सोमवार, 31 दिसंबर 2012

जब सारे जने कह रहे हैं कि कल नया साल है तो जरूर होगा !


 जो सक्षम हैं उन्हें एक और मौका मिल जाता है, अपने वैभव के प्रदर्शन का, अपनी जिंदगी की खुशियां बांटने, दिखाने का, पैसे को खर्च करने का। जो अक्षम हैं उनके लिये क्या नया और क्या पुराना। 

दुनिया के साथ ही हम सब हैं। जब सारे जने कह रहे हैं कि कल नया साल है तो जरूर होगा। सब एक दूजे को बधाईयां दे ले रहे हैं, अच्छी बात है। जिस किसी भी कारण से आपसी वैमनस्य दूर हो वह ठीक होता है। चाहे उसके लिये विदेशी अंकों का ही सहारा लेना पड़े। अब इस युग में अपनी ढपली अलग बजाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। वे कहते हैं कि दूसरा दिन आधी रात को शुरु होता है तो चलो मान लेते हैं क्या जाता है। सदियों से सूर्य को साक्षात भगवान मान कर दिन की शुरुआत करते रहे तो भी कौन सा जग में सब से ज्यादा निरोग, शक्तिमान, ओजस्वी आदि-आदि रह पाये। कौन सी गरीबी घट गयी कौन सी दरिद्रता दूर हो गयी।


हर बार की तरह ही कल फिर एक नयी सुबह आयेगी अपने साथ कुछ नये अंक धारण किये हुए। साल भर पहले भी ऐसा ही हुआ था। होता रहा है साल दर साल। आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। जो सक्षम हैं उन्हें एक और मौका मिल जाता है, अपने वैभव के प्रदर्शन का, अपनी जिंदगी की खुशियां बांटने, दिखाने का, पैसे को खर्च करने का। जो अक्षम हैं उनके लिये क्या नया और क्या पुराना। उन्हें तो रोज सुरज उगते ही फिर वही वही चिंता रहेती है, काम मिलेगा कि नहीं, चुल्हा जल भी पायेगा कि नहीं, बच्चों का तन इस ठंड में ढक भी पायेगा कि नहीं। ऐसे लोगों को तो यह भी नहीं पता कि जश्न होता क्या है।

कुछेक की चिंता है कि इतने सारे पैसे को खर्च कैसे करें और कुछ की, कि इतने से पैसे को कैसे खर्च करें? इन दिनों जो खाई दोनों वर्गों में फैली है उसका ओर-छोर नहीं है। वैसे देखें तो क्या बदला है या क्या बदल जायेगा। कुछ लोग कैसे भी जोड़-तोड़ लगा, साम, दाम ,दंड़, भेद की नीति अपना, किसी को भी कैसी भी जगह बैठा अपनी पीढी को तारने का जुगाड़ बैठाते रहेंगे। कुछ लोग मानव रूपी भेड़ों की गिनती करवा खुद को खुदा बनवाते रहेंगे। कुछ सदा की तरह न्याय की आंखों पर बंधी पट्टी का फायदा उठाते-उठवाते रहेंगे, और कुछ सदा की तरह कुछ ना कर पा कर कुढते-कुढते खर्च हो जायेंगे।

वैसे इस लिखे को अन्यथा ना लें। किसी दुर्भावना या पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है यह लेख। अपनी तो यही कामना है कि साल का हर दिन अपने देश और देशवासियों के साथ-साथ इस धरा पर रहने वाले हर प्राणी के लिये खुशहाली, सुख, स्मृद्धी के साथ-साथ सुरक्षा की भावना भी अपने साथ लाए।  

सभी भाई-बहनों के साथ-साथ "अनदेखे अपने" मित्रों के लिए आने वाला हर दिन खुशी समृद्धी तथा स्वास्थ्य लेकर आये। यही कामना है।  

नव-वर्ष सभी के लिए मंगलमय हो, मुबारक हो, सुखमय हो। सभी सुखी, स्वस्थ, प्रसन्न और सुरक्षित रहें।


गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

जागो ! कि तुम आधा विश्व हो


पिछले कई दिनों से दिल्ली में दरींदों के वहशीपन का शिकार बनी बेकसूर लडकी को न्याय दिलाने के लिए सरकार और जनता के बीच ठनी हुई है। सरकारी पाले के लोग इस गलतफहमी में हैं कि हर बार की तरह यह मुसीबत भी वे मौन साध कर टाल देंगें। पर इस बार उनका यह काम बिल्ली और कबूतर का हश्र करने वाला होगा। जिम्मेदार लोग जब अपने घर में भी लडकियां होने की बात करते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि उनकी लडकियों और आम जनता की बेटियों की सुरक्षा में जमीन-आसमान का फर्क है। उनकी बच्चियां जहां सुरक्षा के अभेद्य किले में रहती हैं तो आम लडकियों की सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दिवार भी मुयस्सर नहीं होती। 

