शुक्रवार, 28 जून 2013

कायनात को दोस्त बनाना ही पडेगा

सही मानिए, जिस दिन इस "कब" का उत्तर मिल जाएगा, उस दिन से कोई आपदा, विपदा, त्रासदी प्रलयंकारी हो कर हमें इतना नहीं सताएगी. क्योंकि तब प्रकृति का दोस्ताना हाथ हमारे साथ होगा.   

उत्तराखंड हादसे के भी कई रूप हैं। वहाँ  रहने वालों के लिए यह महाविनाश का रूप था, जिसमे उनका घर-द्वार, रोजी-रोटी सब छीन गये.  वहाँ गए तीर्थ यात्रियों के लिए भयंकर प्रकोप था, जिसके कारण उन्हें शारीरिक, आर्थिक कष्टों के साथ-साथ अपने प्रिय जनों से बिछुड़ने का गम जीवन भर सालता रहेगा.  प्रकृति की यह विनाश लीला थी, जिसने जीव-जड़ सबका संतुलन बिगाड़ कर रख दिया।

पैसों के साथ पकडे गए कथित साधू 
बहुतेरे लोगों के लिए यह विपदा पैसा बनाने का जरिया भी बन गयी, जिसमे कुछ लोग अमानुषिकता की हदें भी पार कर गये. कुछ मतलब परस्त नेताओं की मौकापरस्ती भी इससे उजागर हो उनकी हकीकत बयान कर गयी.  पर इसके साथ ही लोगों को मिसाल भी देखने को मिली जब कुछ "बाहर वालों" ने बिना किसी हिचक, या लालच के अपने आस-पास के क्षेत्र को साफ करने की ठान ली. पर दुःख यही है की उनके इस काम से भी किसी ने सबक लेने की जहमत नहीं उठाई।    

इस हादसे का कारण देखा जाए तो प्रकृति जनक कम, इंसान द्वारा निर्मित ज्यादा था. मानव के पैर जहां भी पड़े वहीं उसने उस जगह को मलबा घर बना डाला. फिर वह चाहे हिमालय हो या फिर सुदूर स्थित च्न्द्र्मा. चाहे सागर की गहराईयाँ हों या फिर रेगिस्तान. ऐसे ही जानते-बुझते, पैसों के लालच में पहाड़ों में जगह-जगह वैध-अवैध निर्माण, खनन, वृक्षों की कटाई ने प्रकृति को दोस्त की जगह दुश्मन बना दिया। इसी लिए वर्षों से छिट-पुट हादसों द्वारा अपनी नाराजगी को नजरंदाज करने वालों को आखिर कायनात ने एक करारा झटका  में और  नहीं की.  पर लगता नहीं कि हमने अभी  भी कोई सबक सीखने की कोशीश की है.
चहुं ओर बर्बादी  

सालों-साल से हमारी आदत रही है योरोप या पश्चिम को बुरा कहने की और नीचा साबित करने की। उनकी बुराईयाँ सदा हमें आकृष्ट करती रहीं, पर हमने उनकी अच्छाईयों को सदा नकारा और नजरंदाज किया है. इस   हादसे से बचे लोगों के किसी भी कैंप-शिविर-पनाहगाह को लें, जगह-जगह खाली प्लास्टिक के ग्लास, कागज़ की प्लेटें, खाली रैपर, कार्टंस बिखरे दिख जाएंगे, एक जगह इकट्ठा कर डालने की व्यवस्था होने के बावजूद. हमें इसकी आदत पड़ी हुई है. पर कुछ लोग हैं जिन्हे ऐसी बेतरतीबी रास नहीं आती. ऐसे ही एक जर्मन माँ-बेटे को
Jodie Underhill
ऋषिकेश के बस अड्डे पर लोगों ने वहाँ बिखरी पड़ी, गंदगी फैला रही चीजों को हटा कर कूड़ेदान में डालते देखा। रैमो नाम के बालक की उम्र मात्र नौ साल की है और सफाई की पहल भी उसी ने अपनी माँ से पूछ कर की. दिन-रात काम में लगे सफाई कर्मियों ने उसे हाथ के ग्लव्स जरूर दिए पर वहाँ बैठे लोगों ने न कोई सहायता ही की नहीं गंदगी कम करने की कोशिश. ऐसा ही एक उदाहरण है ब्रिटेन की Jodie Underhill जो देहरादून में Garbage Girl के नाम से जानी जाने लगी है, बिना किसी लालच के, वर्षों से  जुटी हुई है सफाई अभियान मे. उसे तो अब स्थानीय लोगों की सहायता भी मिलने लग गयी है. एक तरफ हम हैं जो आज कुछ न कर सिर्फ दुहाई देते हैं अपने अतीत की। गर्व करते हैं किसी जमाने के अपने जगद गुरु होने का। गर्व करते हैं अपनी पुरानी गौरव-संपदा का.  दूसरी तरफ हैं ऐसे कुछ लोग जो बातों में नहीं कर्म में विश्वास करते है. 

पर हम कब लाएंगे अपनी आदतों में सुधार. कब मूंगफली खा रेल के डिब्बे में छिलके ड़ालना बंद करेंगे? कब बसों-कारों से खाली पानी की बोतलें या रद्दी कागज़ बाहर उछालना छोड़ेंगे? कब अपना घर साफ कर अपने घर का कूडा दूसरे के दरवाजे के सामने सरकाना बंद करेंगे? कब अपने टामी-टमियाइन की गंदगी से सडकों-गलियों को निजात दिलवाएंगे ?  कब? कब?

सही मानिए, जिस दिन इस कब का उत्तर मिल जाएगा, उस दिन से कोई आपदा, विपदा, त्रासदी प्रलयंकारी हो कर हमें इतना नहीं सताएगी. फिर यदि हमने अपना वजूद बचाना है तो कायनात का हाथ थामना ही पडेगा.

