मंगलवार, 31 मार्च 2015

भारत यूं ही सोने की चिड़िया नहीं बन गया था !

अपना देश सोने की चिड़िया ही क्यूँ कहलाता था इसका जवाब कोई दे न दे पर यह तो सर्वविदित है कि इसके चिड़िया होने का लाभ कई बाजों ने उठाया। जिन्होंने बाहर से आ-आकर इसे लहूलुहान कर छोड़ा और अब उनकी यहीं पनपी प्रजाति बचे-खुचे पिंजर को भी झिंझोड़ने से बाज नहीं आती...............

वर्तमान में हम चाहे जैसे भी हों, स्थितियां-परिस्थितियां कैसी भी हों पर हम में से अधिकांश अभी भी अपने पुराने अतीत को बड़े गर्व से याद कर उसका बखान करते नहीं थकते कि हमारा देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था। अब ये चिड़िया ही क्यूँ कहलाता था इसका जवाब कोई दे न दे पर यह तो सर्वविदित है कि इसके चिड़िया होने का लाभ कई बाजों ने उठाया। जिन्होंने बाहर से आ-आकर इसे लहूलुहान कर छोड़ा और अब उनकी यहीं पनपी प्रजाति बचे-खुचे पिंजर को भी झिंझोड़ने से बाज नहीं आती।
  
वक्त-वक्त की बात है, भारत यूं ही सोने की चिड़िया नहीं बन गया था। उसके निर्माण में राजा और प्रजा दोनों का सम्मलित योगदान था। राज्य  की तरफ से कामगारों और किसानों को  पूरी सुरक्षा तथा उनकी मेहनत का पूरा मुआवजा दिया जाता था।  हारी-बिमारी या प्राकृतिक आपदा में भी, खासकर किसानों को राजा से पूरा संरक्षण प्राप्त होता था। आखिरकार देश की प्रजा की भूख मिटाने में वही तो अहम भुमिका अदा करते थे। इसीलिए  मेहनतकश  कामगार और किसान भविष्य की तरफ से आश्वस्त हो कर पूरी निष्ठा और समर्पण भाव से अपना काम करते थे। उनके लिए पहले देश फिर राजा तथा उसके बाद खुद और अपना परिवार होता था। आपस में भाईचारा था। एक का दुःख सबका कष्ट होता था।  आस-पड़ोस तो क्या सारा गांव ही एक परिवार की तरह माना जाता था। शायद ही कभी किसी का पड़ोसी भूखा सो पाता हो। पेट भरा और दिमाग चिंता-मुक्त हो तभी हर काम सुचारू रूप से हो पाता है। वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है। अब पहले खुद और अपनी पीढ़ी, फिर राजा, वह भी अपना मतलब सिद्ध करने के लिए। देश तो जाने किस कोने में पड़ा अपने दुर्दिन देख रहा है।  आज सारे देश का पेट भरने वाला खुद आधे पेट रहता है। अपने लहू को पसीना बना फसल सींचने वाला उसका उचित मोल न मिलने पर निराश हो या तो मौत को गले लगाने पर मजबूर है या फिर माँ समान धरती को बेच-बाच कर किसी और धंधे की और उन्मुख हो जाता है । अभी एक सर्वे में सामने आया है कि करीब बासठ प्रतिशत किसान अपना पुश्तैनी काम छोड़ कुछ और करना चाहते हैं। कभी- कभी तो लगता है कि कहीं जान-बूझ कर ही तो उसे मजबूर नहीं किया जाता उसकी जमीन को हड़पने लिए।  सरकारी नीतियां और धन-लोलुपों की लालसाएं अपना उल्लू सीधा करने के लिए कुछ भी तो कर सकती हैं। फिर ऊपर से कामगार को काम नहीं मिलता, किसी तरह कुछ दिनों के लिए मिल भी जाए तो उसका एक बड़ा हिस्सा बिचौलिए या दलाल दबा जाते हैं । सरकार की नीतियां कुछ रसूख-दारों और बड़े जमींदारों के लिए कुबेर का खजाना बनती जा रही हैं। आज हुनरमंदों की हैसियत किसी भिक्षुक के समान कर दी गयी है । यही हाल रहा तो आने वाले समय में अविराम बढ़ती आबादी का पेट भरना एक ज्वलंत समस्या बन कर सामने आने वाली है। 

