मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

आत्महत्या का कारण बनी एक फोटो

एक दिन एक फोन इंटरव्यू पर जब कार्टर से किसी ने उस बच्ची के बारे में पूछा, तो केविन ने कहा कि मुझे नहीं मालुम, मैं रुका नहीं था, क्योंकि मुझे अपनी फ्लाइट पकड़नी थी ! इस पर इंटरव्यू लेने वाले व्यक्ति ने कहा कि मिस्टर कार्टर उस दिन वहां एक नहीं दो गिद्ध मौजूद थे, जिसमें एक के हाथ में कैमरा था ! इस कथन से कार्टर को अपनी भयंकर भूल का एहसास हुआ, वह इतना विचलित हो गया कि गहरे अवसाद में चला गया और कुछ दिनों बाद उसने आत्महत्या कर ली। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उसकी अंतरात्मा अभी जीवित थी। शायद वह भी आज जीवित होता यदि उसने उस बच्ची को उठा कर किसी फीडिंग सेंटर तक पहुंचा दिया होता.........!

#हिन्दी_ब्लागिंग
आज फिर अखबार में एक खबर थी कि एक सड़क दुर्घटना में घायल हुए युवक की सहायता करने की बजाए लोग उसकी तस्वीरें लेते रहे ! आए दिन ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं ! हम ऐसे संवेदनहीन कैसे हो गए हैं ? एक आदमी मौत से जूझ रहा होता है और हम उस पल को अपने कैमरे में कैद कर रहे होते हैं ! क्यों ? सिर्फ सनसनी फैलाने के लिए ? सरकार को गलियाने के लिए ? पुलिस की लेट-लतीफी दर्शाने के लिए ? या फिर इसलिए कि अपने दोस्त-मित्रों को वे फोटो भेज कर बतला सकें कि मेरे सामने ऐसा हुआ और इस तरह अपने को ख़ास होने का अनुभव करवाने के लिए ? और यह सब एक इंसान की जान की एवज में ? फिर विडंबना यह कि कुछ ही देर बाद वही फोटो किसी बेकार-बेकाम चीज की तरह ''कूड़ेदान'' के हवाले कर दी जाती है और उसी के साथ सब कुछ भूला दिया जाता है ! लगता है जैसे होड़ सी मची हुई है ! कुछ ऐसा दिखाने को बेताब जिसे किसी ने मुझसे पहले ना देखा हो ! दूसरों से आगे होने-रहने की इसी बेताबी के चलते रोज किसी ना किसी के हताहत या दिवंगत होने की ख़बरें भी आने लगीं हैं।  
हमारी अंतरात्मा भी क्या हमें कोसने-समझाने के बदले अपनी ''सेल्फी'' लेने लग गयी है ? आज फिर बड़ी बुरी तरह याद आ रही है ''केविन कार्टर'' की ! 1990 की बात है सूडान बुरी तरह अकाल की गिरफ्त में था। 1993 की शुरुआत होते-होते उसके दक्षिणी इलाके की तक़रीबन आधी आबादी मौत के जबड़े में जकड़ी जा चुकी थी। रोज 10-15 लोगों के भूख से मरने की ख़बरें आ रहीं थीं। इससे परेशान हो, लोगों में जागरूकता बढ़ाने, अपनी गंभीर स्थिति को संसार के सामने लाने तथा अधिक से अधिक सहायता पाने की अपेक्षा से वहां की सरकार ने दुनियाभर के फोटो-पत्रकारों को अपने यहां आमंत्रित किया। जिससे वे वहां के हालात को संसार के सामने प्रमाणिक तौर पर रख सकें। इनमें साऊथ अफ्रिका का पत्रकार केविन कार्टर भी शामिल था। उसने वहां की यात्रा के दौरान भूख से पीड़ित एक नन्हीं बच्ची की तस्वीर खींची, जो बेहोशी के आलम में लगभग मृतप्राय थी ! उसी के ठीक पीछे एक गिद्ध बैठा हुआ था जो उसके मरने की बाट जोह रहा था। यह फोटो सबसे पहले The New York Times में 26 मार्च 1993 को छपी थी। इसे नाम दिया गया था, ''The vulture and the little girl''। छपते ही यह फोटो दुनिया भर में केविन को भी अपने साथ मशहूर करवा गयी थी। उसे पुलित्जर सम्मान से भी नवाजा गया था। पर कुछ महीनों बाद ही केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली थी ! 
केविन कार्टर 
ऐसा क्या हुआ था ? जब वह अपनी उपलब्धि पर जश्न मना रहा था तब दुनिया भर के चैनलों और नेट पर उसकी चर्चा भी हो रही थी। ऐसे ही एक दिन एक फोन इंटरव्यू पर जब उससे किसी ने उस बच्ची के बारे में पूछा कि ''फिर उस बच्चे का क्या हुआ ?'' तो केविन ने कहा कि ''मुझे नहीं मालुम, मैं रुका नहीं, क्योंकि मुझे अपनी फ्लाइट पकड़नी थी !'' इस पर इंटरव्यू लेने वाले व्यक्ति ने कहा कि ''मिस्टर कार्टर उस दिन वहां एक नहीं दो गिद्ध मौजूद थे, जिसमें एक के हाथ में कैमरा था !'' इस कथन से कार्टर को अपनी भयंकर भूल का एहसास हुआ, वह इतना विचलित हो गया कि गहरे अवसाद में चला गया और कुछ दिनों बाद उसने आत्महत्या कर ली। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उसकी अंतरात्मा अभी जीवित थी। शायद वह भी आज जीवित होता यदि उसने उस बच्ची को उठा कर किसी फीडिंग सेंटर तक पहुंचा दिया होता ! 

पर हम अपने आप को क्या कहें ? क्या यह जरुरी नहीं कि कुछ हासिल करने के पहले हमारी इंसानियत, हमारी मानवता, हमारी संवेदनाएं सामने आएं जो सिद्ध करें कि हम अच्छे फोटोग्राफर हों ना हों पर एक बेहतर इंसान अवश्य हैं ! 

