सोमवार, 28 जुलाई 2014

बरसात भारी न पड़े

सब अपने में मस्त थे पर शरीर साफ सुन पा रहा था बरसात के साथ आने वाली बिमारियों की पदचाप।इसी आवाज को हम सब को भी सुन स्वस्थ रहते हुए स्वस्थ रहने की प्रकृया शुरु कर देनी चाहिये।

इस बार गर्मी ने कुछ ज्यादा ही लंबी मेहमानी करवा ली. जाने के समय भी बिस्तर बांधने में अच्छा खासा समय ले लिया. वो तो भला हो इंद्र देवता का जिनकी इजाजत से बरखा रानी ने धरती पर अपने कदम रखे। मौसम सुहाना होने लगा। पेड़-पौधों ने धुल कर राहत की सांस ली. किसानों की जान में जान आयी। कवियों को नयी कविताएं सुझने लगीं। हम जैसों को भी चाय के साथ पकौड़ियों की तलब लगने लगी। सब अपने में मस्त थे पर शरीर साफ सुन पा रहा था बरसात के साथ आने वाली बिमारियों की पदचाप। इसी आवाज को हम सब को भी सुन स्वस्थ रहते हुए स्वस्थ रहने की प्रकृया शुरु कर देनी चाहिये। क्योंकि बिमार होने के बाद स्वस्थ होने से अच्छा है कि बिमारी से बचने का पहले ही इंतजाम कर लिया जाये।
इस मौसम में जठराग्नि मंद पड़ जाती है।  सर्दी, खांसी, फ्लू, डायरिया, डिसेन्टरी, जोड़ों का दर्द और न जाने क्या-क्या, अपने-अपने ढोल-मंजीरे ले शरीर के द्वार पर दस्तक देने लगते हैं। वैसे तो अधिकाँश लोग अपना ख्याल रखना जानते हैं, फिर भी हिदायतें सामने दिखती रहें तो और भी आसानी हो जाती है, क्योंकि उनके प्रयोग से लाभ ही होता है बुराई कुछ भी नहीं है. मेरे एक मित्र वैद्य हैं उन्हीं के परामर्श को बाँट रहा हूँ  :-

इस मौसम में जठराग्नि मंद पड़ जाती है। इसलिए रोज एक चम्मच अदरक और शहद की बराबर मात्रा सुबह लेने से फायदा रहता है।

खांसी-जुकाम में एक चम्मच हल्दी और शहद गर्म पानी के साथ लेने से राहत मिलती है।

इस मौसम में दूध, दही, फलों के रस, हरी पत्तियों वाली सब्जियों का प्रयोग कम कर दें।

नीम की पत्तियों को उबाल कर उस पानी को अपने नहाने के पानी में मिला कर नहायें। इसमें झंझट लगता हो तो पानी में डेटाल जैसा कोई एंटीसेप्टिक मिला कर नहायें। बरसात में भीगने से बचें, मजबूरी में शरीर गीला हो ही जाए तो जितनी जल्दी हो उसे सुखाने की जुगत करें.  

आज कल तो हर घर में पानी के फिल्टर का प्रयोग होता है। पर वह ज्यादातर पीने के पानी को साफ करने के काम में ही लिया जाता है। भंड़ारित किये हुए पानी को वैसे ही प्रयोग में ले आया जाता है। ऐसे पानी में एक फिटकरी के टुकड़े को कुछ देर घुमा कर छोड़ दें। पानी की गंदगी नीचे बैठ जायेगी।

तुलसी की पत्तियां भी जलजनित रोगों से लड़ने में सहायक होती हैं। इसकी 8-10 पत्तियां रोज चबा लेने से बहुत सी बिमारियों से बचा जा सकता है। घर में पीने के पानी में इसकी आठ-दस पत्तियां डाल दें, ये बखूबी आपकी हिफाजत करेंगी.  

खाने के बाद यदि पेट में भारीपन का एहसास हो तो एक चम्मच जीरा या अजवायन पानी के साथ निगल लें। आधे घंटे के अंदर ही राहत मिल जायेगी।            

अचार, तले हुए, मसालेदार खाद्य पदार्थों के साथ-साथ बाहर के खाने-पीने से इन दिनों दूरी बनाये रखें। ज्यादा देर के कटे फल, सलाद और बासी भोजन का उपयोग ना ही करें तो बेहतर है।

बुधवार, 23 जुलाई 2014

वर्षा की बूँदें, कुछ रोचक तथ्य

ऐसी धारणा भी है कि वर्षा की बूंदें आंसुओं की तरह गोल होती हैं, पर ऐसा न हो कर उनका आकार ऐसा होता है जैसे एक वृत्त को ठीक बीच में से काट दिया जाए तो ऊपर वाले हिस्से का  जो रूप बनेगा वैसा ही आकार वर्षा की बूँदों का होता है। ऊपर से गोल नीचे  चपटा।  ठीक "पाव-भाजी" के "पाव" जैसा।
देर से ही सही   इंद्रदेव की नाराजगी दूर हुई.   झुलसाती गर्मी धीरे - धीरे अपना दामन छुड़ा विदा हुई,   गगन से अमृत झरा, धरा की प्यास मिटी, हलधरों के चहरे पर संतोष दिखने लगा। हर साल देर-सबेर ऐसा ही चक्र चलता रहता है इसलिए हमारा ध्यान इस की विशेषताओं पर नहीं जाता, जो अपने आप में अजूबा है :-  