 उस समय के भारत  का प्रामाणिक विवरण को, बहुत सारी जानकारियों के साथ मेगास्थनीज ने, जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी नरेश सिल्यूकस का राजदूत था, भारत भ्रमण कर लिपिबद्ध किया था। उसके अनुसार  चंद्रगुप्त के समय में चोरियां ना के बराबर होती थीं। किसानों और पूरे खेतिहर वर्ग को बहुत सम्मान प्राप्त था। एक तरह से इस काम को पवित्र और पूजनीय माना जाता था। उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा है कि जहां दूसरे देशों में युद्ध के समय खड़ी फसलों को बर्बाद कर दिया जाता था, खलिहानों में आग लगा दी जाती थी जिससे सेना को रसद ना मिल पाए, वहीं भारत में किसानों को युद्ध से जैसे कोई मतलब ही नहीं होता था। युद्धभूमि से कुछ दूरी पर भी किसान अपना कार्य यथावत करते रहते थे। इसीसे रसद की अबाध उपलब्धि सेना और नागरिकों को प्राप्त होती रहती थी। जिससे आपात काल में भी कोई काम ठप नहीं हो पाता था। 

मेगास्थनिज ने उस काल में यहां विदेशियों की सुरक्षा और उनकी देखभाल के लिये राजा और राज्य के निवासियों की भी बहुत तारीफ की है। उसका लेख आज भी प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता है। जाहिर है ऐसी स्थिति-परिस्थिति या माहौल कह लीजिए, कोई भी देश हो, उन्नति, वैभव, समृद्धि खुद चल कर उसके पास आएगी ।  

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

इम्तिहानी मौसम

अधिकांश किशोर-मुखारविंद जो अबतक  शक्कर के 'श' में छोटी 'इ' की मात्रा लगा टट्टू का 'ट' जोड, जैसे शब्दों को बिना उसका अर्थ समझे, बिना किसी झिझक के सरे आम उगलते रहते थे, वही अब हनुमान चालीसा या शिव स्त्रोत्र जपते नजर आने लगते हैं।   


आजकल प्राकृतिक मौसम के अलावा एक और मौसम अस्तित्व में है वह है इम्तिहानों का मौसम। यह मौसम प्राकृतिक देन ना होकर एक मानव-प्रदत्त ऋतु है। इसके स्थूल फायदे-नुक्सान, जरुरत और कार्यकलाप को नज़रंदाज़ कर जरा हट कर देखें तो पाएंगे कि इस देशव्यापी ऋतु का समाज के एक वृहद वर्ग पर अच्छा-खासा असर पड़ता है। ऐसा पाया गया है कि इस मौसम के आते ही इससे प्रभावित लोग अनायास ही श्रद्धालु और भक्तिरस में सराबोर हो जाते हैं। इसीलिए धर्मस्थलों में आवागमन काफी बढ़ जाता है, पूजा-पाठ, दान-पुण्य में बढ़ोतरी हो जाती है। किताब-कापियां जो इधर-उधर पड़ी रहती थीं अब सिर-माथे लगने लग जाती हैं। 'हाय' और 'बाय' की जगह 'पैरिपौना' ले लेता है। शगुन-अपशगुन का ध्यान रखा जाने
परीक्षा कक्ष में जाने से पहले

लगता है। अधिकांश किशोर-मुखारविंद जो अबतक  शक्कर के 'श' में छोटी 'इ' की मात्रा लगा टट्टू का 'ट' जोड, जैसे शब्दों को बिना उसका अर्थ समझे, बिना किसी झिझक के सरे आम उगलते रहते थे, वही अब हनुमान चालीसा या शिव स्त्रोत्र जपते नजर आने लगते हैं।

