मंगलवार, 29 मई 2012

क्या हैं , आठ सिद्धियां और नौ निधियां?


पौराणिक पुस्तकों में या आख्यानों में बहुत बार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का उल्लेख मिलता है, खासकर हनुमान चालीसा में सीताजी द्वारा हनुमान जी को दिए वरदान में इनके दिए जाने का विवरण है। क्या हैं ये आठ सिद्धियां और नौ निधियां?

जैसा कि हमारे धार्मिक ग्रंथ बताते हैं, अष्ट सिद्धियां इस प्रकार हैं –

1,  अणिमा – इसको धारण करने वाला अपनी मर्जी से कभी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप धारण करने की क्षमता पा लेता है।

2, महिमा – अणिमा के विपरीत इस सिद्धि से धारक  विशाल रूप धारण कर सकता है। इतना बडा कि सारे जगत को ढक ले। जैसे प्रभू का विराट स्वरूप।

3, गरिमा - इसकी सहायता से धारक अपने को इच्छानुसार पर्वत जैसा भारी बना सकता है।

4, लघिमा – गरिमा के विपरीत इस सिद्धि से अपने आप को इच्छानुरूप हल्का बना सकता है। इतना हल्का जैसे रूई का फाहा फिर इस रूप में वह गगनचारी बन कहीं भी क्षणांश में आ-जा सकता है।

5, प्राप्ति – यह सिद्धि अपनी इच्छित वस्तु की प्राप्ति में सहायक होती है। वह धरा पर खडे-खदे सूर्य-चांद को छू सकता है। जानवरों, पक्षियों और अनजान भाषा को भी समझा सकता है, भविष्य को देख सकता है तथा किसी भी कष्ट को दूर करने की क्षमता पा लेता है।

6, प्राकाम्य - इसकी उपलब्धि से इसका धारक इच्छानुसार पृथ्वी में समा और आकाश में उड सकता है। चाहे जितनी देर पानी में रह सकता है। इच्छानुरूप देह धारण कर सकता है तथा किसी भी शरीर में प्रविष्ट होने की क्षमता व चिरयुवा रहने की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।

7, ईशित्व – इसकी प्राप्ति से योगी को दैवीय शक्ति की प्राप्ति हो जाती है। वह सब पर शासन कर सकता है। मरे हुए को फिर जीलाने की क्षमता पा लेता है।

8, वशित्व - इसकी प्राप्ति से योगी को किसी को भी अपने काबू में करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। भयानक जंगली पशू-पक्षियों, इंसानों किसी को भी अपने वश में कर अपनी इच्छानुसार व्यवहार करवाने की शक्ति हासिल हो जाती है।

नौ निधियां :-
कहते हैं कि ये निधियां कुबेर की निगरानी में सुरक्षित रखी जाती हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं –

पद्म,   महापद्म,   शंख,   मकर,   कच्छ्प,   मुकुंद,   कुंद,   नीलम और  खर्व।

इन सब वस्तुओं में अपार शक्ति निहित  है। जिनका आकलन और विवरण करना असंभव है।  इनकी पूजा कर तांत्रिक असीमित शक्तियां प्राप्त कर लेते हैं। पृथ्वी या सागर में समाई इस अगाध संपदा का जो भी थोडा-बहुत ज्ञान  मानव को  मिला है   है वह इनकी शक्ति, क्षमता या मूल्य का कणांश भी नहीं है। 

शनिवार, 26 मई 2012

प्रभू भी लाचार हैं।

 पर  अब तक  यह पता नहीं चल पाया है कि भगवान के रोने की खबर सर्वोच्च न्यायालय तक कैसे और किसने पहुंचाई।   खबरचियों   की  टीमें   इस बात का पता लगाने पूरी तौर से जुटि हुई है। 

खबर विश्वसनीय सूत्रों से ही मिली थी, पर विश्वास नही हो पाया था कि ऐसा भी हो सकता है। खबर आपके सामने है और फ़ैसला आपके हाथ में।

ऐसा होता तो पहले भी था। धरती की खोज-खबरों को, दुख-सुख को ऋषि-मुनि प्रभू तक पहुंचाते रहते थे। तब आवागमन निर्विरोध हुआ करता था। पर फिर कुछ महत्वाकांक्षी लोग मर्यादा का अतिक्रमण करने लगे तो इस व्यवस्था में कटौती कर दी गयी। आम लोगों में इसके बंद हो जाने की खबर फैला दी गयी पर सच तो यह है कि यह पूर्णतया बंद नहीं हुई थी। प्रभू अपने बंदों को कैसे  भूल सकते थे। विज्ञान की तरक्की के कारण इसका पता साईंस दानों को था ही और अब इसका सार्वजनिक तौर पर भी खुलासा कर दिया गया है कि ज्येष्ठ के महीने मे मेघा नक्षत्र के उदय होने के पूर्व एक मुहूर्त बनता है जिसमे प्रभू का दरबार धरती वासियों के लिए कुछ देर के लिये खोल दिया जाता है।  

