मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

रायपुर के पास भी है, एक सोमनाथ धाम

पता नहीं ऐसी कितनी ही जगहें इंतजार कर रही हैं अपने को खोजे जाने का ! अपने अस्तित्व के सार्थक होने का ! अपने इतिहास का दुनिया के सामने उजागर होने का !  जरुरत है ऐसी जगह जाने, पहुँचने वाले सिर्फ खुद ही देख कर ना रह जाएं, कोशिश करें इन जगहों के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताने और वहां जाने के लिए प्रोत्साहित करने की। खास कर आजकल के मॉल प्रेमी बच्चों-युवाओं को.....!
#हिन्दी_ब्लागिंग 
कभी-कभी इच्छित कार्यक्रम में बदलाव कुछ अनोखा, अलग, सुखद अनुभव दे जाता है। ऐसा ही पिछली रायपुर की यात्रा के दौरान घटित हुआ। सारे परिवार का नव-निर्मित रायपुर सफारी जाने के कार्यक्रम में अचानक व्यवधान पड़ जाने से एक नई जगह जाने का मौका हासिल हुआ, जगह थी, शिवनाथ और खारून नदियों के संगम पर स्थित कुछ अनजान सा सोमनाथ धाम। जिसके बारे में प्रचलित है कि इसे शिवाजी ने अपनी गुजरात विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया था। यह रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर स्थित ग्राम सांकरा से पश्चिम दिशा मे करीब सात कि.मी. की दुरी पर स्थित है। नजदीकी रेलवे स्टेशन तिल्दा है। पर सड़क मार्ग से निजी वाहन से जाना ही सुविधाजनक है। 



पहले तो बच्चों में कार्यक्रम के, जंगल-सफारी से मंदिर की तरफ तब्दील हो जाने से निराशा नज़र आई पर उन्हें जब वर्षों बाद पिकनिक का "स्कोप" नजर आया तो सब फ़टाफ़ट राजी हो गए और एक ही गाडी में मय खाद्य-सामग्री, लद-फद  कर चल दिए प्रभू के दर्शन हेतु। धरसींवा से आगे तक़रीबन 10 किमी की दूरी पर एक मार्ग बायीं ओर मुड़ता है जहां से करीब तीन की.मी. दूर खारून नदी और शिवनाथ नदी के संगम पर भगवान शिव का प्रचीन मंदिर सोमनाथ तीर्थ स्थित है।



मंदिर, अत्यंत शांत, सुरम्य, प्राकृतिक सौंदर्य और हरीतिमा से भरपूर जगह में, एक ऊँचे टीले पर स्थित है। कहते हैं इसी टीले  के उत्खनन में यहाँ स्थपित शिव लिंग मिला था। सीढ़ियां चढ़ते ही लॉन में पहले हनुमानजी की प्रतिमा नजर आती है। उनके पीछे कुछ दुरी पर, छोटे पर अपनी प्राचीनता दर्शाते मंदिर के गर्भ-गृह में करीब 3 फीट ऊँचा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर में शिव परिवार, पार्वती देवी, गणेश जी, कार्तिकेय एवं नंदी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। शिव लिगं के बारे में मान्यता है कि वह धीरे-धीरे बडा होता जा रहा है। मंदिर के पास ही उन महिला का निवास है जिन पर यहां की देख-रेख का जिम्मा है। 


मंदिर पहुँचने पर पीछे बह रही नदी से पानी ला कर मंदिर में अभिषेक किया गया और जितना थोड़ा-बहुत ज्ञान है, उसी के अनुसार, गलतियों के लिए क्षमा मांग, शिव परिवार की प्रार्थना-अर्चना की। फोटुएं ली गयीं, यादगार स्वरुप। शाम हो चली थी। सभी की भूख चमक उठी थी। वही लॉन में सबने भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर, दस-पन्द्रह मिनट पीठ सीधी की और प्रभू से इजाजत ले घर का रूख किया। 


पता नहीं ऐसी कितनी ही जगहें इंतजार कर रही हैं अपने को खोजे जाने का ! अपने अस्तित्व के सार्थक होने का ! अपने इतिहास का दुनिया के सामने उजागर होने का !  जरुरत है ऐसी जगह जाने, पहुँचने वाले सिर्फ खुद ही देख कर ना रह जाएं, कोशिश करें इन जगहों के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताने और वहां जाने के लिए प्रोत्साहित करने की। ख़ास कर आजकल के मॉल प्रेमी बच्चों-युवाओं को। 

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

मैं और माइक, माइक और मैं !

लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" हूँ। होता क्या है कि जब किसी जुगाड़ु मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर डालनी पड़ती है कि सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुस बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि अपनी जगह जड़-मुद्रा में एक ही जगह फिक्स हों तो अपनी आवाज, चेहरे के लगातार चलायमान रहने और इनसे तालमेल न बैठने के कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है........!
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यहां मैं सिर्फ अपनी बात कर रहा हूँ, कोई अपने पर ना ले, आगे ही क्लेश पड़ा हुआ है। हाँ तो मैं कह रहा था कि इस दुनिया में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिनके आप कितने भी  "used to" हो जाओ, तो भी वे आपको घास नहीं डालेंगी। अब जैसे माइक को ही लेंअरे ! ही माइक्रोफोन ! जिसे बोलते समय मुंह के सामने रखते हैं, जिससे म्याऊं जैसी आवाज भी दहाड़ में बदल जाती है ! जिससे जो नहीं भी सुनना चाहता हो उसे भी जबरिया सुनना पड़ता है ! 
इस नामुराद यंत्र को थामने का मैंने दसियों बार अवसर जुगाड़ा है, 15-20 से ले कर 100-150 तक, मुझे झेलने वाले श्रोताओं के सम्मुख ! पर आज तक यह मुझसे ताल-मेल नहीं बैठा पाया है ! मुझे तो पसीना आता ही है वह तो अलग बात है !! होता क्या है कि जब किसी मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर डालनी पड़ती है कि सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुस बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि अपनी जगह जड़-मुद्रा में एक ही जगह फिक्स हों तो अपनी आवाज, चेहरे के लगातार चलायमान रहने और इनसे तालमेल न बैठने के कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है ! यदि काबू में रखने के लिए इन्हें हाथ में जकड़ लेता हूँ तो ध्यान इसी में रहता है कि बोलते समय ये कहीं नाक या चश्में के सामने ना जा खड़े हों ! लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" रहता हूँ। इनका एक और भी अवतार है जो बदन पर सितारे की तरह टांक लिया जाता है पर उनसे मिलने का मुझे कभी मौका नहीं मिला। 
यह सही है कि इसका मेरा दोस्ताना रिश्ता नहीं बन सका, पर फिर भी कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल आता है कि यदि ये ना होता तो क्या होता, क्या होता यदि ये ना होता ? कैसे नेता-अभिनेता जबरन जुटाई भीड़ के अंतिम छोर पर मजबूरी में खड़े व्यक्ति को अपने कभी भी पूरे न होने वाले वादों से भरमाते ! कैसे धर्मस्थलों से धर्म के ठेकेदार अपनी आवाज प्रभू तक पहुंचाते ! शादियों की तो रौनक ही नहीं रहती ! कवि तो ऐसे ही नाजुक गिने गए हैं सम्मेलनों में तो अगली पंक्ति तक को सुनाने के लिए उन्हें मंच से नीचे आना पड़ता ! गायकों के गलों की तो ऐसी की तैसी हो गयी होती ! ऐसे ही छत्तीसों काम जो आज आसान लगते हैं, हो ही नहीं पाते !  
ना चाहते हुए भी तारीफ़ करुं क्या उसकी, जिसने इसे बनाया ! 1876 में, एमिली बर्लिनर (Emile Berliner)  से जब इसकी ईजाद हो गयी होगी तब उसे क्या पता था कि उसने कौन सी बला. दुनिया को तौहफे में दे डाली है, जिसका आनेवाले दिनों में टेलिफोन, ट्रांसमीटरों, टेप रेकार्डर, श्रवण यंत्रों, फिल्मों, रेडिओ, टेलीविजन, मेगाफोनों, कम्प्यूटरों  और कहाँ-कहाँ नहीं होने लगेगा। उस बेचारे को तो यह भी नहीं पता होगा कि भविष्य में ध्वनि प्रदूषण जैसी  समस्या होगी जिसमें उसकी यह ईजाद मुख्य अभियुक्त हो जाएगी !  

अब जरुरी तो नहीं कि जिससे मेरी न पटती हो उसकी किसी से भी न पटे ! हमारा आपसी रिश्ता जैसा भी हो पर है तो यह गजब की चीज इसमें कोई शक नहीं है: है क्या ?    

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

यहां भारतीय रेल के पूर्वज विराजमान हैं

यहीं 1907 में निर्मित एक अनोखा मोनोरेल इंजन, जो पटियाला रियासत की विरासत था भी प्रदर्शित है। इस अनोखे इंजन की विशेषता थी कि इसका एक पहिया पटरी पर और दूसरा, जो आकार में बड़ा है वह सड़क पर चला करता था, देखने में यह एक पहिये वाली ट्रेन मालूम पड़ती है। इसी के साथ यहां राजाओं-महाराजाओं के निजी शाही सैलून भी रखे गए हैं, जिनसे रियासतों के वैभव का अंदाज लगाया जा सकता है, पर ऐसे सैलून आजकल "हैरिटेज ट्रेनों" की शोभा बढ़ा कर रेलवे की आमदनी में इजाफा करने में लगे हुए हैं.............! 

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रेल, एक ऐसा नाम जिसका जादू छोटे-बड़े सबके सर चढ़ कर बोलता है। सैकड़ों गाड़ियां, लाखों लोगों को अपने गंतव्य पर पहुँचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। शायद ही ऐसा कोई होगा जिसे रेल ने मोहित ना किया
हो। आज भी देश का सर्वसुलभ, सबसे सस्ता, सुरक्षित माध्यम कहीं की भी यात्रा के लिए। तक़रीबन डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा के समय में इसने भी तरह-तरह के बदलाव देखे हैं। अपने देश में तो रेल घोड़े से नहीं खींची गयी; यहां भाप के इंजिन से शुरुआत हुई। धीरे-धीरे उनकी क्षमता में बढ़ोत्तरी होती गयी जिससर रफ़्तार और रख-रखाव में फर्क पड़ा फिर बिजली और डीजल के एक से बढ़ कर एक इंजन आए, जिन्होंने दूरियों की परिभाषा ही बदल दी। जब भी कहीं बदलाव होता है तो पुराने को जगह छोड़नी पड़ती है। उपयोगिता ख़त्म होने के साथ ही लोग उन्हें भूलने लगते हैं। भूला दिया जाता है उसका योगदान जब वह ही सबसे बड़ा सहारा हुआ करता था। ऐसा ही हुआ हमारे पुराने भाप के इंजनों के साथ, पुराने डिब्बों के साथ, पुराने यंत्रों के साथ ! जिनके बारे में आज की पीढ़ी कुछ नहीं जानती। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में करीब दस एकड़ के क्षेत्र में 01 फ़रवरी 1977 में  
राष्ट्रीय रेल परिवहन संग्रहालय की स्थापना की गयी। जिससे लोग रेल के इतिहास से रूबरू होते हुए जान सकें कि कैसे भारतीय रेलवे नें देश को एक राष्ट्र के रूप में उभारने में एक अहम भूमिका निभाई।





