शनिवार, 28 जनवरी 2017

फ़िल्में बनें मासांत के लिए, सप्ताहांत के लिए नहीं

पहले बड़े-बड़े निर्माताओं, कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। क्रिकेट के टेस्ट मैचों की तरह साल-दो साल में उनकी फ़िल्में परदे तक पहुंचा करती थीं। हर निर्माता, निर्देशक, कलाकार की और उनके हुनर की अपनी अलग पहचान हुआ करती थी। आज की तरह-तरह उन्हें अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नाहीं अलग से धन की जरुरत होती थी नाहीं प्रमोशन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था। उनका नाम ही काफी होता था....... 

आज कल हर बड़ा निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के प्रदर्शन के लिए स्पर्द्धा रहित खुला मैदान चाहता है। पर दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले देश में ऐसा होना संभव नहीं हो सकता। इसीलिए बार-बार बड़ी
फिल्मों का आपसी टकराव होता रहता है। पिछले कुछ सालों से ख़ास-ख़ास अवकाशों और त्योहारों पर बड़े कलाकारों और निर्माताओं की फिल्मों के प्रदर्शन का रिवाज चल पड़ा है। कुछ ने तो कुछ ख़ास मौकों को अपनी धरोहर बना रख छोड़ा है। वैसे भी हर निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्म के लिए साल के ख़ास मौके पर तीन चार छुट्टियों वाले सप्ताहांत पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरने की फिराक में रहता है। आधुनिक व उत्कृष्ट तकनीक के कारण अब फ़िल्में जल्दी और व्यवस्थित रूप से बनने लग गयी हैं, जिससे उनके प्रदर्शन की तारीख तय करना भी संभव हो गया है। इसी कारण कुछ सक्षम फिल्मकार साल की छुट्टियों को ध्यान में रख अपनी फिल्मों को उसी हिसाब से पूरी करने में जुट जाते हैं।
बात बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है, तकरीबन नब्बे के दशक के मध्य तक, जब तक देश में मल्टीप्लेक्सों की बाढ़ नहीं आई थी, बड़े-बड़े निर्माताओं, कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता था। क्रिकेट के टेस्ट मैचों की तरह साल-दो साल में उनकी फ़िल्में परदे तक पहुंचा करती थीं। अपनी गुणवत्ता, कथानक, अभिनय और निर्देशन के बल पर, साथ-साथ रिलीज हो कर, मनोरंजन के साथ-साथ अच्छा-खासा व्यवसाय भी किया करती थीं। हर निर्माता, निर्देशक, कलाकार की और उनके हुनर की अपनी अलग पहचान थी। आज की तरह-तरह उन्हें अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नाहीं अलग से धन की जरुरत होती थी ना हीं प्रमोशन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था। उनका नाम ही काफी होता था। अपने और अपने काम पर पूरा विश्वास और पकड़ होने के कारण वे लोग कभी लंबे अवकाश वाले सप्ताहंत या किसी ख़ास दिन-त्यौहार का विशेष इंतजार नहीं करते थे। फिल्म के पूरा होते ही उसे सिनेमा हॉल तक दर्शकों के लिए पहुंचा दिया जाता था। उन दिनों फिल्मों की सफलता उनके सिनेमा हॉल में टिके रहने के दिनों पर आंकी जाती थी। आज शायद विश्वास ही ना हो कि एक ही हॉल में, जिनकी  क्षमता 400-500 से लेकर 1200-1300 तक होती थी। दर्शक एक ही फिल्म को, उसकी कहानी, संगीत, गुणवत्ता और अपने चहेते कलाकारों को देखने के लिए बार-बार जाता था। इसीलिए लगातार तीन शो में पच्चीस हफ्ते चलने पर किसी फिल्म को सिल्वर जुबली, पचास हफ्ते चलने पर गोल्डन जुबली और पचहत्तर हफ़्तों तक लगातार चलने पर डायमंड जुबली मनाने वाली फिल्म का खिताब दिया जाता था। पर आजकल हफ्ते के अंतिम तीन दिन ही फिल्म को सफल-असफल मानने-बनाने का
मापदंड बन गए हैं, लागत वसूलने के लिए तरह-तरह के स्रोत और सही-गलत तरीके भी अपनाए जाने लगे हैं। जिनमें खुद और अपनी फिल्म को विवादित करवाना भी एक हथकंडा है। इधर फिल्म वालों में यह धारणा घर कर गयी है कि दर्शक हफ्ते में एक ही फिल्म देखेगा ! क्या उन्हें भारतीय लोगों का फिल्मों के प्रति जनून मालुम नहीं है ? अरे तुम काम तो अच्छा करो उसे सराहने वाले उसे पाताल में भी जा ढूंढ निकालेंगे।

