सोमवार, 19 नवंबर 2012

सत्य रूपी बीज पनपता जरूर है।


  सत्य  रूपी बीज, उसे चाहे कितना भी नीचे क्यों न  दबाया गया हो,  सतह कितनी भी कठोर क्यों ना हो उसे फोड कर पनपता जरूर है। चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। समय कितना भी लग जाए।

जीवन को तरह तरह से परिभाषित किया गया है। कोई इसे प्रभू की देन कहता है, कोई सांसों की गिनती का खेल, कोई भूल-भुलैया, कोई समय की बहती धारा तो कोई ऐसी पहेली जिसका कोई ओर-छोर नहीं। कुछ लोग इसे पुण्यों का फल मानते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इसे पापों का दंड समझते हैं। 

कोई चाहे कितना भी इसे समझने और समझाने का दावा कर ले, रहता यह अबूझ ही है। यह एक ऐसे सर्कस की तरह है जो बाहर से सिर्फ एक तंबू नज़र आता है पर जिसके भीतर अनेकों हैरतंगेज कारनामे होते रहते हैं। ऐसा ही एक कारनामा है इंसान का सच से आंख मूंद अपने को सर्वोपरि समझना।

इंसान जब पैदा होता है तो अजब-गजब भविष्य-वाणियों के बावजूद कोई नहीं जानता कि वह बडा होकर क्या बनेगा या क्या करेगा, पर यह निर्विवादित रूप से सबको पता रहता है कि उसकी मौत जरूर होगी। इतने बडे सत्य को जानने के बाद भी इंसान इस छोटी सी जिंदगी में तरह-तरह के हथकंडे अपना कर अपने लिए सपनों के महल और दूसरों के लिए कंटक बीजने में बाज नहीं आता। कभी कभी अपने क्षण-भंगुर सुख के लिए वह किसी भी हद तक गिरने से भी नहीं झिझकता। लोभ, लालच, अहंकार, ईर्ष्या उसके ज्ञान पर पर्दा डाल देते हैं। वह अपने फायदे के लिए किसी का किसी भी प्रकार का अहित करने से नहीं चूकता। वह भूल जाता है कि बंद कमरे में बिल्ली भी अपनी जान बचाने के लिए उग्र हो जाती है। मासूम सी चिडिया भी हाथ से छूटने के लिए चोंच मार देती है। नीबूं से ज्यादा रस निकालने की चाहत उसके रस को कडवा बना डालती है। यहां तक कि उसे भगवान की उस लाठी का डर भी नहीं रह जाता जिसमें आवाज नहीं होती। उस समय उसे सिर्फ और सिर्फ अपना हित नजर आता है। असंख्य ऐसे उदाहरण हैं कि ऐसे लोगों को उनके दुष्कर्म का फल मिलता भी जरूर है पर विडंबना यह है कि उस समय उन्हें अपनी करतूतें याद नहीं आतीं।     

ऐसे लोगों के कारण मानव निर्मित न्याय व्यवस्था भी अब निरपेक्ष नहीं रह गयी है। कोई कितना भी कह ले कि हम मानव न्याय का सम्मान करते हैं तो सम्मान भले ही करते हों मानते नहीं हैं। उसमें इतने छल-छिद्र बना दिए गये हैं कि आदमी कभी-कभी बिल्कुल बेबस, लाचार हो जाता है अन्याय के सामने। न्याय को पाने के लिए समय के साथ-साथ पैसा पानी की तरह बहता तो है पर मिली-भगत से उसका हश्र भी वैसा ही होता है जैसे शुद्ध पीने का पानी गटर में जा गिरे। यूंही किस्से-कहानियों में या फिल्मों में न्याय व्यवस्था का मजाक नहीं बनाया जाता। ज्यादातर झूठ तेज तर्रार वकीलों की सहायता से सच को गलत साबित करने में सक्षम हो जाता है। सच कहीं दुबक जाता है झूठ के विकराल साये में। सामने वाला इसे अपनी जीत समझने लगता है, भूल जाता है समय चक्र को, भूल जाता है इतिहास को, भूल जाता है अपने ओछेपन को। पर सत्य  रूपी बीज, उसे चाहे कितना भी नीचे क्यों न  दबाया गया हो,  सतह कितनी भी कठोर क्यों ना हो उसे फोड कर पनपता जरूर है। चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। समय कितना भी लग जाए, असत्य को अपनी करनी का फल भोगना जरूर पडता है। इसमें कोई शको-शुबहा नहीं है।
और फिर कुछ ऐसा होता है कि !!!!!

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अन्ततः सत्य ही जीतता है, समय भले ही लग जाये..

शारदा अरोरा ने कहा…

बहुत सही अभिव्यक्ति ...हमने अपनी माँ से सुना था कि इश्क और मुश्क सालों बाद भी बाहर निकल कर आते हैं ...कोई कितना भी छिपा ले ...तो सच तो सच है ...और न्याय तो जैसा आपने कहा कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती ...इंसान खुद को होशियार समझता है....पर इस सोच के साथ खुद ही कांटे बोता रहता है ...

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

behtareen abhivyakti:)

Vinay ने कहा…

बहुत सुंदर

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