बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

रेल की पटरियों पर दौड़ती सियासत

चारों फोटो ३६ गढ़ से चलने वाली उपेक्षित राजधानी एक्स. के है।
भारतीय रेल। राजनीतिक दलों के लिए कामधेनू. कोइ भी क्षेत्रीय दल जो केंद्र को हड़काने की क्षमता पा जाता है उसकी पहली मांग रेल मंत्रालय ही होता है. इसे पाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। क्योंकि इसका सीधा संबंध जनता से होता है इसलिए जो भी इसे हथियाता है वह अपने क्षेत्र के लोगों को बरगलाने के लिए अपने इलाके में "पटरियां बैठाना" शुरू कर देता है. भले ही वहाँ जरूरत या गुंजायश हो या ना हो. 


बाहर के हाल से अन्दर का मजमून भांपा जा सकता है 

इस बार 17 सालों के बाद फिर कांग्रेस को मौका मिला है इसे दूहने का। सियासत तो सियासत ही होती है . जब इतने वर्षों तक क्षेत्रीय दल इसके बूते अपने इलाकों का तथाकथित भला करते रहे तो कांग्रेस कैसे पीछे रह सकती थॆ. संबंधित महोदय ने इस बार मौके का फ़ायदा उठा अपने आकाओं को खुश करने का जैसे जरिया पा लिया और कांग्रेसी रेल चला डाली   

विडंबना है कि इस गाय का दूध तो सब पीना चाहते हैं पर उसको चारा कोई नहीं डालना चाहता। उसके दिन प्रति दिन क्षीण होती अवस्था का रोना सभी रोते हैं पर इलाज कोई नहीं करना चाहता। इलाज हो भी कहां से जब उसकी देख-भाल करने वाले ग्वालों की फौज पर ही आमदनी का 80'/. खर्च हो जाता हो। 

जंग लगे खस्ता हाल डिब्बे 
इस बार भी कुछ आश्चर्य चकित करने वाले उल्टे-सीधे निर्णय लिए गये, पर पूछे कौन कि मंत्री महोदय जब अनगिनत प्लास्टिक की बोतलों में पानी का व्यापार करने वाली कंपनियां लाइन लगाए खडी हैं तो आप क्यों अपना पानी जबरदस्ती पिलवाना चाहते हैं? क्यों नहीं बिना साफ किए ही उस पानी का उपयोग गाडियों और खासकर उनके बजबजाते शौचालयों को साफ कर यात्रियों को बेहतर परिवेश मुहैया करवाने की कोशिश करते? क्यों नहीं एक सुराख को शौचालय का नाम देने के बदले बायो शौचालयों की शुरुआत की जाती जिससे भारतीय पटरियां खुले 'टायलेट' के नाम से और वातावरण प्रदूषण से मुक्ति पा सकते? क्यों नहीं रखरखाव पर और ध्यान दिया जाता जिससे राजधानी जैसी गाडियों को चूहों और काक्रोंचों से मुक्ति दिलाई जा सकती? क्यों नहीं कोई आप का ध्यान इस ओर दिलाता कि जब इन प्रतिष्ठित गाडियों का यह हाल है तो साधारण गाडियां कैसे होंगी? यात्री  क्यों नहीं बिना किसी को बताए कभी साधारण गाडी में सफर कर उसकी हालत का जायजा लेते? क्यों नहीं चमकीले रैपरों में लिपटे बेस्वाद, बदरंग खाने का स्वाद चखते? क्यों पहले से ही ना संभल रही गाडियों की स्थिति सुधारने की बजाय और गाडियों की भीड बढाते हैं? दलालों पर अंकुश लगना तो बहुत जरूरी है पर क्यों नहीं दौडती गाडी में अनाप-शनाप "दौलत" कमाते टिकट चेकरों पर लगाम कसते?  सवाल अनगिनत हैं इतने कि जवाब देते-देते इनका कार्यकाल पूरा हो जाए। 
कितने सुरक्षित हैं ये? 

पर यदि सभी दलों को इसकी इतनी चिंता है कि इसे अपने वश में कर इसका, देश का, देश की जनता का, भला करना चाहते हैं तो इसे क्यों नहीं "प्रायवेट सेक्टर" को दे देते। भले ही उन्हें इसे सुधारने की एक निश्चित अवधी भी दे दी जाए, पांच साल या दस साल की। दसियों ऐसी कर्मवीर कंपनियां मिल जाएंगी जो किराये का बोझ जनता पर डाले बिना इसकी सेहत सुधारने का वचन दे सकती हैं। पर इस दूधारू की ऐसी किस्मत कहाँ ? कामधेनू  के लिए तो महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र तक में ठन गयी थी, ये तो हाड-मांस के बने साधारण इंसान हैं। इसके बिना राजनीति की गाडी नहीं चलने की।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

निश्चित ही अपेक्षाओं के अनुसार बहुत कुछ करने की आवश्यकता है..

P.N. Subramanian ने कहा…

पिछले 50/60 वर्षों में हालात और भी बिगड़ गयी है.

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