यह सभी जानते हैं कि धरती के सागर, नदी-नालों, सरोवरों-झीलों से लगातार पानी का वाष्पीकरण होता रहता है. वही दूषित पानी जब ऊपर जा फिर वर्षा के रूप में धरती पर वापस आता है तो वह प्रकृति में उपलब्ध जल का सर्वाधिक शुद्ध रूप होता है। इस ऊपर-नीचे आने-जाने की क्रिया में वह सैंकड़ों की. मी. की दूरी तय कर लेता है। हम सभी को लगता है, और ऐसी धारणा भी है कि वर्षा की बूंदें आंसुओं की तरह गोल होती हैं, पर ऐसा न हो कर उनका आकार ऐसा होता है जैसे एक वृत्त को ठीक बीच में से काट दिया जाए तो ऊपर वाले हिस्से का  
जो रूप बनेगा वैसा ही आकार वर्षा की बूँदों का होता है। ऊपर से गोल नीचे से चपटा। ठीक "पाव-भाजी" के "पाव" जैसा। ऐसा इनके नीचे गिरते समय हवा के दवाब के कारण  होता है।धरती के वातावरण में ये दस दिनों तक बने रह सकते हैं। करीब .02 से .031 इंच के आकार की वर्षा की बूँदें तकरीबन 35 की.मी. की रफ्तार से जमीन की ओर आती हैं। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो पहाड़ों पर होने वाली बर्फबारी की रफ्तार तीन-चार की.मी. ही होती है। अमूमन एक घंटे में .30 इंच या उससे ज्यादा की बरसात को ही भारी बारिश का होना माना जाता है। छोटी या महीन बूँदों वाली वर्षा को "झींसी" (drizzling) पड़ना कहते हैं। इन्हें संभालने वाले छोटे बादलों की औसत उम्र 10 से 15 मिनट की ही होती है।  इतनी ही देर में ये नीचे जल-थल कर देते हैं. बरसात के साथ जो आंधी-तूफान उठते हैं, उनसे उत्पन्न होने वाली बिजलियां, जो करीब 100 की. मी. की दूरी तक जा सकती हैं, हर सेकंड में करीब सौ बार धरा को छूती हैं। जिनकी कड़क और लपक देख-सुन कर कलेजा मुंह को आ जाता है उनसे लाखों में सिर्फ तीन बार दुर्घटना की आशंका बनती है।

वर्षा की बूँदों के कमाल के कारण ही बारिश के बाद बनने वाला इंद्र-धनुष प्रकृति की एक और अनुपम कला और रचना है। जो सूर्य की विपरीत दिशा में  वातावरण में स्थित पानी की छोटी सी बूँद, जो वहां "प्रिज्म" का काम करती है, में से उगते या अस्त होते सूर्य की किरणों के गुजरने से बनता है। जमीन से एक अर्द्ध वृत्त के रूप में नजर आने वाले इस अजूबे को यदि हवाई-जहाज से देखा जाए तो यह पूर्ण गोलाकार रूप में भी दिखाई पड़ सकता है।                   

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

छौंक, तड़का या बघार का वैज्ञानिक आधार है

बघार से न केवल स्वाद और सुगंध में बढ़ोत्तरी होती है बल्कि भोजन भी दोष रहित तथा सुपाच्य बन जाता है. कहते हैं एक राजा के रसोइये ने राजा के खाने पर आने में विलंब करने के कारण अपनी बघारी हुई दाल को एक सूखे पेड़ की जड़ों में डाल दिया था, जिससे वह पेड़ कुछ दिनों बाद फिर हरा-भरा हो गया था।  

बघार 
भारतीय रसोईघरों में सब्जियों और दालों वगैरह को छौंक लगाने की प्रथा पीढ़ी दर पीढ़ी वर्षों से चली आ रही है. समय के साथ खाना बनाने और खाने का तरीका भले कितना ही बदल गया हो पर छौंकने या बघारने की महत्ता अपनी जगह बरकरार है. इससे न केवल स्वाद और सुगंध में बढ़ोत्तरी होती है बल्कि भोजन भी दोष रहित तथा सुपाच्य बन जाता है. सेहत और पाचन के लिए भी यह विधी बहुत फायदेमंद रहती है। कहते हैं एक राजा के रसोइये ने राजा के खाने पर आने में विलंब करने के कारण अपनी बघारी हुई दाल को एक सूखे पेड़ की जड़ों में डाल दिया था, जिससे वह पेड़ कुछ दिनों बाद फिर हरा-भरा हो गया था।  

हमारे देश में जहां अलग-अलग मौसम, वातावरण और खान-पान के तरीके भिन्न-भिन्न हैं वहीं बघार देने की वस्तुओं में भी खाद्य पदार्थ की प्रकृति के अनुसार घट-बढ़ और बदलाव होता जाता है. हमारी रसोई में कुछ रोजमर्रा के खाद्य और उनमें लगने वाले बघार कुछ इस तरह के हैं :-

लहसुन 
* सरसों के साग और मक्की की रोटी ने कब की पंजाब की सीमाएं लांघ सारे देश के लोगों को अपना मुरीद बना लिया है. पर सरसों का साग वायु विकार को पेट में जगह देता है, जिससे बचने के लिए इसमें प्याज, लहसुन और अदरक का तड़का लगा इसे सुपाच्य तो बनाया ही जाता है इससे उसके स्वाद में भी बढ़ोत्तरी हो जाती है। 

* राजमा, उड़द, सफेद चने, फूल गोभी यह सब देर से पचने वाले खाद्य पदार्थ हैं तथा इनसे वायु-विकार की भी संभावना रहती है, इसलिए इनके इन दोषों को दूर करने के लिए इनमें  लहसुन-अदरक का बघार दिया जाता है. 