मंगलवार, 25 जून 2013

यह बांए हाथ का खेल नहीं है

बाएं हाथ के लिए कैंची 
हमने अपने सगे-संबंधियों, जाने-पहचाने, अड़ोस-पड़ोस में या मशहूर बहुत सारे लोगों के बारे में पढा, सुना या देखा होगा कि वे लोग अपना ज्यादातर काम अपने बायें हाथ से निपटाते हैं। इसे हमने प्राकृतिक तौर पर ही लिया भी होगा। पर कभी भी इनकी मुश्किलों पर ना तो ध्यान ही दिया  होगा और न ही कभी सोचा होगा। यदि आप दाहिने हाथ से काम करने वाले हैं तो एक बहुत छोटा सा काम कर देखिये। एक कैंची लीजिए और अपने बायें हाथ से उससे कुछ भी, कागज, कपड़ा या अपनी मूछें, कतरने की कोशिश कर देखिये क्या होता है। फिर सोचिए बाएं हाथ से काम करने वालों की परेशानी को। हर चीज चाहे वह कैंची हो या स्क्रू कसना हो, कैमरे के बटन हों या कमीज के सब दाहिने हात को ध्यान में रख कर ही तो बनते हैं। कभी-कभी तो भारी मशीनें बांए हाथ वालों के लिए जान जोखिम की वस्तु बन जाती है जब उसे "हैंडल" करने में कठिनाई होती है। यह तो वाम-हस्त वालों की कुशलता होती है जो ऐसी परिस्थितियों को जल्द अपने अनुसार ढाल लेते हैं। अपनी इसी काबलियत से कभी-कभी तो खेलों में बांए हाथ वाले खिलाडी दाएं हाथ वालों पर भारी पड जाते हैं। क्रिकेट इसका बढिया उदाहरण है। अब तो बांए हाथ से काम करने वालों के क्लब, जो 1990 में स्थापित हुआ था, ने  1992 से 13 अगस्त को  "International Left-Handers Day  के रूप में मनाना शुरू कर दिया है.      

खब्बू की-बोर्ड 
पहले बांए हाथ के लेखकों को लिखने में जो  कुछ दिक्कतें आती थीं वह भी अब  आधुनिक तकनीकी की इजाद QWERTY कम्प्यूटर की-बोर्ड से दूर हो गयीं हैं। जिसमे करीब 56 प्रतिशत टाइपिंग बांए हाथ से की जाती है. अंग्रेजी के 3000 शब्दों की तुलना में सिर्फ 300 शब्द ही दाएं हाथ से टाइप किए जाते हैं. दुनिया में ज्यादातर लोग अपने दायें हाथ से काम करते हैं। इसीलिये उन्हीं को मद्देनजर रख औजार या मशीनेबनाने वाली कंपनियां अपने उत्पाद बनाती हैं। पर इनकी मुसीबतों और तादाद को देखते हुए आस्ट्रेलिया के एक व्यवसायी ने बायें हाथ से काम करने वालों की मुश्किलों को दूर करने के लिये अपने उत्पाद 'लेफ्ट हैंडेड प्रोडक्टस' के नाम से बनाने शुरु कर दिये हैं। एक पन्थ दो काज, अपना और दूसरों का भला एक साथ।
यह तो विज्ञान ने साबित कर दिया कि दोनों तरह के लोगों में कोई फर्क नहीं होता नहीं तो सदियों से बायें हाथ से काम करने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। एक समय था जब इंग्लैण्ड में बाएं हाथ से काम करने वालों को "नाइट" की उपाधी नहीं  दी जाती थी। क्योंकि ऐसा समझा जाता था कि  उनमे शैतान  का अंश है। यहां तक कि इन्हें भूत-प्रेत की संज्ञा देकर मार डालने तक की कोशिशें भी होती रहती थीं। इसी डर से बहुत से मां-बाप अपने बायें हाथ का उपयोग करने वाले बच्चों को जबरन राइट हैंडेड बनाने की कोशिश किया करते थे। पति अपनी बायें हाथ से काम करने वाली पत्नि को त्यागने में गुरेज नहीं करते थे। मार-पीट, प्रताड़ना तो आम बात थी। आज भी रूस, जापान, जरमनी और यहां तक की अपने देश भारत में भी कहीं-कहीं बायें हाथ का इस्तेमाल अशुभ माना जाता है। 

वाम-हस्त के लिए घड़ी 
पर अब बाएं हाथ से काम करने वालों के लिए खुशखबरी है की कुछ सालों पहले तक दुनिया की आबादी में  उनका 11 प्रतिशत अब बढ़ कर 13 प्रतिशत हो गया है। और फिर पहले की एक मिथ्या धारणा का भी अंत हो गया है कि दाहिने हाथ से काम करने वालों की जिन्दगी लम्बी होती है। अब तो खोजों से यह भी पता चला है की जानवर भी दाएं या बाएं  हाथ वाले होते हैं, जिसमे वाम-हस्तीय  ध्रुवीय भालू सबसे अच्छा उदाहरण है।  सुन कर बहुत अजीब लगता है कि कभी योरोप में लोग सिर्फ बांयी ओर  ही चलना पसंद करते थे जिससे किसी झगड़े के दौरान दायीं ओर तुरंत वार किया जा
सके तथा महलों में घुमावदार सीढ़ियां  भी दाहिने हाथ से काम करने वालों को ध्यान में रख कर बनाई जाती थीं।

वह तो फ्रांस का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने ऐसी प्रथा को तोडा। आज संसार में ज्यादातर गाड़ियां दाहिने हाथ वाली होती हैं फिर भी करीब 65 देशों में अभी भी "लेफ्ट हैण्ड ड्राइव" लागू है। फ्रांस शायद अकेला देश है जहां रेल गाड़ियां तो बायीं तरफ चलती  हैं पर हवाई जहाज और नौकाओं को दाहिने हाथ की ओर से चलाया जाता है।

यह आम धारणा है कि दिमाग का दाहिने तरफ का हिस्सा शरीर के बांए हिस्से को जो संगीत, भावनाओं और अनुसंधान इत्यादि के लिए जिम्मेदार होता है, और बांयीं तरफ़ का हिस्सा शरीर के दाहिने हिस्से को कंट्रोल करता है जो गणित, विज्ञान, भाषा इत्यादि के लिए जिम्मेदार होता है। पर ऐसा क्यूं है इसका उत्तर मिलना अभी बाकी है।  


   

शनिवार, 22 जून 2013

हम और हमारा इतिहास ऐसा तो न था !!!