इस संग्रहालय के दो भाग हैं। एक पूरी तरह खुला तथा दुसरा एक भवन के अंदर। जहां दोनो ही प्रकार की रेल धरोहरें सुरक्षित हैं। इस अनोखे संग्रहालय में भारतीय रेलवे के 100 से अधिक, अपने  वास्तविक आकार के  शानदार और आकर्षक संग्रह है। इनमें इंजन और डिब्बों के स्थिर और चल मॉडल, सिगनिलिंग उपकरण, ऐतिहासिक फोटोग्राफ और संबंधित साहित्य सामग्री आदि शामिल है। इस अनोखे संग्रहालय में भारतीय रेलवे के 100 से अधिक अपने वास्तविक आकार के प्रदर्शित सामान का एक शानदार और आकर्षक संग्रह है। भवन के अंदर वाले हिस्से में भारतीय रेल के इतिहास, क्रमिक विकास और वैभव को दर्शाने वाली अनेक फोटोग्राफ के साथ-साथ सिगनिलिंग उपकरण, संबंधित साहित्य सामग्री और इंजिनों, बोगियों, कल-पुर्जों के मॉडल  आदि प्रदर्शित किए गए हैं। जिनमें विश्व के सबसे पहले इंजन, के साथ ही भारत की पहली रेल का मॉडल, इंजन और उस डिब्बे का स्वरूप भी प्रदर्शित है जिसमें महात्मा गाँधी की अस्थियां देश भर में ले जाई गयीं थीं।










उधर बाहर के खुले में अनेक प्रकार के रेल इंजन, रेल कोच, मालवाहक रेल बोगी के स्थिर और चल मॉडल आदि को उनके मूल स्वरूप में रखा गया है। जिनमें कालका-शिमला रेल बस, माथेरान हिल रेल कार, नीलगिरि माउंटेन रेलवे आदि अन्य आकर्षण को पास से देखने, छूने तथा कुछ पर बैठने का आनंद उठाते हुए पुराने समय का अनुभव लिया जा सकता है। यहीं 1907 में निर्मित एक अनोखा मोनोरेल इंजन जो पटियाला रियासत की विरासत था भी प्रदर्शित है (Patiala State Monorail System) इस अनोखे इंजन की विशेषता थी कि इसका एक पहिया पटरी पर और दूसरा, जो आकार में बड़ा है वह पहिया सड़क पर चला करता था, देखने में यह एक पहिये वाली ट्रेन मालूम पड़ती है। इसी के साथ यहां राजाओं-महाराजाओं के निजी शाही सैलून भी रखे गए हैं, जिनसे रियासतों के वैभव का अंदाज लगाया जा सकता है। पर आजकल बढ़ती भीड़ और कम रखरखाव के कारण उनको क्षति पहुँचने के अंदेशे से उन्हें बंद कर दिया गया है। वैसे भी ऐसे सैलून आजकल "हैरिटेज ट्रेनों" की शोभा बढ़ा कर रेलवे की आमदनी में इजाफा करने में लगे हुए हैं। 






पर्यटकों और खासकर बच्चों के लिए यहां एक छोटी रेल भी चलाई जाती है, जो पांच-छह मिनट में धीरे-धीरे चल कर पूरे संग्रहालय का चक्कर लगवाती है। उसका अपना ही मजा और आनंद है। बड़ी गाड़ियों की तरह टिकट चेक होते हैं, चलने का आदेश होता है, सिटी बजती है और फिर ठक, ठका-ठक, ठक पटरियां बदलती, छोटी सी गुफा से गुजरती, सिटी बजाती, चक्कर पूरा कर अपने स्टेशन "म्यूजियम जंक्शन" पर आ ठहरती है। स्टेशन के ठीक सामने ही बच्चों के एक छोटे से खेल-स्थल के साथ-साथ म्यूजिकल फव्वारों का भी निर्माण पूरा हो चुका है। जिनसे निकलता पानी एक अलग छटा प्रस्तुत करता है। वहीँ IRCTC ने अपना गोल आकार का रेस्त्रां भी खोल दिया है जहां घूमने के पश्चात् थकान और भूख दोनों मिटाई जा सकती हैं। इसकी एक विशेषता यह भी है कि इसकी दिवार के साथ साथ एक खिलौना इंजन लगातार चक्कर लगा आगंतुकों का मनोरंजन करता रहता है। 




कभी भी समय मिले तो अपने बच्चों और बाहर से आए मेहमानों को भारतीय रेलवे के 162 वर्ष पुराने इतिहास व विरासत को देखने-समझने, पुराने दुर्लभ भाप, डीजल व बिजली के इंजन,व बहुत सारी कला कृतियों के बारे में जानने के लिए एक बार यहां जरूर ले कर आएं।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

बसंत अभी भी उद्विग्न है !

