है। होता तो सब प्रभू की इच्छा से है पर छुट्टियों के अनुसार कुछ कार्यक्रम निर्धारित कर ही लिए जाते हैं। ऐसा ही कुछ इस साल की शुरुआत में भी हो चुका था, जिसमें अप्रैल माह के दूसरे सप्ताहांत पर फिर सालासर बालाजी के दर्शनार्थ जाना तय कर लिया गया था। हालांकि पिछली बार वहाँ की भीड़ के कारण मेरा मन कुछ डांवाडोल था पर यह जान कर बहुत अच्छा लगा कि लाख "Modernity" के बावजूद मैं अपने बच्चों में प्रभू के प्रति आस्था व विश्वास का बीजारोपण करने में सफल   रहा हूँ। उनके आग्रह पर ही मेरे जाने का मन बन पाया।    

चमेलीदेवी अग्रवाल सेवासदन 
इस बार भी कोरम में पिछली यात्रा पर जाने वाले सारे सदस्य थे। आठ बड़े और दो बच्चे। हर बार झुंझनूं के रानीसती मंदिर से सालासर धाम फिर खाटू श्याम, इस त्रिकोणात्मक यात्रा को ही अंजाम देते आना हुआ है। जो करीब-करीब अफरा-तफरी में ही पूरी की जाती रही है, जिससे थकान का होना स्वाभाविक होता था। इसलिए इस बार सिर्फ सालासर बालाजी के दर्शनों का ही लक्ष्य रखा गया था। 13 अप्रैल को दोपहर एक बजे निकलना तय हुआ था। पर बैसाखी का त्यौहार होने के कारण ट्रैवेहलर को आने में तो देर हुई ही दिल्ली से निकलते-निकलते ही चार बज गए थे।  फिर वाहन-चालक के चालन में भी कुछ नौसिखियापन था, जिसके फलस्वरूप गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते घडी ने पौने एक बजा दिया था। हर बार की तरह चमेलीदेवी अग्रवाल सेवासदन  में तीन कमरों की बुकिंग थी, फिर भी सोते-सोते दो तो बज ही गए थे। रास्ते की थकान और देर के कारण सुबह आलस कुछ देर से टूटा। निश्चिंतता भी थी कि पूरा दिन अपना ही है। नहा-धो कर बाहर निकले तो ज्यादा चहल-पहल नहीं थी। इसके दो कारण थे पहला तो यह था कि यहां दो दिन पहले हनुमान जयंती के मेले का समापन हो चुका था, उसकी भीड़ भी अबतक घर जा चुकी थी। दूसरा गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी। यही कारण था कि मुख्य द्वार का शटर खोल दिया गया था जिससे सीधे अंदर जा आराम और शाँति के साथ खुले दर्शन पाने का पांच साल पहले जैसा सौभाग्य प्राप्त हो सका। हालांकि लोग आ-जा रहे थे पर मंदिर के भीतर भी एक बार में    30-35 जनों से ज्यादा दर्शनार्थी नहीं थे। पंडित-पुजारी भी आराम से प्रसाद वगैरह का वितरण कर रहे थे। ना शोर-शराबा ना हीं धक्का-मुक्की। नहीं तो करीब एक-डेढ़ की. मी. का चक्कर zig-zag करते हुए लगाने और भीड़ संभालने में तीन-चार घंटे लगना तो मामूली बात होती है। इस तरह से दर्शन-लाभ मिलने से, तन थकान रहित और मन प्रसन्न व प्रफुल्लित रहता है।