ऐसा पता चलते ही अफरा-तफरी मच गयी। हर देश का हर व्यक्ति अपना दुखडा सुनाने उपर जाने को लालायित हो उठा। हडकंप को देखते हुए सारे राष्ट्रों की आपात-कालीन बैठक बुलवाई गयी जिसमें घटों बहस के बाद फैसला हुआ कि लाटरी के जरिए एक बार में तीन देशों के तीन ही प्रतिनिधियों को उपर जाने का मौका दिया जाएगा।

सो इस बार भारत, अमेरीका तथा जापान के तीन नुमांईदों को उपर जाने का वीसा मिला था। तीनों को एक जैसा ही सवाल पूछने की इजाजत थी। पहले अमेरीकन ने पूछा कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा, प्रभू ने जवाब दिया कि सौ साल लगेंगे। अमेरीकन की आंखों मे, अपने देश का हाल सोच, आंसू आ गये। फिर यही सवाल जापानी ने भी किया उसको उत्तर मिला कि अभी कम से कम पचास साल और लग जाएंगें तुम्हारे देश की हालत सुधरते। जापानी भी उदास हो गया कि उसके देश को आदर्श बनने मे अभी समय लगेगा। अंत मे भारतवासी ने जब वही सवाल पूछा तो पहले तो प्रभू चुप रहे फिर फ़ूट-फ़ूट कर रो पड़े। 

अब आज के जमाने मे कौन ऐसी बात पर विश्वास करता है। पर जब सर्वोच्च  न्यायालय की ओर से कहा गया कि इस देश को भगवान भी नही बचा सकते, तो कुछ लोगों को इस खबर में सच्चाई नज़र आई। पर  अब तक  यह पता नहीं चल पाया है कि भगवान के रोने की खबर सर्वोच्च न्यायालय तक कैसे और किसने पहुंचाई।   खबरचियों   की  टीमें   इस बात का पता लगाने पूरी तौर से जुटि हुई है। 

बुधवार, 23 मई 2012

क्रिकेट का तमाशा या तमाशे का क्रिकेट


एक पुराना गाना है, शोखियों में घोला जाए थोडा सा शबाब , फिर उसमे मिलाई जाए थोडी सी शराब होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है।  वैसे ही  इस  खेल के रोमांच को बढाने के लिए इसके  नियमों में बदलाव किए गये, पैसों की बरसात कर दी गयी,  ग्लैमर की चाशनी और वैभव की चकाचौंध  मिला एक नशीला वातावरण बना लोगों को आकर्षित किया गया. पर जल्द ही इसका एक और रूप सामने आ गया।    


आखिर एक लम्बे तमाशे का अंत आ ही गया। अगले हफ्ते सबसे विवादास्पद IPL के संस्करण का समापन हो जाएगा। पर यह समापन पिछले चार समापनों से थोडा अलग होगा। जहां पिछले समापन अगले संस्करण का दावा करके जाते थे, इस बार का समापन अपने भविष्य के प्रति सशंकित है। जिसका जिम्मेदार भी यह खुद ही है।

“एक पुराना गाना है, शोखियों में घोला जाए थोडा सा शबाब , फिर उसमे मिलाई जाए थोडी सी शराब होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है।”
अब वो जैसा प्यार था, था। पर पिछले पांच सालों से भारत के क्रिकेट प्रेमियों के इस खेल के प्रति प्यार का फायदा उठा, IPL के नाम से जो उल्लू सीधा किया जा रहा था उसका शायद चर्मोत्कर्ष आ गया है। वैसे तो इस "फार्मेट" के साथ विवादों का साथ चोली-दामन की तरह इसके जन्म के साथ से ही लगा रहा था। पर अब तो अति हो चुकी है। खेल का कट्टर से कट्टर हिमायती भी अब इस पर उंगली उठाने लगा है क्योंकि अब वह अपने आप को कहीं ना कहीं ठगा जा रहा महसूस करने लगा है।