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

अभयारण्य की देख भाल करने के लिए जरुरी है, जीवट, धैर्य व साहस

सफारी के दौरान शुरू से ही सबके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ टाइगर ही छाया हुआ था ! नहीं तो जंगल के परिवेश के एक-एक मीटर का फासला अपने आप में अजूबा समेटे रहता है। अजूबे तो मुझे वे तीन सरकारी कर्मचारी भी लगे, जो अभ्यारण्य के उस हिस्से की सुरक्षा के लिए घोर जंगल में दिन-रात रहते हुए अपना कर्तव्य निभाते हैं !उन्हीं में से सैनी जी ने बताया कि ''जानवर शांति प्रिय ही होते हैं। बेवजह कभी भी आक्रमण नहीं करते, तभी तो आपलोग खुले वाहनों में घूमते हैं, और आपको तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया है, जब वह चिड़िया निडर हो आपके हाथ पर चुग्गा चुगने आ बैठी '' 

#हिन्दी_ब्लागिंग    
कल यहीं बात की थी, अपनी जंगल सफारी की, जब यात्रा के अंत में जा कर अद्भुत रूप से वनराज के दर्शन हुए थे। सफारी में सैंकड़ों लोगों का रोज आना-जाना लगा रहता है। उन सब का मुख्य ध्येय एक ही  रहता है, जंगल के राजा के दर्शन का ! जिन्हें भाग्यवश वनराज दिख जाता है, वे इसे एक बड़ी उपलब्धि मान खुश हो जाते हैं, जिन्हें नहीं दिखता वे कुछ मायूस हो वापस चले जाते हैं। हालांकि अभ्यारण्यों में और भी दसियों तरह के जीव होते हैं, वे भी अपने आप में नायाब होते हैं, उनमें लोगों की दिलचस्पी भी होती है, पर संतुष्टि वनराज को देखने से ही मिलती है। अब; वो तो राजा है ! कब-कहां-कैसे दिखना है यह सब उसकी मर्जी के ऊपर निर्भर करता है। उसकी दुर्लभ पर गरिमामयी उपस्थिति वातावरण को बदल कर रख देती है। कुछ लोग तो हफ़्तों उसके नजर आने का इंतजार करते हैं और दिख जाने पर मंत्रमुग्ध हो, जड़ बने उसे निहारते रहते हैं। 

मार्ग में 

निडर पक्षी 

पर मान लीजिए शेर या बाघ आम जानवरों की तरह जंगल में कहीं भी, कभी भी नजर आने लग जाएं तो भी क्या लोगों में इतनी ही उत्सुकता रहेगी उनको देखने की ? मुझे नहीं लगता ! क्योंकि जो सुगम हो, सर्वत्र उपलब्ध हो उसके लिए उतनी रुचि नहीं रह जाती लोगों में ! देखा गया है कि जंगली सूअर, भैंसे, भालू जैसे खतरनाक जीवों को भी लोग एक नजर देख आगे बढ़ जाते हैं, क्योंकि उनका दिखना आम होता है। अब जैसे जंगल के कर्मचारियों, वहां जाने वाले वाहन चालकों, गाइडों या अन्य स्टाफ के लिए वनराज कोई उत्सुकता का विषय नहीं रह जाता है क्योंकी वे उसे तक़रीबन रोज ही देख लेते हैं। 


शावक 
अपनी इस यात्रा के दौरान और एक बात नोट कि तफरीह के दौरान हम मुख्य उद्देश्य को छोड़ और किसी ओर ध्यान ही नहीं देते, जैसे शुरू से ही सबके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ टाइगर ही छाया हुआ था ! नहीं तो जंगल के परिवेश के एक-एक मीटर का फासला अपने आप में अजूबा समेटे रहता है। अजूबे तो मुझे वे तीन सरकारी कर्मचारी भी लगे, जो अभ्यारण्य के उस हिस्से की सुरक्षा के लिए घोर जंगल में रहते हुए अपना कर्तव्य निभाते हैं। सफारी के तय मार्ग के अनुसार कारवां को करीब 15-16 की.मी जंगल के अंदर उस हिस्से के जंगलात के दफ्तर तक जा वहां से वापस होना होता है। वॉश-रूम की सुविधा उपलब्ध होने के कारण भी सारे कैंटर और जीपें वहां कुछ देर रुकते हैं जिससे सैलानी कुछ तरो-ताजा हो सकें। 
जंगलात विभाग का ऑफिस 
प्राकृतिक बावड़ी 
बुद्धि राम व रामअवतार 
वाहनों के ठहरने के स्थान से दफ्तर कुछ ऊंचाई पर बना हुआ है जो शायद सुरक्षा की दृष्टि से किया गया होगा। जब तक लोग इधर-उधर टहल कर पीठ सीधी कर रहे थे उसी समय मेरा ध्यान वहां के तीन के कर्मचारियों की तरफ गया, जो निरपेक्ष भाव से हम सब को देख रहे थे। मैं उनके पास गया। परिचय का लेन-देन हुआ। समय कम था, सो किशोर सैनी और उनके दो सहायक बुद्धि राम तथा राम अवतार से उतने में जो बात हुई, उसका सार यही था कि अपनी ड्यूटी की अवधि के दौरान उन्हें उस घोर जंगल में, अपने परिवार तक से दूर रहना पड़ता है। वहां जानवरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बिजली तो बिजली टार्च तक रखने की मनाही है। रात होने के पहले उन्हें अपना भोजन पका लेना पड़ता है क्योंकि रात में वहां किसी भी प्रकार की रौशनी निषेध है। उनकी अपनी सुरक्षा के लिए उनके पास सिर्फ एक पांच फुट का डंडा ही होता है। सांय-सांय करता बियावान जंगल, घुप अंधकार, जहां हाथ को हाथ न सुझाई दे, चारों ओर दुर्दांत जंगली जीव, दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं, कैसे कटती होगी इन तीनों की रातें ? कुछ अनहोनी हो जाए तो घंटों लगें सहायता आने में ! सलाम है इनके जीवट को !
घिरती शाम 
इनका कहना है कि अब इस सबकी आदत पड़ चुकी है। जंगली जानवर भी अपने लगते हैं। वैसे भी  जानवर शांति प्रिय ही होते हैं। बेवजह कभी भी आक्रमण नहीं करते। यदि कभी कोई जीव रुष्ट भी हो जाता है तो हम धैर्य से ही काम लेते हैं, इससे अब वे हमसे खतरा महसूस नहीं करते। सैनी जी ने हंसते हुए कहा, ''तभी तो आप लोग खुले वाहनों में घूमते हैं, और आपको तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया है, जब वह चिड़िया निडर हो आपके हाथ पर चुग्गा चुगने आ बैठी '' ! दफ्तर के पास ही एक प्राकृतिक बावड़ी है जिसमें बारहों महीने स्वच्छ-निर्मल पानी उपलब्ध रहता है, उसी से सबका काम चलता है। दिनके उजाले में या सफारी के वाहनों की आवाजाही से जो वन्य-जीव जंगल के गर्भ में चले जाते हैं वे भी दिन ढलने के बाद स्वछंद हो इधर आ कर अपनी प्यास बुझाते हैं। आजकल एक व्याघ्र परिवार इधर अक्सर आता है, जिसमें नर, मादा तथा दो बच्चे हैं। 
वनराज आराम के मूड में 
तभी कारवां के ''मूवने'' का समय हो गया। किसी बार्डर पर बैठे सैनिकों के समान उन तीनों से मैंने विदा ली। सारे सैलानी अपने-अपने वाहनों में जा कर फिट हो गए। आगे क्या होने वाला है ! प्रकृति क्या रंग दिखाने वाली है ! इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी ! किसी को सपने में भी ख्याल नहीं आया होगा कि हमें विदाई देने के लिए खुद वनराज द्वार पर मौजूद रहेंगे !!! 