पर जैसे ही प्रकृति खुद कुछ सुधार ला देती है, हम बेफिक्रे हो अपनी पुरानी औकात पर आ जाते हैं। मुसीबत टलते ही फिर ना किसी को पर्यावरण का ध्यान रहता है, ना हीं विषैले वातावरण का, ना हीं दम-घोँटू माहौल का ! सरकारें आलोचना से बच कर राहत की सांस ले अपने जोड़-तोड़ में लग जाती हैं, विरोधी किसी और मसले की तलाश में जुट जाते हैं और जनता अपने धंधे में.....................!

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साल गुजर गया इस बात को ! पर अभी भी जब याद आती है तो सिहरन तो होती ही है साथ ही विश्वास भी नहीं होता कि उस दिन सचमुच कुछ हुआ था और फिर चेतनावस्था के बाद मेरी क्या हालत हुई थी ! वैसा हुआ हो या ना हुआ हो, पर उस दिन जिस गंभीर समस्या की ओर ध्यान गया या दिलाया गया था उसके निवारण हेतु तो
कुछ भी सकारात्मक कहाँ हो पाया अब तक ! उल्टे समस्या कम होने के बजाए बढ़ी ही है ! पिछले तीन महीने, एक गैस चैंबर का एहसास दिलाते रहे हैं यहां शहरवासियों को ! पर जैसे ही प्रकृति खुद कुछ सुधार ला देती है, हम बेफिक्रे हो अपनी पुरानी औकात पर आ जाते हैं। मुसीबत टलते ही फिर ना किसी को पर्यावरण का ध्यान रहता है, ना हीं विषैले वातावरण का, ना हीं दम-घोँटू माहौल का ! सरकारें आलोचना से बच कर राहत की सांस ले अपने जोड़-तोड़ में लग जाती हैं, विरोधी किसी और मसले की तलाश में जुट जाते हैं और जनता अपने धंधे में ! जहां दुनिया भर में दो या तीन तरह के मौसम होते हैं, प्रकृति ने छह-छह ऋतुओं की नेमत सौंपी है हमें ! पर हमने क्या किया ? उसी प्रकृति की ऐसी की तैसी कर रख दी। अब जैसे बसंत का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है वैसे ही बाकी मौसम भी मुंह फेर गए तो क्या होगा इस शस्य-श्यामला का ?  कब हम अपने दायित्वों को समझेंगे ? यदि हमारे पूर्वज भी हमारी तरह सिर्फ मैं और मेरा करते रहे होते तो क्या कभी हम स्वर्ग जैसी इस धरा पर रहने का सौभाग्य पा सकते थे ? फिर मैं सोचता हूँ कि मैंने ही क्या किया इस विषय को ले कर ! सरकार का मुंह तकने, दूसरों से पहल की अपेक्षा रखने और नुक्ताचीनी के सिवाय ! किसी की ओर उंगली उठाने से पहले मैंने कोई पहल की इस ओर ? कोई जागरूकता फैलाई ? अपनी तरफ से कोई कदम उठाया इस समस्या के निवारण हेतु ? यदि नहीं तो मेरा भी कोई हक़ नहीं बनता कि मैं किसी और पर दोषारोपण करूँ !!

आज भी मुझे उस साल भर पहले की सुबह का एक-एक लम्हा अच्छी तरह याद है। जब पौ फटी नहीं थी और मुझे दरवाजे पर कुछ आहट सी सुनाई दी थी। उस दिन रात देर से सोने के कारण अर्द्ध-सुप्तावस्था की हालत हो रही थी, इसीलिए सच और भ्रम का पता ही नहीं चल पा रहा था। पर कुछ देर बाद फिर लगा बाहर कोई है। इस
बार उठ कर द्वार खोला तो एक गौर-वर्ण अजनबी व्यक्ति को खड़े पाया। आजकल के परिवेश से पहनावा कुछ अलग था। धानी धोती पर पीत अंगवस्त्र, कंधे तक झूलते गहरे काले बाल, कानों में कुण्डल, गले में तुलसी की माला, सौम्य-तेजस्वी चेहरा, होठों पर आकर्षित कर लेने वाली मुस्कान। इसके साथ ही जो एक चीज महसूस हुई वह थी एक बेहद हल्की सुवास !