Indian Premium League, जो अब Indian Prattle League यानि इंडियन बकवास लीग, का रूप ले चुकी है, की शुरुआत इस खेल को और भी लोकप्रिय बनाने के लिए की गयी थी। उसी पुराने गाने की तरह खेल के रोमांच को बढाने के लिए उसके नियमों में कुछ बदलाव किए गये, पैसों की चकाचौंध में ग्लैमर की चाशनी मिला इसे दर्शकों के सामने परोसा गया तो उन्हें भी बहुत आनंद आया। देखते-देखते इसकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी। पर इसके साथ ही साथ इसका दूसरा रूप भी सामने आ गया। जिसने खिलाडियों की आपसी रंजिश, पैसों की अनाप-शनाप बरसात से उनके बिगडते दिलो-दिमागी संतुलन, अचानक मिली प्रसिद्धी को संभाल ना पा कर की गयी मर्यादाहीन कारस्तानियां, पैसों के लालच से गैर कानूनी हरकतों को सबके सामने ला खडा किया।

भद्र-जनों के खेल के नाम से  जाने जाने वाले इस खेल की मर्यादा, नैतिकता सब कुछ व्यापारियों और बाज़ार की दखल से गुजरे जमाने की बातें हो कर रह गयीं। पैसे ने हर चीज का माप-दंड बदल कर रख दिया। डेढ-दो महीनों  में ही करोडों के वारे-न्यारे करने वाले खिलाडी अपने आप को किसी और ही ग्रह का वासी मानने लग गये। इसी कारण वे किसी बेजा हरकत को करने से नहीं डरते। यहां तक की बाहर से आने वाले खिलाडियों, जिनसे शालीन व्यवहार की आशा की जाती है, वे भी अभद्रता की सीमा लांघते नहीं हिचकिचाते।

खेल मनोरंजन के साथ साथ स्वस्थ प्रतिस्प्रद्धा का भी स्वाद देते हैं। पर यह जो हो रहा है वह क्या है?  सिर्फ मनोरंजन, वह भी स्तर हीन। पैसे और ग्लैमर का भौंडा प्रदर्शन मात्र। एक बात जो सबसे ज्यादा अखरने वाली या संदेह पैदा करने वाली है वह है, बी.सी.सी.आई. के सदस्य का ही किसी टीम का मालिक होना। जब की आयोजन भी यही संस्था करवा रही है।

यदि सही, कठोर और सकारात्मक कदम जल्दी ना उठाए गये तो IPL की साख पर तो बट्टा लगना ही है क्रिकेट की लोक-प्रियता पर भी आंच आनी निश्चित है। 

मंगलवार, 15 मई 2012

"बाबू मोशाय" .....यह कैसा विज्ञापन है रे


वर्षों पहले प्रसिद्ध फिल्म-निर्माता ऋषिकेश मुखर्जी ने एक बहुचर्चित क्लासिक फिल्म "आनंद" बनाई थी। इसके मुख्य कलाकार राजेश खन्ना तथा सहायक किरदार में अमिताभ बच्चन थे। फिल्म में राजेश अमिताभ को "बाबू मोशाय" कह कर संबोधित करते हैं। यह संबोधन उस समय काफी लोकप्रिय हुआ था। आज भी लोगों को यह याद है। 

मुखर्जी साहब ने अपनी अगली फिल्म "नमकहराम" में भी इन दोनों कलाकारों को दोहराया। थोडा सा "ग्रे शेड" होने के बावजूद अमिताभ, राजेश खन्ना पर भारी पडे और यहीं से उनका भाग्य भी अपने सहकर्मी पर  हावी  होता चला गया.  यहां तक कि राजेश खन्ना को धीरे-धीरे नेपथ्य में जाने पर  मजबूर होना पडा। 

समय बीतता गया। ना जाने कितना पानी गंगा में बह गया। राजेश खन्ना पूरी तरह से परिदृष्य से गायब हो गये। पर अमिताभ द्वारा अपने सिंहासन को हस्तगत कर अपने को अपदस्त करने का गम कभी भी भुला नहीं पाए। फांस की तरह यह बात उनके दिलो-दिमाग को सालती रही। अमिताभ ने भी काफी उतार-चढाव देखे। तन-मन पर चोटें खाईं। पर वक्त से समझौता कर जैसा भी काम मिला उसे बिना किसी हील-हवाले, बिना किसी हीन प्रवृत्ति का शिकार हुए, बिना किसी हीन ग्रंथी का शिकार हुए पूरे मनोयोग से पूरा किया। जिसका फल सबके सामने है। इसी सफलता को देख बहुत सारे भूतपूर्वों ने वर्तमान में हाजिरी लगाने की कोशिश की पर वैसी सफलता से महरूम ही रहे। 