* कढ़ी जो अत्यंत लोकप्रिय खाद्य तो है पर इससे बादी होने का डर भी बना रहता है इसीलिए बनाने के बाद उसमें मेथी-दाना, राई, तेज-पात और मीठी नीम का छौंक लगाया जाता है. जिससे यह सुपाच्य हो जाती है।  

छौंक में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न मसाले 
* देर से पचने वाली सब्जियों जैसे सीताफल या कद्दू , अरबी, भिन्डी इत्यादि को मेथी के दानों या अजवायन का तड़का  लगा सुपाच्य बना लिया जाता है।   

* वायु तथा कफ उत्पन्न करने वाली दालों में जीरे और हींग का छौंक लगाने की परम्परा रही है।  

हमारे मनीषियों ने समाज और परिवार को सुचारू रूप से चलाने के लिए कई उपाय ईजाद किए थे उन्हीं में
खान-पान के तरीके तथा भोजन द्वारा स्वस्थ रहने के नुस्खे भी शामिल हैं. यदि हम अपना खान-पान दुरुस्त रखें तो कई तरह की दवाईयों से छुटकारा मिल सकता है, जो पाचन दुरुस्त करने  के नाम पर हमारे शरीर पर विपरीत असर डालती हैं।        

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

हम पर छाते, "छाते"

सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर इसकी इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं. 


काफी इंतजार करवाने के बाद बरखा रानी मेहरबान हुई हैं।  अब जब वह अपना जलवा बिखेर रही है तो हमें अपनी बरसातियां, छाते याद आने लगे हैं. बरसातियां तो खैर बहुत बाद में मैदान में आईं, पर छाते तो सैंकड़ों सालों से हम पर छाते रहे हैं. छाता जिसे दुनिया में ज्यादातर "umbrella" के नाम से जाना जाता है, उसे यह नाम लैटिन भाषा के "umbros" शब्द, जिसका अर्थ छाया होता है, से मिला है. समय के साथ इसका चलन कुछ कम जरूर हुआ है. पहले ज्यादातर लोग पैदल आना-जाना करते थे तब धूप और बरसात में इसकी सख्त जरूरत महसूस होती थी. पर फिर बरसातियों के आगमन से या कहिए कि मोटर गाड़ियों की सर्वसुलभता के कारण इसकी पूछ परख कुछ काम हो गयी. वैसे मौसम साफ होने पर यह एक भार स्वरूप भी लगाने लगता था फिर भी हजारों सालों से यह हमारी आवश्यकताओं में शामिल रहने के लिए जी-तोड़ कोशिश करता रहा और सफल भी रहा ही है.     

खोजकर्ताओं का मानना माना है कि मानव ने आदिकाल से ही अपने को तेज धूप से बचाने के लिए वृक्षों के
बड़े-बड़े पत्तों इत्यादि का उपयोग करना शुरू कर दिया होगा। आज के छाते के पर-पितामह का जन्म कब हुआ यह कहना कठिन है, फिर भी जो जानकारी मिलती है वह हमें 4000 साल पहले तक ले जाती है। उस समय छाते सत्ता और धनबल के प्रतीक हुआ करते थे और राजा-महाराजाओं की शान बढ़ाने का काम करते थे। शासकों और धर्मगुरुओं के लिए छत्र एक अहम जरूरत हुआ करती थी। धीरे-धीरे इसे आम लोगों ने भी अपनाना शुरू कर दिया। 

ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले चीन ने करीब तीन हजार साल पहले पानी से बचाव के लिए जलरोधी छतरी बनाई थी। समय के साथ-साथ छोटे छातों का चलन शुरू हुआ तो उसमें भी फैशन ने घुस-पैठ कर ली, खासकर  ग्रीस और रोम की महिलाओं के छातों में, जो उनके लिए एक जरूरी वस्तु का रूप इख्तियार करती चली जा रही थी. उस समय छाते को महिलाओं के फैशन की वस्तु ही समझा जाता था. ऎसी मान्यता है कि किसी पुरुष द्वारा सार्वजनिक स्थान पर सबसे पहले इसका उपयोग अंग्रेज पर्यटक और मानवतावादी "जोनास हानवे" ने करना आरंभ किया था. जिसकी देखा-देखी अन्य लोगों ने भी पहले इंग्लैण्ड और बाद में सारे संसार में इसका उपयोग करना शुरू कर दिया.  

