सोमवार, 31 जुलाई 2017

"महामृत्युंजय मंत्र"

जैसे देवों के देव् महादेव हैं वैसा ही मंत्रों में सबसे शक्तिशाली उनका मंत्र "महामृत्युंजय मंत्र" है। इसके जाप से भोलेनाथ प्रसन्न हो जाते हैं। मान्यता और आस्था है कि इसका जाप करने से अकाल मृत्यु टल जाती है, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की कृपा से जीवन पा लेता है.....

सावन के पावन माह का सोमवार है। प्रभू शिव का दिवस। जैसे देवों के देव् महादेव हैं वैसा ही मंत्रों में सबसे शक्तिशाली उनका मंत्र "महामृत्युंजय मंत्र" है। इसके जाप से भोलेनाथ प्रसन्न हो जाते हैं। मान्यता और आस्था है कि इसका जाप करने से अकाल मृत्यु टल जाती है,  मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की कृपा से जीवन पा लेता है। बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के प्रभावों से दूर करने, मौत को टालने और आयु बढ़ाने के लिए महामृत्युंजय मंत्र जप करने का विधान है। महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है, लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियां बरतनी चाहिएं, जैसे - 
महाम़त्युंजय मंत्र का जाप करते समय उसके उच्चारण ठीक ढंग से यानि शुद्ध रूप से होना चाहिए । 
इस मंत्र का जाप एक निश्चित संख्या का  निर्धारण कर करना चाहिए। 
मंत्र का जाप करते मन में या धीमे स्वर में करना चाहिए।  
मंत्र पाठ के समय माहौल शुद्ध होना चाहिए।  
इस मंत्र का जाप रुद्राक्ष की  माला से करना अच्छा माना जाता है। 

खुद पर पूरा भरोसा ना हो तो किसी विद्वान पंडित से ही इसका जाप करवाया जाए तो लाभप्रद रहता है। कारण हमारे मंत्र और श्लोक इत्यादि अपने में गुढार्थ लिए होते हैं। इनका उपयोग करने की शर्त होती है कि इनका उच्चारण शुद्ध और साफ होना साहिए। बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं जो उन्हें पढने या जाप करने के साथ-साथ उसका अर्थ भी पूरी तरह जानते हों, नहीं तो मेरे जैसे, जैसा रटवा दिया गया या पढ-सीख लिया उसका वैसे ही परायण कर लेते हैं।              

रही बात "महामृत्युंजय मंत्र" की तो कादम्बिनी पत्रिका मे डा.एस.के.आर्य जी द्वारा इस मंत्र का भावार्थ पढ़ने को मिला था, सबके हित के लिए उसे यहां दे रहा हूं।


"ओ3म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।                             
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माsमृतात्।।"

भावार्थ :- हम लोग, जो शुद्ध गंधयुक्त शरीर, आत्मा, बल को बढाने वाला रुद्र्रूप जगदीश्वर है, उसी की स्तुति करें। उसकी कृपा से जैसे खरबूजा पकने के बाद लता बंधन से छूटकर अमृत तुल्य होता है, वैसे ही हम लोग भी प्राण और शरीर के वियोग से छूट जाएं, लेकिन अमृतरुपी मोक्ष सुख से कभी भी अलग ना होवें। हे प्रभो! उत्तम गंधयुक्त, रक्षक स्वामी, सबके अध्यक्ष हम आपका निरंतर ध्यान करें, ताकि लता के बंधन से छूटे पके अमृतस्वरूप खरबूजे के तुल्य इस शरीर से तो छूट जाएं, परंतु मोक्ष सुख, सत्य धर्म के फल से कभी ना छूटें।

#हिन्दी_ब्लागिंग 

बुधवार, 26 जुलाई 2017

रचना तो छपी, पर चेक बाउंस हो गया !

करीब एक महीने बाद डाक द्वारा एक चेक आया, जाहिर है अच्छा लगना ही  था, एक - दो दिन बाद उसे बैंक में डाल उसके कैश  होने का  इंतजार  कर ही रहा था  कि दो-तीन  दिन बाद  डाकिए ने फिर  आवाज लगाईं, अपन को लगा, ले भाई दूसरा मेहनताना भी आ गया। खोला तो चेक जरूर था पर पहले वाला ही, जो बैंक द्वारा "उछाल" कर वापस भेज दिया गया था.....................

आजकल हर समाचार पत्र समूह अपने को देश का नंबर एक,  सबसे विश्वसनीय, सबसे तेज आदि-आदि घोषित करता रहता है। तक़रीबन यह सबकी "टैग लाइन" में सम्मिलित  होता है।  जबकि असलियत   तो अब किसी से छिपी हुई भी नहीं है।  खैर पिछले  दिनों एक ऐसे ही  समूह की पत्रिका में मेरी भी  एक  रचना छप गयी।   बीसेक दिन बाद एक फोन आया कि मैं फलां-फलां से फलां-फलां बोल रहा हूँ, आपकी  एक रचना हमारी  पत्रिका में छपी थी उसी सिलसिले में आपकी और आपके एड्रेस की 'कन्फर्मेशन'  चाहिए थी! मैंने कहा हाँ भाई मैं ही वह  फलाना आदमी हूँ।        

फिर महीना भर बीत गया, कोई ऊँध-सूँध नहीं !  इसी बीच एक और  रचना   छप कर आ गयी।     मैंने भी सोचा छप गयी सो छप गयी। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है ! पैसे - वैसे  के मामले  में ये लोग कुछ ज्यादा ही "विश्वसनीय" होते हैं ! बात आयी गयी हो गयी। 