आज का व्यवसाई बहुत चतुर हो गया है। संबंध, नैतिकता, जीवन मूल्य जैसी बातें उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। वह हर काम, हर बात को सिर्फ अपने फायदे को ध्यान में रख करता है। ऐसे ही एक विज्ञापन और फिल्म निर्माता ने, जिसने अमिताभ को एक अनोखे किरदार में पेश कर नाम और दाम दोनों कमाए हैं, राजेश खन्ना को लेकर 'पंखों' की एक विज्ञापन फिल्म बनायी है। जिसमें खन्ना साहब अपने पुराने अंदाज में कबूतर की तरह गर्दन मटका कर विज्ञापन का अंतिम डायलाग बोलते हैं, "बाबू मोशाय मेरे 'फैन्स' को कोई मुझसे छीन  नहीं सकता।"  

"बाबू मोशाय", यह शब्द उनके दिल मे सालों से जमे नैराश्य, वैमनस्य, कुंठा, कुढन, ईर्ष्या जैसी भावनाओं को फिर जग के सामने ला खडा करता है। निर्माता द्वारा ऐसा जान-बूझ कर, सोच समझ कर पुराने द्वेष को भुनाने के लिए किया गया प्रयास है। नहीं तो 'अमर प्रेम' का "पुष्पा वाला डायलाग" भी काम में लाया जा सकता था। 

आज की पीढी को ना इन दोनों सुपर-स्टारों के इतिहास में दिलचस्पी है नाहीं उन दिनों की इनकी टकराहट की जानकारी। इसीलिए यह विज्ञापन निर्माता की भूल साबित हो कोई असर पैदा नहीं करता।






सोमवार, 7 मई 2012

अपने-आप में सिमटा एक गाँव, मलाणा.

गर्मियों का मौसम आते ही अधिकाँश लोग पहाड़ों का रुख करते हैं। स्वाभाविक भी है कहाँ मैदानों की चिलचिलाती गरमी और कहाँ बर्फ से ढके  पर्वतों की शीतल वादियाँ। लोग जाते हैं और सैर-गाहों का लुत्फ ले लौट आते हैं। कुछ ही लोग होंगे जो वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाजों, वहाँ के रहवासियों की कठिन जिन्दगी को जानने की रूचि रखते होंगे। पहाड़ों का एक-एक गाँव तथा उसके वाशिंदे अपने आप में ऐसा  इतिहास समेटे बैठे हैं, जिसकी कल्पना भी देश का आम इंसान नहीं कर सकता।  

ऐसा ही एक गाँव है  मलाणा.  हिमाचल के सुरम्य पर दुर्गम पहाड़ों की उचाईयों पर बसा वह गांव जिसके ऊपर और कोई आबादी नहीं है। यहाँ जाना कोइ आसान काम नहीं है।  कुल्लू-मनीकर्ण के रास्ते पर एक छोटा सा गाँव है, जरी, जहां तक वाहन के द्वारा जाया जा सकता है।  यहाँ से 9 कीमी की दुर्गम चढ़ाई और करीब 12000 फिट की ऊंचाई पर 500-550 परिवारों से  बसा है मलाणा.

आत्म केन्द्रित से यहां के लोगों के अपने रीति रिवाज हैं, जिनका पूरी निष्ठा तथा कड़ाई से पालन किया जाता है, और इसका श्रेय जाता है इनके ग्राम देवता जमलू को जिसके प्रति इनकी श्रद्धा, खौफ़ की हद छूती सी लगती है। अपने देवता के सिवा ये लोग और किसी देवी-देवता को नहीं मानते। यहां का सबसे बडा त्योहार फागली है जो सावन के महिने मे चार दिनों के लिये मनाया जाता है। इन्ही दिनों इनके देवता की सवारी भी निकलती है, तथा साथ मे साल मे एक बार बादशाह अकबर की स्वर्ण प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। कहते हैं एक बार अकबर ने अपनी सत्ता मनवाने के लिये जमलू देवता की परीक्षा लेनी चाही थी तो उसने अनहोनी करते हुए दिल्ली मे बर्फ़ गिरवा दी थी तो बादशाह ने कर माफी के साथ-साथ अपनी सोने की मूर्ती भिजवाई थी। इस मे चाहे कुछ भी अतिश्योक्ति हो पर लगता है उस समय गांव का मुखिया जमलू रहा होगा जिसने समय के साथ-साथ देवता का स्थान व सम्मान पा लिया होगा। सारे कार्य उसी को साक्षी मान कर होते हैं। शादी-ब्याह भी यहां, मामा व चाचा के रिश्तों को छोड, आपस मे ही किए जाते हैं।