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

वनराज के राज में...

जैसे ही कैंटर का आधा हिस्सा बाहर निकला, अपने आराम में खलल पड़ता देख, वनराज ने खड़े हो कर एक नजर हम पर डाली और फिर करीब ढाई सौ किलो वजनी उस अद्भुत जीव ने पलक झपकने के पहले ही छलांग लगाई और ऊंची झाड़ियों में विलीन हो गया ! पहली बार fraction of a second क्या होता है उसका आभास हुआ ! हालांकि गाडी के चलते ही विडिओ की तैयारी कर ली थी पर जब उसे एकदम सामने पाया तो कहां का कैमरा कहां का विडिओ ! मंत्रमुग्ध सा हो, उस अद्भुत जीव के सम्मोहन में बंध उसको देखने के सिवा और किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहा ! जेहन के अलावा कहीं भी कुछ भी रेकॉर्ड नहीं हो पाया...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग
कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित सा ऐसा घट जाता है कि समय बीतने पर विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा भी कुछ हुआ था ! अभी दो-तीन दिन पहले रणथम्भौर की जंगल सफारी पर जाने का अवसर खोज निकाला गया ! सवाई माधोपुर से कैंटर की बुकिंग मिली थी, वह भी दोपहर बाद की। इन दिनों अक्टूबर के ढलान पर होने के बावजूद वहाँ की दोपहर अच्छी-खासी गर्म थी। इसी कारण ख्याल था कि सुबह के फेरे में वनराज के दर्शन होने की शायद ज्यादा संभावना होती होगी ! दोपहर की गर्मी में तो वो कहीं विश्राम करता होगा ! पर अब जो था वही था ! उधर जब सुबह का चक्कर लगा कर लौटने वालों से पूछा तो वे भी निराश थे टाइगर के अलावा अन्य प्राणी ही दिख पड़े थे उन सबको।




अरावली और विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं में पूरे 392 वर्ग की.मी. के क्षेत्र में फैला यह टाइगर-प्रोजेक्ट के अंतर्गत आने वाला देश का सुंदर, व्यवस्थित अभ्यारण्य है। जहां प्रकृति की अद्भुत कृति बाघ, बिना किसी भय के विचरण करता है। इसीलिए यहां संतोषजनक रूप से उनकी वंश वृद्धि होती पाई गयी है। बाघ के अलावा यहां सांभर, चीतल, चिंकारा, नीलगाय, भालू, लंगूर, जंगली सूअर, मोर तीतर भी बहुतायाद से पाए जाते हैं। पूरे अभ्यारण्य को दस जोन में बांटा गया है। एक जोन में एक बार में सिर्फ चार कैंटर और चार जीप ही ले जाने की इजाजत है। यात्रा के दौरान वाहन से नीचे उतरना, शोर मचाना और एक कागज का टुकड़ा तक जंगल में फेंकना सख्त मना है। हमें जोन 6 में जाना था, क्योंकि उस ओर ही बाघ के दिखने की खबर थी।

हमारा सफर साढ़े तीन बजे शुरू हुआ, जैसी आशंका थी वैसा ना हो कर मौसम खुशगवार था। हवा में भी कुछ ठंडक थी। पर इस तरफ किसी का ध्यान ना हो कर, सब में एक ही उत्सुकता थी, टाइगर दिखता है कि नहीं ! पर उसके पद चिन्ह, सैंकड़ों हिरन प्रजाति के जीवों, भालू, बंदर, मोर, तीतर इत्यादि तो सब दिखे पर जिसकी तलाश थी उस नायक का कोई अता-पता नहीं था ! अपने इलाके का पूरा चक्कर लगाने के बाद लौटते समय कुछ निराश से दल में कुछ खलबली मची, कारण था रास्ते से हट कर, करीब एक की.मी. की दूरी पर, एक ''भाई साहब'' का आराम फरमाते नजर आना ! पर वे इतनी दूर थे कि सिर्फ अपने होने का आभास ही दे रहे थे। वो दिखना नहीं दिखने के बराबर ही था ! पर था तो बाघ ही ना ! सो उसी तरफ लोग घूरे जा रहे थे और संतोष मना रहे थे कि कुछ नहीं से कुछ तो दिखा। पर आगे जो होने वाला था उसकी ना हीं किसी को कल्पना थी और ना हीं आशा !

