मंगलवार, 11 जुलाई 2017

"हाइफा" के वीरों की तीन मूर्तियां

जोधपुर व मैसूर के सैनिकों ने हाइफा में सिर्फ तलवारों और भालों से दुश्मन की मशीनगनों का सामना करते हुए अप्रतिम वीरता के साथ शहर की रक्षा तो की ही साथ ही दुश्मन के एक हजार से ऊपर सैनिकों को बंदी भी बना लिया। दिल्ली में भी उनकी याद में तीन मूर्ति भवन के सामने के चौराहे पर कांसे की आदमकद, सावधान की मुद्रा में हाथ में झंडा थामे तीन सैनिकोँ की खडी मूर्तियों का स्मारक बनाया गया है...

इस बार जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  इजरायल के दौरे पर गए, जो देश के किसी भी प्रधान मंत्री का वहां का पहला
दौरा था, तो उन्होंने ने वहां के शहर हाइफा जा कर भारतीय सैनिकों को भी श्रद्धांजलि प्रदान की। इस दौरे की मीडिया में काफी चर्चा रही थी। पहले विश्व युद्ध में मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के सैनिकों को अंग्रेजों की ओर
से युद्ध के लिए तुर्की भेजा गया था। जिसमे जोधपुर व मैसूर के सैनिकों ने इसी जगह सिर्फ तलवारों और भालों से दुश्मन की मशीनगनों का सामना करते हुए अप्रतिम वीरता दिखाते हुए शहर की रक्षा तो की ही साथ ही दुश्मन के एक हजार से ऊपर सैनिकों को बंदी भी बना लिया। हाइफा में लड़े गए युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में वहाँ तो यादगार स्थल बना ही है, अपने यहां दिल्ली में भी उनकी याद में तीन मूर्ति भवन के सामने के चौराहे पर तीन सैनिकोँ की    

खडी मूर्तियों का स्मारक बनाया गया है। ये कांसे की आदमकद, सावधान की मुद्रा में हाथ में झंडा थामे तीन मूर्तियां आज भी खडी हैं। यहाँ से हजारों लोग रोज गुजरते हैं, बाहर से दिल्ली दर्शन को आने वाले पर्यटक भी इस भवन को देखने आते हैं पर इन मूर्तियों के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। हालांकि इन मूर्तियों का परिचय उनके नीचे लगे शिला लेख में अंकित है, फिर भी अधिकाँश लोगों ने मूर्तियों को भवन का एक अंग समझ कभी उनके बारे में  जानकारी लेने की जहमत नहीं उठाई। वर्षों पहले इस जगह बीहड़ जंगल हुआ करता था. शाम ढलते ही किसी की इधर आने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पूरा वन-प्रदेश जंगली जानवरों से भरा पडा था। करीब छह सौ साल पहले जब दिल्ली पर मुहम्मद तुगलक का राज्य था तब यह जगह उसकी प्रिय शिकार गाह हुआ करती थी। शिकार के लिए उसने पक्के मचानों का भी निर्माण करवाया था जिनके टूटे-फूटे अवशेष अभी भी वहाँ दिख जाते हैं। समय ने पलटा खाया। देश पर अंग्रजों ने हुकूमत हासिल
कर ली. 1922 में इस तीन मूर्ति स्मारक की स्थापना हुई।  उसके सात साल बाद 1930 में राष्ट्रपति भवन के दक्षिणी हिस्से की तरफ उसी जगह राबर्ट रसल द्वारा एक भव्य भवन का निर्माण, ब्रिटिश "कमांडर इन चीफ" के लिए किया गया. उस समय इसे "फ्लैग-स्टाफ़-हाउस" के नाम से जाना जाता था। जिसे  आजादी के बाद  सर्व-सम्मति से भारत के प्रधान मंत्री का  निवास  बनने का गौरव प्राप्त हुआ और उसका नया नाम बाहर बनी तीन मूर्तियों को ध्यान में रख तीन मूर्ति भवन रख दिया गया। दिल्ली का तीन मूर्ति भवन. देश के स्वतंत्र होने के बाद भारत के प्रधान मंत्री का सरकारी निवास स्थान था, पर प्रधान मंत्री का घोषित निवास स्थान होने के बावजूद इसमें देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ही रहे, उनके निधन के बाद इसे नेहरू स्मारक तथा संग्रहालय बना दिया गया।  
#हिन्दी_ब्लागिंग 

12 टिप्‍पणियां:

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर जानकारी.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

धन्यवाद, राजीव जी

yashoda Agrawal ने कहा…

शुभ संध्या गगन भाई
रुचिकर जानकारी
शहीदों को सादर नमन

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

नवीन जानकारी.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

हाईफ़ा पर विस्तृत जानकारी दी आपने, आभार.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

यशोदा जी, 'कुछ अलग सा' पर आपका सदा स्वागत है।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हमवतन, भारतीय नागरिक को हार्दिक धन्यवाद :-)

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ताऊ जी,
स्नेह बना रहे

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
आभार
आज तो खबरों में खटिमा का भी जिक्र था, मालगाड़ी के सन्दर्भ में

Archana Chaoji ने कहा…

नई जानकारी ,आजकल जिज्ञासा ही नहीं रही कुछ ऐसा जानने की ,बस मूर्ति देखी,तो नाम होगा से आगे कोई जानना नहीं चाहता, कभी यहां के सैनिक बाहर जाकर लड़े और उन्हें याद किया जाता है,सामान्य सी जानकारी मुझे भी नहीं थी ....

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अर्चना जी
विडंबना ही तो है, किसी के पास समय ही नहीं रह गया है ऐसी ''फिजूल'' बातों पर ध्यान देने का !

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