वैसे तो यहां आठवीं तक स्कूल,डाक खाना तथा डिस्पेंसरी भी है पर साक्षरता की दर नहीं के बराबर होने के कारण इलाज वगैरह मे झाड-फ़ूंक का ही सहारा लिया जाता है।भेड पालन यहां का मुख्य कार्य है, वैसे नाम मात्र को चावल,गेहूं, मक्का इत्यादि की फसलें भी उगाई जाती हैं पर आमदनी का मुख्य जरिया है भांग की खेती। यहां की भांग जिसको मलाणा- क्रीम के नाम से दुनिया भर मे जाना जाता है, उससे बहुत परिष्कृत तथा उम्दा दरजे की हिरोइन बनाई जाती है तथा विदेश मे इसकी मांग हद से ज्यादा होने के कारण तमाम निषेद्धों व रुकावटों के बावजूद यह बदस्तूर देश के बाहर कैसे जाती है वह अलग विषय है।

   

रविवार, 6 मई 2012

आज के समय में किसी का बीमार पडना एक अपराध है।

कुछ वर्षों पहले बुजुर्गों से आशीर्वाद मिला करता था 'जुग-जुग (युग-युग)जीयो' यानि जीवेम शरद: शतम। उस समय स्वस्थ रहना एक आम बात थी, जो शुद्ध जल, वायु तथा अन्न का प्रदाय थी। हमारे पौराणिक नायक अपने उत्कर्ष के समय में 80-100 साल के होते थे ऐसा वर्णन मिलता है, तो उस समय औसत आयु 150-200 साल की होती होगी। जो आज सिमट कर औसतन 60-65 के आस-पास आ गयी है। वह भी दवा-दारू के भरोसे।

उम्र का सीधा संबंध तन से है और तन को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध आहार की अति आवश्यकता होती है। पर आज जैसा हाल और माहौल है उसमें तो शुद्धता का अर्थ ही बदल गया है। कहावत है कि "जैसा अन्न वैसा मन" पर इसमें आज संशोधन की जरूरत आन पडी है, जिससे अब यह "जैसा अन्न वैसा तन" हो जानी चाहिए। ऐसा दिख भी तो रहा है। आज शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां आए दिन कोई मिलावटी खाद्य पदार्थ से अस्वस्थता महसूस ना करता हो। विडंबना तो यह है कि हमारे देश में मिलावटी भोज्य पदार्थ खा कर बीमार हुए इंसान को दवा भी नकली मिलती है, जो करेले की बेल को नीम के पेड पर चढा दोहरी मार दिलवाती है। इस जघन्य अपराध का खात्मा होना तो दूर पहुंच वालों की मिली-भगत से दिन प्रति दिन बढोत्तरी होती ही दिखती है। इसी कारण आम इंसान की बात ही क्या, साधू-संत और नियम-बद्ध जीवन यापन करने वाले स्त्री-पुरुष भी रोगों की चपेट से खुद को नहीं बचा पाते।

आदमी तंदरुस्त रहता है तो स्वयं की देख-रेख में हर पैथी, हर नुस्खा या सुझाव उसे स्वस्थ रहने में सहायक होते हैं। पर इतने बडे शरीर रुपी यंत्र का एक अदना सा पुर्जा भी बेकाबू हो जाए तो फिर उसके तन और धन का भगवान ही मालिक होता है। क्योंकि आज के समय में किसी का बीमार पडना एक अपराध के ताई हो गया है। बीमारी के दौरान दवा-दारू का अतिरिक्त बोझ संभालना अब सब के वश की बात नहीं रह गयी है। सरकारी अस्पतालों की हालत तो जग जाहिर है, जहां अच्छा-भला आदमी बीमार सा लगने लगता है तो दूसरी ओर निजी क्लिनिकों में बीमारी का कम जेब का सफाया ज्यादा होने लगा है। चार-पांच दिन की दवाएं ही आधे महीने के राशन का बजट बिगाड कर रख देती हैं।

इसी सब को ध्यान में रखते हुए अब एहतियात बरतना जरूरी हो गया है कि हम अपनी दिनचर्या और खान-पान का पूरा ख्याल रखें जिससे बीमार पडने के अपराध से बचे रहें।

आगे प्रभू राक्खा।

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