इसके करीब एक महीने बाद डाक द्वारा एक चेक आया, जाहिर है अच्छा लगना ही  था, एक - दो दिन बाद उसे बैंक में डाल उसके कैश  होने का  इंतजार  कर ही रहा था  कि दो-तीन  दिन बाद  डाकिए ने फिर  आवाज लगाईं, अपन को लगा, ले भाई दूसरा मेहनताना भी आ गया। खोला तो चेक जरूर था पर पहले वाला ही, जो बैंक द्वारा "उछाल" कर वापस भेज दिया गया था........ कारण, उन महानुभावों के दस्तखत जो चेक पर थे  उनका मिलान नहीं हो पाना था ! अब.....!     पहले कभी ऐसे  "हादसे"  से पाला नहीं पड़ा था, सो सौजन्यवश पहले  इस सब से संबंधित  भले  लोगों को   खबर करने के लिए   उनका पता ढूंढना शुरू   किया।    आजकल हर बड़ा पत्र खुद को "राष्ट्रीय" दिखलाने के चक्कर में हर बड़े शहर से अपना पर्चा निकालने लगा है, भले ही वहाँ वह रैपर के काम में ही ज्यादा आता हो ! 
इसी चक्कर में पहले   उसके मुख्यालय    से फोन   जोड़ा  तो वहाँ उपस्थित महिला ने बिना पूरी बात सुने सिर्फ पत्रिका का नाम सुन, फोन कहीं और  ट्रांसफर कर दिया, वहाँ    अपना  दुखड़ा बताने पर वहाँ से बताया गया कि पत्रिका जरूर यहां से छपती है पर भुगतान मुख्यालय से किया जाता है, मैंने कहा वहीँ से मुझे इधर धकेला गया है ! जवाब मिला आपको वहीँ फिर बात करनी होगी ! दोबारा पहली जगह   फोन लगते ही मैंने उस भली महिला से कहा कि बिना पूरी बात सुने आप बटन क्यों दबा देती हैं ?  पता नहीं घर से लड़ कर आई थी या आदत ही ऐसी थी बावली बूच की, कहने लगी, सबेरे  से इतने फोन आते हैं,  किस-किस की   पूरी बात सुनूं ?    मैंने कहा कि यह क्या बात हुई, बिना पूरी बात सुने आप कैसे कहीं भी फोन ट्रांसफर कर सकती हैं ?   मेरा चेक बाउंस हुआ है, मुझे उसकी खबर देनी है ! जवाब क्या दिया महिला  ने, मैंने थोड़े ही आपका चेक बाउंस किया है ? भेजा सटक तो रहा था, लग रहा था मैंने ही गुनाह किया है। फिर भी कहा एकाउंट  डिपार्टमेंट से बात करवाइये।   वहाँ भी कुछ हलके तरीके से ही बात ली जा रही थी कि चेक वापस भेज दीजिए दूसरा भिजवा   दिया जाएगा।   मैंने फोन रख दिया।  
कहाँ मैं सोच रहा था कि बेकार में ही किसी को नुक्सान न हो इसलिए पहले संबंधित व्यक्ति को ही खबर करनी चाहिए पर यहाँ तो जैसे ये रोजमर्रा की आदत थी ! अब मैंने सीधे संचालक को ही पत्र लिखने के लिए उसका इ-मेल तलाशा, पर उसकी बायोग्राफी, उसकी पारिवारिक गाथा जरूर मिली पर वह नहीं मिला जो मैं खोज रहा था। दिमाग की सटकन बढ़ती जा रही थी, कुछ कर ही डालने का मन होता जा रहा था। तभी दूसरे दिन एक फोन आया, जिसमें अपनी गलती मानते हुए बार-बार क्षमा मांगी जा रही थी। अपन कौन से किसी से लड़ने के लिए ही बैठे रहते हैं। सो सुलह-सफाई हो गयी। चेक वापस भेज दिया। जब आना हो आ जाएगा। 

यह सब तो हो गया पर एक बात समझ में नहीं आई ! गलती करे कोई, भरे कोई !!  बैंक तो ताड़ में बैठे ही रहते हैं कि मुर्गा कोई गलती करे और उसका गला काटें, तो उसने मुझे जो रजिस्ट्रर्ड खत भेजा और मैंने जो चेक कुरियर से वापस किया, इन सब का जुर्माना तो मुझे ही चुकाना होगा ! क्यों ? ..................      
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सोमवार, 24 जुलाई 2017

सिर्फ प्रवेश ना करने देने से ही शिवजी ने बालक का वध नहीं किया होगा

शिवजी पर गहरी आस्था होने के कारण श्री गणेश जन्म की इस कथा पर सदा मन में एक  उहा-पोह मची रहती थी, पता नहीं क्यों लगता रहता था कि सिर्फ गृह-प्रवेश से रोकने पर ही प्रभू ने उस  बालक का वध  नहीं किया होगा, उसका कोई न कोई और ठोस कारण जरूर होगा ! पांचेक साल पहले मन को मथती इसी सोच को एक पोस्ट का रुप दिया था। मेरा ध्येय किसी की आस्था या धारणा को ठेस पहुँचाना नहीं है इसलिए इसे अन्यथा ना लें। सावन माह है, सोमवार भी है। एक बार फिर उसी रचना को पोस्ट किया है। दोस्त-मित्रों से उनकी राय का इंतजार करते हुए  ..... 


शिवजी मेरे इष्ट हैं, उनमें मेरी गहरी और अटूट आस्था है। उनकी कृपा मेरे पर सदा रही है, जो एकाधिक घटनाओं में फलीभूत होती महसूस भी हुई है। दुनिया जानती और मानती है कि वे देवों के देव हैं, महादेव हैं। भूत-वर्तमान-भविष्य सब उनकी मर्जी से घटित होता है। वे त्रिकालदर्शी हैं। भोले-भंडारी हैं। योगी हैं।  दया के सागर हैं। वैद्यनाथ हैं। आशुतोष हैं।  
असुरों, मनुष्यों यहां तक कि बड़े-बड़े पापियों को भी उन्होंने क्षमा-दान दिया है। बिना किसी भेद-भाव के सदा सुपात्र को वरदान प्रदान किया है। उनके हर कार्य में, इच्छा में, परमार्थ ही रहता है। इसीलिए लगता नहीं है कि सिर्फ प्रवेश ना करने देने की हठधर्मिता के कारण उन्होंने एक बालक का वध कर दिया होगा। जरूर कोई ठोस वजह इस घटना का कारण रही होगी। उन्होँने जो भी किया होगा, वह सब सोच-समझ कर जगत की भलाई के लिए ही किया होगा। 


घटना श्री गणेशजी के जन्म से संबंधित है, तथा कमोबेश अधिकाँश लोगों  को मालुम भी है कि
कैसे अपने स्नान के वक्त माता पार्वती ने अपने उबटन से एक बालक की आकृति बना उसमें जीवन का संचार कर अपने द्वार की रक्षा करने हेतु कहा था और शिवजी ने गृह-प्रवेश ना करने देने के कारण उसका मस्तक काट दिया था। क्योंकि उन्हें
 उस छोटे से बालक के "यंत्रवत व्यवहार" में इतना गुस्सा, दुराग्रह और हठधर्मिता देखी थी, जिसकी वजह से उन्हें उसके भविष्य के स्वरूप को ले चिंता हो गयी थी। उन्हें लग रहा था कि ऐसा बालक बड़ा हो कर देवलोक और पृथ्वी लोक के लिए मुश्किलें ना खड़ी कर दे ! 