कहते हैं कि यदि परीक्षा न हो तो स्कूल-कालेज का समय छात्रों की जिंदगी का बेहतरीन हिस्सा होता है। पर यही परिक्षाएं समाज के एक तबके का सबसे प्रतीक्षित समय भी होता है। इन दिनों पैदा होने वाली मानसिकता का एक ख़ास पेशे से जुड़े चतुर-सुजान लोग फायदा उठाने में कोई गफलत नहीं करते। ये पेशा है भीख मांगने का। वैसे तो यह एक सदाबहार धंधा है जो बारहों-मास, बिना हींग और फिटकरी लगाए फल टपकाता रहता है, पर यह मौसम इनके लिए सर्वाधिक लाभ का मौसम है वह भी बिना ज्यादा मेहनत-मशक्कत के। जिस में बिना दुत्कारे या मुंह बनाए हर कोई इनकी झोली में कुछ न कुछ जरूर डाल देता है। इसीलिए ये लोग अपने-अपने निश्चित ठीहों-इलाकों को छोड़ कालेज, स्कूलों के आस-पास मंडराने लगते हैं। जहां परीक्षार्थियों को अपने आशीर्वचनों से बहला-फुसला उन्हें अपनी अच्छी-खासी आमदनी का जरिया बना लेते हैं। इनके जाल में वे लोग ज़रा ज्यादा ही उलझ जाते हैं जिन्होंने विद्यालयों में दाखिले के बाद अपने समय का सदुपयोग अपने साथी के साथ बाग़-बगिया, मॉल-बाजार, रेस्त्रां-फ़िल्म इत्यादि में किया होता है। उनके लिए पांच-दस रुपये में मिलने वाली दुआ मनोबल बढ़ाने में
वियाग्रा का काम करती है।

वैसे परीक्षा का भूत कुछ होता ही ऐसा है। विद्यार्थी चाहे कितना भी रियाज कर ले, कितने भी सवालों का हल अपने दिमाग में स्टोर कर ले, जैसे ही परीक्षा का समय आता है महाभारत के कर्ण की तरह उसकी यादाश्त 'हैंग' हो जाती है। तब इस परीक्षा रूपी सागर को पार करने के लिए कोई भी, कैसा भी तिनका दिखे उसका सहारा लेने के लिए हाथ बढ़ ही जाता है।

चलिए दुआ करते हैं कि जैसे भी हो इस समर में कूदे हर योद्धा को किनारा मिल जाए।             

शनिवार, 7 मार्च 2015

गंगा की लहरों पर कुछ पल

मनुष्य के जन्म लेते ही उसके वहां पहले से मौजूद लोगों से रिश्ते बन जाते हैं। ऐसे रिश्ते खून के रिश्ते कहलाते हैं। फिर जैसे-जैसे वह उम्रदराज होता जाता है वैसे-वैसे उसके दुनियादारी के और संबंध भी बनते चले जाते हैं। कभी-कभी ऐसे रिश्ते खून के रिश्तों से भी ज्यादा प्रेमिल और प्रगाढ़ होते हैं। ऐसे ही चार-चार पीढ़ियों से चले आ रहे कुछ बंधन कोलकाता में मेरा इंतज़ार करते रहते हैं।    
शिव मंदिर 
पिछले दिनों भूटान से लौटते हुए कोलकाता में सुबह सात से रात आठ तक, एक दिन रुकना हुआ तो पुरानी यादें ताजा करने का सुयोग मिल गया। चिरंजीव मनोज और शंकर समझ नहीं पा रहे थे कि इस समय का सदुपयोग कैसे किया जाए। जिससे दोनों घरों के सदस्य भी कुछ बतिया सकें, इतने दिनों बाद आए भैया से। दोनों घर एक-डेढ़ कि. मी. की आपसी दूरी के साथ गंगा के किनारे ही हैं। इसलिए यही तय पाया गया कि गंगा की "फेरी" का आनंद लेते हुए आस-पास की जगहों में हुए परिवर्तन का लेखा-जोखा इकट्ठा कर घर वापस आ जाते हैं।                         