सच्चाई तो यही लगती है कि अब कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ इस क्षेत्र में इस विधा के प्रति समर्पण की भावना तिरोहित हो चुकी है। मुख्य मुद्दा पैसे बनाना है। कहीं की ईंट कहीं के रोड़े को ले इमारत खड़ी करने की कोशिश की जाती है। कुछेक मुख्य कलाकारों के चहरे को ही सफलता का मापदंड मान लिया गया है, जिनके चारों ओर चापलूसी, अहम्, अतिविश्वास की दीवारें चिन दी गयी हैं। मौलिकता करीब-करीब ख़त्म हो चुकी है। ऐसे में हफ्ते के तीन दिन और लोगों की छुट्टियों का ही भरोसा है, अपने काम पर नहीं। क्योंकि मन ही मन उन्हें अपने काम की उत्कृष्टता पर खुद ही विश्वास नहीं होता। आज कोई भी छाती ठोंक के नहीं कह सकता, रजनीकांत का नाम अपवाद हो सकता है पर सिर्फ दक्षिण भारत में, कि मैं कभी भी कहीं भी अपनी फिल्म प्रदर्शित कर उसे सफल करवा सकता हूँ। इसका फ़ायदा भी है फिल्म अपनी गुणवत्ताविहीन होने के कारण पिट भी जाती है तो उसकी असफलता का ठीकरा एक ही दिन प्रदर्शित हुई दो फिल्मों पर मढ़ दिया जाता है। इसलिए फिल्मों से जुड़े लोग पूरी तरह समर्पित हो यदि सप्ताहांत नहीं मासांत के लिए फिल्म बनाएंगे तो उन्हें किसी छुट्टी, किसी त्यौहार या किसी तारीख की जरुरत नहीं पड़ेगी।  

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

आम आदमी और सरकारी अफसर

किसी ख़ास दिन रेलवे स्टेशन पर जरुरत से ज्यादा ही गहमा-गहमी नजर आती है। कर्मचारी चुस्त-दुरुस्त व मुस्तैद, नाहीं कहीं गंदगी ना दाग-धब्बे, करीने से सजे सैंकड़ों गमले जिनमें बड़े-बड़े सुंदर फूल-पौधे अपनी छटा बिखेरते शोभा पा रहे होते हैं। प्लेटफार्म इतने साफ़ और चमकदार कि उस पर रख भोजन भी किया जा सके !  हर चीज करीनेवार अपनी जगह पर स्थित होती है !वह दिन होता है किसी जी. एम. या और किसी बड़े अधिकारी के आने-जाने या उसके निरक्षण का....... 

कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रेलवे के बिलासपुर जोन के जी. एम. के विदाई समारोह में रेलवे के कुछ अफसरों ने उनके सम्मान में दी गयी पार्टी में एक महिला कर्मी द्वारा अपने बॉस के साथ मंच पर एक से ज्यादा युगल गीत ना गाने के कारण अनुशासनहीनता के आरोप में उसे चार्ज-शीट तो थमाई ही उसका तबादला भी कर दिया। चार्ज-शीट में साफ़ लिखा था कि विदाई पार्टी में जी. एम. के साथ युगल गीत गाने से इंकार करना उस महिला कर्मी का अव्यावहारिक बर्ताव है इसलिए उस पर अनुशासत्मक कार्यवाही की जा रही है। एक ओर तो सरकार महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिए जाने की वकालत करते नहीं थकती दूसरी ओर उन्हीं के अफसर बेजा हरकतों से बाज नहीं आते।

सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी किसी पार्टी में किसी पर भी जबरदस्ती गाने या कला प्रदर्शन का जोर डाला जा सकता है, जबकि यह उसकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं होता ? उस पर भी जब वह कोई महिला कर्मी हो ! किसी भी महिला का, जो प्रोफेशनल गायिका ना हो, ऐसे वक्त पर संकोच करना कोई गुनाह नहीं है। फिर हो सकता है उस दिन वहां का माहौल कुछ इस तरह का हो गया हो जिससे उस महिला कर्मी ने गाने से इंकार कर दिया हो। यह तो उन जी. एम. साहब को भी सोचना और देखना चाहिए था कि उनका विदाई समारोह गरिमा-पूर्ण ही रहे !! हालांकि चहुर्दिक हुए विरोध के कारण उस महिला को दिया गया आदेश वापस ले लिया गया था। पर मानसिक प्रतारणा तो उसे सहनी ही पड़ी थी, उसका क्या  !!

