सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

अ-रामायणनामा

क्या ताम-झाम, शोर-शराबे, उत्सवनुमा माहौल में जो नामी-गिरामी हस्तियां अपनी गरिमामयी उपस्थिति में किसी पुस्तक का या किसी उत्पाद का विमोचन करती हैं, वे क्या कभी उस पुस्तक के कथानक या उस उत्पाद की गुणवत्ता पर भी ध्यान देती हैं या ऐसे ही मेजबान को उपकृत कर चल देती हैं ? क्या इस पुस्तक पर हस्ताक्षर करने वाले नामी-गिरामी लोगों ने इसके कथानक के बारे में कोई जानकारी हासिल की थी ? 

कुछ दिनों पहले एक पुस्तक "SCION OF IKSHVAKU" पर श्री अमिताभ बच्चन, शेखर कपूर, शशि थरूर जैसे दिग्गजों की टिप्पणियाँ, उसके आवरण पृष्ठ के विमोचन पर अक्षय कुमार का उपस्थित होना और कथानक का दावा कि यह श्री राम कथा को आधुनिक परिपेक्ष्य में रख रची गयी कथा है, को देख, कुछ अलग जानकारी और पढने को मिलेगा, इसलिए इसे ख़रीदा था। जेहन में नरेंद्र कोहली जी की रामायण और महाभारत पर पढ़ी बेहतरीन पुस्तकों की याद ताजा हो आई थी।  पर कुछ हट कर क्या मिला ! घोर आक्रोश और निराशा !! पर देश के आज कल के माहौल को देख अराजकता में कहीं और इजाफा न हो जाए इसलिए चुप रहना ही बेहतर लगा।  पर आज फेस बुक पर अमेजन द्वारा इसी की बिक्री का विज्ञापन फिर दिखा तो कुछ लिखने से रहा ना गया !

एक बात समझ में नहीं आती कि झटके में नाम और दाम कमाने की चाहत वाले ऐसे तथाकथित, स्वयंभू  "विद्वानों" के निशाने पर हिंदू धर्म के ग्रंथ, उनके देवी-देवता, उनके कथानक, उनकी संस्कृति, उनकी मान्यताएं ही क्यूँ रहती हैं ?  यदि आप इतने ही बड़े कथाकार हैं, चित्रकार हैं, फिल्मकार हैं, तो फिर आप अपने पात्र अलग नाम-स्थान से क्यों नहीं घढते ? क्यों आपको आपको अपने हुनर पर भरोसा नहीं रहता ? क्यों आपको लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर अपने को प्रकाश में लाने की जरूरत पड़ती है ? क्यों स्थापित पौराणिक चरित्रों के सहारे की आवश्यकता सदा बनी रहती है ? क्यों आप अपनी कहानियों, चित्रो, फिल्मों में उनकी छवि को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हो ? क्यों विवाद की आग भड़का कर अपनी रोटियां सेकना चाहते हो ?    

किसी भी लेखक को आजादी है कि वह अपने मन में आए विचारों को कथा का रूप दे लोगों के सामने रखे पर उसके लिए नैतिकता, सामाजिक सरोकार, लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ तो ना करे ! श्री राम कथा एक ऐसा कथानक है जो भारतवासियों के रोम-रोम में रचा-बसा है। गुलामी, बदहाली, दमन, अत्याचार के समय में इसने हज़ारों-लाखों, आवासी-प्रवासी, हिंदुओं के दिलो-दिमाग को संबल दिए रखा। भारतवासियों को एक सूत्र में बांधे रखा। एक आस्था, एक विश्वास, एक ऐसी धारणा पैदा कर दी कि लोगों के लिए यह कथानक एक आदर्श बन गया। इसके पात्र पूजनीय बन गए। इसमें वर्णित घटनाएं लोगों का मार्ग-दर्शक बन गयीं। भारत के घर-घर में और कुछ हो न हो मानस या उससे संबंधित पुस्तकों की प्रतियों ने जरूर अपना स्थान बना लिया। धर्म का पर्याय बन गयी यह कथा।

पर जैसे-जैसे समाज पर बाजार हावी होने लगा वैसे-वैसे धनार्जन के कई नैतिक-अनैतिक रास्ते भी उजागर होने लग गए उन्हीं में से एक उपधारणा यह उभर कर आई कि छवि-भंजक क्रिया धन का मार्ग प्रशस्त करती है। विवाद पैदा करो, नाम और दाम दोनों झोली में गिरने को आतुर हो जाते हैं। ऐसे लोगों की कुटिल व्यापारिक बुद्धि यह भी अच्छी तरह जानती थी कि इस देश में यदि हजार लोग उनका विरोध करेंगे तो सौ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उनके पक्ष में भी आ खड़े होंगे और यही सौ उन हज़ार पर भारी पड़ उन्हें हर तरह की सफलता दिलवाएंगे। इसी कारण ऐसे लोगों के हौसले बुलंद होते रहते हैं।