मेरे चेहरे पर प्रश्न सूचक जिज्ञासा देख उसने कहा, अंदर आने को नहीं कहिएगा ? उनींदी सी हालत, अजनबी व्यक्ति, सुनसान माहौल !! पर आगंतुक के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऊहापोह की स्थिति में भी मैंने एक तरफ हट कर उसके अंदर आने की जगह बना दी। बैठक में बैठने के उपरांत मैंने पूछा, आपका परिचय नहीं जान पाया हूँ ? वह मुस्कुराया और बोला, मैं बसंत !
बसंत ! कौन बसंत ? मुझे इस नाम का कोई परिचित याद नहीं आ रहा था ! मैंने कहा, माफ़ कीजिएगा, मैं अभी भी आपको पहचान नहीं पाया हूँ !
अरे भाई, वही बसंत, जिसके आगमन की ख़ुशी में आप सब पंचमी मनाते हैं !
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था ! क्या कह रहा है सामने बैठा इंसान !! यह कैसे हो सकता है ?
घबराहट साफ़ मेरे चेहरे पर झलक आई होगी, जिसे देख वह बोला, घबड़ाइये नहीं, मैं जो कह रहा हूँ वह पूर्णतया  सत्य है।
मेरे मुंह में तो जैसे जबान ही नहीं थी। लौकिक-परालौकिक, अला-बला जैसी चीजों पर मेरा विश्वास नहीं था। पर जो सामने था उसे नकार भी नहीं पा रहा था। सच तो यह था कि मेरी रीढ़ में एक सर्द लहर सी उठने लगी थी। आश्चर्य यह भी था कि ज़रा सी आहट पर उठ बैठने वाली श्रीमती जी को भी कोई आभास नहीं हुआ था, मेरे उठ कर बाहर आने का। परिस्थिति से उबरने के लिए मैंने आगंतुक को कहा, ठंड है, मैं आपके लिए चाय का इंतजाम करता हूँ, सोचा था इसी बहाने श्रीमती जी को उठाऊंगा, एक से भले दो। पर अगले ने साफ़ मना कर दिया कि मैं कोई भी पेय पदार्थ नहीं लूँगा, आप बैठिए। मेरे पास कोई चारा नहीं था। फिर भी कुछ सामान्य सा दिखने की कोशिश करते हुए मैंने पूछा, कैसे आना हुआ ?


बसंत के चेहरे पर स्मित हास्य था, बोला मैं तो हर साल आता हूँ। आदिकाल से ही जब-जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट होती है, मैं पहुँचता रहा हूँ। अपने आने का सदा प्रमाण देता रहा हूँ । आपने भी जरूर महसूस किया ही होगा कि मेरे आगमन से सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक अंगडाई ले, आलस्य त्याग जागने लगती है। जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है। वृक्ष नये पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते हैं। सारी प्रकृति ही मस्ती में डूब प्रफुल्लित हो जाती है। जिससे चारों ओर प्रेम-प्यार, हास-परिहास, मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का वातावरण बन जाता है। इतना कह वह चुप हो गया। जैसे कुछ कहना चाह कर भी कह ना पा रहा हो। मैं भी चुपचाप उसका मुंह देख रहा था। उसके मेरे पास आने की वजह अभी भी अज्ञात थी। वह मेरी ओर देख रहा था। अचानक उसकी आँखों में एक वेदना सी झलकने लगी थी। एक निराशा सी तारी होने लगी थी। उसने एक गहरी सांस ली और कहने लगा, पर अब सब धीरे-धीरे सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है।  मनुष्य की लापरवाही, लालच और लालसा की वजह से ऋतुएँ अपनी विशेषताएं तथा तारतम्य खोती जा रही हैं।लोगों को लगने लगा है कि अब बसंत का आगमन शहरों में नहीं होता। पर  बढ़ते प्रदूषण, बिगड़ते पर्यावरण, मनुष्य की प्रकृति से लगातार बढती दूरी की वजह से मैं कब आता हूँ कब चला जाता हूँ किसी को पता ही नहीं चलता। आज मेरा आपके पास आने का यही मकसद था कि अब वक्त है गहन चिंतन का, लोगों को अपने पर्यावरण, अपने परिवेश, अपनी प्रकृति, अपने माहौल के प्रति जागरूक करने का,  अपने त्योहारों, उनकी विशेषताओं,  उनकी उपयोगिताओं,  को बताने का, समझाने का। जिससे आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। 

कमरे में पूरी तरह निस्तबधता छा गयी। विषय की गंभीरता के कारण मैं पता नहीं कहाँ खो गया ! पता नहीं ऐसे में कितना वक्त निकल गया !  तभी श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी कि रात सोने के पहले तो अपना सामान संभाल लिया करो।  कंप्यूटर अभी भी चल रहा है, कागज बिखरे पड़े हैं, फिर कुछ इधर-उधर होता है तो मेरे पर चिल्लाते हो। हड़बड़ा कर उठा तो देखा आठ बज रहे थे।  सूर्य निकलने के बावजूद धुंध, धुएं, कोहरे के कारण पूरी तरह रौशनी नहीं हो पा रही थी। मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, कमरे में हम दोनों के सिवाय और कोई नहीं था। पर जो भी घटित हुआ था, वह सब मुझे अच्छी तरह याद था। मन यह मानने को कतई  राजी नहीं था कि मैंने जो देखा, महसूस किया, बातें कीं, वह सब भ्रम था ! कमरे में फैली वह सुबह वाली हल्की सी सुवास मुझे अभी भी किसी की उपस्थिति महसूस जो करवा रही थी !!

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

एक है, #सफदरजंग_रेलवे_स्टेशन

दिल्ली का सफदरजंग रेलवे स्टेशन ऐसी ही एक जगह है, जिसका पहुँच मार्ग, पार्किंग, प्रवेश पथ व एक नंबर प्लेटफार्म, काफी साफ़-सुथरे और खुले-खुले है पर यदि आप पहली बार यहां से गाडी पकड़ने जा रहे हैं तो कुछ ज्यादा समय हाथ में लेकर निकलें। क्योंकि रेलवे की ओर से इसकी निशानदेही ढंग से नहीं की गयी है,  रिंग रोड पर तो छोड़िए, मोतीबाग तक पहुँच कर भी आप को पता नहीं चलेगा कि आपका गंतव्य कहाँ है.......!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है वैसे-वैसे हर व्यवस्था चरमराने लगी है। विडंबना यह है की मूल समस्या पर ध्यान ना दे पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इन गड़बड़ाती व्यवस्थाओं से रेल भी नहीं बच पाई है या कहा जाए तो वह ही सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली व्यवस्थाओं में सर्वोपरि है। बढ़ती भीड़, कम जगह, काम टालने की प्रवृत्ति, चरमराती प्रणाली, सबने मिल कर इस सबसे जरुरी सेवा को पंगु सा बना दिया है। आप किसी भी बड़े शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन पर चले जाइये, अराजकता की हद देखने को मिल जाएगी। मेट्रो शहरों का तो और भी बुरा हाल है, चाहे कोलकाता हो, मुंबई हो या फिर हमारी राजधानी !