भगवान शिव तो वैद्यनाथ हैं। उन्होंने बालक के मस्तक यानि दिमाग में ही आमूल-चूल परिवर्तन कर ड़ाला। एक उग्र, यंत्रवत, विवेकहीन मस्तिष्क की जगह  एक धैर्यवान,  विवेकशील, शांत,
विचारशील, तीव्रबुद्धी, न्यायप्रिय, प्रत्युत्पन्न, ज्ञानवान, बुद्धिमान, संयमित मेधा का प्रत्यारोपण कर उस बालक को एक अलग पहचान दे दी।
 उन्होंने उस बालक के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल देने का निर्णय लिया था। 

पर अपनी रचना का ऐसा हश्र देख अत्यंत क्रोधित माता गौरी इतने से ही संतुष्ट नहीं हुईं, उन्होंने उस बालक को देव लोक में उचित सम्मान दिलवाने की मांग रख दी। शिवजी पेशोपेश में पड़ गये पर पार्वतीजी का अनुरोध भी वे टाल नहीं पा रहे थे, सो उन्होंने और उनके साथ-साथ अन्य देवताओं ने भी अपनी-अपनी शक्तियां उस बालक को प्रदान कीं। जिससे हर विधा विवेक, संयम आदि गुणों ने उसे इतना सक्षम बना दिया कि महऋषि वेद व्यास को भी अपने महान, वृहद तथा अत्यंत जटिल महाकाव्य महाभारत की रचना के वक्त उसी बालक की सहायता लेनी पड़ी।


सरल ह्रदय, तुरंत प्रसन्न हो जाने, सदा अपने भक्तों के साथ रह उनके विघ्नों का नाश करने के गुणों के कारण ही आज श्री गणेश अबाल-वृद्ध, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सब के दिलों में समान रूप से विराजते हैं। वे गणों के  ईश हैं, ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं, इतने रहम दिल हैं कि मूषक जैसे तुच्छ प्राणी को भी जग में प्रतिष्ठा  दिलवाई है। आज देश के पहले पांच लोकप्रिय देवों में उनका स्थान है।  इतनी लोकप्रियता किसी और देवता को शायद ही  प्राप्त हुई हो। इतनी उपलब्धि क्या उस बालक को मिल पाती ? क्या ऐसा ही हुआ होगा ?
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मंगलवार, 18 जुलाई 2017

ललिता का बेटा

बिना किसी अपेक्षा के, अपनी अंतरात्मा की आवाज पर, निस्वार्थ भाव से किसी के लिए किया गया कोई भी कर्म जिंदगी भर संतोष प्रदान करता रहता है।  यह रचना काल्पनिक नहीं बल्कि सत्य पर आधारित है। श्रीमती जी शिक्षिका रह चुकी हैं। उनका एक अनुभव उन्हीं के शब्दों में  ....

काफी पुरानी बात है, उस समय कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली स्कूली दुकानें नहीं खुली थीं। हमारा विद्यालय भी एक संस्था द्वारा संचालित था जहां योग्यता के अनुसार दाखिला किया जाता था। यहां की सबसे अच्छी बात थी कि स्कूल में समाज के हर दर्जे के परिवार के बच्चे बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा पाते थे। उनमें कार से आने वाले बच्चे पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था जितना मेहनत-मजदूरी करने वाले घर से आने वाले बच्चे पर। किसी भी तरह का अतिरिक्त आर्थिक भार किसी पर नहीं डाला जाता था। फीस से ही सारे खर्चे पूरे करने की कोशिश की जाती थी। इसीलिए स्टाफ की तनख्वाह कुछ कम ही थी पर माहौल का अपनापन और शांति यहां बने रहने के लिए काफी थी। हालांकि करीब तीस साल की लम्बी अवधि में विभिन्न जगहों से कई नियुक्ति प्रस्ताव आए पर इस अपने परिवार जैसे माहौल को छोड़ कर जाने की कभी भी इच्छा नहीं हुई। स्कूल में कार्य करने के दौरान तरह-तरह के अनुभवों और लोगों से दो-चार होने का मौका मिलता रहता था।  इसीलिए इतना लंबा समय कब गुजर गया पता ही नहीं चला।
                        
पर इतने लम्बे कार्यकाल में सैकड़ों बच्चों को अपने सामने बड़े होते और जिंदगी में सफल होते देख खुशी और तसल्ली जरूर मिलती है। ऐसा कई बार हो चुका है कि किसी यात्रा के दौरान या बिलकुल अनजानी जगह पर अचानक कोई युवक आकर मेरे पैर छूता है और अपनी पत्नी को मेरे बारे में बतलाता है तो आँखों में ख़ुशी के आंसू आए बिना नहीं रहते। गर्व भी होता है कि मेरे पढ़ाए हुए बच्चे आज देश के साथ विदेशों में भी सफलता पूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे हैं। ख़ासकर उन बच्चों की सफलता को देख कर ख़ुशी चौगुनी हो जाती है जिन्होंने गरीबी में जन्म ले, अभावग्रस्त होते हुए भी अपने बल-बूते पर अपने जीवन को सफल बनाया। 

ऐसा ही एक छात्र था, राजेन्द्र, उसकी माँ ललिता हमारे स्कूल में ही आया का काम करती थी। एक दिन वह अपने चार-पांच साल के बच्चे का पहली कक्षा में दाखिला करवा उसे मेरे पास ले कर आई और एक तरह से उसे मुझे सौंप दिया। वक्त गुजरता गया। मेरे सामने वह बच्चा, बालक और फिर युवा हो बारहवीं पास कर महाविद्यालय में दाखिल हो गया। इसी बीच ललिता को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। पर उसने लाख मुसीबतों के बाद भी राजेन्द्र की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी। उसकी मेहनत रंग लाई, राजेन्द्र द्वितीय श्रेणी में सनातक की परीक्षा पास कर एक जगह काम भी करने लग गया। वह लड़का कुछ कहता नहीं था, मन की बात जाहिर नहीं होने देता था, पर उसकी सदा यही इच्छा रहती थी कि जिस तरह भी हो वह अपने माँ-बाप को सदा खुश रख सके। अच्छे चरित्र के उस लडके ने अपने अभिभावकों की सेवा में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उससे जितना बन पड़ता था अपने माँ-बाप को हर सुख-सुविधा देने की कोशिश करता रहता था। माँ के लाख कहने पर भी अपना परिवार बनाने को वह टालता रहता था। उसका एक ही ध्येय था, माँ-बाप की ख़ुशी। ऐसा पुत्र पा वे दोनों भी धन्य हो गए थे।  इस तरह इस परिवार ने कुछ समय ही ज़रा सा सुख देखा था कि एक दिन ललिता के पति का तपेदिक से देहांत हो गया। इस विपदा के बाद तो बेटा माँ के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गया। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था, ललिता अपने पति का बिछोह और अपनी बिमारी का बोझ ज्यादा दिन नहीं झेल पाई और पति की मौत के साल भर के भीतर ही वह भी उसके पास चली गयी। राजेन्द्र बिल्कुल टूट सा गया। मेरे पास अक्सर आ बैठा रहता था। जितना भी और जैसे भी हो सकता था मैं उसे समझाने और उसका दुःख दूर करने की चेष्टा करती थी। समय और हम सब के समझाने पर धीरे-धीरे वह नॉर्मल हुआ। काम में मन लगाने लगा। सम्मलित प्रयास से उसकी शादी भी करवा दी गयी। 