शुरू-शुरू में जब पहाड़ों पर पानी बरसने की खबरें आईं तो किसी ने उसकी भयावहता का अंदाज न लगाते हुए उसे हल्के से लेते हुए, मौसम की बारीश के रूप में ही लिया था। फिर जब उसकी तस्वीरें सामने आईं तो लोगों के रौंगटे खड़े हो गए, दिल हिल गये। पर अब जो खबरें आ रही हैं या भुग्तभोगी बता रहे हैं उससे तो सबके सिर शर्म के मारे नीचे हुए जा रहे हैं। चार-चार , पांच-पांच दिनों से भूखे प्यासे लोगों की सहायता तो दूर, उन्हें दुत्कारा जा रहा है।  चार-पांच रुपये के बिस्कुट के पैकेट के 200 रुपये, पानी की एक बोतल के 100 रुपये, एक रोटी के 180 रुपये, थोड़े से चावलों के लिए 500 रुपये, आधे पेट भोजन के लिए 1000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं। ना दे पाने की स्थिति में दुत्कारा जा रहा है।  यहां तक कि छोटे बच्चों का रोना-कल्पना भी पत्थर  दिलों को पिघला नहीं पा रहा। सुनने में तो यहां तक भी आया है कि लोग अपने बच्चों के लिए पैसा न होने की स्थिति में हजारों रुपयों की सोने की वस्तुएं 200-300 रुपये में दे खाना खरीदने पर मजबूर हो रहे हैं।

जान बचाने की कीमत वसूलने में गाड़ी-घोड़े वाले भी पीछे नहीं हैं, जोशीमठ से ऋषिकेश तक के लिए टैक्सीवाले 15000-15000 रुपयों की मांग कर रहे हैं। हेलीकाप्टर सेवा देने वाली कंपनियां जो दिन भर के हिसाब से पैसा लेती थीं अब घंटों के हिसाब से पैसा वसूलने लग गयी हैं। यात्रियों को यह समझ नहीं आ रहा की वे कुछ खा कर शरीर को बचाएं या भूखे-प्यासे रह, पैसे बचा, घर पहुँचने का इंतजाम करें।

प्रकृति के प्रकोप से किसी तरह जिनकी जान बच भी गयी है वे अब इंसान की लंपटता-लालसा के शिकार बन रहे हैं।  मानवीय संवेदना, इंसानियत, भलमानसता इन सब शब्दों के चिथड़े-चिथड़े हो चुके हैं। आदमी, आदमी की मजबूरी का फ़ायदा उठाने से बाज नहीं आ रहा। वह भी भगवान के निवास में, उसकी नाक के नीचे। अभी भी वह पकृति के कोप, प्रभू की टेढ़ी चितवन को पहचान नहीं पा रहा है। और इसमें कोई आश्चर्य की या बड़ी बात भी  नहीं है कि यदि कहीं किसी के द्वारा भ्रष्टाचार निवारण की बात उठाई जाती है तो ऐसे लोग वहाँ भी हाथ उठा चिल्ला-चिल्ला कर दूसरों पर दोष मढ़ते दिखाई देते हों। अपना दुष्कर्म न तो किसी को दिखाई पड़ता है नाही कोई उसे याद रखता है।    

समझ में नहीं आता कि ऐसा करने वाले क्या उसी देश के वाशिंदे हैं जिस देश के किस्से-कहानियों में सदा मुसीबतजदा की सहायता की बातें की गयी हों।  जिनमे अपनी जान पर खेल कर दूसरों की जान बचाने की शिक्षा दी गयी हो। जिनमे पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी वस्तुओं में अपने जैसा जीवन मान उन्हें यथासंभव संरक्षित करने पर जोर दिया गया हो। वहीं चंद सिक्कों के लाभ के लिए बच्चों तक को दरकिनार किया जा रहा है। उनका भूख के मारे रोना, चीखना-चिल्लाना भी किसी के मन में दया का संचार नहीं कर पा रहा।

वैसे इस कठोरता का एक पहलू और भी है। अधिकाँश स्थानीय लोग भविष्य की आशंका से सहमे हुए हैं। उन्हें डर  है की अभी तो मानसून पूरी तरह शुरू भी नहीं हुआ है, आने वाले दिनों में न जाने क्या हाल हो, इस लिए भी वे अपनी जरूरत की वस्तुओं को बचा कर रखना चाहते हों।  वैसे इसी बीच इक्का-दुक्का ऐसी भी खबरें आयीं हैं जिनमें कहीं-कहीं कुछ गांव वालों या लोगों ने बिना किसी लालच के जहां तक हो सका है बेबसों की सहायता की है। पर ऐसा बहुत कम ही हो पा रहा है। 

एक कहावत है "यथा राजा तथा प्रजा।"  तो क्या यह सब आजकल की संस्कृति, माहौल या चलन का फल है ?  क्योंकि  हम और हमारा इतिहास ऐसा तो न था !!!

शुक्रवार, 21 जून 2013

नमक के कुछ नमकीन उपयोग

दुनिया में हर चीज की अच्छाई और बुराई होती है। अब जैसे नमक को ही ले लें, हजारों-हजार साल से मनुष्य इस सस्ती प्रकृति-प्रदत्त नियामत का उपयोग करता आया है। पर आजकल अपनी अनियमित दिनचर्या के कारण खराब होती सेहत का दोष इसे भी मान मानव शरीर पर इसके दुष्प्रभाव का इतना प्रचार किया गया है की इसे लोग विष की तरह मानने लग गए हैं। पर ऐसा है नहीं।  अति तो हर चीज की खराब होती है और नमक भी इसका अपवाद नहीं है। सच्चाई यह है की इसकी एक संतुलित मात्रा हमारे शरीर के लिए अति आवश्यक है। यह तो रही शरीर की बात,  इसके अलावा भी रोजमर्रा के कामों में भी यह काफी काम की चीज है। आजमाएं इसके कुछ उपयोग -            

#  खाना बनाते समय या चिकनाई से कहीं आग लग जाए तो तुरंत उस पर नमक छिड़क दें। आग बुझ जाएगी। 

# मधुमक्खी या बर्र ने डंक मारा हो तो उस जगह को नाम कर नमक से धक् दें, आराम मिलेगा।

# अखरोट या बादाम जैसे सूखे मेवों का छिलका आराम से उतारने के लिए उन्हें घंटे भर के लिए नमक के पानी में डुबो दें, छिलका निकालने में आसानी होगी। 