लोगों की पसंद और इसकी उपयोगिता को देखते हुए इस पर तरह-तरह के प्रयोग भी होने शुरू हो गये. इसका
रंग-रूप बदलने लगा. इसके कई तरह के "फोल्डिंग" प्रकार भी बाजार में छा गए. जिनका आविष्कार 1969 में हुआ.  इसकी यंत्र-रचना और इसमें उपयोग होने वाली चीजों में सुधार तथा बदलाव आने लगा. सबसे ज्यादा ध्यान इसके कपडे पर दिया गया जिसे आजकल टेफ्लॉन की परत चढ़ा कर काम में लाया जाता है, जिससे कपड़ा पूर्णतया जल-रोधी हो जाता है. 

धीरे-धीरे छाता जरुरत के साथ-साथ फैशन की चीज भी बनता चला गया. आजकल इसके विभिन्न रूप यथा पारम्परिक, स्वचालित, फोल्डिंग, क्रच (जिसे चलते समय छड़ी की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है) इत्यादि  तरह-तरह के आकारों तथा रंगों में उपलब्ध हैं. इसके साथ ही इसका उपयोग नाना प्रकार के अन्य कार्यों जैसे फोटोग्राफी, सजावट या किसी  वस्तु की तरफ ध्यान 
आकर्षित करवाने के लिए भी किया जाने लगा है. सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर इसकी इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं. 

अपने यहां छाते की लोकप्रियता बंगाल में 80 के दशक तक चरम पर थी जब दफ्तर जाते समय बंगाली बाबू के पास एक थैले, छाते और अखबार का होना निश्चित सा होता था.   

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

छात्र-वृत्ति खैरात नहीं, लियाकत का फल हो

हितग्राही को यह जरूर महसूस होना चाहिए कि मुझे जो सहायता मिल रही है वह खैरात नहीं है बल्कि मेरी लियाकत की वजह से है. मेरी मेहनत के फलस्वरूप है। क्योंकि खैरात की कीमत नहीं आंकी जाती, उसका मोल नहीं समझा जाता।

अभी कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री जी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की है कि परीक्षा में 85 % अंक पाने वाले छात्र को सरकार की तरफ से प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। यह एक सराहनीय तथा अनुकरणीय कदम माना जाना चाहिए.  यह उन राज्यों की सरकारों के लिए एक मिसाल होनी चाहिए जो जाति-गत आधार पर करोड़ों रुपये छात्र-वृत्ति के नाम पर खर्च कर डालती हैं बिना उसका हश्र जाने. चनों की तरह हर साल बांटे जाने वाले इन पैसों से होने वाले नफे-नुक्सान का आकलन सरकार को स्कूल-कालेजों से मांगना चाहिए जिससे यह पता चल सके कि टैक्स देने वालों की खून-पसीने की कमाई का कैसा उपयोग हो रहा है ? उस पैसे से छात्र का भविष्य संवर रहा है या मॉल-बाजारों का. सरकारों को यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि इन पैसों से लाभान्वित होने वाले कितने बच्चों ने अपनी पढ़ाई पूरी की ? कितनों ने उसमें लियाकत हासिल की ? कितनों ने प्रथम श्रेणी हासिल की कितने दूसरी या तीसरी श्रेणी में पास हुए और कितने सिर्फ पैसा ले किनारे हो गए ? 

पढ़ाई में मेधावी छात्र को पैसा ही नही हर तरह की सहूलियत मिलनी चाहिए। जीवन में कुछ कर-गुजरने वाले हर किशोर और युवा को अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का मौका देने के लिए उसे और उसके परिवार को हर चिंता से मुक्त किया जा सके तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है. पर इसके लिए किसी भेद-भाव की गुंजायश नहीं होनी चाहिए इसलिए छात्र-वृत्ति को जातिगत बंधन से मुक्त कर मेधा-गत दायरे में लाया जाए तो देश हित में और बेहतर परिणाम मिल सकते हैं. हितग्राही को यह जरूर महसूस होना चाहिए कि मुझे जो सहायता मिल रही है वह खैरात नहीं है बल्कि मेरी लियाकत की वजह से है. मेरी मेहनत के फलस्वरूप है। क्योंकि खैरात की कीमत नहीं आंकी जाती, उसका मोल नहीं समझा जाता, यह पिछले दिनों सिद्ध भी हो चुका है, जब राज्य सरकारों द्वारा बांटे गए छोटे पाम-टॉप यानी  "टैबलेट"  बाज़ार में अौने-पौने दामों पर बेचे जाते पाए गये. सरकार की मंशा कुछ भी हो, वह अलग विषय है, पर इस "रेवड़ी"  की बाँट में, मुफ्त की चीज को पाने के लिए ऐसे-ऐसे संपन्न लोगों को भी झगड़ते और बहस करते देखा गया जिनके घरों में दो-दो कारें और कीमती कम्प्यूटर पहले से विद्यमान थे। पर उनकी सोच थी जब मुफ्त में मिल रहा है तो क्यों न लें ? 

जरूरतमंद को चीज मिले तो सबको संतोष होता है पर उस चीज को सिर्फ अपने हक़, जिद या शौक के लिए हथियाना कहाँ तक उचित है।  आज वैसे बांटे गए सैंकड़ों गैजेट अफ़रात रूप से सिर्फ "गेम" खेलने के काम में लिए जा रहे हैं.                