आदमी की फ़ितरत में है कि वह अपनी चापलूसी करवाना पसंद करता है। इसीलिए समाज के हर विभाग में अर्श पर बैठे हुए लोग अपने स्तुति गायकों से घिरे रहते हैं। बात रेलवे की हो रही है। हम में से अधिकतर ने कभी न कभी जरूर देखा होगा कि किसी ख़ास दिन रेलवे स्टेशन पर जरुरत से ज्यादा ही गहमा-गहमी नजर आती है। कर्मचारी चुस्त-दुरुस्त व मुस्तैद, नाहीं कहीं गंदगी ना दाग-धब्बे, करीने से सजे सैंकड़ों गमले जिनमें बड़े-बड़े सुंदर फूल-पौधे अपनी छटा बिखेरते शोभा पा रहे होते हैं। प्लेटफार्म इतने साफ़ और चमकदार कि उस पर रख भोजन भी किया जा सके !  हर चीज करीनेवार अपनी जगह पर स्थित होती है !! वह दिन होता है ऐसे ही किसी जी. एम. या और किसी बड़े अधिकारी के आने-जाने या उसके निरक्षण का। क्या इन आला अफसरों से उस स्टेशन के या उस जैसे और स्टेशनों के हाल छिपे  रहते हैं ? क्या उनको स्टेशनों की दुर्दशा के हालात पता नहीं होते ? क्या उनकी पोस्टिंग सीधे उच्च पद पर हो गयी होती है जिससे उन्हें देश के रेलवे स्टेशनों की हालात के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती ? जबकि सच्चाई यह है कि वे भी समय के साथ पदोन्नति पा कर ही उस उच्च पद पर पहुंचे होते हैं और ऐसी खुशामदी भरी हरकतें खुद भी कर चुके होते हैं। इसीलिए जब खुद का समय आता है तो उसका आंनद लेने में कोताही नहीं करते। इन्हीं के लिए अलग से डिब्बे जोड़े जाते हैं, इन्हीं के लिए ट्रेन को इंतजार करते भी पाया गया है। इन्हीं के दोस्त-मित्र, नाते-रिश्तेदार, घर-परिवार वाले मुफ्त में ट्रेनों की शाही यात्रा का मजा भी लेते हैं। उधर पैसे चुकाने के बाद भी, कभी-कभी अतिरिक्त भी, आम आदमी धक्के खाता अपने सफर को "सफर" करता येन-केन-प्रकारेण पूरा करता है !

अब तो समय आ गया है कि रेल विभाग अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही, आम यात्रियों के जले पर नमक छिडकने वाली, ऐसी क्रियाओं को बंद कर उन कर-दाताओं को अधिकतम सुविधाऐं प्रदान करने पर ध्यान दे, जो रोज अपनी मेहनत से कमाई पूंजी को खर्च कर रेल यात्रा करने के बावजूद सकून प्राप्त नहीं कर पाते।           

रविवार, 22 जनवरी 2017

जल्लीकट्टू , एक विवादित पारंपरिक खेल

आशा है इस पारंपरिक खेल को वैर भावना से मुक्त कर इंसान और पशु दोनों की सुरक्षा का भी ख्याल रखते हुए  खेल भावना  के तहत ही खेला जाएगा, जिससे फिर कभी इस पर कोई विवाद खड़ा न हो...

कहावत है , उतसव प्रिया: मानवा। पर आज कल देश में घटित हो रहे वाकयों को देख कर लगने लगा है कि कहावत होनी चाहिए, कलह प्रिया: मानवा !  
रोज ही कुछ ना कुछ बखेड़ा, कोई ना कोई विवाद, कोई ना कोई मतभेद उभर कर सामने आता ही रहता है। इससे और कुछ हो ना हो पर राजनितिक दलों को अपनी राजनीती चमकाने का मौका जरूर मिल जाता है। लोग सडकों पर उतर आते हैं। मामला कोर्ट तक जा पहुंचता है। जिसके फैसले पर भी, हालांकि लोग खुल कर नहीं बोलते, आजकल उंगलियां उठाने लग गयीं हैं। जो आने वाले समय के लिए कोई अच्छा इशारा नहीं है ! ताजा मसाला देश के दक्षिण भाग में फसल कटने पर होने वाले त्यौहार पोंगल के अवसर पर खेले जाने वाले मशहूर प्राचीन पारंपरिक खेल  जल्लीकट्टू का है। जिसे इंसान सांड या बैलों के साथ खेलता है।

