गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

अग्रोहा के महाराजा अग्रसेन

 महाराज अग्रसेन के वंशज आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं। 



अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे। जिन्होंने प्रजा की भलाई के लिए वणिक धर्म अपना लिया था। इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम भाग में महाभारत काल में हुआ था। ये      प्रतापनगर के राजा बल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्रजी, जो खुद भी वैश्य समुदाय से थे, ने 1871 में "अग्रवालों की उत्पत्ति" नामक प्रमाणिक ग्रंथ लिखा है जिसमें विस्तार से इनके बारे में  बताया गया है। इसी में 'अग्रवाल का अर्थ भी समझाया गया है कि अग्रवाल यानी "महाराज अग्रसेन के वंशधर या बच्चे"।

वर्तमान के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5185 साल पहले हुआ था। उनके राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे।

समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेकों राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं। पर इस विवाह से इंद्र जलन और गुस्से से आपे से बाहर हो गये और उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया। चारों ओर त्राहि-त्राही मच गयी। लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने लगे। तब महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। चूंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी।

कुछ समय बाद महाराज अग्रसेन ने अपने प्रजा-जनों की खुशहाली के लिए काशी नगरी जा शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे शिवजी ने प्रसन्न हो उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने परोपकार हेतु की गयी तपस्या से खुश हो उन्हें दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और वैश्य परम्परा के अनुसार अपना व्यवसाय करें तो उन्हें तथा उनके लोगों या अनुयायियों को कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होगी।
  
अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेडिये के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास थी। उसका नाम अग्रोहा रखा गया। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और माँ वैष्णव देवी का भव्य मंदिर है।

महाराज अग्रसेन के राजकाल में अग्रोहा ने दिन दूनी- रात चौगुनी तरक्की की। कहते हैं कि इसकी चरम स्मृद्धि के समय वहां लाखों व्यापारी रहा करते थे। वहां आने वाले नवागत परिवार को राज्य में बसने वाले परिवार सहायता के तौर पर एक रुपया और एक ईंट भेंट करते थे, इस तरह उस नवागत को लाखों रुपये और ईंटें अपने को स्थापित करने हेतु प्राप्त हो जाती थीं जिससे वह चिंता रहित हो अपना व्यापार शुरु कर लेता था।   

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसका समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया।   


उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवाल समाज हिंसा से दूर ही रहता है। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।     
महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पडोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पडता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे।  इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे।  पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी।  वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगे हुए हैं।

5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पहली बार पढ़ी यह कथा, अत्यन्त प्रेरक..

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

धन्यवाद प्रवीणजी। स्नेह बना रहे।

MUKUL GOEL ने कहा…

namaskaar sharma ji
aapke dawara di gayi jankari rochak hai
hum hinduo ko sabhi ko miljul kar rahna jaroori hai
aapka dhanyaad

SUDESH ने कहा…

BINTAL GOEL SIWANI
AGGARWALS KO PHIR BHI KOI NAHI POOCHTA. AAO HUM SAB EK HO JAYE.

प्रवीण गुप्ता - PRAVEEN GUPTA ने कहा…

गगन जी आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी. इसे मैं अपने ब्लॉग "हमारा वैश्य समाज" पर डालना चाहता हूँ. क्या आप मुझे अनुमति देंगे.

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