नित्यकर्म निपटाते, बतियाते दोपहर हो गयी थी। साढ़े बारह के ऊपर हो रहा था जब हम नीमतल्ला घाट के समीप अहीरीटोला के फेरी-घाट पर पहुंचे। नीमतल्ला घाट, आबादी के बीचो-बीच, गंगा किनारे स्थित कोलकाता का सबसे पुराना और व्यस्ततम श्मशान घाट है। कहते हैं इसके निर्माण से आज तक, वह भी आजादी के पहले, सिर्फ एक दिन ऐसा हुआ था जब   यहां एक भी चिता नहीं जली थी। उस दिन ख़ुशी में कार्पोरेशन ने मिठाई बंटवाई थी। यहां भगवान शंकर का मंदिर है जो "बाबा भूतनाथ" के नाम से  सुविख्यात है। हर सोमवार को यहां श्रद्धालुओं का अपार सैलाब उमड़ता है जिससे पैर रखने की जगह भी नहीं बच पाती। 
स्टीमर के अंदर 

आजकल कोलकाता में गंगा नदी पर स्टीमरों की सेवा बहुत अच्छी और विभिन्न रूटों के लिए हो गयी है। जहां पहले घूम कर हावड़ा पुल से स्टेशन जाने में पौना घंटा लग जाता था और जाम लग जाने से गाड़ी छूट जाने का डर अलग से   सताता रहता था वहीँ अब बिना किसी तनाव के 15 से 20 मिनटों में लोग प्लेटफार्म पर पहुंच जाते हैं। यहां के स्टीमर अहिरीटोला घाट से चलते हैं। यहां ज्यादातर हिंदी भाषी लोग बसते हैं। पर भाषा का हाल बेहाल ही है।
माँ गंगा 

हमलोगों ने यहां से  उस पार स्थित बांधा-घाट-सल्किया का "लांच" लिया। इस समय नदी में ज्वार आया हुआ था। पानी के बहाव की तेजी के कारण स्टीमर कुछ धीरे चल पा रहा था फिर भी उसने करीब बीस मिनटों में हमें उस पार पहुंचा दिया।
जेटी 
घाट से मुख्य सड़क को जोड़ने वाली पतली संकरी गली से होते हुए बाजार की तरफ आते हुए पाया कि गलियां, सड़कें जगह की कमी के कारण वर्षों से जस की तस हैं फिलहाल उन्हें एकतरफा बना कुछ राहत पा ली गयी है। अलबत्ता पुराने मकानों की जगह नए सुरुचिपूर्ण भवनों ने ले ली है। जबसे हावड़ा को कोलकाता से अलग कर नया जिला बना दिया गया है तबसे इधर काफी सुधार होता दिख रहा है। वहीं स्थित पुराने सिनेमा हॉल "अशोक" को देख शोक भी
ज्वार से भरी नदी 
हुआ, जो जर्जरावस्था में बंदहाली की अवस्था में अपने बीते हुए समय को याद करता खड़ा था। इसी तरह कुछ पुराने मंदिर, पार्क, भवनों में बीता काल-खण्ड खोजते देखते पाया कि धूप तेज हो रही है, तीन के ऊपर समय भी हो रहा था सो घाट पर जा फिर फेरी का सहारा ले वापस हो लिए। ज्वार अभी भी नहीं उतरा था। घर पर बात-चीत में कब समय निकल गया पता ही नहीं चला। 

रात को हावड़ा से मुंबई मेल लेनी थी, जो सुबह साढ़े नौ के आस-पास रायपुर पहुंचा देती है। पर कहते हैं न कि "तेरे मन कुछ और है दाता के मन कछू और" तो क्या पता था कि हावड़ा से रायपुर पहुंचने में पूरे पैंतालीस घंटे लग जाएंगे, कुछ लोगों के अपनी मांगें मनवाने के लिए पटरियों पर धरना देने की वजह से।                      

रविवार, 1 मार्च 2015

क्या शिक्षा के कर्णधार ध्यान देंगे !