बाँध की दिवार पर 


यात्रा का अंतिम चरण आ पहुंचा था, जो दिख गया था उसी को उपलब्धि मानते हुए हम सब जैसे हीअंतिम द्वार पर पहुंचे तब जो हुआ उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी !! अचानकआगे की जीप ठिठक कर खड़ी हो गयी। सबको लगा कि गाडी खराब हो गयी है। दिन ढल रहा था, अब सभी यहां से निकलने को बेचैन थे ! सो सभी उसे जल्दी करने को कहने लगे। पर तभी बताया गया कि आगे टाइगर बैठा हुआ है और वह कुछ उत्तेजित व आक्रोशित भी है।
पहली झलक 
आक्रोश 



यह अंदर जाते समय की फोटो है, द्वार के साथ लगा चबूतरा दिख रहा है, जिस पर वनराज विश्रामित थे  
शांति 
अभ्यारण्य के इस द्वार की बाहरी तरफ उसके साथ ही लगा हुआ एक चबूतरा सा बना हुआ है, जिसके पास से निकलते वक्त गाड़ियों की दूरी महज दो फिट रह जाती होगी, उसी पर एक भारी-भरकम, कद्दावर, पूर्ण विकसित, वयस्क वनराज विराजमान था ! वह तो जब पहली जीप निकलने लगी तो गुर्रा कर खड़े होने पर उसके इतने नजदीक होने का पता चला ! झट से जीप पीछे की गयी और बाकी गाड़ियों में बैठे लोगों को भी बाएं से हट कर दाहिने किनारे आ जाने को कहा गया ! करीब बीस मिनट तक सब वहीं निशब्द खड़े रहे ! शाम भी घिरने लगी थी। कुछ देर बाद वनराज के हाव-भाव और गतिविधियों से वाहनों के अनुभवी चालक और स्टाफ को जब कुछ ख़तरा कम लगा तो उन्होंने पहली जीप धीरे से निकाल ली। उसी के पीछे हमारा कैंटर था, जैसे ही उसका आधा हिस्सा बाहर निकला, अपने आराम में खलल पड़ता देख, महाराज ने खड़े हो कर एक नजर हम पर डाली और फिर करीब ढाई सौ किलो वजनी बाघ ने पलक झपकने के पहले ही छलांग लगाई और ऊंची झाड़ियों में विलीन हो गया ! पहली बार fraction of a second क्या होता है उसका आभास हुआ !

हालांकि गाडी के चलते ही विडिओ की तैयारी कर ली थी पर जब उसे एकदम सामने पाया तो कहां का कैमरा कहां का विडिओ ! मंत्रमुग्ध सा हो, उस अद्भुत जीव के सम्मोहन में बंध उसको देखने के सिवा और किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहा ! जेहन के अलावा कहीं भी कुछ भी रेकॉर्ड नहीं हो पाया ! पर यह जीवन का अभूतपूर्व, अविस्मरणीय, यादगार पल था, जिसको शायद ही कभी भुलाया जा सकना संभव हो ! 

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

नवरात्रों में कन्या भोज

कन्या भोज के दिन फिर आ गए हैं पर कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, कन्या भोज के दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस-पडोस की अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध नहीं छिड़ता ! नहीं तो पहले सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती थी । फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी तक आई क्यूं नहीं ? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! एक पुरानी रचना जो आज भी सामयिक और प्रासंगिक है.................


#हिन्दी_ब्लागिंग 
सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बजी।  द्वार खोल कर देखा तो पांच से दस  साल की चार - पांच  बच्चियां  लाल रंग के 
कपड़े  पहने  खड़ी थीं।   छूटते ही  उनमें सबसे  बड़ी  लड़की ने  सपाट आवाज  में सवाल  दागा,   ''अंकल, कन्या
खिलाओगे'' ?   
मुझे  कुछ सूझा नहीं,  अप्रत्याशित   सा था यह सब। अष्टमी के दिन कन्या पूजन होता है। पर वह सब परिचित चेहरे होते हैं, और आज वैसे भी षष्ठी है। फिर सोचा शायद गृह मंत्रालय  ने कोई अपना विधेयक पास कर दिया हो इसलिये इन्हें बुलाया हो। अंदर पूछा,   तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं है !  मैं फिर  कन्याओं  की ओर  मुखातिब   हुआ और बोला,  ''बेटाआज नहीं,  हमारे  यहां अष्टमी  को पूजा  की जाती है''। "अच्छा कितने बजे" ? फिर सवाल उछला, जो  सुनिश्चित  कर  लेना  चाहता था,  उस दिन के निमंत्रण को।  मुझसे कुछ कहते नहीं बना, कह दिया,  ''बाद में बताऐंगे''।  तब   तक बगल वाले घर की घंटी बज चुकी थी।

मैं सोच रहा था कि बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने या नेता आदि ही नहीं आम जनता भी चतुर होने लग गयी है। सिर्फ दिमाग होना चाहिये। दुह लो, मौका देखते ही, जहां भी जरा सी गुंजाईश हो। बच ना पाए कोई। जाहिर है कि ये छोटी-छोटी बच्चियां इतनी चतुर सुजान नहीं हो सकतीं। यह सारा खेल इनके माँ, बाप, परिजनों द्वारा रचा गया है।
जोकि दिन भर टी.वी. पर जमाने भर के बच्चों को उल्टी-सीधी हरकतें करते और पैसा कमाते देख, हीन भावना से ग्रसित होते रहते हैं। अपने नौनिहालों को देख कुढते रहते हैं कि लोगों के कुत्ते-बिल्लियाँ भी छोटे पर्दे पर पहुँच कमाई करने लग गए हैं, दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हमारे बच्चे घर बैठे सिर्फ रोटियां तोड़े जा रहे हैं। फिर ऐसे ही किसी कुटिल दिमाग में इन दिनों  बच्चों को घर-घर जीमते देख यह योजना आयी होगी और उसने इसका कापी-राइट कोई और करवाए, इसके पहले ही, दिन देखा ना कुछ और बच्चियों को नहलाया, धुलाया, साफ सुथरे कपड़े पहनवाए, एक वाक्य रटवाया, "अंकल/आंटी, कन्या खिलवाओगे ? और इसे अमल में ला दिया।

ऐसे लोगों को पता है कि इन दिनों लोगों की धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। फिर  बच्ची स्वरुपा देवी को

अपने दरवाजे पर देख भला  कौन मना करेगा।    सब  ठीक   रहा तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं इन तीन दिनों तक बच्चों और हो सकता है कि पूरे घर के खाने का इंतजाम हो जाए। ऊपर से बर्तन, कपड़ा और नगदी अलग से। इसमें कोई  दिक्कत   भी नहीं आती,  क्योंकि इधर वैसे ही आस्तिक गृहणियां चिंतित रहती हैं, कन्याओं की आपूर्ती को लेकर।   जरा सी देर हुई या  अघाई कन्या ने खाने से इंकार किया और हो गया अपशकुन ! इसलिए होड़ लग जाती है पहले अपने घर कन्या बुलाने की !