आज राजेन्द्र अपने परिवार के साथ रह रहा है। पर जब कभी भी मुझसे मिलता है तो उसकी विनम्रता, विनयशीलता मुझे अंदर तक छू जाती है और मेरे सामने वही पांच साल का पहली कक्षा का मासूम सा बच्चा आ खड़ा होता है। ऊपर से उसके माँ-बाप उसे देखते होंगे तो उनकी आत्मा भी उसे ढेरों आशीषों से नवाजती होगी। 
#हिन्दी_ब्लागिंग 

बुधवार, 12 जुलाई 2017

मेरी ब्लॉग यात्रा

ब्लागिंग करते हुए यह सच्चाई भी सामने आई कि ज्यादातर लोग बहस से बचना चाहते हैं, एक दूसरे की बुराई कम ही करते हैं, लेख इत्यादि पर आलोचना नहीं के बराबर होती है, तारीफ़ की भरमार है। जो कहीं न कहीं खटकता है..................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आज उन तमाम ब्लॉगर भाई-बहनों, दोस्त-मित्रों, भाई-बंधुओं को दिल की गहराइयों से धन्यवाद देना चाहता हूँ जो रोज "कुछ अलग सा" पर आ कर मेरा हौसला बढ़ाते हैं और मेरे मनोबल को बने रहने में सहयोग प्रदान करते हैं। मेरे इस ब्लॉग का अस्तित्व या थोड़ी-बहुत जो भी पहचान बनी है, वह आप सब के प्रेम और स्नेह के कारण ही संभव  हो सका है। ऐसा ही स्नेह व अपनत्व सदा बना रहे यही कामना है।
                                             
कभी-कभार कुछ-कुछ लिखते रहने के शौक को ब्लॉग-लेखन में बदलने का सारा श्रेय हिन्दुस्तान टाइम्स की मासिक पत्रिका #कादम्बिनी को जाता है। अपने जन्म से ही यह हमारे घर की सदस्य रही है सो वर्षों से नियमित रूप से हमारे यहां आती थी। बात 2007 के इसके अक्टूबर अंक की है। उसमें #बालेन्दु_दाधीच_जी का ब्लागिंग पर एक विस्तृत लेख "ब्लॉग हो तो बात बने" छपा था। लेख की प्रेरणा, बालेन्दु जी के मार्गदर्शन और छोटे बेटे अभय की सहायता से मैंने भी अपना एक ब्लॉग बना ही लिया जिसे नाम दिया "कुछ अलग सा"। जो पूरी तरह स्वांत: सुखाय था। नई-नई विधा थी, शौक भी था तो कुछ ना कुछ रोज ही उस पर दर्ज हो जाता था। अचानक एक दिन #उड़न_तश्तरी के नाम से पहली बार एक टिपण्णी मिली। एक दो दिन बाद ही #राज_ भाटिया_जी ने अपना कमेंट भेजा, तब ब्लॉग की विशालता, उसकी ताकत और पहुँच का असली अंदाजा हुआ। इसी बीच #दैनिक_भास्कर, रायपुर और फिर #पंजाब_केसरी, जालंधर में रचना और लेख छपने से झिझक मिटी और हौसला भी बढ़ा। तभी एक दिन आस्ट्रेलिया से #अनुज_जी ने वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए निकलने वाली पत्रिका #हिंदी_गौरव के लिए मेरे लेखों को छापने की अनुमति चाही, हिंदी का सवाल था, ना की गुंजाईश ही कहां थी ! इसी ब्लॉग के कारण नाम ज़रा पहचाना जाने लगा तो एक स्थानीय अखबार में भी स्तंभ लेखन का आमंत्रण मिला, अच्छा तो लगता ही है जब आपके काम को सराहना मिले। ऐसे ही सफर चलता चला जा रहा था; जब लखनऊ से #रविंद्र_प्रभात_जी के प्रयास से भूटान यात्रा का सुयोग बना। जिंदगी का बेहतरीन अनुभव। जिसके दौरान कई नए मित्र भी बने, पहचान भी बढ़ी।         

धीरे-धीरे कारवां आगे बढ़ता रहा। समय के साथ-साथ विद्वानों, गुणीजनों का साथ मिला। उत्कृष्ट रचनाओं को पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ। लेखन की हर विधा से साक्षात्कार हुआ। अद्भुत फोटोग्राफी, दुर्गम स्थानों की यात्रा तफ़सील, दूर-दराज के क्षेत्रों की जानकारी, जटिल विषयों का समाधान, हल्के-फुल्के मनोरंजन, सामयिक विषयों पर वार्तालाप के साथ-साथ राजनितिक कटुता, विचार वैमनस्य की कटुता का भी स्वाद चखा। पर यह सच्चाई भी सामने आई कि ज्यादातर लोग बहस से बचना चाहते हैं, एक दूसरे की बुराई कम ही करते हैं, लेख इत्यादि पर आलोचना नहीं के बराबर होती है, तारीफ़ की भरमार है। जो कहीं न कहीं खटकता है।

अपने दही को कोई खट्टा नहीं कहता, उसी तरह हर इंसान को अपनी बुद्धि, अपनी सोच, अपने विचार, अपनी कृति, अपना लेखन, सर्वोपरि लगता है, पर उसे असलियत जरूर बतानी चाहिए। जिससे वह अपनी कमियों, गलतियों को दूर कर सके। 

कृपया इसे आत्म-प्रशंसा ना समझें। पर आज जैसे कुछ अलग सा पर रोज सैंकड़ों आवक दर्ज हो रही हैं तो मन में इच्छा तो बहुत होती है कि सबसे मिला जाए, कौन हैं ! उनसे बात-चीत की जाए, पर ऐसा हो नहीं पाता, खुद आगे आ कर बात करने में एक झिझक सी सदा बनी रहती आई है ! पता नहीं प्रभु ने स्वभाव ही ऐसा बना कर भेजा है ! इसी कारण अभी तक छह-सात लोगों के अलावा किसी से मिलने का सुयोग नहीं हो पाया है। फिर भी सारे इष्ट-मित्र, साथी अपने लगते हैं। आप सभी "अनदेखे अपनो" का मैं सदा आभारी हूँ, आप का प्यार, स्नेह, अपनत्व, मार्गदर्शन सदा मिलता रहे यही कामना है।
जय हिन्द !