यह धारणा भी गलत साबित हो चुकी है कि इस तरह की दरियादिली से लोगों को आकर्षित कर सत्ता पाई जा सकती है. यदि ऐसा होता तो कई राज्यों का भाग्य किसी और ही रूप में सामने आया होता।  आज जब देश को दुनिया का सामना करने के लिए एक सक्षम पीढ़ी की आवश्यकता है तो समाज को, सरकार को, हम सब को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र जैसी संकीर्ण सोच से ऊपर उठ राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर ही अपनी दिशा निश्चित करनी होगी तभी देश को जगद्गुरु या जगद-नायक का दर्जा दिलाया जा सकेगा।   

सोमवार, 14 जुलाई 2014

"माले मुफ्त का" ऐंटी रिएक्शन

दृश्य एक :- सात-आठ एकड़ की खेती लायक जमीन के मालिक श्री साहू जी अपनी सेहत ठीक न होने के कारण किसी सहायक के न मिलने से परेशान थे।  एक दिन उन्हें अपना पुराना कामदार दिखाई पड़ा तो उन्होंने उसे फिर काम पर रखना चाहा तो उसने साफ मना कर कहा कि वह अब बेगार नहीं करता। एक ही गांव के होने के कारण साहू जी जानते थे कि वह दिन भर निठ्ठला घूमता है, नशे का भी आदी है. पर कर क्या सकते थे. एक दो साल के बाद तंग आकर मजबूरी में उन्होंने दुखी मन से अपनी आधी जमीन एक बिल्डर को बेच डाली। अब वहाँ धान की जगह कंक्रीट की फसल उगेगी।                 

दृश्य दो :- शहर के करीब रहने वाले श्री पटेल जी को अपने घर में बरसात का पानी इकट्ठा होने के कारण उसकी निकासी के लिए एक पांच-सात फुट की छोटी नाली निकलवानी थी।  पर छोटे से काम  को करने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा था। किसी तरह एक पलम्बर राजी हुआ, उतने से काम के लिए उसने हजार रुपयों की मांग की, ले-दे कर नौ सौ रुपये पर राजी हुआ, जबकि सारा काम बेढंगे तरीके से उसके सहयोगी एक किशोर ने किया। सिमित आय वाले पटेल जी कसमसा कर रह गए।  

तीसरा दृश्य :- शर्मा जी के फ्लैट के बाहर के पाइप में दीवाल में उगे एक पौधे ने किसी तरह पाइप के अंदर जगह बना उसे पूरी तरह  "चोक"  कर दिया। नतीजतन ऊपर के फ्लैट के साथ-साथ अपना पानी भी घर के अंदर बहने लगा. जमीन से ज्यादा ऊंचाई भी नहीं थी जो सीढ़ी इत्यादि की जरुरत पड़ती फिर भी न पलम्बर मिल रहा था न सफाई कर्मचारी। बड़ी मुश्किल से तीन सौ रुपये दे कर यह 15 - 20 मिनट का काम करवाया जा सका।  जो हर लिहाज से ज्यादा कीमत थी।     

चौथा दृश्य :- मिश्रा जी को दूध-दही का शौक है।  सो घर पर सदा एक-दो दुधारू पशु बंधे रहते थे। अब मजबूरन सबको हटा बाजार का मिश्रित दूध लेना पड़ रहा है, कारण पशुओं के रख-रखाव, दाना-पानी, साफ-सफाई के लिए किसी का उपलब्ध न हो पाना था. मजबूरन ऐसे लोगों को या तो ब्रांडेड कंपनियों के उत्पाद खरीदने होंगे या फिर डेयरी का व्यवसाय करने वालों के रहमो-करम पर अपना स्वास्थय गिरवी रखना होगा।  

पांचवां दृश्य :-  एक गांव में एक कौतुक दिखाने वाला आया. खेल दिखाने के बाद जब उसे कुछ लोग धान देने लगे तो वह ऐसे बिदका जैसे सांड को लहराता लाल कपड़ा दिखा दिया हो. कुछ नाराज सा हो बोला, मुझे सिर्फ पैसे चाहिए  दो, धान कितना चाहिए मुझसे ले लो. 

इन सारे दृश्यों में एक वजह कॉमन है. वह है, काम करने वालों की कमी और दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाने की प्रवृत्ति।  ये सरकारों द्वारा लाई जा रही खुशहाली की तस्वीर नहीं है यह है मुफ्तखोरी के कारण उपजी जहालत और काम न करने की प्रवृत्ति की.  कुछ लोगों को ये बातें गरीब विरोधी लगेंगी, पर भयावह सच्चाई यही है कि मुफ्तखोरी ने आज समाज में निष्क्रिय लोगों का एक अलग तबका बना दिया है। कहते हैं न, "माले मुफ्त दिले बेरहम" तो इसमे कोई भी अतिश्योक्ति नहीं है।  हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि मुफ्त और आसानी से मिली वस्तु की हम कदर नहीं करते।  उदाहरण के लिए पानी, हवा और हरियाली का हश्र हमारे सामने है। हर धर्म के ग्रंथ में, बड़े बुजुर्गों ने, गुरुओं ने अन्न का निरादर न करने की बात कही है। क्योंकि इसके बिना जीव जगत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर आज दुखद स्थिति यही है कि पूरे देश में बड़ी निर्दयता के साथ अन्न का निरादर किया जा रहा है.      