ठीक है कि दोषियों को कडी से कडी सजा मिलनी चाहिए पर सिर्फ ऐसे कुछ लोगों को सजा देने से यह कोढ खत्म नहीं हो जाएगा। आज किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लें इतनी अफरा-तफरी के बावजूद देश के किसी ना किसी कोने में होने वाली ऐसी हरकतों की खबर छपी ही रहती है। जो इस कडवी सच्चाई को इंगित करती है कि देश की राजधानी में उठे तूफान का असर देश के दूसरे भागों में रह रहे राक्षसों पर बेअसर ही है। डर, भय, इंसानियत जैसी बातें इनके दिलों से कोसों दूर जा चुकी हैं। इसकी कुछ ना कुछ वजह तो हमारी सडी-गली व्यवस्था भी है। जो एक्के-दुक्के दुष्कर्मी को दंडित करने से सुधरने वाली नहीं है।  आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। महिलाओं को दिल से बराबरी का दर्जा देने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। यह इतना आसान नहीं है, हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं। यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है? यदि ऐसा नहीं है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता? पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।  
आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में  उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की। 

ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं उद्यमी नहीं हैं, लायक नहीं हैं, मेहनती नहीं हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पर पुरुष वर्ग ने बार-बार, हर बार उन्हें दोयम होने का एहसास करवाया है। आज सिर्फ माडलिंग को छोड दें, हालांकि वहां और बहुत से तरीके हैं शोषण के, तो हर जगह, हर क्षेत्र में महिलाओं का वेतन पुरुषों से कम है। हो सकता है इक्की दुक्की जगह इसका अपवाद हो।

इतिहास और पौराणिक ग्रंथ तक इसके गवाह हैं कि जब-जब पुरुष को महिला की सहायता की जरूरत पड़ी है उसने उसे सिर-आंखों पर बैठाया है, मतलब निकलते ही तू कौन तो मैं कौन? हमारे ग्रन्थों में वर्णित किस्से-कहानियां चाहे कल्पना हो चाहे हकीकत, उसमें भी नारी से पक्षपात सामने नजर आता है। देव जाति जो अपने आप को बहुत दयालू, न्यायप्रिय, सबका हित करने वालों की तरह पेश करती आई है, उस पर भी जब-जब मुसीबतें पड़ीं तो उसने भी एकजुट हो कर शक्ति रूपी नारी का आवाहन किया पर मुसीबत टलते ही उसे पूज्य बना कर एक कोने में स्थापित कर दिया। कभी सुना है कि स्वर्ग में किसी महिला का राज रहा हो। इस धरा पर माँ जैसा जन्मदाता, पालनहार, ममतायुक्त, गुरू जैसा कोई नहीं है फिर भी अधिकांश माताओं की हालत किसी से छिपी नहीं है।  

जब भी कभी इस आधी आबादी के भले की कोई बात होती है तो वहां भी पुरुषों की ही प्रधानता रहती है। वहां इकठ्ठा हुए बहूरूपिए कभी खोज-खबर लेते हैं, सिर पर ईंटों का बोझा उठा मंजिल दर मंजिल चढती रामकली की। अपने घरों में काम करतीं, सुमित्रा, रानी, कौशल्या, सुखिया की। कभी सोचते हैं तपती दुपहरी में खेतों में काम करती रामरखिया के बारे में। कभी ध्यान देते हैं दिन भर सर पर सब्जी का बोझा उठाए घर-घर घूमती आसमती पर। नहीं ! क्योंकि उससे अखबारों में सुर्खियां नहीं बनतीं, टी.वी. पर चेहरा नज़र नहीं आता। ऐसा यदि करना पड़ जाता है तो पहले कैमरे और माईक का इंतजाम होना जरूरी होता है। ऐसे दिखावे जब तक खत्म नहीं होंगें, महिला जब तक महिला का आदर करना नहीं शुरु करेगी तब तक चाहे एक दिन इनके नाम करें चाहे पूरा साल। चाहे किसी शहर के दरिंदों को सजा मिल भी जाए कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