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

"हाइफा" के वीरों की तीन मूर्तियां

जोधपुर व मैसूर के सैनिकों ने हाइफा में सिर्फ तलवारों और भालों से दुश्मन की मशीनगनों का सामना करते हुए अप्रतिम वीरता के साथ शहर की रक्षा तो की ही साथ ही दुश्मन के एक हजार से ऊपर सैनिकों को बंदी भी बना लिया। दिल्ली में भी उनकी याद में तीन मूर्ति भवन के सामने के चौराहे पर कांसे की आदमकद, सावधान की मुद्रा में हाथ में झंडा थामे तीन सैनिकोँ की खडी मूर्तियों का स्मारक बनाया गया है...

इस बार जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  इजरायल के दौरे पर गए, जो देश के किसी भी प्रधान मंत्री का वहां का पहला
दौरा था, तो उन्होंने ने वहां के शहर हाइफा जा कर भारतीय सैनिकों को भी श्रद्धांजलि प्रदान की। इस दौरे की मीडिया में काफी चर्चा रही थी। पहले विश्व युद्ध में मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के सैनिकों को अंग्रेजों की ओर
से युद्ध के लिए तुर्की भेजा गया था। जिसमे जोधपुर व मैसूर के सैनिकों ने इसी जगह सिर्फ तलवारों और भालों से दुश्मन की मशीनगनों का सामना करते हुए अप्रतिम वीरता दिखाते हुए शहर की रक्षा तो की ही साथ ही दुश्मन के एक हजार से ऊपर सैनिकों को बंदी भी बना लिया। हाइफा में लड़े गए युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में वहाँ तो यादगार स्थल बना ही है, अपने यहां दिल्ली में भी उनकी याद में तीन मूर्ति भवन के सामने के चौराहे पर तीन सैनिकोँ की    

खडी मूर्तियों का स्मारक बनाया गया है। ये कांसे की आदमकद, सावधान की मुद्रा में हाथ में झंडा थामे तीन मूर्तियां आज भी खडी हैं। यहाँ से हजारों लोग रोज गुजरते हैं, बाहर से दिल्ली दर्शन को आने वाले पर्यटक भी इस भवन को देखने आते हैं पर इन मूर्तियों के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। हालांकि इन मूर्तियों का परिचय उनके नीचे लगे शिला लेख में अंकित है, फिर भी अधिकाँश लोगों ने मूर्तियों को भवन का एक अंग समझ कभी उनके बारे में  जानकारी लेने की जहमत नहीं उठाई। वर्षों पहले इस जगह बीहड़ जंगल हुआ करता था. शाम ढलते ही किसी की इधर आने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पूरा वन-प्रदेश जंगली जानवरों से भरा पडा था। करीब छह सौ साल पहले जब दिल्ली पर मुहम्मद तुगलक का राज्य था तब यह जगह उसकी प्रिय शिकार गाह हुआ करती थी। शिकार के लिए उसने पक्के मचानों का भी निर्माण करवाया था जिनके टूटे-फूटे अवशेष अभी भी वहाँ दिख जाते हैं। समय ने पलटा खाया। देश पर अंग्रजों ने हुकूमत हासिल
कर ली. 1922 में इस तीन मूर्ति स्मारक की स्थापना हुई।  उसके सात साल बाद 1930 में राष्ट्रपति भवन के दक्षिणी हिस्से की तरफ उसी जगह राबर्ट रसल द्वारा एक भव्य भवन का निर्माण, ब्रिटिश "कमांडर इन चीफ" के लिए किया गया. उस समय इसे "फ्लैग-स्टाफ़-हाउस" के नाम से जाना जाता था। जिसे  आजादी के बाद  सर्व-सम्मति से भारत के प्रधान मंत्री का  निवास  बनने का गौरव प्राप्त हुआ और उसका नया नाम बाहर बनी तीन मूर्तियों को ध्यान में रख तीन मूर्ति भवन रख दिया गया। दिल्ली का तीन मूर्ति भवन. देश के स्वतंत्र होने के बाद भारत के प्रधान मंत्री का सरकारी निवास स्थान था, पर प्रधान मंत्री का घोषित निवास स्थान होने के बावजूद इसमें देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ही रहे, उनके निधन के बाद इसे नेहरू स्मारक तथा संग्रहालय बना दिया गया।  
#हिन्दी_ब्लागिंग 

शनिवार, 8 जुलाई 2017

सच्चाई सामने आने में बहुत समय लेने लगी है !

गठबंधन तो बहाना है, मतलब तो खुद को बचाना है !! सत्ता की गाय को दुह-दुह कर करोड़ों, अरबों की संपदा इकठ्ठा कर धन-कुबेर बनने वालों को कभी भी आने वाली मुसीबत के समय सत्ता के अभेद्य किले की जरुरत होती है जो इनके विरुद्ध होने वाली किसी भी कार्यवाही से इन्हें महफूज रख सके ! उसके लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं ! पर समय एक जैसा तो रहता नहीं, नाहीं वह किसी को बक्शता है   
  
एक लम्बे अर्से बाद देश ने किसी एक दल की स्थाई सरकार का जायजा लिया है। नहीं तो जबसे जातिबल, धर्मबल, अर्थबल या बाहुबल से सत्ता हथियाई जाने लगी है, तबसे केंद्र में गठबंधन का बोलबाला ही रहने लगा था । किसी एक दल की सरकार का बन पाना असंभव सा होता चला गया था। गठबंधन से बनी सरकार को हर वक्त अपने घटकों से ख़तरा ही बना रहता था। ऐसी सरकारों की अपनी मजबूरियां होती थीं जिनके चलते वे कभी भी चैन की सांस नहीं ले पाती थीं। उसके घटक का हरेक दल और उसका अगुआ, चाहे किसी भी कोण से किसी भी काबिल ना हों पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्ज़ा करना उसकी जिंदगी का मुख्य ध्येय होता था। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद हर नीति अपनाई जाती थी। छल-कपट से कोई परहेज नहीं होता था। आज भी कुछ क्षत्रप अपने आप को देश का राजा समझने का गुमान जिंदगी भर पाले रखते हैं। ऐसे में "मेरी-गो-राउंड" जैसा खेल चलता रहता है। कुछेक अंतराल से तरह-तरह के कुनबे जुड़ते हैं जिनका कोई सरोकार नहीं होता देश या जनता के हित से। उन्हें सिर्फ अपना और अपने परिवार का ध्यान होता है। वे जोड़-तोड़ लगा कर वहाँ पहुंचते हैं, मतलब पूरा करते हैं और खिसक लेते है या लाइन में लगे हुओं द्वारा खिसका दिए जाते है। वैसे आने और जाने वालों, सभी को पता रहता है इस क्षणिक-प्रभुता का इसीलिए अपने उसी संक्षिप्त या किसी तरह पूरे कार्यकाल में जितना हो सके लाभ कमाने की जुगत बैठा अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, अगली बारी के इंतजार में।
    