हालांकि इन योजनाओं और उन्हें लागू करने वालों की मंशा समाज के निचले वर्ग की बेहतरी चाहने की ही है. पर सचमुच के गरीब और बने या बनाए हुए ग़रीबों में जमीन-आसमान का फर्क होता है और उन्हीं बने हुए ग़रीबों ने सब बंटाधार किया हुआ है। अच्छी योजनाएं भी इस तरह के मौकापरस्तों और उनके आकाओं के कारण अपने लक्ष्य तक न पहुँच आलोचनाओं का शिकार हो अप्रियता को प्राप्त हो जाती हैं।             

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

क्या वह सिर्फ संयोग था ?


क्योंकि इन सब घटनाओं की शुरुआत साधना के बंगले से हुई थी, इसलिए इस सब से घबड़ा कर साधना और उनके परिवार ने उस बंगले को ही बेच डाला।

भूत-प्रेत होते हैं कि नहीं इस पर अच्छी-खासी बहस छिड़ सकती है. पर जब कोई समाज में स्थापित और प्रतिष्ठित हस्ती उस के पक्ष में बात करे तो सोचने की बात हो जाती है।  अपने समय की मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री साधना ने एक बार एक घटना का जिक्र किया था. उनके अनुसार, 

पाली हिल पर उनका बंगला हुआ करता था. एक दिन उनके ड्रायवर ईश्वरसिंह ने झिझकते हुए उन्हें बताया कि उसने रात में बंगले में एक अौरत को लॉन में टहलते देखा और साथ ही तरह-तरह की अजीब सी आवाजें भी सुनी. साधना ने यह सब एक वहम समझ कर बात टाल दी. पर कुछ दिनों के बाद उनके यहां मशहूर लेखक श्री अर्जुन देव 'रश्क' का आ कर ठहरना हुआ. रात को लेखन कार्य करते समय उन्हें भी कुछ वैसा ही अनुभव हुआ जिसे सुबह उन्होंने साधना को बताया. तब उन्हें लगा कि कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है. वैसे उन्हें या उनके परिवार के किसी सदस्य को उस समय तक कोई परेशानी या नुक्सान नहीं हुआ था. पर उन्हीं दिनों जब उन्होंने एक नयी कार खरीदी तब रोज नयी परेशानियां सामने आने लगीं, तकरीबन रोज ही भरवाने के बावजूद पेट्रोल की टंकी खाली रहने लगी तो उन्होंने वह कार बेच डाली।  

बाद में उन्हें पता चला कि जो "कुछ" भी उनके यहां था वह कार के साथ ही लगा रहा. जिसने कार खरीदी थी उसे तरह-तरह की घटनाओं से दो-चार होना पड़ने लगा. हर चीज में नुक्सान होने लगा, यहां तक कि उसे अपने आप को दिवालिया घोषित करना पड़ा. तंग आ कर उसने किसी और को वह कार बेच दी. जिसने इस बार खरीदी, कुछ दिनों के अंदर ही उसके पिता की मृत्यु हो गयी. उसने भी डर कर वह कार एक अस्तबल के मालिक को बेच दी. इस बार तो हादसा और भी भयंकर रहा, खरीदने वाले के अस्तबल में आग लग गयी और उसके रेस में दौड़ने वाले कई घोड़े जल कर मर गये. कार का इतिहास जान उसने भी एक तस्कर को कार सौंप अपना पिंड छुड़ाया। पर उस  बला ने कार का पिंड नहीं छोड़ा. हफ्ते भर के अंदर ही वह कार लाखों के सामान के साथ पुलिस के हत्थे चढ़ गयी.                       
क्योंकि इन सब घटनाओं की शुरुआत साधना जी के बंगले से हुई थी, इसलिए इस सब से घबड़ा कर साधना और उनके परिवार ने उस बंगले को भी बेच डाला। किसी फ़िल्म की कहानी रूपी इस सच्चाई का संबंध यदि उन जैसे मशहूर व्यक्तित्व से नहीं होता तो शायद कोई इन सारी बातों पर विश्वास भी नहीं करता।                       

बुधवार, 9 जुलाई 2014

कैसे आई रेल, भारत में

अभी कल ही तमाम हो-हल्ले के बीच रेल बजट आया है. उस रेल का जिसकी नींव अंग्रेजों ने करीब एक सौ साठ साल पहले हमारी भलाई के लिए नहीं, अपना मतलब सिद्ध करने के लिए डाली थी। उस समय भारत में अपना वर्चस्व बनाने के लिए जी-जान से लगे हुए थे।  पर उनकी फौजें देसी रियासतों से जगह-जगह मात खाती रहती थीं। एक जगह उन्हें सफलता मिलती तो दूसरी जगह हार का सामना करना पड जाता था. कारण उनकी कुमुक समय पर अपेक्षित स्थान पर नहीं पहुँच पाती थी।

हमारी पहली रेल गाड़ी 
तब तक ब्रितानिया में रेल का आगाज हो चुका था, उसके लाभ से सब वाकिफ भी थे, उसी का फ़ायदा उठाने के लिए यहां भी पटरियां बिछाने की इजाजत मांगी गयी. पर उसमें सबसे बड़ी बाधा उसमें लगने वाले अपार धन की थी. उसका उपाय भी निकाला गया, उस समय पांच प्रतिशत ब्याज का लालच दे पूंजी का इंतजाम किया गया. इस तरह पहली कंपनी सामने आई जिसका नाम  "ग्रेट इंडियन रेलवे कंपनी"  था. 