वर्ष 2011 में बैल प्रजाति को भी संरक्षित श्रेणी में स्थान दे दिए जाने पर  जल्लीकट्टू पर भी विवाद शुरू हो गया था जिसकी परिणीति पर मई 2014 में भारत के "एनीमल वेलफेयर बोर्ड" और "पेटा" के आवेदन पर कोर्ट ने इसे हिंसक करार देते हुए इस पर रोक लगाने के आदेश दे दिए थे। हर साल पक्ष-विपक्ष में झड़पें होती रहीं। लोग खेल के पक्ष में थे उनके अनुसार यह एक प्राचीन, लोकप्रिय, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन था जो लोगों के दिलों से गहराई से जुड़ा हुआ था। पर कोर्ट इसे पशुओं पर अत्याचार के रूप में लेता रहा है। कुछ दिन पहले ही मोदी सरकार ने मुख्यमंत्री जयललिता की मांग पर खेल को हरी झंडी दी थी पर सुप्रीम कोर्ट ने अब फिर उस पर पाबंदी लगा दी है न्यायालय ने स्पष्ट किया कि  जल्लीकट्टू को सिर्फ इसलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि यह वर्षों से होता आ रहा है। इसी फैसले को लेकर पूरा प्रदेश आंदोलन पर उतर आया है जिसमे नामी-गिरामी लोग भी शामिल हो गए हैं।  

जल्लीकट्टू, तमिलनाडु के ग्रामीण इलाक़ों का एक परंपरागत खेल है जो फसलों की कटाई के अवसर पर पोंगल के त्यौहार पर आयोजित कराया जाता है और जिसमे बैलों से इंसानों की लड़ाई कराई जाती है. इसे तमिलनाडु के गौरव तथा संस्कृति का प्रतीक कहा जाता है, जो उनकी संस्कृति से जुड़ा है।
जल्लीकट्टू का इतिहास करीब 400 साल पुराना बताया जाता है। जो  पोंगल के समय आयोजित किया जाता है। तमिलनाडु में यह सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि बहुत पुरानी परंपरा है। मदुरै में जल्लीकट्टू खेल का सबसे बड़ा मेला लगता है। इससे पुरुषों और बैलों दोनों के दम-ख़म की परीक्षा होती थी।लड़कियों के लिए सही वर ढ़ूंढने के लिए स्वयंबर के रूप में जल्लीकट्टू का सहारा लिया जाता था, जो युवक सांड़ पर काबू पा लेता था शादी उसी से होती थी। दूसरे गायों की अच्छी नस्ल के लिए उत्तम कोटि के सांड का भी चुनाव इसी के द्वारा किया जाता था। 

यह खेल स्पेन की "बुल फाइट" से मिलता जुलता है। पर वहां की तरह इसमें बैलों को मारा नहीं जाता और ना ही बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल करते हैं। यहां पशु को घायल भी नहीं किया जाता। पिछले समय में बैल या सांड के सींगों में सोने के सिक्के बांधे जाते थे जिनका स्थान अब नोटों ने ले लिया है, खेल में भाग लेने वालों को पशु को काबू कर इन्हें ही निकालना  होता है। इसको पहले सल्लीकासू कहा जाता था, सल्ली याने सिक्का और कासू का मतलब सीगों से बन्ध हुआ, समय के साथ सल्लीकासू बदल कर जल्लीकट्टू हो गया।  यह खेल जितना इंसानों के लिए जानलेवा है उतना ही जानवरों के लिए खतरनाक भी है। खेल के शुरु होते ही पहले एक-एक करके तीन बैलों को छोड़ा जाता है। ये गांव के सबसे बूढ़े बैल होते हैं। इन बैलों को कोई नहीं पकड़ता, ये बैल गांव की शान होते हैं और उसके बाद शुरु होता है  जल्लीकट्टू का असली खेल। खेल के दौरान भारी पुलिस फोर्स, एक मेडिकल टीम और कलेक्टर खुद भी वहां मौजूद रहते हैं। 

इस खेल के लिए सांड और बैलों के पालक अपने पालतू पशुओं की खूब देख-भाल करते हैं तथा उनको इस खेल के लिए प्रशिक्षित भी करते हैं। पर समय के साथ-साथ इस खेल में नई पीढ़ी के पदार्पण के साथ ही बढ़ती प्रतिस्पर्धा व जीत की लालसा ने कुछ गलत तरीकों को भी अपना लिया है। जिसके अंतर्गत सांड़ों को भड़काने के लिए उन्हें शराब पिलाने से लेकर उनकी आंखों में मिर्च तक डाल दी जाती है इसके साथ ही उनका शारीरिक उत्पीडन भी किया जाता है ताकि वे और तेज दौड़ सकें। इसी हिंसक बर्ताव को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने  इस खेल को बैन कर दिया था। 

ताजा समाचारों के अनुसार इसकी लोकप्रियता और इसके पक्ष में विराट जन-आंदोलन को देखते हुए एक अध्यादेश पारित कर, सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद, अब फिर इसको आयोजित करने की अनुमति मिल गयी है। आशा है इस पारंपरिक खेल को वैर भावना से मुक्त कर इंसान और पशु दोनों की सुरक्षा का भी ख्याल रखते हुए  खेल भावना  के तहत ही खेला जाएगा, जिससे फिर कभी इस पर कोई विवाद खड़ा न हो। 

सोमवार, 16 जनवरी 2017

अमित जी, सिर्फ मसालों से ही भोजन स्वादिष्ट नहीं बन जाता

अमितजी, आपके स्तर, आपकी ख्याति के लायक बिल्कुल नहीं है यह विज्ञापन ! विज्ञापन ही सही माँ तो माँ होती है उसकी तौहीन करना वह भी बार-बार, किसी भी तरह, कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता !   