सत्ताविहीन होते ही हर दल और उसका आका दोबारा सत्ता को गले लगाने के लिए सदा आतुर रहता है जिसके तहत वह अपने विरोधी की ऐसी-ऐसी बातें, खबरें, इतिहास, जनता के सामने लाता है, जिसका पता उसके विरोधी को शायद खुद भी नहीं होता। इस तरह की हरकतों में सारे दल एक समान हैं। आज की राजनीती गर्त में जा गिरी है। अधोगति की पराकाष्ठा है। कोई मर्यादा नहीं बची है। गाली-गलौच, अपशब्द, मानहानि किसी बात से किसी को परहेज नहीं रहता। इसमें नाहीं सामने वाले की उम्र देखी जाती है नहीं उसका कद या पद। उस समय कोई भी अपने गिरेबान में नहीं झांकता जबकि उसे पता होता है, अपनी भी असलियत का ! फिर भी जनता को बेवकूफ समझ एक दूसरे के बारे में अनर्गल प्रलाप किया जाता रहता है।  

इस बार जब से केंद्र में एक मजबूत सरकार बहुमत से आई है तब से ही देश के क्षेत्रीय दलों में अपने अस्तित्व को लेकर खलबली मची हुई है। करीब-करीब सारे दल हाशिए पर चले गए हैं। हारे-थके, बिखरे दलों के मंजे-घुटे नेताओं द्वारा एक जुट हो कर एक सार्थक विपक्ष गठित करने का प्रयास, पहले तो देश के निष्पक्ष अवाम को देश हित के लिए एक सार्थक कदम लगता रहा।  भले ही इन स्वार्थी, सत्तालोलुप नेताओं ने उनके लिए कौड़ी का काम भी ना किया हो। फिर भी धर्म-जाति के नाम पर लोग उन्हें अपना मसीहा मानते रहे। उनके अपने आप को बचाने के लिए बनाए "महागठबंधनों" को भी मूर्तरूप देने में मदद करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे इन मतलबपरस्त, परिवारवादी, लोभी, कपटी नेताओं की करतूतें सामने आने लगीं वैसे-वैसे इनके सत्ताधारी दल का विरोध कर गठबंधन की सरकार बनाने का मतलब भी जन-साधारण की समझ में आने लगा है। लोग समझ गए हैं कि इनके सारे सांप्रदायिकता, धर्म-निरपेक्षता को लेकर हो-हल्ला  मचाने के प्रयास देश को नहीं खुद को बचाने की कवायद है। गठबंधन इनका रक्षा-कवच है।  राजा बन सत्ता की गाय को दुह-दुह कर ये करोड़ों, अरबों की संपदा इकठ्ठा कर धन-कुबेर बन गए हैं। उस सच्चाई को छिपाने के लिए इन्हें किसी भी तरह सत्ता के अभेद्य किले की जरुरत होती है जो इनके विरुद्ध होने वाली किसी भी कार्यवाही से इन्हें महफूज रख सके ! उसके लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं ! इनकी तिकड़मों के राजदार,  इनके सहायक, इनके सलाहकार हर वह संभव कोशिश करते हैं जिससे उनका आका सलाखों के पीछे जाने से बच जाए ! इसी से सच्चाई सामने आने में काफी वक्त लग जाता है। पर समय एक जैसा तो रहता नहीं, नाहीं वह किसी को बक्शता है, उसकी लाठी में आवाज भी नहीं होती।

पर वह नेता ही क्या जो हार मान ले, अभी भी अपने विरुद्ध होने वाली कार्यवाही को अपने विरुद्ध षडंयत्र का नाम दे ऐसे लोग भोली-भली ग्रामीण जनता को बरगलाने से पीछे नहीं हट रहे ! अभी भी अपनी लच्छेदार भाषा में भाषणबाजी कर अपने आप को पाक-साफ़ साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा अंतिम लड़ाई जीतने की कोशिश में लगे हुए हैं। खैर देर-सबेर सच्चाई तो सामने आ ही जाएगी। पर क्या इनके किए की सजा इन्हें मिल पाएगी ? क्या साधारण जनता इन्हें सर से उतार कर इनको इनकी औकात बता पाएगी ? क्या देश घुनों से अपने-आप को बचा पाएगा ?  इन सारे यक्ष प्रश्नों का उत्तर भी समय ही देगा। 

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

सेमिनार

शहर के मुख्य मार्ग से सर्किट हॉउस जाने वाली सड़क पर कुछ आगे जा कर घने इमली के पेड़ हैं। जिनकी शाखाओं पर ढेरों तरह-तरह के परिंदे वास करते हैं। शाम होते ही जब पक्षी अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटते हैं तो अक्सर शरारती लडके उन्हें अपनी गुलेलों का निशाना बनाते रहते हैं........................