# दरवाजों-खिड़कियों और चींटीयों के आने जाने के रास्तों पर नमक का छिड़काव कर दें, उनसे निजात मिल जाएगी।  

# अनचाही घास या पौधों से छुटकारा पाना हो तो उन पर नमक डाल कर  गरम पानी डाल दें, आपकी परेशानी तो दूर हो ही जाएगी वह भी बिना पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाए।  

# यदि आपका  पालतू जूओं इत्यादि कीड़ों  से परेशान हो तो उसके बसेरे और उसकी उपयोग वाली चीजों को नमक मिले पानी से धो डालें। यदि घर में कारपेट वगैरह में कीड़ों का प्रकोप हो तो उस पर नमक छिड़क कर ब्रश कर दें।   

# गलती या जल्दबाजी में अंडा फर्श पर गिर जाए तो उस पर नमक डाल दें। 15-20 मिनट बाद आसानी से जगह साफ हो जाएगी। 

# कभी-कभी प्रेस करने वाली आयरन पर दाग पड जाते हैं, इनको दूर करने के लिए वैक्स-पेपर पर नमक डाल इस पर प्रेस घुमाएं, दाग मिट जाएंगे। 

# ओवन में कुछ गिर गया ह तो उस पर नमक डाल कुछ गरम कर दें। जगह साफ हो जाएगी।  

# चाय, कॉफी के प्यालों में दाग पड  गए हों तो उनमें नमक और बर्फ के टुकडें डाल आधा घंटा छोड़ दें, फिर धो डालें, कप नए जैसे हो जाएंगे।    

# मोमबत्ती को गाढे नमकीन पानी में कुछ घंटे तक भिगो कर सुखा कर रख लें। वह बिना ज्यादा पिघले देर तक जलेगी।  



गुरुवार, 20 जून 2013

हमारे शरीर के कुछ रोचक तथ्य

हमारा शरीर इस दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा है. इसका एक-एक अंग अपने आप में एक मिसाल  है. अपनी बनावट, अपनी कार्यक्षमता, अपनी जटिलता के चलते यह दुनिया की दसियों मशीनों पर भारी पड़ता है. इंसान ने चाहे  आसमान की ऊंचाईयां छू ली हों, या सागर की अतल गहराईयाँ नाप ली हों, पर मानव शरीर के कई रहस्य अभी भी अनसुलझे ही हैं। अपना शरीर होते हुए भी हम इसके बारे में बहुत कुछ नहीं जानते.
आईए इसके कुछ रोचक तथ्यों का जायजा लेते हैं।     

# हमारा दिमाग अभी भी वैज्ञानिकों के लिए एक अबूझ पहेली है.  

# दस वाट के बल्ब की ऊर्जा के बराबर शक्ति प्रदान करने वाले हमारे  दिमाग से भेजे गए संदेशों की गति 170 मील प्रति घंटे होती है.

# अक्सर सुबह को काम के लिए ज्यादा उपयुक्त समझा जाता है पर दिमाग रात को ज्यादा एक्टिव होता है. 

# हमारी कलाई से कोहनी की लम्बाई हमारे पैर के बराबर होती है.

# यदि दोनों हाथों को फैलाया जाए तो यह शरीर की लम्बाई के बराबर की लम्बाई होगी.

# चौबीस घंटों में हमारा दिल करीब एक लाख बार धड़कता है. जो पूरे जीवन में करीब तीस करोड़ का आंकड़ा पार करते हुए 400 मिलियन लीटर खून पंप कर शरीर को गतिमान बनाए रखता है.

# जन्म के समय हमारे शरीर में 300 हड्डियां होती हैं जो समय के साथ जुड़ कर 206 रह जाती हैं.

# हमारे सर में ही 22 हड्डियां होती हैं।      

# औसतन हम दिन भर में 23000 बार सांस लेकर करीब 0.6 ग्राम कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन करते हैं।

# औसतन हर आदमी करीब एक मिनट तक सांस रोक सकता है. जबकि इसका कीर्तीमान 21 मिनट 29 सेकेण्ड का है.

# हम एक दिन में करीब 5000 शब्द बोल लेते हैं।

# यदि शरीर में एक प्रतिशत पानी की कमी होती है तो हम प्यास महसूस करने लगते हैं।

# आश्चर्य की बात है की आँखें खुली रख कर छींका नहीं जा सकता.

# विश्वास करेंगे कि किसी को जम्हाई लेते देख 55 प्रतिशत लोगों को पांच मिनट में जम्हाई आ जाती  है.

# कोई भी इंसान बिना खाए एक महीना रह सकता है पर बिना पानी पिए एक सप्ताह निकालना भी मुश्किल हो जाता है.

# पेट में बनने वाला एसिड इतना तेज होता है की वह रेजर ब्लेड को भी गला सकता है। इसीलिए पेट के अन्दर का अस्तर हर तीसरे-चौथे दिन बदल जाता है. 

# हम अपने पूरे जीवन काल में करीब 75000 लीटर पानी पी जाते हैं।

# आम इंसान के सर पर करीब एक लाख बाल होते हैं। चेहरे के बाल शरीर के अन्य हिस्सों के बालों से ज्यादा तेजी से बढ़ते हैं। 

#  पुरुषों तथा महिलाओं के 70 से 90 बाल रोज झड जाते हैं।

# पुरुष दिन भर में करीब 15000 बार आँखें झपकाते हैं जबकि महिलाएं इसकी दुगनी बार।

# अभी तक खोजे गए 118 पदार्थों में से 24 हमारे शरीर में भी पाए जाते हैं।

# हमारे मुंह में रोज करीब एक लीटर लार का निर्माण होता है और पूरे जीवन काल में दस हजार गैलन का।

# सुनने के मामले में हम कई जीव-जन्तुओं से पीछे हैं।

# हमारी जीभ पर 9000 तन्तु होते हैं जिससे वह मुख्य स्वादों को तुरंत पहचान जाती है. जिसमें नमकीन तथा मीठे को जीभ की नोक से, तीखे या चरपरे को जीभ के पिछले हिस्से से, खट्टे को जीभ के दोनों किनारों से तथा मिले-जुले स्वाद को जीभ के बीच वाले हिस्से से महसूस किया जाता है. पर जब तक मुंह की लार खाने में नहीं मिल जाती  तक स्वाद की अनुभूति  नहीं होती.       