अब फिर कन्या भोज के दिन आ गए हैं पर पिछले कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, अब इन दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस - पडोस की  अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध
नहीं छिड़ता ! नहीं तो  सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती है। फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे
दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी  तक आई क्यूं नहीं? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है।इधर काम पर जाने वाले हाथ में लोटा, जग लिए खड़े हैं कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार कर काम पर जाएं। देर हो रही है, पर आफिस के बॉस से तो निपटा जा सकता है, वैसे आज के दिन तो वह भी लोटा लिए खड़ा होगा कन्याओं के इन्जार में,  घर के इस बॉस से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो।                                                                                 
आज इन "चतुर-सुजान" लोगों ने कितना आसान कर दिया है  सब कुछ।  पूरे देश को राह दिखाई है, घर पहुंच सेवा प्रदान कर।

"जय माता दी"

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

सबरीमाला अय्यपा मंदिर, कुछ जाने-अनजाने तथ्य

महिषासुर की बहन महिषी ने अपने भाई के वध का देवताओं से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर वर प्राप्ति हेतु ब्रह्मा जी की तपस्या करनी शुरू कर दी। उसकी घोर तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा ने उसे अभेद्य होने और उसकी मृत्यु  शिव और विष्णु की संतान से होने का अजीब और असंभव सा वरदान दे दिया। इस वरदान के मिलते ही महिषि ने पूरे संसार में तबाही मचानी शुरू कर दी थी। क्योंकि वह अपने-आप को अजेय और अमर समझ बैठी थी। परंतु समय की चाल कौन समझ पाया है और यह अटल सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित होती है ...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग    
केरल राज्य में स्थित विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला अय्यपा मंदिर आजकल कुछ अलग कारणों से सुर्ख़ियों में है। इस मंदिर के 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश निषेद्ध के नियम को अदालत द्वारा निरस्त कर दिए जाने पर भगवान अय्यपा के भग्तों में गहरा अंसतोष फ़ैल गया है। सबरीमाला का मंदिर अन्य मंदिरों की तरह साल भर नहीं खुला रहता तथा इस मंदिर के अपने कुछ ख़ास तरह के नियमों का पालन सख्ती से किया जाता है। जिनमें इसकी साफ-सफाई पर खास ध्यान दिया जाता है। केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से करीब 175 कीमी दूर पंपा नदी है और वहाँ से चार-पांच किमी की दूरी पर पहाड़ियों और पेरियार टाइगर रिजर्व के घने जंगलों के बीच समुद्रतल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर सबरीमाला  मंदिर स्थित है। जहां भगवान् अय्यपा विराजमान हैं, जिन्हें धर्म सृष्टा और वैष्ण्वों और शैवों के बीच एकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है ! 






धार्मिक आस्था का प्रतीक सबरीमाला मंदिर के पीछे कई पौराणिक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं प्रचलित हैं। अलग-अलग इतिहास कारों के इस मंदिर को लेकर अलग-अलग मत हैं। इतिहासकारों के अनुसार पंडालम के राजा राजशेखर ने अय्यप्पा को पुत्र के रूप में गोद लिया। लेकिन भगवान अय्यप्पा को राजसी माहौल और परिवेश कभी भी पसंद नहीं था ! इसीलिए वे महल छोड़कर केरल की एक पहाड़ी सबरीमाला में जा कर ब्रह्मचारी के रूप में  रहने लगे। क्योंकी वे जंगल के एकांत में ध्यान धारण करना चाहते थे। कालांतर में वही स्थान सबरीमाला मंदिर कहलाने लगा। कुछ लोगों का मत है कि करीब 700-800 साल पहले दक्षिण में शैव और वैष्णवों के बीच वैमनस्य काफी बढ़ गया था। तब उन मतभेदों को दूर करने के लिए श्री अयप्पन की परिकल्पना की गई। दोनों के समन्वय के लिए इस धर्म-तीर्थ को विकसित किया गया। आज भी यह मंदिर समन्वय और सद्भाव का प्रतीक माना जाता है। यहां किसी भी जाति-बिरादरी का और किसी भी धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आ सकता है।


पंपा नदी 
परन्तु सबसे प्रचलित कथा हजारों-हजार साल पहले घटी घटनाओं से संबंध रखती है। जब महिषासुर का देवी दुर्गा द्वारा वध कर दिया गया था। हालांकि माँ दुर्गा ने महिष को अपने साथ ही पूजित होने का वरदान भी दिया था फिर भी उसके परिवार में गहरा दुःख, असंतोष व विरोध घर कर गया था। जिसके फलस्वरूप महिष की बहन महिषी ने अपने भाई के वध का देवताओं से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर वर प्राप्ति हेतु ब्रह्मा जी की तपस्या करनी शुरू कर दी। उसकी घोर तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा ने उसे अभेद्य होने और उसकी मृत्यु  शिव और विष्णु की संतान से होने का अजीब और असंभव सा वरदान दे दिया। इस वरदान के मिलते ही महिषि ने पूरे संसार में तबाही मचानी शुरू कर दी थी। क्योंकि वह अपने-आप को अजेय और अमर समझ बैठी थी। परंतु समय की चाल कौन समझ पाया है और यह अटल सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित होती है ! अब वरदान के बावजूद महिषी को मरना तो था ही, सो घटना चक्र कुछ ऐसा चला कि उसी समय सुर-असुरों के प्रयास से समुद्र मंथन हुआ। उसमें निकले अमृत को बांटने के लिए विष्णु जी ने मोहिनी का रूप धारण कर लिया। इसी मोहिनी और भगवान शिव की संतान के रूप में प्रभू अयप्पन का जन्म हुआ।  भगवान शिव और विष्णु अवतार मोहिनी के पुत्र होने के कारण इन्हें “हरिहर” के नाम से भी जाना जाता हैं। कालचक्र के तहत अयप्पन को राजा पंडलम ने गोद लिया था। पर जब राज्याभिषेक की बारी आई तो रानी ने, जो इनको राजा बनता नहीं देखना चाहती थी, अपने झूठे इलाज के लिए अय्यप्पा को शेरनी का दूध लाने जंगल में भेज दिया जहां उनका सामना राक्षसी महिषी से हुआ जिसका उन्होंने वध कर दिया। 