पर्यावरणविदों और पशू-पक्षी संरक्षण करने वाली संस्थाओं ने मेरे सोते हुए कस्बाई शहर को ही क्यूं चुना, अपने एक दिन के सेमिनार के लिए, पता नहीं ! इससे शहरवासियों को कोई फ़ायदा हुआ हो या ना हुआ हो पर शहर जरूर धुल-पुंछ गया। सड़कें साफ़-सुथरी हो गयीं। रोशनी वगैरह की थोड़ी ठीक-ठाक व्यवस्था कर दी गयी। गहमागहमी काफ़ी बढ़ गयी। बड़े-बड़े प्राणीशास्त्री, पर्यावरणविद, डाक्टर, वैज्ञानिक, नेता, अभिनेता और भी ना
जाने कौन-कौन, बड़ी-बड़ी गाड़ियों मे धूल उड़ाते पहुंचने लगे। नियत दिन, नियत समय पर, नियत विषयों पर स्थानीय सर्किट-हाउस में बहस शुरू हुई। नष्ट होते पर्यावरण और खास कर लुप्त होते प्राणियों को बचाने-सम्भालने की अब तक की नाकामियों और अपने-अपने प्रस्तावों की अहमियत को साबित करने के लिए घमासान मच गया। लम्बी-लम्बी तकरीरें की गयीं। बड़े-बड़े प्रस्ताव पास हुए। सैंकड़ों पेड़ों को लगाने की योजनाएं बनी। हर तरह के पशु-पक्षी को हर तरह का संरक्षण देने के प्रस्तावों पर तुरंत मोहर
लगी। यानी कि काफी सफल आयोजन रहा।  दिन भर की बहस बाजी, उठापटक, मेहनत-मसर्रत के बाद जाहिर है, जठराग्नि तो भड़कनी ही थी। सो सर्किट हाउस के खानसामे को हुक्म हुआ, लज़िज़, बढिया, उम्दा किस्म के व्यंजन बनाने का। खानसामा अपना झोला उठा बाजार की तरफ चल पड़ा। शाम घिरने लगी थी। पक्षी दिन भर की थकान के बाद लौटने लगे थे,  पेड़ों की झुरमुट में बसे अपने घोंसलों और बच्चों की ओर। वहीँ पर कुछ शरारती  बच्चे  अपनी  गुलेलों  से  चिड़ियों  पर  निशाना  साध  उन्हें  मार  गिराने में लगे हुए थे। पास  जाने पर
खानसामे ने तीन - चार घायल बटेरों को बच्चों के  कब्जे में देखा। अचानक उसके दिमाग की बत्ती जल उठी और चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी।  उसने  बच्चों को डरा धमका कर भगा दिया। फिर बटेरों को अपने झोले में ड़ाला, पैसों को अंदरूनी जेब में और सीटी बजाता हुआ वापस गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया।

खाना खाने के बाद, आयोजक से ले कर खानसामे तक, सारे लोग बेहद खुश थे। अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने तरीके से,  सेमिनार की अपार सफलता पर।

#हिन्दी_ब्लागिंग 

शनिवार, 1 जुलाई 2017

 

बाप रे ! इतना झगडालू चिड़िया परिवार

साहबजादे /दी रोज ही घूमने निकले होते थे ! तीन-चार दिन पहले टाइप मशीन में फंसे बैठे थे, किसी तरह हटा कर उन्हें ऊपर रखा गया। दो दिन पहले पता नहीं कैसे फोटो-कापियर में घुस गए, वह तो अच्छा हुआ कि चलाने वाले ने मशीन साफ करते समय उनकी झलक पा ली, नहीं तो वहीं 'बोलो हरि' हो गई होती ! बड़ी मुश्किल से आधे घंटे की मशक्कत के बाद उन्हें बाहर निकाला जा सका...........

#हिन्दी_ब्लॉगिंग
मेरे कार्यालय में  बीम  और  मीटर - बाक्स   के कारण बनी एक संकरी सी  जगह में  चिड़ियों  के घोंसले के लिए 
बेहतरीन स्थान बन गया है। खान-पान की नजदीकी सुविधा के साथ-साथ बिलकुल सुरक्षित, निरापद आवास।इसी कारण पिछले तीन साल से वहां कई चिड़िया परिवार बसते और पलते आ रहे हैं। बना बनाया नीड़ है ! नर्सिंग होम की तरह जोड़े आते हैं, शिशु जन्मते हैं, पलते हैं और फिर उड़न छू। ऑफिस में काम करने वालों को भी बिना मांगे मनोरंजन का जैसे एक जरिया मिल गया है। कोई न कोई उनके लिए चुग्गा ले ही आता है। पानी की व्यवस्था तो खैर कर ही दी गई है।  

पहली बार जो जोड़ा आया था, उसने पहले जगह जाँची-परखी, देखी-भाली, हर तरह से तसल्ली करने के बाद तिनका-तिनका जोड़ अपना ठौर बना लिया। कार्यालय के सफाई कर्मचारी बनते हुए घर को साफ कर देते पर यह "Encroachment" दो दिनों की छुट्टियों के बीच हुआ था। जिसके बन जाने के बाद फिर  उसे हटाने की किसी की इच्छा नहीं हुई। उस पहले जोड़े ने आम चिड़ियों की तरह अपना परिवार बढाया और चले गये। उनके रहने के दौरान एक बार उनका नवजात नीचे गिर गया था जिसे बहुत संभाल कर वापस उसके मां-बाप के पास रख दिया गया था। वैसे रोज कुछ तिनके बिखरते थे, पर उनसे किसी को कोई तकलीफ नहीं थी साफ-सफाई हो जाती थी। 

दूसरी बार तो पता ही नहीं चला कि कार्यालय में मनुष्यों के अलावा भी किसी का अस्तित्व है। लगता था वह परिवार बेहद सफाई पसंद है, न कोई गंदगी, ना शोर-शराबा।   सिर्फ बच्चे की चीं-चीं तथा उसके अभिभावकों की
हल्की सी चहल-पहल। कब आये कब चले गये पता ही नहीं चला।   तीसरा  जोड़ा नार्मल था।  मां - बाप दिन भर
अपने बच्चे की तीमारदारी करते रहते। तिनके वगैरह जरूर बिखरते थे पर इन छोटी-छोटी बातों पर हमारा ध्यान नहीं जाता था। पर एक आश्चर्य की बात थी कि और किसी तरह की गंदगी उन्होंने नहीं फैलाई। शायद उन्हें एहसास था कि वैसा होने से उसका प्रतिफल बुरा हो सकता है।

पर अब पिछले दिनों जो परिवार आया है, जिसके कारण ये पोस्ट अस्तित्व में आई, वह तो अति विचित्र है। सबेरे कार्यालय खुलते ही ऐसे चिल्लाते हैं जैसे हम उनके घर में अनाधिकार प्रवेश कर रहे हों। आवाज भी इतनी तीखी कि कानों में चुभती हुई सी प्रतीत होती है। बार-बार काम करते लोगों के सर पर चक्कर लगा-लगा कर चीखते रहते हैं दोनो मियां बीवी। इतना ही नहीं कई बार उड़ते-उड़ते निवृत हो स्टाफ के सिरों और कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर जाते हैं। उनके घोंसले के ठीक नीचे फोटो-कापियर और टाइप मशीनें पड़ी हैं। जिन्हें रोज गंदगी से दो-चार होना पड़ता है। अब जैसे अभिभावक हैं, उनका नौनीहाल या नौनीहालिनी जो भी है, वैसा ही है। साहबजादे/दी रोज ही घूमने निकले होते हैं। तीन-चार दिन पहले टाइप मशीन में फंसे बैठे थे, किसी तरह हटा कर उन्हें ऊपर रखा गया। दो दिन
पहले पता नहीं कैसे फोटो-कापियर में घुस गये, वह तो अच्छा हुआ कि चलाने वाले ने मशीन साफ करते समय उनकी झलक पा ली, नहीं तो वहीं 'बोलो हरि' हो गयी होती। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे की मशक्कत के बाद उन्हें बाहर निकाला जा सका।