# हमारा लीवर हमारे शरीर के भीतर का सबसे बड़ा अंग है जबकि हमारी खाल शरीर का सबसे बड़ा हिस्सा. जिस पर करीब 640000 संवेदनशील तंतु होते हैं।

# शरीर में उठने वाली हिचकी पांच मिनट तक आ सकती है. इससे ज्यादा देर तक रहने से यह परेशानी का सबब बन सकती है.

# हमारे हाथ के नाखून पैरों की बनिस्पत चार गुना तेजी से बढ़ते हैं। उसमे भी हाथ की बीच वाली ऊंगली के नाखूनों की बढ़त सब से तेज होती है.

# पुराने समय में पाचन का अभिन्न अंग अपेंडिक्स का, आज के मानव के शरीर में कोई  उपयोग नहीं है.

# अभी करीब 13 प्रतिशत लोग वामहस्त हैं.

# नवजात शिशु के सर का भार उसके  कुल  भार का एक चौथाई होता है.

# हमारे शरीर की हड्डियों का रंग सफेद न हो कर कुछ भूरापन लिए होता है.

# अंगूठे की छाप की तरह हर इंसान की जीभ की  भी अलग-अलग छाप होती है.

# यदि इंसान के सारे डी एन ए को फैलाया जाए तो उसकी लम्बाई चंद्रमा की दूरी से 6000 गुना होगी.

# हमारे शरीर के भार का दो-तिहाई भार पानी का है. जिसमें खून का 92 प्रतिशत पानी, मश्तिष्क का 75 प्रतिशत पानी और मांसपेशियों का 75 प्रतिशत पानी सम्मिलित होता है.

# जन्म से मृत्यु तक हमारी आँखों का आकार एक जैसा ही रहता है. पर उम्र बढ़ने के साथ-साथ इसका लेंस मोटा होता जाता है. इसीलिए अमुमन चालीस की उम्र के बाद चश्मे की जरूरत पड जाती है.

# आँख की रेटिना में करीब  125 मिलियन रॉड और 7 मिलियन कोन होते हैं। रॉड से छाया और कम रोशनी में देखने में मदद मिलती है जबकि कोन तेज रौशनी में देखने और रंगों की पहचान करने में सहायक होते हैं.   धारणा के विपरीत हम आँखों से नहीं बल्कि अपने दिमाग से देखते हैं आँखें दरअसल कैमरे का काम करती हैं.

यह तो कुछ ही तथ्य हैं, बाकी यह शरीर ब्रह्मांड की तरह दुरूह है. जिसका पार पाना आने वाले भविष्य में तो मुश्किल ही है.


मंगलवार, 18 जून 2013

भेजा फ्राई करवाना है?

हमने बहुत सारे इंटरव्यू दिए और देखे होंगे पर इस तरह के भेजा फ्राई करने वाले इंटरव्यू से शायद ही किसी का पाला पडा हो। विश्वास नहीं होता तो जरा इसमें शामिल हो देखिए। लीजिए इंटरव्यू शुरु हो चुका है।

अफसर : आपका नाम क्या है?
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : ठीक से पूरा बताओ
मोहन   : मोहन पाल, सर                                                    
 
अफसर : आपके पिता का नाम?
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : इसका क्या मतलब है?
मोहन   : मनमोहन पाल, सर।

अफसर : आप कहां रहते हैं?
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : अच्छा, मध्य प्रदेश?
मोहन   : नहीं सर, मुन्नार पुरम।

अफसर : ओह,हो! तुम्हारी क्वालिफ़िकेशन क्या है?
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : अब यह क्या है?
मोहन   : मैट्रिक पास, सर।

अफसर : तुम्हे यह नौकरी क्यूं चाहिए?
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : (गुस्से से) अब इसका क्या मतलब है?
मोहन   : मनी परोब्लम, सर।

अफसर : अपनी विशेषता बताओ।
मोहन   : एम.पी., सर।

अफसर : अरे, साफ-साफ बताओ #$@#$##
मोहन   : मल्टिपरपज परस्नैलिटी।

अफसर : इंटरव्यू यहीं खत्म होता है, आप जा सकते हैं।
मोहन   :  एम.पी., सर।

अफसर : अब इसका क्या मतलब है?
मोहन   : मेरा परफ़ारमेंस...?

अफसर : (बाल नोचते हुए) एम.पी. !!!
मोहन   : यानि?
अफसर : MENTALLY PUNCTURE.        G E T...O U T

शुक्रवार, 14 जून 2013

"तार" का बेतार होना, यानी एक युग का अंत

जहां पत्र या चिट्ठी के मिलने से एक खुशी और आनंद की अनुभूति होती थी वहीं तार वाले की आवाज सुन 95 प्रतिशत लोग किसी आशंका से ग्रसित हो जाते थे, क्योंकि तार ज्यादातर शोक संदेश ही लाती है, ऐसा विश्वास लोगों के मन में घर कर गया था.  इस "सिचुएशन" का फिल्मों में कई बार हास्य के रूप में भी चित्रण किया जा चुका है, जब तार आने पर उसे पढ़े बिना ही  घर में रोना-पिटना शुरू हो जाता है जबकि तार किसी खुशखबरी को  ही लाया होता है.

आने वाली 15 जुलाई से संचार प्रणाली के एक यांत्रिक माध्यम का नाम इतिहास में दर्ज होने जा रहा है. इंटरनेट, स्मार्ट फोन, एस एम् एस, फैक्स, ई-मेल के जमाने के सामने पुरानी और मंहगी पड़ती "टेलीग्राम" सेवा, जो "तार" के नाम से प्रसिद्ध थी, को बंद करने का फैसला लिया जा चुका है.