अभी कुछ दिनों से टी.वी. पर #एवरेस्टमसालों का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमें अमिताभ बच्चन अपने दोस्त की माताजी के द्वारा बनाए गए खाने की आलोचना करते दिखाए गए हैं। बात ज़रा कचोटती है कि वह आदमी
जिसकी अदाकारी का सारा जहां कायल है, उससे भी ज्यादा उसके संस्कार, उसकी भाषा पर पकड़, उसकी नम्रता, उसकी तहजीब, उसकी अपने पिताजी और माताजी के प्रति आदर भावना ने लोगों को उसका मुरीद बना रखा हो, वह दूसरे की माँ का इस तरह से मख़ौल कैसे उड़ा सकता है ! कहा जा रहा है कि वे तो कलाकार हैं उन्हें जैसा कहा गया उन्होंने कर दिया ! गल्ती विज्ञापन बनाने वालों की है। ठीक है पर आज जिस ऊंचाई पर अमित जी हैं और जितना बड़ा उनका कद है, तो कोई भी जबरदस्ती उनसे कुछ नहीं करवा सकता। 

विज्ञापन दाताओं का मुख्य ध्येय रहता है उनको अनुबंधित करना, जहां ऐसा हो गया वे अपनी सफलता के प्रति निश्चिंत हो जाते हैं और समझते हैं कि कुछ भी अगड़म-बगड़म बना दो, पब्लिक हाथों-हाथ ले लेगी। ज्यादातर ऐसा ही होता है। इधर शायद अति व्यस्तता या संबंधों की मजबूरी के कारण या कभी-कभी जाने-अंजाने ऐसा हो जाता होगा जब कलाकार का  "कंटेंट" पर ध्यान ना जा पाता हो और कुछ ऐसा ही घटित हो जाता है जो उनकी छवि के अनुकूल नहीं होता।   

विज्ञापन में अमित जी अपने दोस्त के बुलावे पर उसके घर जा दोस्त की माँ द्वारा बनाए गए भोजन को करने के बाद वापस आकर खाने की आलोचना करते दिखाए गए हैं। चाहे यह विज्ञापन ही है पर माँ तो माँ होती है, उसके प्रति नुक्ताचीनी किसी के भी गले नहीं उतरती, वह भी बच्चन जैसी शख्शियत के द्वारा की गयी ! माँ चाहे जैसा भी खाना बनाए उसका स्वाद उसके बच्चों को सदा प्रिय होता है। यदि वह बेस्वाद होता तो क्या उनका दोस्त उन्हें खाने पर बुलाता ? चलिए मान लेते हैं बच्चे अपनी माँ द्वारा बनाए गए भोजन में कमियां नहीं निकाल पाते, पर जब एक बार उसका स्वाद पसंद नहीं आया तो वहां बार-बार क्यों जाते हैं ? क्या सिर्फ दोस्त की माँ को बार-बार अपने साथ, व्यवसायिक रूप से तैयार किए गए मसालों को ले जाकर शर्मिंदा करने ? पहली बार के बाद ही विनम्रता पूर्वक दोस्त को किसी बहाने से मना भी तो किया जा सकता था और दूसरी बात भोजन सिर्फ मसालों से ही तो स्वादिष्ट नहीं बन जाता !!

क्षमा कीजिएगा #अमितजी, आपके स्तर, आपकी ख्याति के लायक बिल्कुल नहीं है यह विज्ञापन ! बहुत जरूरी था तो माँ की जगह दोस्त की पत्नी का नाम लिया जा सकता था ! उसमें भी शिष्टता नहीं दिखती हो तो खानसामे को बलि का बकरा बनाया जा सकता था।  विज्ञापन ही सही माँ तो माँ होती है उसकी तौहीन करना वह भी बार-बार, किसी भी तरह, कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता !   

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

कर्म और आचरण में अक्सर फर्क होता है

वह पंद्रह-बीस जनों की प्रोफेशनल पार्टी थी, जो जगह-जगह जा वर्षों से भागवत की व्याख्या, उसके उपदेश व उस पर प्रवचन देती आ रही है।  उतनी रात को भी मेरे ज्ञान-चक्षु चैतन्य हो गए कि जरुरी नहीं कि हमारा आचरण हमारे कर्म के अनुकूल ही हो !!!    