इनकी करतूतों से सभी भर पाए हैं और इनके जाने का इंतजार कर रहे हैं। जिससे फिर साफ-सफाई कर इस "नर्सिंग होम" को बंद किया जा सके। पर इस सबसे एक बात तो साफ हो गयी कि चिड़ियों में भी इंसानों जैसी आदतें होती हैं। कोई शांत स्वभाव का होता है, कोई सफाई पसंद और कोई गुस्सैल, चिड़चिड़ा और झगड़ालू।
आपका कोई एक्सपेरीयेंस है ? (-:

बाप रे ! इतना झगडालू चिडिया परिवार

साहबजादे /दी रोज ही घूमने निकले होते हैं। तीन-चार दिन पहले टाइप मशीन में फंसे बैठे थे, किसी तरह हटा कर उन्हें ऊपर रखा गया। दो दिन पहले पता नहीं कैसे फोटो-कापियर में घुस गये, वह तो अच्छा हुआ कि चलाने वाले ने मशीन साफ करते समय उनकी झलक पा ली, नहीं तो वहीं 'बोलो हरि' हो गयी होती। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे की मशक्कत के बाद उन्हें बाहर निकाला जा सका...........

#हिन्दी_ब्लॉगिंग
मेरे कार्यालय में  बीम  और  मीटर - बाक्स   के कारण बनी एक संकरी सी  जगह में  चिड़ियों  के घोंसले के लिये
बेहतरीन स्थान बन गया है। खान-पान की नजदीकी सुविधा के साथ-साथ बिलकुल सुरक्षित, निरापद आवास।इसी कारण पिछले तीन साल से वहां कई चीड़ी परिवार बसते और पलते आ रहे हैं। बना बनाया नीड़ है, नर्सिंग होम की तरह जोड़े आते हैं, शिशु जन्मते हैं, पलते हैं और फिर उड़न छू। ऑफिस में काम करने वालों को भी बिना मांगे मनोरंजन का जैसे एक जरिया मिल गया है। कोई न कोई उनके लिए चुग्गा ले ही आता है। पानी की व्यवस्था तो खैर कर ही दी गयी है।  

पहली बार जो जोड़ा आया था, उसने पहले जगह जाँची-परखी, देखी-भाली, हर तरह से तसल्ली करने के बाद तिनका-तिनका जोड़ अपना ठौर बना लिया। कार्यालय के सफाई कर्मचारी बनते हुए घर को साफ कर देते पर यह "Encroachment" दो दिनों की छुट्टियों के बीच हुआ था। जिसके बन जाने के बाद फिर  उसे हटाने की किसी की इच्छा नहीं हुई। उस पहले जोड़े ने आम चिड़ियों की तरह अपना परिवार बढाया और चले गये। उनके रहने के दौरान एक बार उनका नवजात नीचे गिर गया था जिसे बहुत संभाल कर वापस उसके मां-बाप के पास रख दिया गया था। वैसे रोज कुछ तिनके बिखरते थे, पर उनसे किसी को कोई तकलीफ नहीं थी साफ-सफाई हो जाती थी। 

दूसरी बार तो पता ही नहीं चला कि कार्यालय में मनुष्यों के अलावा भी किसी का अस्तित्व है। लगता था वह परिवार बेहद सफाई पसंद है, न कोई गंदगी, ना शोर-शराबा।   सिर्फ बच्चे की चीं-चीं तथा उसके अभिभावकों की
हल्की सी चहल-पहल। कब आये कब चले गये पता ही नहीं चला।   तीसरा  जोड़ा नार्मल था।  मां - बाप दिन भर
अपने बच्चे की तीमारदारी करते रहते। तिनके वगैरह जरूर बिखरते थे पर इन छोटी-छोटी बातों पर हमारा ध्यान नहीं जाता था। पर एक आश्चर्य की बात थी कि और किसी तरह की गंदगी उन्होंने नहीं फैलाई। शायद उन्हें एहसास था कि वैसा होने से उसका प्रतिफल बुरा हो सकता है।

पर अब पिछले दिनों जो परिवार आया है, जिसके कारण ये पोस्ट अस्तित्व में आई, वह तो अति विचित्र है। सबेरे कार्यालय खुलते ही ऐसे चिल्लाते हैं जैसे हम उनके घर में अनाधिकार प्रवेश कर रहे हों। आवाज भी इतनी तीखी कि कानों में चुभती हुई सी प्रतीत होती है। बार-बार काम करते लोगों के सर पर चक्कर लगा-लगा कर चीखते रहते हैं दोनो मियां बीवी। इतना ही नहीं कई बार उड़ते-उड़ते निवृत हो स्टाफ के सिरों और कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर जाते हैं। उनके घोंसले के ठीक नीचे फोटो-कापियर और टाइप मशीनें पड़ी हैं। जिन्हें रोज गंदगी से दो-चार होना पड़ता है। अब जैसे अभिभावक हैं, उनका नौनीहाल या नौनीहालिनी जो भी है, वैसा ही है। साहबजादे/दी रोज ही घूमने निकले होते हैं। तीन-चार दिन पहले टाइप मशीन में फंसे बैठे थे, किसी तरह हटा कर उन्हें ऊपर रखा गया। दो दिन
पहले पता नहीं कैसे फोटो-कापियर में घुस गये, वह तो अच्छा हुआ कि चलाने वाले ने मशीन साफ करते समय उनकी झलक पा ली, नहीं तो वहीं 'बोलो हरि' हो गयी होती। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे की मशक्कत के बाद उन्हें बाहर निकाला जा सका।

इनकी करतूतों से सभी भर पाए हैं और इनके जाने का इंतजार कर रहे हैं। जिससे फिर साफ-सफाई कर इस "नर्सिंग होम" को बंद किया जा सके। पर इस सबसे एक बात तो साफ हो गयी कि चिड़ियों में भी इंसानों जैसी आदतें होती हैं। कोई शांत स्वभाव का होता है, कोई सफाई पसंद और कोई गुस्सैल, चिड़चिड़ा और झगड़ालू।
आपका कोई एक्सपेरीयेंस है ? (-:

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