टेलीग्राफिक यंत्र 
वैसे तो यह प्रणाली सत्रहवीं सदी से ही सेमाफोर लाइन के  रूप में मौजूद थी पर डेढ़-पौने दो सौ साल पहले सेमुअल मोर्स की "डैश-डॉट" प्रणाली, जिसे मोर्स कोड के नाम से जाना जाता रहा है, के द्वारा संचार जगत में क्रांति ला दी गयी थी.  इससे विशेष संकेतों के जरिये सूचनाएं कभी भी और कहीं भी तुरंत भेजी जा सकती थीं।

मोर्स द्वारा 1844 में वाशिंगटन से बाल्टीमोर  भेजे गए अपने पहले संदेश "what hath God wrought?" के करीब 6 साल बाद ही भारत में इसकी शुरुआत 1850 में हो गयी थी, जब कलकत्ता से डायमंड हार्बर तक तारें बिछाई गयीं थीं, जिन्होंने अगले तीन साल के अन्दर ही करीब 4000 मील की जगह को घेरते हुए तकरीबन सभी प्रमुख शहरों को अपने जाल में लपेट लिया था. जिसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेजों को सन 1857 की लड़ाई में समाचारों को पाने और पहुंचाने में मिला.  वहीं आजादी के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली को पाकिस्तान द्वारा काश्मीर में घुसपैठ करने पर एक 230 शब्दों का संदेश भी इसी माध्यम से भेजा गया था.      

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सर्किट 
शुरू से ही कुछ शब्दों और छोटे वाक्यों को लाने ले जाने वाले टेलीग्राम या तार का उपयोग बहुत ही जरूरी खबरों या संदेशों के लिए किया जाता रहा था. खुशी, गमी, सफलता, पहुंचने, त्योहारों, जन्मदिन  इत्यादि जैसी खबरों को बताने के लिए जनता की सहूलियत के लिए टेलीग्राफ विभाग ने, ऐसे लोगों के लिए जो लिखना न चाहते हों,  के लिए छोटे-छोटे 44 संदेशों का चार्ट उपलब्ध करवाया हुआ था. पर यह भी सच है कि जहां पत्र या चिट्ठी के मिलने से एक खुशी और आनंद की अनुभूति होती थी वहीं तार वाले की आवाज सुन 95 प्रतिशत लोग किसी आशंका से ग्रसित हो जाते थे, क्योंकि तार ज्यादातर शोक संदेश ही लाती है, ऐसा विश्वास लोगों के मन में घर कर गया था.  इस "सिचुएशन" का फिल्मों में कई बार हास्य के रूप में भी चित्रण किया जा चुका है, जब तार आने पर उसे पढ़े बिना ही  घर में रोना-पिटना शुरू हो जाता है जबकि तार किसी खुशखबरी को लाया होता है.

 पर अब तक अपने समय के संचार के सबसे आवश्यक और तेज माध्यम को आधुनिक युग से तारतम्य न बैठा सकने के कारण मैदान छोड़ना पड़ रहा है.  ऐसा नहीं है की इसे बचाने के प्रयास नहीं किए गए, 2006 में इसे "अपग्रेड" करने के बावजूद यह "नेट-सेवी" लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई. बढ़ते घाटे की भरपाई के कारण  करीब 80 साल बाद 2011 में इसकी दरों में वृद्धि की गयी और 50 शब्दों के लिए, लिए जाने वाले 3 रुपयों की जगह दरें 27 रुपये कर दी गयीं, पर इस आक्सीजन से भी इसमे प्राण नहीं फूंके जा सके और अंत में संचार क्रान्ति के इस अजूबे पितामह को अजायबघर का सदस्य बनाने का निर्णय ले लिया गया.
     

गुरुवार, 13 जून 2013

एक डिब्बा मातृत्व भरा

अपने यहाँ नवजात शिशुओं और गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर बहुत ज्यादा है. वर्षों से सरकारों द्वारा  इसकी रोक-थाम के लिए कदम उठाने के बावजूद कोइ बहुत ज्यादा सुधार नहीं हो पाया है. आज के माहौल में कारणों की छीछालेदर न ही की जाए तो बेहतर है. इसी के संदर्भ में हम जब फिनलैंड जैसे छोटे देश को देखते हैं तो अचंभित होना जरूरी हो जाता है.

1930 के दशक में फिनलैंड एक बहुत ही गरीब देश था और वहां पर बाल मृत्यु दर बहुत ज्यादा थी। 1000 में से हर 65 बच्चे की मौत हो जाया करती थी। बहुत सोचविचार के बाद करीब 75 साल पहले  वहाँ की सरकार ने गर्भवती महिलाओं को एक डिब्बा देना शुरू किया। तब से दिए जा रहे इस डिब्बे को, जिसमें बच्चों के कपड़े, चटाई, खिलौने, स्लीपिंग बैग तथा  नैपकिन इत्यादि भरे रहते हैं, का इस्तेमाल बच्चों के बिस्तर के तौर पर भी किया जा सकता है। ये मातृत्व पैकेज सरकार की ओर से एक उपहार है जो हर गर्भवती महिलाओं को दिया जाता है। बच्चा चाहे जिस पृष्ठभूमि से आता हो उसे ये डिब्बा दिया ही जाता है। इससे सभी बच्चों की जिंदगी  एक समान स्तर पर शुरु होती है। इस डिब्बे की निचली सतह पर एक चटाई बिछी होती है। ये डिब्बा ही हर बच्चे का पहला बिस्तर होता है। हर तरह की समाजिक पृष्ठभूमि के लड़के कार्ड-बोर्ड की चार दीवारों से घिरे इस डिब्बे में पहली झपकी लेते हैं।

पहले यह सुविधा सिर्फ गरीब तबके के लिए ही थी पर बाद में यह सबके लिए लागू कर दी गयी.  वैसे मां के पास विकल्प होता है कि वो चाहे तो मातृत्व का डिब्बा ले ले या फिर नकद पैसा। फिलहाल इस मामले में 140 यूरो नकद दिए जाते हैं। पर 95 फीसदी लोग डिब्बा ही चुनते हैं। इस डिब्बे में वो तमाम सामान मुहैया कराए जाते हैं जो बच्चे की देखभाल के लिए जरूरी होते हैं। 

आज 75 साल बीत जाने के बाद फिनलैंड में मातृत्व का डिब्बा एक रिवाज बन चुका है. इसकी सबसे अच्छी बात यह है की इसके अन्दर रखी गयी हर चीज बिना लिंग भेद के रखी गयी है. परिवार में लड़का हो या लड़की यह डिब्बा सबके लिए समान रूप से उपयोगी है.