दुनिया में तरह-तर के लोग होते हैं। आम धारणा के अनुसार इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है। हिंसात्मक कर्म करने वाले को कठोर और कला से, पूजा-पाठ या आध्यात्म से जुड़े हुए लोगों को साधारणतया विनम्र समझा जाता है। होते भी हैं ऐसे लोग। पर अक्सर ऐसे उदाहरण भी सामने आ जाते हैं जिनके कर्म और आचरण में बहुत फर्क होता है। सीमा पर दुश्मन पर घातक हमला करने वाला जवान अपनी निजी जिंदगी में सरल और विनम्र पाया जाता है। रजत-पट पर दिल दहला देने वाली हरकतों को अंजाम देने वाला खूंखार खलनायक जरूरी नहीं कि वास्तविक जिंदगी में भी वह वैसा ही हो, वह एक नेक और रहम-दिल इंसान होता है। इसके विपरीत समाज के कल्याण का दावा करने वाले, सदा विनम्रता का मुख़ौटा लगाने वाले कुछ लोग देश तक का सौदा कर डालते हैं। चेहरे पर सदा मुस्कान लपेटे रखने वाले अपने हित पर आंच आते ही उग्रता की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं।  ऐसे लोगों से अक्सर सामना हो ही जाता है। 

माँ के दिवंगत होने पर लगातार, अलग-अलग जगहों के सफर के दौरान मेरा तरह-तरह के लोगों से सामना हुआ। अभी पिछली पोस्ट में हरिद्वार स्टेशन पर रात अढ़ाई बजे एक सज्जन की आत्मश्लाघा के बारे में लिखा था। वैसा ही एक और वाकया रायपुर लौटते वक्त घटा था।

निजामुद्दीन से चली गोंडवाना जैसे ही मथुरा स्टेशन पर रुकी, डिब्बे के दरवाजे के सामने दो कुलियों की मदद से एक "ठेला" आ खड़ा हुआ जिस पर पच्चीसों ब ड़े- छोटे नग लदे हुए थे। गाडी कुछ ही देर वहां रुकती है ऊपर से अंदर का संकरा दरवाजा ! सो हमारे उस वातानुकूलित डिब्बे में तो जैसे भूचाल आ गया। बिना आगा-पीछा देखे सामान को अंदर फेंका जाने लगा। देखते-देखते मुख्य द्वार पर अंबार सा लग गया। अंतिम नग आते-आते गाडी ने रेंगना शुरू कर दिया था। वे लोग आठ सीटों के अधिकारी थे पर सामान पंद्रह जनों का था जिसे ठिकाने लगाने की कवायद शुरू हो चुकी थी। जहां भी ज़रा सी जगह दिखती वहीँ नगों को ठूसा जाने लगा, बिना अन्य यात्रियों की असुविधा और उनके सामान की फ़िक्र किए। इतना ही नहीं, उनके और साथी दूसरे डिब्बों में भी थे, अब इतने लोग, उतना सामान, इधर-उधर होना लाजिमी ही है। कुछ ही देर बाद उधर के योग अपना सामान इधर खोजने आने लगे ! अपना तो अपना पहले से बैठे लोगों के सामानों की भी जांच होने लगी जिससे जाहिर है डिब्बे में असंतोष फैलता जा रहा था। पर मथुरा से चढ़े यात्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, विरोध ज्यादा बढ़ने पर उनकी दबंगई के साथ ही कठोर वचन भी प्रवचन के रूप में सामने आने लगे । गाडी के आगरा पहुंचने तक वैसी ही अफरा-तफरी मची रही। पर आना-जाना, शोर-गुल देर रात तक चलता रहा। उन लोगों के साथ दो-तीन सेवक रूपी सहायक भी थे पता नहीं उनके लिए क्या इंतजाम था क्योंकि देर रात तक मैंने उन्हें दरवाजे के पास ही खड़े और बतियाते पाया !!

उन्हीं से पता चला कि यह पंद्रह-बीस जनों की प्रोफेशनल पार्टी है जो जगह-जगह जा वर्षों से भागवत की व्याख्या, उसके उपदेश व उस पर प्रवचन देती आ रही है। उतनी रात को भी मेरे ज्ञान-चक्षु चैतन्य हो गए कि जरुरी नहीं कि हमारा आचरण हमारे कर्म के अनुकूल ही हो !   जय श्री कृष्ण  !! 