इस पहाड़ी का नाम रामायण काल की शबरी से भी जोड़ कर देखा जाता है जिसने प्रभू राम को बेर खिलाए थे। ऐसी भी मान्यता है कि परशुराम जी ने अयप्पन पूजा के लिए सबरीमाला में मूर्ति स्थापित की थी। आज सबरीमाला मंदिर से कई करोड़ भक्तों की आस्था जुड़ी है। इस मंदिर में पूजा करने के लिए श्रद्धालुओं को हर साल मंदिर के पट खुलने का भी इंतजार रहता है। मंदिर को सुचारू रूप से चलाने का काम त्रावनकोर देवसोम बोर्ड करता है। मंदिर के बाजु में एक सूफी संत वावर की समाधी भी है जिसे आज वावारुनाडा के नाम से याद किया जाता है। इतना प्राचीन होने के बावजूद आज भी यह मंदिर बहुत आकर्षक है और नवनिर्मित जैसा ही दिखता है। करोड़ों श्रद्धालुओं की धार्मिक आस्था से जुड़ा ये मंदिर 18 पहाड़ियाों के बीच बना हुआ है। इस मंदिर में भगवान अयप्पा की पूजा करने  दूर-दूर से सभी जाति और वर्ग के लोग आते हैं। इसके द्वार साल में दो बार 15 नवंबर और 14 जनवरी को ही खुलते हैं। मकर संक्रांति के अवसर पर मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए 18 पवित्र सीढियां चढ़नी होती हैं, यह सीढियां मनुष्य के 18 लक्षणों को दर्शाती हैं। पर भगवान् के दर्शनों से पहले भगतों को कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। जैसाकि उन्हें भोग-विलास से दूर रहते हुए 41 दिनों तक उपवास करना पड़ता है। केवल शाकाहारी भोजन का सेवन करना होता है, शराब, धुम्रपान, नशे वगैरह से दूर रहना होता है। इसके साथ ही  बालो को काटने की भी मनाही होती है। सभी भक्त परंपरा के अनुसार बिना कोई चप्पल-जूता पहने रास्ते में पड़ने वाली पम्पा नदी में स्नान कर काले या नीले वस्त्र धारण कर मस्तक पर विभूति या चन्दन का लेप लगा ‘स्वामी अय्यापो’ मंत्र का जप करते हुए मंदिर में प्रवेश करते हैं।


रहस्य्मय ज्योति 
कहते हैं मंदिर के पास मकर संक्रांति की रात में घने अंधेरे में रह-रह एक ज्योति दिखलाइ पड़ती है ! इसी ज्योति के दर्शन के लिए दुनियाभर से करोड़ों श्रद्धालु हर साल इस अवसर पर यहां उपस्थित रहते हैं।ऐसा भी कहा जाता है कि जब-जब ये रोशनी दिखती है इसके साथ ही एक हल्का सा शोर भी सुनाई पड़ता है। भक्तों का विश्वास है कि यह दिव्य देव ज्योति है और खुद भगवान इसे प्रज्जवलित करते हैं। भक्तों के साथ-साथ मंदिर प्रबंधन से जुड़े लोगों के मुताबिक मकर माह के पहले दिन आकाश में दिखने वाला यह एक खास तारा मकर ज्योति है। अब इसकी सच्चाई तो प्रकृति के गूढ़ रहस्यों में ही छिपी हुई है ! 

आज ऐसी जगह का कुछ लोगों की अक्खड़ता, बेकार के दंभ, तथाकथित समानता और वर्षों पुरानी आस्थ और मान्यताओं के बीच फास कर रह गयी है। दोनों पक्षों को आपसी समझबूझ से इस तरह का हल निकलना चाहिए जिससे करोड़ों लोगों के दिल पर न कोई ठेस पहुंचे ना हीं किसी तरह का मनोमालिन्य रहे।

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

यदि पौराणिक काल में आज जैसी संस्थाएं होतीं तो ?

असली बवाल मचता शूर्पणखा के नाक-कान काटने पर ! सारी गलती राक्षस कुमारी की होने पर भी पहले तो बिना कुछ कहे-सुने सारा दोष राम-लक्ष्मण पर ही मढ़ दिया जाता। बेगुनाही साबित करते-करते महीनों लग जाते ! और फिर कहते हैं ना कि विपदाएं एक साथ आती हैं, यह मामला ख़त्म भी नहीं होता कि बाली-सुग्रीव के प्रकरण का सामना हो जाता। उस समय शायद खून-खराबा ना हीं होता क्योंकि तारा को यह हक़ मिला होता कि वह अपनी मर्जी से किसीके साथ भी रह सकती थी...........!


#हिन्दी_ब्लागिंग      

यदि एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन या पशु-पक्षी संरक्षण समिति, महिला आजादी, मानवाधिकार जैसी संस्थाएं पौराणिक काल में ही अस्तित्व में आ गयी होतीं, तो संसार भर की तो छोड़िए हमारे देश के पौराणिक गंर्थों की कथाएं कैसी होतीं ? उनका तो सारा खाका ही बदल गया होता ! हमारे दोनों महान महाकाव्यों का क्या रूप होता ? परिदृष्य कैसा होता ? इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है !   