शुरू में इसमें हाथ से बनाए कपड़े रखे जाते थे क्योंकि तब वहाँ रिवाज था की  मां तब बच्चों के कपड़े खुद बनाया करती थीं। पर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इसमें कागज का  सामान रखा जाने लगा क्योंकि कपडे को सेना के उपयोग में लाना जरूरी हो गया था. पर युद्धोपरांत  रेडी मेड कपड़े का चलन बढ़ा तो 60 और 70 के दशक में नए कपड़ों का इस्तेमाल होने लगा। 1968 में इसमें स्लीपिंग बैग जोड़ा गया। इसके एक साल बाद इसमें नैपकिन शामिल कर ली गई। लेकिन बच्चों का अच्छा पालन पोषण हमेशा से मातृत्व के डिब्बे की नीति रही है। इसीलिए माँ के दूध को प्राथमिकता तथा प्रोत्साहन देने के लिए इस डिब्बे से दूध की  बोतल को  हटा दिया गया.   अब तो समय के साथ-साथ और भी चीजें जुड़ती जा रही हैं जैसे तस्वीरों वाली छोटी-छोटी पुस्तकें।    

वहाँ के लोगों का विश्वास है कि बच्चों की मृत्यु दर में कमी आना  इस डिब्बे के कारण ही संभव हुआ है. जो कहीं न कहीं समानता का भी प्रतीक है.  काश अपने यहाँ भी कम से कम जीवनोपयोगी कार्यक्रमों का पूरा फल   जरूरतमंदों तक पहुँच पा सके.




मंगलवार, 11 जून 2013

ये मानसून-मानसून क्या है

भीषण, झुलसा देने वाली गर्मियों के बाद सकून  देने वाली बरसात धीरे-धीरे सारे देश को अपने आगोश में लेने को आतुर है.  जून से सितंबर तक  हिंद और अरब महासागर से उठ कर अपने देश को  दक्षिण-पश्चिम दिशा से घेर कर  जमीन की तरफ पानी लेकर आने वाली हवाओं को मानसून के नाम से जाना जाता है. 
मानसून नाम अरबी भाषा के "मावसिम" शब्द से आया है. 
घिर आए बदरवा 
मानसून के प्रभाव से ही पाकिस्तान और बांग्ला देश में भी बरसात की सौगात प्राप्त होती है.  भारत मे इसका आगाज तकरीबन एक जून से  होता   है. पर आहट मई के अंतिम हफ्ते से शुरू हो जाती है.  मौसम विभाग कई तथ्यों का अध्ययन कर इसका पूर्वानुमान लगाता है. जिसमें देश भर के विभिन्न भागों से तापमान, हवा के रुख, बर्फबारी, वायुमंडल के दवाब इत्यादि के आंकड़ों को ध्यान में रख आने वाले मौसम की भविष्यवाणी की जाती है. पर यह भी सही है की इतने आंकड़ों को इकट्ठा करने में ज़रा सी चूक आने वाले मौसम के समय में काफी हेर-फेर ला देती है. फिर भी समय के साथ इसकी उपयोगिता पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते. 

पर अपने देश में ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं जो बिना किसी यंत्र-पाती के आने वाले समय का सटीक आंकलन करने की क्षमता रखते थे. आज भी गाँव-देहात में "घाघ-भड्डरी" संवाद  इनमें प्रमुख  है. कहते हैं उनकी काव्यात्मक भविष्यवाणियां कभी भी गलत नहीं होती थी। उनके द्वारा की गयी ऎसी कुछ भविष्यवाणियों को आप भी आजमा और परख सकते हैं -

# कितनी भी कड़ी धूप हो, जब चिड़ियाँ धूल में नहाने लगें तो समझ लीजिए दो-एक दिन में वर्षा होने वाली है.

# जब चीटीयाँ अपने अंडे मुंह में दबाए किसी ऊंची जगह पर जाने लगें तो जान जाना चाहिए की  बरसात  दस्तक दे चुकी है
# मानसून की आहट  होते ही मछलियाँ पानी की  पर आ तैरने लगती हैं।

# मोर का नाचना भी पानी बरसने का संकेत होता है.

# कुछ और  पक्षी भी अपने हाव-भाव से आने वाली बरसात की पूर्व सूचना दे देते हैं, जिनमे पपीहा, कूकू, घोघिल तथा कई प्रवासी पक्षी सम्मलित हैं।

# गाँव के बूढ़े-बुजुर्ग तो बादलों के रंग और हवा के तापमान तथा रुख को देख कर आज भी  मौसम का सटीक आकलन कर लेते हैं। 

पर जिस तरह आजकल पर्यावरण दूषित हो रहा है, 'ग्लोबल वार्मिंग' बढ़ रही है उससे डर  है कि मानसून जो ज्यादातर भारत पर सह्रदय रहा है वह आने वाले समय में अपना समय और दिशा बदल सकता है. ऐसा हो इसके पहले सतर्क होने की जरूरत है.

   
      

बुधवार, 5 जून 2013

आज का दिन गहन चिंतन का है

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। प्रदूषित होते अपने वातावरण को सुधारने की ओर ध्यान दिलाने का दिन। वैसे अपनी पृथ्वी, अपनी धरा, अपने संसार को बचाने के लिए किसी एक ही दिन सोचना कुछ औपचारिक लगता है क्योंकि यह समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करते जा रही है। इसी के फलस्वरुप आजकल सूरज का प्रकोप कुछ इस कदर बढ़ गया है कि समूचा देश त्राहि-त्राहि कर रहा है, खासकर मध्य से उत्तर भारत में दिन के शुरू होते ही सूरज सिर के ऊपर चढ़ आता है और देर रात तक उसकी मौजूदगी का तीखा एहसास बना रहता है। लोगों के लिए लू के थपेड़ों के बीच चलना दुस्साहस की मांग करता है। पशु-पक्षियों के लिए पानी की जरूरत पूरा करना जान लेवा होता जा रहा है। पेड-पौधे झुलस के रह गये हैं।