आबादी के विस्फोट से दुविधाग्रस्त हो, जनता की मुसीबतों को नजरंदाज कर, रेलवे ने मेट्रो और उन जैसे बड़े शहरों के मुख्य स्टेशनों के अलावा वहाँ के उपनगरीय छोटे स्टेशनों से भी लम्बी दूरी की गाड़ियां चलाना शुरू कर खुद को राहत देने का काम तो किया पर इससे मुसाफिरों की  मुसीबतें और बढ़ गयीं। ऐसे ज्यादातर स्टेशनों पर मूलभूत सुविधाओं का तो सरासर अभाव है ही, कइयों का तो पहुँचने का मार्ग खुद अपने आप में समस्या है, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया। ये स्टेशन लोकल ट्रेनों के लिहाज से बनाए गए थे सो इनकी लम्बाई भी कम थी, जबकि मेल-एक्सप्रेस गाड़ियों में, यात्रियों की संख्या में बढ़ोत्तरी के मद्देनजर डिब्बों की संख्या बढ़ाई जा चुकी है। अब होता यह है कि ऐसे उपनगरीय स्टेशनों पर आगे और पीछे के कई-कई डिब्बे प्लेटफार्म के बाहर ही रह जाते हैं जिससे यात्रियों, खासकर दिव्यांगों, उम्रदराज, बच्चों और महिलाओं की असुविधा की कल्पना ही की जा सकती है। 




दिल्ली का सफदरजंग रेलवे स्टेशन ऐसी ही एक जगह है। यहां से अब लोकल गाड़ियों को छोड़ लम्बी दूरी की करीब चौदह गाड़ियों के अलावा रेलवे की गौरव "हेरिटेज ट्रेन" भी गुजरने लगी है। इसका पहुँच मार्ग, पार्किंग, प्रवेश पथ व एक नंबर प्लेटफार्म भी काफी साफ़-सुथरे और खुले-खुले हैं: पर यदि आप पहली बार यहां से गाडी पकड़ने जा रहे हैं तो कुछ ज्यादा समय हाथ में लेकर निकलें। क्योंकि इसकी निशानदेही रेलवे की ओर से ढंग से नहीं की गयी है। रिंग रोड पर तो छोड़िए, मोतीबाग तक पहुँच कर भी आप को पता नहीं चलेगा कि आपका गंतव्य कहाँ है। सफदरजंग फ्लाई-ओवर के पास एक छोटा सा बोर्ड जरूर है पर वह आसानी से ध्यान से ओझल हो जाता है और लोग पुल के ऊपर से दूसरी ओर चले जाते हैं फिर लौट कर आने को ! अब तो खैर लोगों को पता चल गया है पर इंडिकेटरों की जरुरत तो है ही। इसके अलावा सालों से एक और दो नंबर प्लेटफार्मों को जोड़ने वाला दूसरा उड़न पैदल पथ बना, नाहीं प्लेटफार्म की लम्बाई बढाई गयी है जिससे बाहर ही रह गए डिब्बों से उतरने वाले मुसाफिर को जोखिम लेकर उतरना पड़ता है ! मुख्य प्लेटफार्म पर भी बोगियों की जानकारी के लिए इंडिकेटर या कोई बताने वाला नहीं है। गाडी यहां से चलती नहीं है पीछे से आती है इसलिए स्टापेज का समय भी सिमित होता है ऐसे में यदि आपको अपनी बोगी के स्थान का पता ना हो तो बेकार में रक्त-चाप बढ़ने की स्थिति आ जाती है, खासकर तब जब साथ में बुजुर्ग और बच्चे हों। प्लेटफार्म 2-3 तो अभी भी जर्जरावस्था में ही है।  यदि किसी दिन इस पर किसी मेल या एक्सप्रेस गाडी को आना पड़ जाए तो उसके मुसाफिरों की मुसीबत का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। सुरक्षा व्यवस्था भी ना के बराबर ही समझें। एक स्कैनर मुख्य द्वार पर जरूर लगा हुआ है पर अधिकाँश लोग स्टेशन के किनारे खुले मार्ग से ही अंदर आ जाते है।


गाड़ियों को डायवर्ट करने या किसी छोटे स्टेशन से उसे चलाने के पहले वहाँ से जाने वाले यात्रियों की सुविधा पर पूरा ध्यान देने की आवश्यकता होती है। क्योंकि उन्हीं की बदौलत रेलें चलती हैं पर इसी ओर सुविधा-भोगी रेल अफसरों का ध्यान सबसे कम जाता है। 

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

अनजाने में जूते हमारी बिमारी का कारण तो नहीं बन रहे....!