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

बिल लेने को ही नहीं देने को भी कहा जाए, सार्वजनिक तौर पर

यह नोटबंदी की तंगी के दौरान की घटना है। डॉक्टर साहब की फीस हजार रुपये थी। परामर्श के बाद उनको कार्ड द्वारा भुगतान की पेशकश की गयी तो उन्होंने  साफ़ इनकार कर दिया और नगद भुगतान करने को कहा, जबकि उनके स्वागत-कक्ष के टेबल पर स्वाइप मशीन रखी हुई थी..क्या कृतज्ञ, सहमा हुआ सा मरीज बिल माँगने की हिम्मत कर सकता है  

पिछले कुछ हफ़्तों से देश में जो कोहराम मचा हुआ है उसके पक्ष-विपक्ष में हो रही लगातार बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रही। उसके अलावा रोज ही कहीं ना कहीं, कोई ना कोई, किसी ना किसी घोटाले के तहत छोटे-बड़े लोगों को पकड़े जाने की खबरें भी आती ही जा रही हैं। जाहिर है कुछ भी हो जाए, कितनी भी कड़ाई कर ली जाए, कैसा भी दंड निर्धारित कर दिया जाए कुछ लोग अपनी हरकतों से बाज नहीं आते।

अपने देश के मध्यम वर्ग का अधिकांश भाग परिस्थिति या मजबूरीवश सदा कमजोर तथा भीरु रहा है और इसी आबादी पर ही सरकारें अपना जोर भी दिखाती हैं। इन्हीं से सबसे ज्यादा ईमानदारी और देशभक्ति की अपेक्षा की जाती है। इन्हीं से सब्सिडी छोड़ने, बढ़ते किराए को झेलने, आने-जाने, रहने, खाने पर ज्यादा शुल्क चुकाने, सरकार के अमले और उसके खर्चों को निपटाने की आशा की जाती है वह भी बिना हील-हवाले, विपरीत परिस्थितियों में बिना किसी शिकायत के।  

अब जैसे सरकार लगातार लोगों से अपील कर रही है किसी भी सेवा या खरीद के बदले बिल लेने की। यह और बात है कि आम आदमी इसे अभी अपनी आदत नहीं बना पाया है और इसका फ़ायदा व्यापारी वर्ग पूरी तरह से उठा रहा है। इसको मद्दे नज़र रख क्या सरकार ने उस वर्ग पर भी जोर डाला है, जो सेवा देता है या सामान बेचता है, कि आप को भी कोई मांगे या ना मांगे, बिल जरूर दो या आपको देना पडेगा ? वैसे दो व्यवसाय ऐसे भी हैं जहां आम आदमी हिम्मत ही नहीं जुटा पाता पैसे को ले कर कुछ बोलने की ! वह हैं डॉक्टर और वकील का दरबार। जहां जब भी किसी को मजबूरीवश जाना पड़ता है तो वह सदा सहमा, आशंकित, कृतज्ञ सा और डरा हुआ ही जाता है। दोनों ही जगहें ऐसी हैं जहां उसकी जान पर बनी होती है और वह भूल कर भी पैसे को ले मोल-भाव नहीं करता, बिल मांगना तो दूर की बात है।

इसी संदर्भ में दो वाकये याद आ रहे हैं। मेरे "कानूनी भाई" के दाएं पैर के टखने में काफी दिनों से दर्द बना हुआ था। पहले इसे हल्के तौर पर लेते रहे, एक-दो जगह दिखाया पर कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। जब दर्द तकरीबन स्थाई हो गया और चलने में भी दिक्कत आने लगी तो हड्डी के विशेषज्ञ, अति व्यस्त चिकित्सक से समय ले उनका परामर्श लिया गया। चिकित्सा की अलग बात है। असल बात यह है कि यह नोटबंदी की तंगी के दौरान की घटना है। डॉक्टर साहब की फीस हजार रुपये थी। परामर्श के बाद उनको कार्ड द्वारा भुगतान की पेशकश की गयी तो उन्होंने  साफ़ इनकार कर दिया और नगद भुगतान करने को कहा, जबकि उनके स्वागत-कक्ष के टेबल पर स्वाइप मशीन रखी हुई थी।
ऐसे ही एक और वाकये का चश्मदीद गवाह बनने का मौका तब मिला जब मेरे मित्र ठाकुर जी के साथ मुझे एक वकील साहब का तमाशा देखने को मिला था। बात कुछ पुरानी है,  ठाकुर जी दुर्भाग्यवश एक केस में उलझ गए थे जिसको एक तेजतर्रार वकील की देख रेख में लड़ा जा रहा था। एक बार मुझे भी वे अपने साथ ले गए। जैसे ही वकील के दफ्तर  में हमने प्रवेश किया उसने ऐसा समा बांधा जैसे आज ठाकुर जी अंदर ही हो जाते यदि उसने बचाया ना होता। आतंकित से करने वाले माहौल में फ़टाफ़ट उसने इधर-उधर के दसियों कागजों पर उनसे दस्तखत करवाए और तीस हजार रुपये धरवा लिए। जाहिर है उपर्युक्त दोनों मौकों में घबड़ाहट ऐसी थी कि पैसे पर कोई ध्यान ही नहीं दे पा रहा था। सो ना देने वाले ने कुछ कहा और दूसरे पक्ष ने तो कहना ही क्या था !