उस समय एक किलोमीटर तक की पटरी तक यहां नहीं थी तब अंग्रेज इंजीनीयर रॉबर्ट मैटलैंड ब्रेरेटन ने यहां रेल को साकार रूप देने का बीड़ा उठाया। जिसकी अथक मेहनत के फलस्वरूप भारत में पहली रेल गाड़ी का सपना साकार हुआ जब 16  अप्रैल 1853 को बंबई के बोरी बंदर स्टेशन पर हजारों लोगों की उपस्थिति में इक्कीस तोपों की सलामी के बाद चौदह डिब्बों में सवार चार सौ विशिष्ट मेहमानों को लेकर अपरान्ह साढ़े तीन बजे चली इस गाड़ी ने शाम पौने पांच बजे ठाणे तक का 34 किलोमीटर का सफर करीब सवा घंटे में तय कर इतिहास रच एक महान उपलब्धि हासिल की। 

उस समय अंग्रेजों ने भारत छोड़ने की कल्पना सपने में भी नहीं की थी. उन्होंने तो अपने सैन्य बल को मजबूत करने और हमारा आर्थिक शोषण करने के लिए रेल रूपी बीज का रोपण किया था।  देश वासियों में भी इसे लेकर कोई बहुत ज्यादा उत्साह नहीं था पर समय के साथ-साथ रेल की उपयोगिता सामने आती गयी. 

आज यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। इसका व्यापक रूप, इसकी क्षमता, इसकी जन-उपयोगिता, इसकी उपादेयता किसी भी साक्ष्य की मोहताज नहीं है।  बस जरूरत है तो इस कामधेनू की साज-संभाल की, क्योंकि इसको दुहने के लिए सभी कतार-बद्ध हैं पर जब इसको "चारा" देने की बात आती है तो सब बगलें झांकने लगते हैं।                 

शनिवार, 5 जुलाई 2014

तीन इंच की जबान के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़।

जुझारु जापानी मछुवारों ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने एक तरकीब इजाद की, इस बार उन्होंने मछलियों की सुस्ती दूर करने के लिए उन बड़े-बड़े बक्सों में एक छोटी सी शार्क मछली डाल दी। 

जगत के सारे जीव-जंतुओं में मनुष्य ही शायद अपनी इन्द्रियों का गुलाम है, उनमें भी जीभ का चटोरापन जग जाहिर है। मजे की बात यह है की घंटों की मशक्कत के बाद तैयार भोजन के गले से नीचे उतरने के बाद कोई स्वाद नहीं रह जाता पर तीन इंच की जिह्वा के स्वाद के लिए इंसान क्या-क्या नहीं कर गुजरता। दुनिया भर में इसके उदाहरण मौजूद हैं.  

जापानियों को ही देखें, इनका का मछली प्रेम जग जाहिर है। परन्तु वे व्यंजन से ज्यादा उसके ताजेपन को अहमियत देते हैं। परन्तु आज कल प्रदुषण के कारण समुद्री तट के आसपास मछलियों का मिलना लगभग खत्म हो गया है। इसलिए मछुवारों को गहरे समुद्र की ओर जाना पड़ता है। इससे मछलियां तो काफी तादाद में मिल जाती थीं, पर आने-जाने में लगने वाले समय से उनका ताजापन खत्म हो जाता था। मेहनत ज्यादा बिक्री कम, मछुवारे परेशान। फिर इसका एक हल निकाला गया। नौकाओं में फ्रिजरों का इंतजाम किया गया, मछली पकड़ी, फ्रिजर में रख दी, बासी होने का डर खत्म। मछुवारे खुश क्योंकि इससे उन्हें और ज्यादा शिकार करने का समय मिलने लग गया। 

परन्तु वह समस्या ही क्या जो ना आए। जापानिओं को ज्यादा देर तक फ्रिज की गयी मछलियों का स्वाद
नागवार गुजरने लगा। मछुए फिर परेशान। पर मछुवारों ने भी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी नौका में बड़े-बड़े बक्से बनवाए और उनमें पानी भर कर मछलियों को जिन्दा छोड़ दिया। मछलियां ग्राहकों तक फिर ताजा पहुंचने लगीं। पर वाह रे जापानी जिह्वा, उन्हे फिर स्वाद में कमी महसूस
होने लगी। क्योंकि ठहरे पानी में कुछ ही देर मेँ मछलियां सुस्त हो जाती थीं और इस कारण उनके स्वाद में फ़र्क आ जाता था। पर जुझारु जापानी मछुवारों ने हिम्मत नहीं हारी और एक ऐसी तरकीब इजाद की, जिससे अब तक खानेवाले और खिलानेवाले दोनों खुश हैं। इस बार उन्होंने मछलियों की सुस्ती दूर करने के लिए उन बड़े-बड़े बक्सों में एक छोटी सी शार्क मछली डाल दी। अब उस शार्क का भोजन बनने से बचने के लिए मछलियां भागती रहती हैं और ताजी बनी रहती हैं। कुछ जरूर उसका आहार बनती हैं पर यह नुक्सान मछुवारों को भारी नहीं पड़ता। खाने वाले भी खुश, खिलाने वाले भी खुश और स्वाद का चस्का भी जिंदाबाद