बहुत से लोगों को कहते सुना है कि पता नहीं क्यों हजार उपायों के बावजूद हमारे घर में कोई ना कोई किसी ना किसी व्याधि से पीड़ित ही रहता है। ऐसे लोगों का ध्यान अपनी इस आदत की ओर नहीं जाता कि  जिन जूतों इत्यादि को पहन कर वे दिन भर बाहर घूमते हैं उनमें सड़क की तरह-तरह की गंदगी, कीटाणु, विषैले पदार्थ चिपक जाते हैं जो घर के बाहर जूते ना उतारने से घर के अंदर तक पहुँच वहाँ के वातावरण में घुल-मिल कर उनका कितना नुक्सान करते हैं........

#हिन्दी_ब्लागिंग 
कुछ दिनों पहले मेरे एक बचपन के मित्र, जिनका व्यवसाय विदेशों तक में फैला हुआ है, घर आए। पर कमरे में प्रवेश करने के पहले, मेरे बहुत मना करने के बावजूद, उन्होंने अपने जूते द्वार उतार दिए। यह बचपन की ही सीख का नतीजा था कि घर चाहे किसी का भी हो उसे साफ़-सुथरा रखना चाहिए। ऐसे घर में ही बरकत रहती है। यह बात वे कभी भी नहीं भूलते, आदत बना लिया है इस को और इसका फल उनकी जीवन शैली को देख कर समझा जा सकता है।

भले ही आज की कीमती जूते-चप्पल पहनने वाली पीढ़ी इस बात को ना माने या समझे, पर यह साइंटिफिक फैक्ट है कि जूते-चप्पल से संबंधित कुछ बातों का ध्यान न रखने पर बहुत सारी अनचाही समस्याओं से रूबरू
होना पड़ता है। यदि वास्तु या ज्योतिष को किनारे कर दिया जाए तो भी यह तो सामान्य ज्ञान की बात है कि जिन जूतों इत्यादि को आप पहन कर दिन भर बाहर घूमते हैं उनमें सड़क की तरह-तरह की गंदगी, कीटाणु, विषैले पदार्थ चिपक जाते हैं जो यदि घर के बाहर जूते ना उतारे जाएं तो घर के अंदर तक पहुँच वहाँ के वातावरण में घुल-मिल कर हमारा नुक्सान ही करते हैं। बहुत से लोगों को कहते सुना है कि पता नहीं क्यों हजार उपायों के बावजूद हमारे घर में कोई ना कोई किसी ना किसी व्याधि से पीड़ित ही रहता है। ऐसे लोगों का ध्यान अपनी इस आदत की ओर नहीं जाता। 

होना तो यह चाहिए कि, घर का हर सदस्य बाहर से आते समय घर के दरवाजे पर ही जूते-चप्पल, उतार दे। इससे बाहरी गंदगी, धूल, कीटाणु इत्यादि घर में नहीं आते। घर साफ-सुथरा रहता है। मुख्य द्वार पर एक पांव-पोछ जरूर हो,ना चाहिए, जिससे कम से कम जूते कुछ तो साफ़ हो सकें। शास्त्रों के अनुसार घर में नंगे पैर ही रहना चाहिए क्योंकि घर में कई स्थान देवी-देवताओं से संबंधित होते हैं उनके आसपास जूते-चप्पल लेकर जाना शुभ नहीं माना जाता है, पर यदि बिना कुछ पैरों में पहने रहा ही ना जा सके, तो घर के लिए एक अलग स्लीपर रख लें। जूते रखने का एक स्थान निश्चित करें, जहां परिवार के सभी सदस्य सलीके से अपने जूते
पहनें और उतारें। इसके लिए दरवाजे के पास एक शू-रैक रखी जा सकती है। पर ध्यान रहे वह ईशान-कोण में नहीं होनी  चाहिए। वैसे तो यह हमारी काफी प्राचीन  परंपरा रही है पर आजकल के फैशन ने उसे धीरे-धीरे हाशिए पर ला धरा है। द्वार पर जूते उतरना आधुनिकता नहीं मानी जाती। पर उसके परिणाम तो भुगतने ही  पड़ते हैं। 


ज्योतिष के अनुसार शनि को पैरों का कारक माना गया है जिन लोगों के घर में जूते इधर-उधर बिखरे रहते हैं, वहां शनि की अशुभता का प्रभाव रहता है। इसलिए पैरों से संबंध रखने वाली किसी भी वस्तु को साफ़-सुथरा
और यथाक्रम रखना चाहिए। टूटे-फूटे जूते-चप्पल नहीं पहनने चाहिए इससे दुर्भाग्य बढ़ता है। साफ-सुथरे और सुंदर फुटवियर पहनने से सौभाग्य सदा बना रहता है। जूते-चप्पल पहनकर कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए। इससे भी दुर्भाग्य में वृद्धि होती है। 

घर का सबसे शुद्ध व साफ़ हिस्सा रसोई का होता है। पहले यहां की बनावट कुछ और होती थी उस समय तो यहां नंगे पैर ही प्रवेश किया जाता था। पर आजकल समय के साथ यहां भी बदलाव आ गया है, फिर भी शुद्धता का ध्यान रखते हुए इसके लिए अलग स्लीपर की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए। बाथरूम और रसोई के स्लीपरों का अलग-अलग होना हर लिहाज से जरूरी है। रसोई व्यवस्थित, शुद्ध और साफ-सुथरी होनी चाहिए। ऐसी रसोई में देवी-देवता अपना स्थाई वास बना लेते हैं जिससे घर में कभी भी निरोगिता, धन, सकारात्मकता और सुख-समृद्धि की कमी नहीं रहती। 
घर जितना शुद्ध रहेगा उतना ही घर में लक्ष्मी का वास बना रहेगा।