ये तो महज दो उदाहरण हैं। इस तरह के सैंकड़ों लेन-देन इन जैसी दोनों जगहों के साथ-साथ अनेकों और भी जगहों  पर रोज होते हैं ! क्या इन पर कभी नकेल कसी जा सकेगी ? या जैसा एक-दो दिन पहले होटल के बिल पर सर्विस चार्ज के मामले में सरकार ने अस्पष्ट सा बयान जारी कर कि, आप को होटल की सर्विस पसंद ना आए तो सर्विस चार्ज ना दें,  अपना पल्ला झाड़ कलह की स्थिति बना दी है, वैसा ही यहां भी होता रहेगा ?     

रविवार, 1 जनवरी 2017

रात तीन बजे हरिद्वार स्टेशन पर एक "विद्वान" की आत्मश्लाघा

उन्होंने हमारे ज्ञान में वृद्धि की कि वे कोई ऐसी-वैसी हस्ती नहीं है वे वेदों के प्रकांड ज्ञाता हैं जिसके लिए उन्हें जबलपुर से हरिद्वार किसी यज्ञ को पूर्ण करने हेतु बुलाया गया है। वे अक्सर यहां आमंत्रित रहते हैं। यहां के लोगों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा और मान है। यह और बात थी कि उन्हें लेने या उनके स्वागत हेतु वहाँ कोई भी उपस्थित नहीं था                

"वहाँ मत देखिए, हमारे साथ आइए", यह सुनते ही पलट कर देखा तो एक लंबे से मध्यम कद-काठी के इंसान को अपने से मुखातिब पाया। जगह थी, हरिद्वार का रेलवे स्टेशन, समय था पौने तीन रात का, दो-अढाई घँटे में दस दिसंबर की सुबह होने वाली थी। मैं, मामाजी और चेतन का, जो हमसे दिल्ली से जुड़े थे, यहां आना मेरी 
 माताजी के फूलों का गंगाजी में विसर्जन करने हेतु हुआ था। उन दिनों घने कोहरे के फलस्वरूप उत्तर दिशागामी हर गाडी के विलंब से चलने के कारण हमलोग शाम पांच बजे के बजाए आठ-नौ घँटे देर से पहुंचे थे।  गाडी से उतर कर बाहर आते समय वहीँ टँगे विश्राम-कक्षों की सूचि पर नज़र चली गयी तो ठिठक कर जैसे ही देखने लगा वैसे ही उपर्युक्त निर्देश मेरे कानों में पड़ा !हालांकि हमारे पंडित जी के ठिकाने का पता मेरे पास था पर इतनी रात को वहाँ जाना कुछ उचित न समझ हम किसी और विकल्प की तलाश में थे।


हमें लगा कि वे यहां के स्थानीय निवासी हैं। सो हम तीनो उन सज्जन की ओर इस आशा से मुड़े कि वे इतनी रात को सुनसान हो चुके इलाके में टिकने का सही ठौर बता देंगे। तीन जनों के उनके परिवार के साथ हमारे स्टेशन से बाहर आते-आते उन्होंने किसी ठौर की जानकारी के अलावा हर किस्म की अपने से संबंधित बात हमें बता दी। उनका मुख्य उद्देश्य हमारी सहायता करना न होकर अपनी महत्ता और विद्वता का प्रदर्शन करना था जिसके तहत उन्होंने हमारे ज्ञान में वृद्धि की कि वे कोई ऐसी-वैसी हस्ती नहीं है वे वेदों के प्रकांड ज्ञाता हैं जिसके लिए उन्हें जबलपुर से हरिद्वार किसी यज्ञ को पूर्ण करने हेतु बुलाया गया है। वे अक्सर यहां आमंत्रित रहते हैं। यहां के लोगों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा और मान है। यह और बात थी कि उन्हें लेने या उनके स्वागत हेतु वहाँ कोई भी उपस्थित नहीं था और उनकी तंगाई हुई सी श्रीमती जी परेशान हो उन्हें किसी को फोन करने के लिए बार-बार कह रही थीं। 

हम बाहर सड़क तक आ चुके थे। हमारे हाव-भाव देख उन्हें शायद अपनी बातों की निस्तत्वता का बोध हो आया और इतना तो कोई उनकी सहायता के बिना भी कर सकता था जैसे तथ्य को भूलते हुए, उन्होंने प्लेटफार्म से ही पीछे लगे एकमात्र रिक्शेवाले को हमें किसी धर्मशाला में ले जाने को कहा। जब तक रिक्शेवाला अपनी जानकारियों का बही-खाता खोलता, तब तक हम तीनों सामने दिख रहे एक होटल की ओर अग्रसर हो चुके थे।   

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