है ना, तीन इंच की जबान के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़।

बुधवार, 2 जुलाई 2014

रेगिस्तान का कल्पतरु "शमी"

यही वह वृक्ष है, जिसकी टहनियों और शाखाओं से अपने वनवास के समय श्री राम ने अपनी कुटिया का निर्माण किया था और जिसमें अज्ञातवास के समय पांडवों ने अपने दिव्यास्त्र छिपाए थे।
शमी वृक्ष 

प्रकृति ने इस धरा को सुरक्षित, संवर्धित रखने के लिए इसे तरह-तरह के पेड़ों से नवाजा है।  पेड़ भी कैसे-कैसे, कोई मोटा, कोई छोटा, कोई घना, कोई झिझला, कोई ऊंचा, कोई छोटा, कोई फलदार, कोई कांटेदार, कोई मजबूत तो कोई नाजुक, इनकी विशेषताएं गिनने जाएं तो पोथियाँ भर जाएं। इन्हीं में एक पेड़ है, जिसका नाम है  " शमी या खेजड़ी"  ये इतना पुराना है कि इसकी चर्चा रामायण-महाभारत में भी पाई जाती है. यही वह वृक्ष है, जिसकी टहनियों और शाखाओं से अपने वनवास के समय श्री राम ने अपनी कुटिया का निर्माण किया था और जिसमें अज्ञातवास के समय पांडवों ने अपने दिव्यास्त्र छिपाए थे। कहते हैं कि इसमें अग्निदेव का वास होता है, इसीलिए इसे अत्यंत पवित्र और पूज्य माना जाता है। आदिकाल से ही यज्ञ इत्यादि करते समय अरणी मंथन क्रिया द्वारा इसकी टहनियों को आपस में रगड़ कर अग्नि प्रज्वलित की जाती रही है।  आज भी पारंपरिक वैदिक पंडित यज्ञ के समय इसी का उपयोग कर अग्नि को आमंत्रण देते हैं।   

यह सदाबहार कांटेदार वृक्ष भारत के मरुस्थलों और कम जल वाले क्षेत्रों में बहुतायद से पनप कर, विपरीत परिस्थितियों और तेज गरमी में भी पशु-पक्षियों को शरण देता रहता है। इसकी हरी-हरी पत्तियों में बहुतायद में नमी पाई जाती है और ये ऊंट, भेड, बकरियों का प्रमुख खाद्य हैं जो उनके लिए वरदान स्वरूप है। वहीं इसकी जड़ों में नाइट्रोजन की भरमार होने के कारण यह जमीन को उर्वरक बनाने में सहायक होता है।  इसीलिए जहां शमी या खेजड़ी के पेड़ होते हैं वह जगह उपजाऊ होती है. इसके कारण ही मरुस्थल, रेगिस्तान या कम जल वाले क्षेत्रों में इसे कल्पतरु के रूप में जाना जाता है। सिर्फ यही नहीं यह हानिकारक गैसों को सोखने की भी क्षमता रखता है। इसकी लम्बी मजबूत और जमीन में गहरे तक उतरी जड़ें वहाँ से नमी तो लेती ही हैं जमीन को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ वृक्ष को भी रेत में खड़ा रहने की क्षमता प्रदान करती हैं, जिससे रेगिस्तान में चलने वाले अंधड़ों के वेग को यह कम कर हवा में उड़ने वाली रेत को भी रोक कर जमा कर देता है। इसके अलावा इसकी औषधिय विशेषताएं भी कम नहीं हैं। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों और बीजों को तरह-तरह की बीमारियां दूर करने के काम में लाते हैं। इसकी लकड़ियों का जलावन और उससे प्राप्त कोयला भी उच्च कोटि का होता है। इसके तने से पीले रंग का उपयोगी गोंद भी प्राप्त होता है। यही कारण है कि यह बहु-उपयोगी वृक्ष राजस्थान में पूजा जाता है।   

इसकी लकड़ी भी बहुत मजबूत होती है तथा उसका उपयोग गृह-निर्माण के विभिन्न कामों में किया जाता है।  इसमें फल के रूप में फलियां लगती हैं, जिन्हें सांगरी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में इन्हें खो-खा कहते हैं। इन फलियों से बेहद स्वादिष्ट सब्जी और अचार बनाया जाता है। इसके खाने से प्यास भी कम लगती है। यह राजस्थान के ख़ास खाद्यों में गिनी जाती है। सूखी सांगरी की कीमत बाजार में सैकड़ो रुपयों तक पहुँच जाती है।  इस तरह देखें तो शमी या खेजड़ी का पेड़ उस रेगिस्तान में जहां गर्मियों में जीना मुहाल हो जाता है, वहाँ नर-नारियों के साथ-साथ पशु-पक्षियों को भी अपने प्रत्येक अंग से सुरक्षा, भोजन, आश्रय तथा निरोगिता प्रदान कर उनके जीवन को कुछ हद तक सरल बनाने में सदियों से जुटा हुआ है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इसी वृक्ष की सहायता से वैसे दुर्गम स्थल पर जीवन यापन करना संभव हो पाता है।                         

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