मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

अमर्यादितता छिछलेपन को दर्शाती है

किसी पद पर नियुक्ति के पहले, वर्षों का अनुभव होने के बावजूद, संस्थाएं नए कर्मचारी को कुछ दिनों का प्रशिक्षण देती हैं। नई नौकरी पाने वाले को प्रशिक्षण-काल पूरा करना होता है। अपवाद को छोड़ दें तो किसी भी संस्था में ज्यादातर लोग निचले स्तर से शुरू कर ही उसके उच्चतम पद पर पहुंचते हैं। तो फिर राजनीति में ही क्यों अधकचरे, अप्रशिक्षित, अनुभवहीन लोगों को थाली में परोस कर मौके दे दिए जाते हैं ?

कहावत है कि, यथा राजा तथा प्रजा।  पर समय बदल गया है और इसके साथ-साथ हर चीज में बदलाव आ गया है। कहावतें भी उलट गयी हैं। अब यथा प्रजा तथा राजा हो गया है। जैसे प्रजा में असहिष्णुता, असंयमिता, अमर्यादितता तथा विवेक-हीनता बढ़ रही है वैसे ही गुण लिए जनता से उठ कर सत्ता पर काबिज होने वाले नेता यानी आधुनिक राजा हो गए हैं। 
वर्षों से गुणीजन सीख देते आये हैं कि जुबान पर काबू रखना चाहिये। पर अब समय बदल  गया है। जबान की मिठास धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। खासकर राजनीति के पंक में लिथड़े अवसरवादी और महत्वाकांक्षी लोगों ने तुरंत ख़बरों में छाने और अपने दल की  अग्रिम पंक्ति में स्थापित होने के लिए यह रास्ता अख्तियार किया है। इसका फायदा यह है कि एक ही झटके में उस गुमनाम-अनजान अग्नि-मुख का नाम हरेक की जुबान पर आ जाता है, रातों-रात वह खबरों में छा अपनी पहचान बना लेता है। कुछ हाय-तौबा मचती है पर वह टिकाऊ नहीं होती। अगला हंसते-हंसते माफी-वाफी मांग दल की जरुरत बन जाता है। यह सोचने की बात है कि इस तरह की अनर्गल टिप्पणियों की निंदा या भर्त्सना होने के बावजूद लोग क्यों जोखिम मोल लेते हैं। समझ में तो यही आता है कि यह सब सोची समझी राजनीति के तहत ही खेला गया खेल होता है। इस खेल में ना कोई किसी का स्थाई दोस्त होता है नही दुश्मन। सिर्फ और सिर्फ अपने भले के लिए यह खेल खेला जाता है। इसके साथ ही यह भी सच है कि ऐसे लोगों में गहराई नहीं होती, अपने काम की पूरी समझ नहीं होती इन्हीं कमजोरियों को छुपाने के लिए ये अमर्यादित व्यवहार करते हैं।  इसका साक्ष्य तो सारा देश और जनता समय-समय पर देखती ही रही है।

कभी-कभी नक्कारखाने से तूती की आवाज उठती भी है कि क्या सियासतदारों की कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए, क्या देश की बागडोर संभालने वालों की लियाकत का कोई मापदंड नहीं होना चाहिए? जबकि किसी पद पर नियुक्ति के पहले, वर्षों का अनुभव होने के बावजूद, संस्थाएं नए कर्मचारी को कुछ दिनों का प्रशिक्षण देती हैं। नई नियुक्ति के पहले नौकरी पाने वाले को प्रशिक्षण-काल पूरा करना होता है। शिक्षक चाहे जब से पढ़ा रहा हो उसे भी एक ख़ास कोर्स करने के बाद ही पूर्ण माना जाता है। अपवाद को छोड़ दें तो किसी भी संस्था में ज्यादातर लोग निचले स्तर से शुरू कर ही उसके उच्चतम पद पर पहुंचते हैं। तो फिर राजनीति में ही क्यों अधकचरे, अप्रशिक्षित, अनुभवहीन लोगों को थाली में परोस कर मौके दे दिए जाते हैं ? कम से कम उन्हें संयम की, मर्यादा की, नैतिकता की, मृदु भाषिता की सीख तो दी ही जा सकती है।

यह जग जाहिर है कि किसी के कटु वचनों पर उनके पाले हुए लोग तो ताली बजा सकते हैं पर आम जनता को ऐसे शब्द और उनको उवाचने वाला नागवार ही गुजरता है। बड़े और अनुभवी नेताओं को ऐसे लोगों की अौकात पता भी होती है, पर चाह कर भी वे ऐसे लोगों को रोक नहीं पाते क्योंकि किसी न किसी  स्वार्थ के तहत इन लोगों को झेलना उनकी मजबूरी बन जाती है और यही बात ऐसे लोगों की जमात बढ़ते जाने का कारण बनती जा रही है।      



2 टिप्‍पणियां:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

जाति जब तक मानक मानी जायेंगी तब तक यही स्थिति रहेगी .

Unknown ने कहा…

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