रही इस किताब की बात, यदि लेखक ने समय, स्थान, परिवेश, नाम अलग रखे होते तो बात समझ में आती थी। उससे कथा को मौलिक रूप के साथ-साथ मूल पात्रों के चरित्र से छेड़-छाड़ भी महसूस नहीं होती या अखरती। पर दूसरों को बदनाम कर खुद के नाम कमाने की हवस यहां हावी रहती नजर आती है। एक प्रश्न और सर उठाता है कि क्या ताम-झाम, शोर-शराबे, उत्सवनुमा माहौल में जो नामी-गिरामी हस्तियां अपनी गरिमामयी उपस्थिति में किसी पुस्तक का या किसी उत्पाद का विमोचन करती हैं, वे क्या कभी उस पुस्तक के कथानक या उस उत्पाद की गुणवत्ता पर भी ध्यान देती हैं या ऐसे ही मेजबान को उपकृत कर चल देती हैं ?
एक नजर इस पुस्तक में वर्णित किए गए वाकयों पर डालने से एक असमंजस की स्थिति आ खड़ी होती है, जिसके अनुसार -     
* अयोध्या आर्थिक रूप से डांवाडोल,  भ्रष्टाचार में लिप्त, षडयंत्रों में फंसा राज्य था।  
* अयोध्या का खर्च मंथरा उठाती थी जिसके पास अकूत दौलत थी। वह षडयंत्रकारियों की प्रमुख थी। पूरे राज-परिवार पर उसका दबदबा था। 
* मंथरा की एक लड़की थी जो डाक्टर थी। लेखक ने उसी की मौत को मुद्दा बना राम के बनवास की घटना रची है। जिसके लिए मंथरा कैकेयी को उत्कोच देती है। 
* चूँकि जिस दिन रावण के हाथों युद्ध में दशरथ की बुरी तरह हार हुई थी, उसी दिन राम का जन्म हुआ था इसलिए दशरथ राम से नफरत करते थे। इसी कारण प्रजा में भी राम की छवि अच्छी नहीं थी।
* कुछ लोग राम को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे।
* माता कौश्लया बेहद बेबस और हताशा भरा समय व्यतीत कर रही थीं। दशरथ उन्हें देखना तक नहीं चाहते थे। 
* अराजकता का बोलबाला था इसलिए जब चारों भाई गुरुकुल से लौटे तो राम को फ़साने के लिए "पुलिस विभाग" सौंपा गया और भरत को भावी राजा घोषित किया गया।    
* चारों भाइयों की उम्र में भी काफी फर्क था। 
* गुरु वशिष्ठ अपना गुरुकुल, वनवासियों की जमीन पर किराए पर चलाते थे।  वह भी दशरथ को राजसिंहासन से हटाना चाहते थे।
* वनवासियों की अयोध्या से दुश्मनी थी। इसलिए उनसे राजकुमारों की असलियत छिपा कर रखी गयी थी।
* वशिष्ठ आर्यावर्त या भारत को नहीं "इंडिया" से लगाव रखते थे।
* प्रणाम या नमस्कार के बदले "नमस्ते" का प्रयोग किया जाता था। 
* भरत की कई लड़कियों से दोस्ती थी। लक्ष्मण और शत्रुघ्न उन्हें "खिलाड़ी" मानते थे।
* गुरुकुल के नियमों की अवहेलना कर लक्ष्मण रात्रि-विहार किया करते थे।
* वनवास के चौदह में तरह सालों में एक बार भी लेखक ने उन्हें कंद-मूल लाने की बजाय हर बार शिकार कर अपना भोजन प्राप्त करते बताया है।

ऐसे  ही कल्पित और विवादित घटनाओं का पुलिंदा है यह उपन्यास।
किसी की इच्छा या अनिच्छा से किसी वस्तु का आंकलन करना ठीक नहीं होता इसलिए लगता है कि इस पुस्तक को अधिक से अधिक लोग पढ़ें जिससे इसका मूल्यांकन और इसकी गुणवत्ता को लोग परख कर अपनी राय सबके सामने रख सकें जिससे भविष्य में लिखने वाले, छापने वाले और बेचने वाले पहले सोचें फिर कोई कदम उठाएं। 

3 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " डरो ... कि डरना जरूरी है ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

PD ने कहा…

मैं जानता हूँ कि यह किताब किसी भी आधार पर स्तरीय नहीं ठहरती है. मैंने भी पढ़ रखी है इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ. मगर जैसा आपने लिखा उस आधार पर तो शिव त्रयी पर लिखी इसी लेखक की किताब का भी आंकलन ऐसे ही होना चाहिए था.
अगर रामायण को एक अच्छे सामाजिक मूल्य की कहानी माने तो उसमें यक़ीनन सब अच्छा अच्छा ही होगा. मगर हम उसे कहीं ना कहीं अपने इतिहास से जोड़ते हैं. हम मानते रहे है की काल के किसी खंड में यह घटा होगा, बस वह खंड कौन सा है यह हमें नहीं पता. और मानवों के स्वभाव के मुताबिक हर देश-राज्य में सौ प्रतिशत इमानदारी कभी नहीं रही है और ना रहेगी. अराजकता और भ्रष्टाचार राज्य का एक अंग सदा रहा है और रहेगा भी.
जब आचार्य चतुरसेन रावण का महिमामंडन वयं रक्षामः में कर चुके हैं तो इन्हें भी नए आयामों की कल्पना करने दीजिये. सनद रहे, मैं इस लेखक की तुलना चतुरसेन से नहीं कर रहा हूँ(समय ऐसा आ गया है की हर बात सीधे कहनी पड़ती है इसलिए सनद वाला वाक्य जोड़ना पड़ा :) )

और हाँ, आपका ब्लॉग मैं लगातार पढता रहा हूँ. कमेन्ट मगर 4-5 साल के बाद कर रहा हूँ. 4-5 साल पहले के पोस्ट पर शायद आपको मेरा कमेन्ट मिले. :)

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रशांत जी,
आप से पूरी तरह सहमत हूँ। पर अपनी बात बिना किसी की भावना को ठेस पहुंचाए भी कही जा सकती है। उदाहरण के लिए नरेंद्र कोहली जी का रामायण के प्रति नजरिया। पर आजकल "फैशन" हो गया है कुछ भी विवादित कर "लाइम लाईट" में आने का और यह शिव-त्रयी की ही सफलता है जिसने आत्ममुग्धता की स्थिति में ला दिया है।

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