वास्तु शास्त्र में जूतों से संबंधित ऐसी बातें बताई गई है जिनका पालन करने से घर में प्रवेश होने वाली नकारात्मक ऊर्जा दूर रहती है और घर में सुख-शांति बनी रहती है। उपयोग में आने वाले जूते-चप्पल को एक
व्यवस्थित ढंग से, उचित स्थान पर हमेशा पश्चिम की ओर ही रखना चाहिए। जो जूते चप्पल काम के न हों उन्हें घर में ना रखें उन्हें किसी गरीब को दे दें। ऐसा करने से शनि देव का प्रकोप भी कम होता है । पुराने जूते चप्पल रखने से घर में नकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है और आपके घर से समस्याऐं जाने का नाम ही नहीं लेती हैं। परिवार के अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि घर में पूरी तरह साफ-सफाई रहे, गंदगी न हो, धूल-मिट्टी हो। गंदगी के कारण हमारे स्वास्थ्य को तो नुकसान है साथ ही इससे हमारी आर्थिक स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

इंसुलिन प्लांट

विशेषज्ञों के अनुसार डाइबटीज टू से पीड़ित रोगियों की संख्या करीब 80 प्रतिशत है और इनके लिए "इंसुलिन प्लांट" बहुत ही कारगर साबित हुआ है। इसके पत्तों का नियमित रूप से सेवन करने से पैंक्रियाज में हॉर्मोन बनाने वाली ग्रंथि के बीटा सेल्स मजबूत होते हैं। जिसके परिणामस्वरूप पैंक्रियाज ज्यादा मात्रा में इंसुलिन बनाता है, जिसके चलते अतिरिक्त दवा की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती.........!
#हिन्दी_ब्लागिंग 
इस बार रेल यात्रा के दौरान श्रीमती जी को डायबिटीज की गोलियां वगैरह गटकते देख एक सहयात्री संजय बाघमारे जी से संवादों के साथ आत्मीयता हो गयी। उनकी उम्र 40-42 की होगी और वे इस बिमारी को पिछले आठ साल से झेल रहे थे। वे एक डायबिटीज ग्रुप के सदस्य थे और इस तरह इस बिमारी की हर ताजा खबर से अवगत होते रहते थे। उन्हीं ने एक पौधे  के  बारे में जानकारी दी जो दवाई के रूप में इस बिमारी में बहुत ही लोकप्रिय हो रहा है, नाम है उसका, इंसुलिन प्लांट (costus igneus)। हिंदी में इसे जारूल या केऊकंद के नाम से जाना जाता है। 

वैसे तो हर "पैथी" मधुमेह के इलाज का दावा करती है, पर शायद सच्चाई यही है कि इसे ताउम्र साथ पालना
पड़ता है। हाँ खान-पान और संयमित जीवन-यापन से इस पर नियंत्रण रखा जा सकता है और इसी में सहायता करता है यह पौधा। आधुनिक विज्ञान भी इस इंसुलिन के पौधे के गुणों पर अपनी मुहर लगा चुका है। कहते हैं, इस हर्बल पौधे के पत्तियों का सेवन करने से हाइ डाइबटीज को भी अपने नियंत्रण में किया जा सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इसे किसी भी अच्छी नर्सरी से ला कर आसानी से घर में गमले इत्यादि में लगाया जा सकता है।  

जैसा कि सब जानते हैं कि डाइबटीज दो प्रकार की होती है। एक टाइप वन व दूसरी टाइप टू डाइबटीज। टाइप वन डाइबटीज के अंतर्गत रोगी का शरीर इंसुलिन हार्मोन नहीं बना पाता। इसलिए उस व्यक्ति को ताउम्र इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है। पर कुछ संतोष की बात यह है कि डाइबटीज के करीब 10 प्रतिशत
रोगियों में ही टाइप वन पाया जाता है। वहीं दूसरी ओर टाइप टू डाइबटीज के अंतर्गत व्यक्ति का शरीर इंसुलिन तो बनाता है लेकिन उसकी मात्रा पर्याप्त नहीं होती। इन रोगियों के ही शरीर में दवा या इंजेक्शन, के जरिए इंसुलिन पहुंचाया जाया है। विशेषज्ञों के अनुसार डाइबटीज टू से पीड़ित रोगियों की संख्या करीब 80 प्रतिशत है और इनके लिए "इंसुलिन प्लांट" बहुत ही कारगर साबित हुआ है। इसके पत्तों का नियमित रूप से सेवन करने से पैंक्रियाज में हॉर्मोन बनाने वाली ग्रंथि के बीटा सेल्स मजबूत होते हैं। जिसके परिणामस्वरूप पैंक्रियाज ज्यादा मात्रा में इंसुलिन बनाता है, जिसके चलते अतिरिक्त दवा की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।

इंसुलिन पौधा प्रकृति की ओर से मधुमेह के रोगियों को एक अनमोल उपहार है। रोज इसकी एक-दो पत्तियां, जिनमें कोरोलोसिक एसिड होता है, खा लेने से ही इस ढीठ रोग को तो नियंत्रण में रखा ही जा सकता है साथ ही ब्लड शुगर भी नियंत्रित रहती है। पर दावे चाहे कितने भी लुभावने हों कुछ भी शुरू करने से पहले डॉक्टर की सलाह जरूर ले लेनी चाहिए।  

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