इन परीक्षा के दिनों में कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने में मशगूल थे, जब उनसे पूछा, अरे ! तुम लोगों के पेपर नहीं हैं ? तो सबने जवाब दिया, हाँ अंकल चल रहे हैं। यह पूछने पर कि सब तैयारी हो गयी ? आशा थी कि वे कहेंगे, हाँ, अंकल, बस कुछ देर में फ्रेश हो कर फिर पढने जुट जाएंगे। पर उनमें से एक बच्चे का जवाब सुन दंग रह जाना पड़ा, उसका कहना था, अंकल काहे को टेंशन लें, पास तो हो ही जाना है।

आज पहली मार्च है। अभी कुछ ही देर में संध्या के पांच  बजा चाहते हैं। घर के सामने वाली गली में दोपहर बाद से कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने में मशगूल थे। कुछ अपेक्षाकृत छोटे, हाथों में पानी भरी पिचकारियां लिए मस्ती कर रहे थे। अभी-अभी ही स्कूलों में परीक्षाएं शुरू हुई हैं और कुछ अगली पांच को शुरू होने वाली हैं। पर लग नहीं रहा था कि इनको या इनके अभिभावकों को होने वाली परीक्षा की किसी तरह की चिंता हो ! ऐसे ही पता नहीं क्यों, शायद कौतुहलवश मैं उन छोटे-बड़े बच्चों के पास गया और पूछा, अरे ! तुम लोगों के पेपर नहीं हैं ?  
सबने जवाब दिया, हाँ अंकल चल रहे हैं। 
मैंने कहा तो, सब तैयारी हो गयी है  ?  
मुझे आशा थी कि वे कहेंगे, हाँ, अंकल, बस कुछ देर में फ्रेश हो कर फिर जुट जाएंगे। 
पर उनमें से एक बच्चे का जवाब सुन मैं दंग रह गया, उसका कहना था, अंकल काहे को टेंशन लें, पास तो हो ही जाना है।

ज्ञातव्य है कि पिछली सरकार के शिक्षा मंत्री महोदय ने आठवीं कक्षा तक किसी भी छात्र को फेल ना करने का निर्देश जारी किया था। उस निर्देश की अच्छाई या बुराई का विश्लेषण तो समय करेगा, पर उसका बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है इसकी मीमांसा के साथ-साथ बच्चों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए परीक्षा के दिनों को निश्चित करने पर भी विचार होना चाहिए। बात परीक्षा-फल के लिए डर या चिंता पैदा करवाने की नहीं है। बात है बच्चों को और ख़ासकर उनके अभिभावकों को शिक्षा के प्रति जागरूक, जिम्मेदार और उसको गंभीरता से लेने की। सिर्फ सीढ़ी दर सीढ़ी की तरह कक्षा बदलते रहने से डिग्री जरूर मिल जाती है पर लियाकत, जिसकी आने वाली जिंदगी में सदा जरुरत पड़ती है, नदारद रहती है।   

वैसे तो हमारे देश में साल भर उत्सव और त्यौहार चलते रहते हैं।  पर इनमें कुछ बहुत ही प्रमुख होते हैं, जैसे होली और दीपावली। इनमें भी होली कुछ ज्यादा ही मौज-मस्ती वाला उत्सव है। तो परीक्षा की समय-सारिणी बनाने वाले महानुभाव क्यों नहीं इस बात को मद्देनजर रख इन दिनों होने वाले इम्तिहानों की रूप-रेखा निर्धारित करते ?  क्यों इस उत्सव को परीक्षा की तारीखों में शामिल कर लिया जाता है ? जैसे इस साल होली छ: मार्च को पड़नी थी तो परीक्षाएं दो दिन बाद भी शुरू की जा सकती थीं। मान लेते हैं कि संचालन करने वालों की अपनी बाध्यताएं होती हैं, पर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, उनसे क्यों आशा की जाए कि वे अपना स्वभाव बदल हमारे अनुरूप हो जाएं। ऐसा भी तो  सकता है कि महाविद्यालयों, विश्व विद्यालयों की परीक्षाएं  ली जाएं और बच्चों की त्यौहार रहित दिनों में। लेकिन, परन्तु तो बहुत हैं पर दिनों-दिन छिनती और छिझती मासूमियत  भी तो जरुरी है।           

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