बुधवार, 11 सितंबर 2019

लखनऊ का आम्बेडकर मेमोरियल पार्क, एक हाथी पालना ही........यहां तो अनगिनत हैं

भव्यता के बावजूद इस जगह को ''पार्क या उद्यान'' कहना बिलकुल सही नहीं होगा क्योंकि 107 एकड़ के क्षेत्र में फैला यह लता-पादप विहीन एक पथरीला परिसर है, जो पूरी तरह से राजस्थान के लाल बलुआ पत्थरों द्वारा निर्मित है। इस मेमोरियल को वास्तुकला की सुंदरता के लिए नहीं, बल्कि इसकी विशालता को देखने के लिए जाना चाहिए, जिसे सामने पाते ही दर्शक अचंभित नहीं स्तंभित हो रह जाता है ! उसके मन में एक ही बात आती है कि इसे मैं पूरी तरह देख भी पाऊंगा या नहीं ! फिर दिमाग में जमा-घटाव शुरू हो जाता है कि क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए ..........!


#हिन्दी_ब्लागिंग 
लखनऊ के गोमती नगर इलाके में स्थित आम्बेडकर मेमोरियल पार्क, जिसका पहले डॉ. भीमराव आम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल जैसा भारी-भरकम नाम था, को देखने के पश्चात ऐसा अहसास होता है कि यह जगह डॉ. आम्बेडकर को समर्पित होने और ज्योतिराव फूले, नारायण गुरु, बिरसा मुंडा, शाहू जी महाराज, कांशी राम जैसी हस्तियों के कार्यों से जन-जन को परिचित करवाने और उनकी यादों को सहेजने के बावजूद  पूरी तरह से सु.श्री. मायावती जी पर ही केंद्रित है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में इसका निर्माण करवाया था। 







सबसे पहली बात तो यह कि इस जगह को ''पार्क या उद्यान'' कहना बिलकुल सही नहीं होगा क्योंकि 107 एकड़ के क्षेत्र में फैला यह लता-पादप विहीन एक पथरीला परिसर है, जो पूरी तरह से राजस्थान के लाल बलुआ पत्थरों द्वारा निर्मित है। इस पर तक़रीबन 700 करोड़ रुपयों का भारी-भरकम खर्च किया गया है। जिसमें साठ वृहदाकार और अनगिनत छोटे-बड़े आकार के हर जगह छाई हाथियों की संरचनाओं, बेशुमार स्तंभों, संग्रहालय, आम्बेडकर स्तूप, सामाजिक परिवर्तन गैलरी तथा कुछ अन्य संरचनाओं जैसे प्रतिबिम्ब व दृश्य स्थल के साथ-साथ कई विभूतियों की आदम कद मूर्तियां भी स्थापित हैं। पर सबसे बड़े आकर्षण के रूप में जिसको पेश किया या करवाया गया है वे हैं विशाल, हाथ में पर्स थामे मायावती की प्रतिमाएं।








यह बात सही है कि सारा परिसर बहुत ही भव्य है ! पर इस मेमोरियल को वास्तुकला की सुंदरता के लिए नहीं, बल्कि इसकी विशालता को देखने के लिए जाना चाहिए, जहां हजारों श्रमिकों, कलाकारों, इंजीनियरों की दिन-रात की मेहनत का परिणाम साफ़ नज़र आता है। अंदर जाते ही दर्शक एक अलग तरह की ही दुनिया में खो जाता है ! वह अचंभित नहीं स्तंभित हो रह जाता है ! उसके मन में एक ही बात आती है कि इतना विशाल ! मैं पूरी तरह देख भी पाऊंगा या नहीं ! फिर दिमाग में जमा-घटाव शुरू हो जाता है कि क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए ! 










उसके साथ ही जो एक और चीज उसे सबसे ज्यादा खटकती है, वह है हरियाली की अत्यधिक कमी ! दूर-दूर तक किसी वृक्ष का नामोनिशान तक नहीं ! जो थोड़ा-बहुत हरापन कुछ क्यारियों में है, वह भी नहीं के बराबर ! अवलोकन के दौरान यदि जरा सी भी गर्मी बढ़ जाए तो यहां आने वालों बुरा हाल हो जाता है। फिर इतने लम्बे-चौड़े परिसर को अच्छी तरह देखने-जानने के लिए काफी समय और श्रम की जरुरत है ! आधी जगहों को देखने-घूमने के बाद ही शरीर जवाब देने लगता है। यह अलग बात है कि परिसर का वातावरण बहुत शांत है  




इसकी सुंदरता-भव्यता-विशालता सब अपनी जगह ठीक हैं पर इसे ले कर ज्यादातर लोगों की राय अब भी यही है कि पूर्वाग्रहों, कुंठा और सत्ता के मद में चूर, पागलपन की हद पार कर अपने विरोधियों को सिर्फ अपनी हैसियत दिखाने के लिए स्वतंत्र भारत में अब तक का किसी भी राज्य में राज्य-प्रमुख द्वारा बहाया गया अपनी प्रकार का यह अकूत धन था ! इसके अलावा इसके निर्माण में हजारों-हजार पेड़ कटे, पर्यावरण को क्षति पहुंची, हरियाली का कोई ध्यान नहीं रखा गया। सिर्फ पत्थरों से ही परिसर को विकसित किए जाने से तापमान में जो बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी उसके हिसाब-किताब का तो एक अलग ही खाता है ! इन सब के इतर जो एक और ख़तरनाक, अनदेखी, भयोत्पादक आशंका उभरती है, वह है जाति-भेद का और गहराना !










इतने विशाल और विस्तृत परिसर के रख-रखाव, देख-रेख को संभालना भी अपने-आप में एक बेहद खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य है। इसकी यथास्थिति को बनाए रखना हाथी पालने जैसा हो गया है ! कहां तो एक ही हाथी सारे जमा-खर्च बिगाड़ देता है यहां तो अनगिनत हैं ! धीरे-धीरे इसके रख-रखाव की कमी भी साफ़ झलकती सामने आने लगी है ! जगह-जगह टूट-फूट तो है ही शौचालय की ओर गंदगी भी पसरने लगी है ! अब इसे चाहे किसी ने, कैसे भी, किसीलिए भी बनाया हो, पैसा तो अवाम का ही लगा है ! निरपेक्ष रह कर देखें तो इससे तो इंकार नहीं किया जा सकता कि परिसर अपने आप में खूबसूरत और दर्शनीय तो है ही, जिसे देखने लोग आते भी हैं। वैसे भी वक्त, अरबों रुपये, इंसान की मेहनत को अब यूं ही जाया तो नहीं किया जा सकता। तो सार-संभार में चौकसी तो बरतनी ही जानी चाहिए। जिससे देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों पर विपरीत प्रभाव ना पड़े। 

कोई टिप्पणी नहीं:

विशिष्ट पोस्ट

विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक कलाएं, बीन वादन

आए दिन कोई ना कोई कलाकार, स्टैंडिंग कॉमेडियन या कोई संस्था अपने साथ कुछ लोगों को साथ ले विदेश में कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं, ऐसे लो...