शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

क्या हो जाता है मनुष्य को जीवन के अंतिम पड़ाव में

यह कोई ठाकुर जी की दादी जी के साथ ही नहीं हो रहा था, यह तो शायद दुनिया के निन्यानवें प्रतिशत लोगों के साथ घटती अवस्था है। एक समय के बाद इंसानी कल-पुर्जे इसी तरह का व्यवहार करना आरंभ कर देते हैं। समझ नहीं आ रहा था की प्रकृति के इस स्थाई भाव से कैसे किसी को उबारा जाए .......

इंसान की जीने की लालसा, अदम्य इच्छा, मोह-माया, मन की कामनाएं, लिप्साएं, वृत्तियां भले ही खत्म ना हों पर बढती उम्र काफी पहले से उसे आईना दिखाना शुरू कर देती है। इसमें कोई भेद-भाव नहीं होता चाहे आदमी संपन्न हो या विपन्न। जर्जर होती काया, कमजोर होती इन्द्रियां, अवसाद ग्रस्त दिलो-दिमाग, पारिवारिक सदस्यों की अपनी व्यवस्तता के कारण बढ़ता अकेलापन, अपनी निष्क्रियता के कारण उपजती हीन भावना, सब मिला कर आदमी अपने-आप को परिवार में अनचाहा सा समझने लगता है। हालांकि ऐसा होता नहीं है, परिवार वाले उसका ख्याल भी रखते हैं, उसे चाहते भी हैं पर हर घडी उसके पास बने रहना संभव नहीं हो पाता और यही न हो पाना इंसान के मन में घर कर जाता है। वैसे एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि कुछ घरों में बुजुर्ग एक बेकार से सामान की तरह घर के एक कोने में टिका दिए जाते हैं और उन्हें दो समय खाना दे बाकी लोग अपने फर्ज की इतिश्री समझ लेते हैं। इन सब कारणों से आपस में तल्खी, चिड़चिड़ापन, तनाव आदि उपजते हैं जिससे निजात पाने के लिए एक ही रास्ता निकलता है जो वृद्धाश्रम की और जाता है। पर वह ना ही तो कोई इन परिस्थितियों से निकलने का उपाय है नहीं मानवता। ये जरूर है कि कुछ ऐसे लोग जिनका कोई भी पारिवारिक सदस्य न हो वे वहां हम-उम्र लोगों का साथ पा सकते हैं। 

ये सारी बातें इस लिए महसूस कर रहा हूँ क्योंकि कल ठाकुर जी बहुत दिनों बाद मेरे यहां आए थे कुछ परेशानी की हालत में। बातों-बातों में बात उनकी दादी जी के बारे में चल निकली, जिन्हें मैं भी अच्छी तरह से जानता हूँ और जो इस समय उम्र के नवें दशक को पार करने के मुकाम पर हैं, कि उनके स्वभाव में पिछले सात-आठ सालों से मंथर गति से एक स्थाई बदलाव आता जा रहा है। कैसा भी खुशगवार माहौल हो, कुछ पल छोड़ दें, तो उन्हें खुश नहीं कर पाता। हर समय सोच नकारात्मक बनी रहती है। घर-परिवार की तो छोड़ें पास-पड़ोस पर भी नकारात्मक टिप्पणियाँ करना आम हो चला है। जबकि ये वही शख्शियत है जिनके घर के रख-रखाव, सुघड़ता, कार्य-कुशलता, आचार-व्यवहार की लोग मिसाल दिया करते थे।  जिन्होंने कभी किसी जरूरतमंद को निराश जाने नहीं दिया। अपने देवर-भाभी, भाई-बहनों की सदा सहायता की। सभी के आड़े वक्त में सहारा बन खड़ी हुईं। पर अब पूरी की पूरी शख्शियत ही बदल सी गयी है। सब भरसक कोशिश करते हैं कि उनके मुंह से निकलने  पहले उनकी इच्छा पूरी हो जाए पर फिर भी कहीं न कहीं गफलत हो ही जाती है। 

कुछ देर हम दोनों चुप बैठे रहे। यह कोई ठाकुर जी की दादी जी के साथ ही नहीं हो रहा था, यह तो शायद दुनिया के निन्यानवें प्रतिशत लोगों के साथ घटती अवस्था है। एक समय के बाद इंसानी कल-पुर्जे इसी तरह का व्यवहार करना आरंभ कर देते हैं। समझ नहीं आ रहा था की प्रकृति के इस स्थाई भाव से कैसे किसी को उबारा जाए हालांकि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं पर क्या कभी मनुष्य कायनात का सामना कर पाया है?            

3 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

वृद्धावस्था एक अवस्था है जिसमें आने वाली परिस्थितियों का सामना स्वयं ही करना होता है. आत्मनिर्भरता, अपने को किसी कार्य में व्यस्त रखना, परिवार के मामलों में कम से कम हस्तक्षेप आदि इस अवस्था में बहुत आवश्यक हैं.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…


आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-09-2015) को "हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने से परहेज क्यों?" (चर्चा अंक-2096) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १२२ साल पहले शिकागो मे हुई थी भारत की जयजयकार , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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