हमारे सारे धर्म-ग्रन्थों की तस्वीर ही अलग होती। शायद धरा पर असुरों का ही राज होता। क्योंकि सारे देवी-देवताओं ने अपने वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्रमुखता दे रखी है। तीनों महाशक्तियों को देखिए, शिवजी के परिवार में, बैल शंकरजी का वाहन है, मां पार्वती का वाहन सिंह है, कार्तिकेयजी मोर पर सवार हैं तो गणेशजी को चूहा पसंद है। विष्णुजी का भार गरुड़जी उठाते हैं तो मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू है। ब्रह्माजी तथा मां सरस्वती माता  हंस पर आते-जाते हैं। उधर देवताओं में इंद्र को हाथी प्यारा है तो सूर्यदेव ने सात-सात घोड़े अपने रथ में जोड़ रखे हैं ! यमराज भैंसे पर सवार हो घूमते हैं तो ग्रहों ने भी तरह-तरह के जीव-जंतुओं को अपना वाहन बना रखा है ! कहां तक गिनायेंगे ! दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल ही दौड़ते-भागते रह कर ही लड़ते-भिड़ते रहते थे। कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे रथ वगैरह मिल जाते थे, वह भी स्वचालित। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । तब शायद देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता !


सारा कुछ खंगालेंगे तो इस पर ग्रंथ ही बन जाएगा। यदि सिर्फ त्रेता युग की ही बात करें तो शायद रामायण लिखी ही न जाती ! क्योंकि महर्षि वाल्मिकी ना तो हिरण-वध करवा पाते, ना हीं सीता हरण होता ! तो फिर युद्ध काहे का ! यदि कोई और बहाने से युद्ध छिड़ भी जाता तो रामजी लड़ते भी कैसे ? वानर, भालुओं की सेना तो बनने नहीं दी जाती, और वरदान के अनुसार बिना उनके रावण वध हो नहीं पाता ! 


चलिए शुरू से ही देखते हैं, चलते हैं मिथिला, जहां शिव जी का प्राचीन धनुष संभाल कर रखा गया था ! इतनी पुरानी, महत्वपूर्ण, विलक्षण वस्तु तो सारे जगत की धरोहर थी, उसे जनक जी द्वारा प्रतियोगिता में रखवा कर तुड़वाने पर ही सैकड़ों सवाल खड़े हो जाते ! फिर राम जी पर भी बात उठती कि ऐसी अनमोल वस्तु को उन्होंने तोड़ डाला ! वैसे उस समय भी परशुराम जी ने सवाल उठाए थे पर उन्हें शायद समर्थन नहीं मिल पाया। शुक्र है, राम-सीताजी का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो गया, सब अयोध्या लौट आए। सब ठीक-ठाक चल रहा था पर अचानक समय पलटा, शनि सक्रिय हुए और राम जी को वनवास जाना पड़ा।

वनवास के दौरान तो पग-पग पर पंगा पड़ने की नौबत आ जाती ! जब केवट ने उनके पैर पखारे थे ! काकभुशंडि की आँख में तिनका जा लगा था ! अनगिनत राक्षसों को मार गिराया था ! पर असली बवाल मचता शूर्पणखा के नाक-कान काटने पर ! सारी गलती राक्षस कुमारी की होने पर भी पहले तो बिना कुछ कहे-सुने सारा दोष राम-लक्ष्मण पर ही मढ़ दिया जाता। बेगुनाही साबित करते-करते महीनों लग जाते ! और फिर कहते हैं ना कि विपदाएं एक साथ आती हैं, यह मामला ख़त्म भी नहीं होता कि बाली-सुग्रीव के प्रकरण का सामना हो जाता। उस समय शायद खून-खराबा ना हीं होता क्योंकि तारा को यह हक़ मिला होता कि वह अपनी मर्जी से किसीके साथ भी रह सकती थी। उस समय बाली या सुग्रीव कौन राम जी का साथ देता है सबको इस बात की उत्सुकता रहती। वैसे शायद सुग्रीव का ही पलड़ा भारी पड़ता क्योंकि हनुमान जी उसके साथ थे।    

पर हनुमान जी ही कहां शांति से रह पाते ! यदि किसी तरह अपने आराध्य से मिल भी जाते तो बेचारे तरह-तरह के आरोपों से परेशान रहते। संजीवनी के लिए द्रोणगिरी पर्वत हटाने से उत्तरांचल के लोग तो आज तक खफा हैं उनसे। बिना उचित कागजात के लंका प्रवेश और फिर वहां अग्निकांड के कारण पता नहीं किस-किस आयोग को जवाब देना पड़ता। अशोक वाटिका में हजारों पेड़-पौधे तहस नहस कर दिए थे उसका हिसाब अलग से मांगा जाता। विदेश का मामला था, और रावण चतुर कूटनीतिज्ञ ! अपनी जान बचाने और लंका पर छाई युद्ध की विभीषिका से बचने के लिए उसने किसी सक्षम और ताकतवर देश के राजा के यहां गुहार लगा देनी थी ! बस शुरू हो जाते हस्तक्षेप ! 

इधर राम-लक्ष्मण भी चले आए थे बिना किसी सेना के ! जिसको भारत के इस अंतिम छोर पर संगठित करने की योजना थी ! तो वह कैसे पूरी होती ? वानर-भालुओं पर तो बंदिश लगी होनी थी ! येन-केन-प्रकारेण उनके रसूख वगैरह से सेना का गठन हो भी जाता तो सागर से पार पाना तो लगभग असंभव ही होता ! सेतु-बंध करते समय जो सागर किनारे की भूमि को समतल करना पड़ता, छोटी-मोटी पहाड़ियां, टिले, विशाल वृक्ष, पेड़-पौधों को हटाने के साथ-साथ पर्वत शिलाओं को सागर में फेंकने से प्रकृति का संतुलन  बिगाड़ने का आरोप लग जाता ! उसका जांच आयोग के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाता कि रावण वध जरुरी है कि प्रकृति को बचाना ! लगता नही कि इन सब पचड़ों के बीच युद्ध हो पाता। और अगर महासमर ना होता तो रावण और उसका साम्राज्य तो यथावत ही रहते !
फिर ! फिर क्या ? देख ही रहे हैं आज का माहौल ! 

