सोमवार, 27 जनवरी 2020

शनि शिंगणापुर, भ्रमित करते दूकानदार

एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने अपने  जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, बजरी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली......................! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आप श्रद्धा-भक्ति के साथ धर्मस्थलों की यात्रा करते हैं। मन में विश्वास रहता है कि प्रभु न्यायशील हैं, उनके रहते कम से कम उनके दरबार में तो गलत काम कोई सोच भी नहीं सकता ! पर सच्चाई ठीक इसके विपरीत है, उन पवित्र स्थानों से जुड़े लोग बहेलियों की तरह घात लगाए रहते हैं, आगंतुक को लूटने के लिए ! श्रद्धालु-पर्यटक-यात्री ऐसी जगहों में जा कर अगाध श्रद्धा भाव से अभिभूत हो जाता है ! साथ ही वह अपने संस्कारों, मान्यताओं और धर्मभीरुता के कारण हर क्षण सशंकित रहता है कि कहीं प्रभु के प्रति उससे कोई चूक या भूल ना हो जाए ! इसी भावना का लाभ वहां के दुकानदार, बिचौलिए, तथा धर्मस्थल से किसी ना किसी रूप से जुड़े लोग उठाने से बाज नहीं आते। यह कहानी कमोबेस हर प्रसिद्ध जगह की है। जहां ऐसे गिरोह अपना काम बिना किसी रोक-टोक, डर-भय के अंजाम दे रहे हैं। 
अभी पिछले दिनों शनि शिंगणापुर जाने का अवसर मिला। काफी सुन रखा था इस जगह के बारे में ! शनिदेव के प्रभाव के बारे में, यहां के अपराध विहीन माहौल के बारे में ! सो एक अलग तरह की उत्सुकता दिलो-दिमाग में बनी हुई थी। शिर्डी से तक़रीबन अढ़ाई घंटे के सफर के बाद गाडी के गंतव्य तक पहुंचने के पहले ही गाडी वाहक ने रटे-रटाए तरीके से कुछ चेतावनी रूपी सलाहें थोप दीं। जिनमें जूते गाडी में छोड़ने, बेल्ट निकाल कर जाने, पूजा के बाद पीछे मुड कर ना देखने जैसी दसियों बातें थीं !
गाड़ी को तो अपनी जानी-पहचानी जगह ही ठहरना था सो वह अपने परिचित की दूकान के सामने ही रुकी ! रुकते ही दुकानदारी आरंभ ! फूल, प्रसाद इत्यादि चेपना शुरू और यहीं से मेरे देवता बिगड़ने शुरू हो जाते हैं ! मन में यही विचार आता है कि जब धोखाधड़ी से, भगवान का डर दिखा कर पैसा ऐंठने वाले को ऊपर वाला कुछ नहीं कहता तो फिर............! और ऐसे में ना चाहते हुए भी झड़प हो ही जाती है ! यहां भी ऐसा ही हुआ जब अधिकार की भाषा में यह सुनने को मिला कि जूते यहीं उतार दीजिए, मंदिर में जगह नहीं है ! मंदिर में पानी नहीं है, यही हाथ-मुंह धोना पडेगा ! बेल्ट हमारे पास छोड़ दीजिए ! पर्स ले जा सकते हैं ! प्रसाद ले कर जाइए, खाली हाथ नहीं जाना है इत्यादी, इत्यादी !
गाड़ियां आ रहीं थीं ! लोग उतर रहे थे ! निर्देश माने जा रहे थे ! इधर अपने साथ के लोगों से कहा भी कि जूता मत उतारो, ऐसा कोई मंदिर नहीं होता जहां प्रवेश द्वार के पहले जूते रखने की जगह ना हो ! वहीं जा कर उतारना। पर एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! प्रसाद लिया गया, वह भी देने वाले की मर्जी मुताबिक ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, रेट-मिटटी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली ! मेरे पूछने पर कि जूते यहीं क्यों उतरवाते हो जबकि मंदिर के पास स्टैंड है ? 
बोला, सब उतार कर जाते हैं ! 
मैंने कहा, तुम जोर डालते हो तभी लोग उतारते हैं ! अच्छा यह बताओ बेल्ट क्यों उतरवाते हो ?
चमड़ा है इसलिए, समझाने के अंदाज में बोला !
तो फिर चमड़े का पर्स या बैग क्यों नहीं रखवाते ? क्योंकि वहां चढ़ावा चढ़ाना होता है इसलिए ? फिर उससे पूछा कि जब अंदर पानी की व्यवस्था है तो जबरन यहीं हाथ-मुंह धोने को क्यों कहते हो ? और फिर खाली हाथ जाना है कि नहीं, यह भक्त और भगवान का मामला है तुम बीच में यह बता कर एक तरह से ब्लैकमेल करते हो भक्तों को ! ये बताओ कि जो लोग इधर ना आकर सीधे मंदिर चले जाते हैं वे क्या जूते नहीं उतारते या हाथ-मुंह नहीं धोते ? अब इन सब का उसके पास कोई जवाब नहीं था ! मेरे साथी भी नई जगह में होती बहस को ले कुछ परेशान हो रहे थे, सो........!

तो लब्बोलुआब यही रहा कि यात्रा-सफर इत्यादि में अपना विवेक बनाए रखें। ज्यादा भावनाओं में ना बहें। धार्मिक रहें पर अंधविश्वासी नहीं। आँख-कान खुले रखें। बाकी जो है वो तो हइये है ! 

10 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

दुकाने ही तो बना दिये गये हैं धर्मस्थल। बस भक्तिभाव छोड़ कर सब है।

Sweta sinha ने कहा…

सब हमारी ही गलती है इन्हें सर चढ़ा रखा है तभी ये मनमानी कर पाते हैं। हमारी श्रद्धा में हम जब भी आडंबर का लेप चढ़ायेगे इन लुटेरों के द्वारा छले जायेंगे।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी
खिन्न हो उठता है मन यह सब देख कर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

श्वेता जी, इसी कारण मेरी झडप हो जाती है, न चाहते हुए भी

Kamini Sinha ने कहा…

सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(28-01-2020 ) को " चालीस लाख कदम "(चर्चा अंक - 3594) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
...
कामिनी सिन्हा

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कामिनी जी
सम्मिलित करने के लिए आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार

Onkar ने कहा…

सही कहा आपने

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ओंकार जी
मन उचाट हो जाता है यह सब देख कर

Jyoti Dehliwal ने कहा…

सबको अपना अपना स्वार्थ साधने के लिए अलग अलग पैतरे अपनाते हैं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी,
इनकी हरकतों से भावनाएं तो आहत होती ही हैं

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