अंजनी माता 
दर्शनोपरांत यहां से तीस-पैंतीस की.मी. दूर डूंगर बालाजी जाना भी सदा कार्यक्रम में शामिल रहता आया है। पर इस बार एक तो गर्मी के कारण निकलना देर से हुआ ऊपर से वहां जा कर पता चला कि दो-तीन महीने पहले हुए एक हादसे के कारण अब गाड़ियों के ऊपर मंदिर तक जाने पर रोक लगा दी गयी है। सात बज रहे थे, अंधेरा घिरना शुरू होने ही वाला था पर आए थे तो बिना दर्शन किए लौटना भी बनता नहीं था। चढ़ाई इतनी सीधी थी कि कहीं-कहीं बिना रेलिंग पकड़े सीधा खड़े होना भी मुश्किल लगता था। करीब साढ़े चार सौ सीढ़ियों के साथ ही कहीं-कहीं समतल कठिन चढ़ाई भी थी। वैसे जब से वाहन मार्ग बंद किया गया है तब से गर्मी से बचाने के लिए इस पूरे मार्ग को ढक दिया गया है, अंधेरे की वजह से फोटो नहीं ली जा सकी। पोस्ट में पुरानी फोटो ही है। जैसे-तैसे साढ़े सात बजे तक दरबार में पहुंचे, प्रभू का आशीर्वाद था, आरती हो रही थी, आना सफल रहा। हालांकि कदम जी नीचे ही रही थीं। सालासर लौटते-लौटते नौ बज गए थे। इस बार खाना वगैरह निपटा सब जने जल्दी से नींद का आह्वान करने चले गए। सुबह फिर प्रभू के दर्शन कर इजाजत ली गयी। माता अंजनी के दर्शन कर दोपहर का भोजन कर वापस दिल्ली घर पहुंचते-पहुंचते रात के दस तो बज ही गए थे। पर  बालाजी की कृपा के कारण इतनी गर्मी (सालासर में पारा 44* छू रहा था) के बावजूद सब जने स्वस्थ व प्रसन्न रहे, यह भी बहुत बड़ी बात थी।

डूंगर बालाजी 
सालासर में वैसे तो साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है, मंगलवार और शनिवार तो मेले का दृश्य उत्पन्न कर देते हैं। हनुमान जयंती और कार्तिक पूर्णिमा के दिन तो पूरे इलाके में पैर रखने की जगह नहीं बचती। लोग-बाग़ खुले में, टिलों पर, सड़क के किनारे, गलियों में जहां जगह मिले ठौर बना लेते हैं। आधा-आधा दिन निकल जाता है दर्शन के लिए लाइन में लगे-लगे। इसलिए यदि किसी ख़ास दिन ही बालाजी के दर्शन की मानता ना मानी हो तो दिवाली के तुरंत बाद या इस समय, अप्रैल में, चाहे गर्मी भले ही हो, हनुमान जयंती के बाद जाना ही श्रेयस्कर है। भीड़-भाड़ कम हो जाने की वजह से प्रभु खुले दिल से निश्चिंतता से दर्शन देते हैं। कोई हड़बड़ी नहीं, कोई मारा-मारी नहीं, रहने को उचित जगह मिल जाती है। खान-पान साफ़-सुथरा। 

मेरा सपरिवार सालासर जाना कई बार हो चुका है। वहां सौ के ऊपर ही आवासीय स्थान होंगे। हर साल, दिन ब दिन, नए-नए सेवासदन-धर्मशालाएं बनती भी जा रही हैं। पर जहां तक मेरा अनुभव है, जिसके चलते अब मैं
डूंगर बालाजी पहुँच मार्ग, अब इसे पूर्णतया ढक दिया गया है 
पहली बार जाने वाले को सलाह दे सकता हूँ कि साफ़-सुथरे, आराम-दायक आवास, सफाई के साथ बनाए और परोसे जाने वाले शुद्ध भोजन, जो मनुहार के साथ खिलाया जाता हो और वह सब भी अत्यंत उचित या कहें सस्ते मूल्य में, पाने के लिए #चमेलीदेवी_अग्रवाल_सेवासदन को जरूर आजमाएं। रहने और खाने का इतना सुंदर इंतजाम शायद ही कहीं हो। पिछले पांच-छह सालों में इतनी प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद इस संस्था ने रहने और ना ही भोजन की कीमतों में, बिना गुणवत्ता से समझौता किए, कोई बढ़ोत्तरी की है। यहां से मंदिर कुछ दूर जरूर है पर इतनी सुविधाओं के बदले उतना आराम से सहा जा सकता है। इसलिए जब भी सालासर धाम जाना हो इस जगह को जरूर आजमाएं।                

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-04-2017) को
"सूरज अनल बरसा रहा" (चर्चा अंक-2622)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हर्ष जी
धन्यवाद

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