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

पृथ्वी शॉ के पहले चौदह भारतीय खिलाड़ी ऐसा कर चुके हैं

करीब 85 साल पहले लाला अमरनाथ ने 1933 में इंग्लैंड के साथ अपना पहला टेस्ट खेलते हुए 118 रन बनाए थे। यह किसी भारतीय द्वारा क्रिकेट में बनाया गया पहला शतक भी था। इसके बाद दीपक शोधन, ऐ. जी, कृपाल सिंह, अब्बास अली बेग, हनुमंत सिंह, सुरेंद्र अमरनाथ जैसे बेहतरीन खिलाड़ियों ने क्रिकेट जगत में अपने शतक के साथ प्रवेश तो किया पर अपने खेल के जीवन काल में वे फिर कभी शतक नहीं बना सके ! इसीलिए क्रिकेट जगत में एक ''मिथ'' बन गया कि अपने पदार्पण पर शतक बनाने वाला खिलाड़ी फिर कभी दूसरा शतक नहीं लगा पाता ! इस धारणा को छत्तीस वर्ष बाद  1969 में बेहतरीन खिलाड़ी गुंडप्पा विश्वनाथ ने अपने कीर्तिमानों से तोड़ा।  फिर तो मो. अजहरुद्दीन, प्रवीण आमरे, सौरव गांगुली,  वीरेंद्र सहवाग, सुरेश रैना, शिखर धवन  व  रोहित शर्मा  ने यह  कमाल  कर दिखाया और प्रवीण आमरे को छोड़ इन सभी ने अनेकानेक शतकों को अंजाम दिया.............


#हिन्दी_ब्लागिंग
भारत, वेस्ट इंडीज के बीच दो टेस्ट मैचों की श्रृंखला के पहले मैच के पहले दिन 18 वर्षीय पृथ्वी शॉ के रूप में एक और होनहार खिलाड़ी ने अपने पदार्पण मैच में ही शतक जड़, भारतीय क्रिकेट जगत में एक धमाके के साथ अपना
नाम दर्ज करवा लिया। ऐसा करने वाले वे भारत के पन्द्रहवें खिलाड़ी बन गए हैं। जाहिर है तारीफों के पुल बंधने  थे, चर्चाएं होनी थीं, मिडिया में छा जाना था ! ऐसा ही हुआ भी और होना भी चाहिए  होना भी चाहिए; उभरते हुए खिलाड़ियों की हौसला-अफजाई होनी ही चाहिए ! जिससे उनका मनोबल बढ़ता है और अच्छा करने की प्रेणना मिलती है। पर शुरुआत में ही उसकी तुलना किसी महान खिलाड़ी से नहीं कर देनी चाहिए ! उसको कुछ समय देना चाहिए, अपनी प्रतिभा को निखारने और अपने आत्मबल को पुख्ता करने का। पर हमारा मिडिया खासकर टी.वी. चैनल वाले हर समय जल्दी में रहते हैं, जैसे आज नहीं तो कभी नहीं ! इधर खेल ख़त्म भी नहीं होता और वे शुरू हो जाते हैं अपने तथाकथित विशेषज्ञों के साथ बेतुका तुलनात्मक विश्लेषण करने में ! बिना कुछ सोचे-समझे ऐसा करने में उन्हें महारत हासिल है ! उनको एक क्षण के लिए भी यह अहसास नहीं होता कि ऐसा कर वह नवागत पर अतिरिक्त मानसिक तनाव डाल रहे हैं। ऐसी बातों से चौंधियाया हुआ खिलाड़ी कभी-कभी मैदान में दवाब में रहते हुए  हुए अपना नैसर्गिक खेल नहीं खेल पाता। 


अपने पहले ही टेस्ट में शतक जड़ने वाले, पृथ्वी शॉ, सबसे कम उम्र के जरूर हैं पर ऐसा कारनामा, चौदह भारतीय खिलाड़ी उनसे पहले भी कर चुके हैं। जिसकी शुरुआत करीब 85 साल पहले लाला अमरनाथ ने 1933 में इंग्लैंड के साथ खेलते हुए 118 रन बना कर की थी। संयोग से किसी भारतीय द्वारा क्रिकेट में बनाया गया यह पहला शतक भी था। पर इसके साथ ही एक ''मिथ'' भी जुड़ गया कि भारतीय क्रिकेट में अपने पदार्पण पर शतक बनाने वाला खिलाड़ी फिर कभी दूसरा शतक नहीं लगा पाता ! क्योंकि लाला अमरनाथ के बाद दीपक शोधन, ऐ. जी, कृपाल सिंह, अब्बास अली बेग, हनुमंत सिंह, सुरेंद्र अमरनाथ जैसे बेहतरीन खिलाड़ियों ने क्रिकेट जगत में अपने शतक के साथ प्रवेश तो किया पर अपने खेल के जीवन काल में वे फिर कभी शतक नहीं बना सके ! इस धारणा को टूटने में तक़रीबन छत्तीस वर्ष लग गए जब 1969 में खेल में पदार्पण करने वाले भारत के बेहतरीन खिलाड़ी गुंडप्पा विश्वनाथ ने इसे अपने कीर्तिमानों से तोड़ा। फिर तो मो. अजहरुद्दीन, प्रवीण आमरे, सौरव गांगुली, वीरेंद्र सहवाग, सुरेश रैना, शिखर धवन व रोहित शर्मा ने यह कमाल कर दिखाया और प्रवीण आमरे को छोड़ इन सभी ने अनेकानेक शतकों को अंजाम दिया। 

यहां पृथ्वी के खेल को ले कर कोई शक ओ शुबहा नहीं है, ना हीं उसके प्रयास और उयलब्धि को कम कर के आंकना है ! बस गुजारिश इतनी सी है कि मीडिया उसे बक्शे ! उसे समय दे, अपने को तराशने का, खेल प्रेमियों को अपना सामर्थ्य दिखाने का, दिलो-दिमाग से परिपक्व होने का और सबसे बड़ी बात टीम में अपना स्थान निश्चित करवाने का ! क्योंकि लाला अमरनाथ को भी एक अनूठा, कभी ना टूटने वाला कीर्तिमान बनाने के बावजूद दोबारा टीम में लौटने में बारह वर्ष लग गए थे ! इसके अलावा हमारे सामने ऐसे बहुत से खिलाड़ी हुए हैं जो अपनी शोहरत को पचा न पाने के कारण असमय ही हाशिए पर चले गए ! सभी में तो गावस्कर, कपिल, सचिन, द्रविड़ या धोनी जैसा माद्दा तो नहीं ना होता है !   

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