राहत के तमाम कुएं सूख चुके हैं और तालाबों में पानी नहीं के बराबर बचा है। मानसून को पूरे देश में पहुंचने में अभी भी विलंब है। अधिकांश राज्यों में पारा 40 के ऊपर बना हुआ है। वैसे देखा जाए तो सूरज का यह प्रकोप या रूप नया नहीं है। गर्मियां तो सदा से ही प्राकृतिक रूप से अपने नियमानुसार आती ही रहती थीं। पर तब प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता मधुर हुआ करता था, हमारे जीवन में तब मशीनों का इतना दखल नहीं हुआ था। भीषण गर्मियों में भी तब कुओं, तालाबों, सरोवरों में इफरात पानी होता था। बाग-बगीचों, पेड-पौधों, जंगलों की भरमार थी जो झुलसा देने वाली गर्म हवा से बचने का वायस होते थे। वर्षों पहले जब पंखे, कूलर, वातानुकूलन यंत्र नहीं होते थे तब भी इंसान सकून से समय बिता लेता था। क्योंकि प्रकृति उसकी सहायक हुआ करती थी। पर हमारी बेवकूफियों का ही यह नतीजा है कि आज अधिकांश आबादी को "टायलेट और दुषित" पानी को ही कुछ हद तक साफ कर फिर काम में लाना पड रहा है.  

इतिहास गवाह है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी किनारों पर ही बसती पनपी थीं। आज सभ्यता बड़े-बड़े टाउनशिपों में पलती-पनपती है। जहां पानी की अविरल आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है। पानी के अभाव का आलम यह है कि गर्मी के इस मौसम में राष्ट्रीय राजधानी में जलापूर्ति टैंकरों के भरोसे है, तो सोचा जा सकता है की बाकी राज्यों और शहरों का क्या हाल होगा.  ज्यादातर नदियां सूख कर अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। विडंबना है कि गर्मियों में अधिक मांग होने के कारण जब बिजली की कमी हो जाती है, तो पानी का भी अभाव हो जाता है।

आज मनुष्य के हित के लिए विकास अवश्यम्भावी है। पर उसी विकास के साधनों का अधिक इस्तेमाल करने के कारण पृथ्वी गर्म हो रही है। ऊपर से सूरज का प्रकोप, इन दो पाटों के बीच अपने जीवन को दुभर बनाने का  दोषी भी इंसान ही है। इसीलिए हर बार गर्मी के हर मौसम में हम सब को ऐसा कष्ट झेलना पडता है। इसके बावजूद हम अपने रहन-सहन का ढर्रा बदलने के बारे में नहीं सोचते। हमें लगता है कि  जब हमारे पास पूरा पानी है तो चिंता काहे की. पर यह समस्या व्यक्तिगत नहीं है। आने वाले दिनों में इसकी गिरफ्त में सारा संसार आने वाला है.  अभी भी कुछ नहीं बिगडा है। अभी भी सही दिशा में उठाया गया हमारा एक कदम आने वाली पीढ़ियों को सुख-चैन से जीने का अवसर दे सकता है. 

मंगलवार, 4 जून 2013

टूटना छींके का बिल्ली के भागों

अपने यहां चुनावों का मतलब त्यौहार है। आमतौर पर त्यौहारों पर आम-जन खुश, उम्मंगित और उत्साहित रहता है। पर बाकी त्यौहारों और इस त्यौहार में मूल फर्क यह होता है कि और उत्सवों पर नागरिक अपनी जेब से पैसा खर्च कर खुश होता है पर चुनावी उत्सव पर सरकार मौका देती है उसे खुश होने का। चुनाव की घोषणा होते ही जनता चातक की तरह इंतजार करने लगती है सरकारी राहत घोषणाओं का और उसका इंतजार बेकार भी नहीं जाता। सालों विभिन्न तरह से जनता की कमाई बटोरने वाली सरकारों की आंखों में ममता छा जाती है, दिल अचानक दया से द्रवित हो उठते हैं। देने के नाम पर कभी एक हाथ न उठाने वाले दस-दस हाथों से कृपा बरसाने लगते हैं। समझते दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से हैं पर मौके पर बही बयार का फायदा उठाने से नहीं चूकना चाहते।        

अब फिर चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है। दोनो पक्ष भी तैयार हैं। उसी के तहत कैबिनेट में नोट करीब-करीब बन चुका है जिस पर सहमति और घोषणा होते ही देश के लाखों केंद्रीय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र साठ साल से बढ कर बासठ साल हो जाएगी। इस नई व्यवस्था में उन कर्मचारियों के हाथों भी बटेर लग जाएगी जो रिटायरमेंट की दहलीज पर पहुंच बस टापने ही वाले थे।   

आगामी नवम्बर में दिल्ली में होने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार ने कर्मचारियों को खुश कर अपने हक में करने के लिए यह दांव खेला है। क्योंकि केंद्र के 85 फीसदी से ज्यादा कर्मचारी दिल्ली में ही रहते हैं। अगर कैबिनेट में इस फैसले पर मुहर लगती है तो यह तीसरा मौका होगा जब सरकार केंद्रीय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाएगी। 

इससे पहले भाजपा की एनडीए सरकार ने 1998 में केंद्रीय कर्मचारियों की रिटायरमेंट आयु बढ़ाकर 60 वर्ष की थी। वहीं देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीन युद्ध के बाद 1962 में कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाकर 58 वर्ष कर दी थी। 

केंद्रीय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ने के बाद अन्य राज्यों के राज्य कर्मचारियों की भी आशा बढ जाएगी। अभी केवल मध्य प्रदेश में कर्मियों की सेवानिवृत्ति आयु 62 साल है। चाहे जो हो जैसे भी हो आने वाला त्यौहार कुछ चेहरों पर खुशी और रौनक तो ला ही देगा। 

सोमवार, 3 जून 2013

गांव से माँ आई है

गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह मालुम नहीं है। माँ तो शहर आई है अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है दोनों जगह पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च होता है। यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी, शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी। पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने। उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद।

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह रहना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसा शहर है जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है।

माँ तो गांव से आई है उसे कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं।

 माँ तो गांव से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं पर शहर के रसविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।        

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दि वापस चली जाए  उतना ही अच्छा।





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