ठण्ड पर भारी पड़ती, एक पाव की रजाई


सर्दी की दस्तक पड़ते ही  गर्म कपड़े, कंबल और रजाईयां भी आल्मारियों से बाहर आने को आतुर हो रहे हैं। रजाई का नाम सुनते ही एक रूई से भरे एक भारी-भरकम ओढ़ने के काम आने वाले  कपड़े का ख्याल आ जाता है, जो जाड़ों में ठंड रोकने का आम जरिया होता है। पहाड़ों में तो चार-चार किलो की रजाईयां आम हैं। ज्यादा सर्दी या बर्फ पड़ने पर तो बजुर्गों या अशक्त लोगों को दो-दो रजाईयां भी लेनी पड़ती हैं। अब सोचिये इतना भार शरीर पर हो तो नींद में हिलना ड़ुलना भी मुश्किल हो जाता है। फिर  पुराने समय में राजा-महाराजाओं के वक्त में राज परिवार के लोग कैसे ठंड से बचाव करते होंगे। ठीक है सर्दी दूर करने के और भी उपाय हैं या थे, पर ओढने के लिये कभी न कभी, कुछ-न कुछ तो चाहिये ही होता होगा। अवध के नवाबों की नजाकत और नफासत तो जमाने भर में मशहूर रही है। ऐसे में कोइ पाव  भर, भार वाली रजाई से ठंड दूर करने की बात करे तो आश्चर्य ही होगा। पर यह भी सच है की  उन्हीं के लिये हल्की-फुल्की रजाईयों की ईजाद की गयी। ये खास तरह की रजाईयां, खास तरीकों से, खास कारीगरों द्वारा सिर्फ खास लोगों के लिये बनाई जाती थीं।  जिनका वजन होता था, सिर्फ एक पाव या उससे भी कम। जी हां एक पाव की रजाई, पर कारगर इतनी कि ठंड छू भी ना जाये। धीरे-धीरे इसके फनकारों को जयपुर में आश्रय मिला और आज राजस्थान की ये राजस्थानी रजाईयां दुनिया भर में मशहूर हैं।

इन हल्की रजाईयों को पहले हाथों से बनाया जाता था। जिसमें बहुत ज्यादा मेहनत,  समय और लागत आती थी। समय के साथ-साथ बदलाव भी आया। अब इसको बनाने में मशीनों की सहायता ली जाती है। सबसे पहले रुई को बहुत बारीकी से अच्छी तरह साफ किया जाता है। फिर एक खास अंदाज से उसकी धुनाई की जाती है, जिससे रूई का एक-एक रेशा अलग हो जाता है। इसके बाद उन रेशों को व्यवस्थित  किया जाता है फिर उसको बराबर बिछा कर कपड़े में इस तरह भरा जाता है कि उसमें से हवा बिल्कुल भी ना गुजर सके। फिर उसकी सधे हुए हाथों से सिलाई कर दी जाती है। सारा कमाल रूई के रेशों को व्यवस्थित करने और कपड़े में भराई का है जो कुशल करीगरों के ही बस की बात है। रूई जितनी कम होगी रजाई बनाने में उतनी ही मेहनत, समय और लागत बढ जाती है। क्योंकि रूई के रेशों को जमाने में उतना ही वक्त भी बढ जाता है।

छपाई वाले सूती कपड़े की रजाई सबसे गर्म होती है क्योंकि मलमल के सूती कपड़े से रूई बिल्कुल चिपक जाती है। सिल्क वगैरह की रजाईयां देखने में सुंदर जरूर होती हैं पर उनमें उतनी गर्माहट नही होती। वैसे भी ये कपड़े थोड़े भारी होते हैं जिससे रजाई का भार बढ जाता है।

तो अब जब भी राजस्थान जाना हो तो पाव भर की रजाई की खोज-खबर जरूर लिजिएगा। 


बुधवार, 12 दिसंबर 2012

अभी दस तो लो, फिर सौ का देखते हैं

सबको लग रहा है की यही वक्त है कर ले  पूरी आरजू। क्या पता बाद में मौका मिले न मिले। 

ससंद ने भारत में खुदरा व्यापार के लिए बड़ी विदेशी कंपनियों के लिए लाल कार्पेट बिछवा दिया है। जिसके झाडने, संवारने और बिछवाने में सरकार को बसपा और सपा ने आदतानुसार  नौंटंकी रूपी छुपा समर्थन दे विपक्षी प्रस्ताव को धाराशाई करवा दिया।

बसपा अध्यक्ष मायावती से मिले समर्थन और मुलायम सिंह की राजनीति के बाद सरकार के लिए मतदान महज संसदीय औपचारिकता रह गया था। भले ही इसे विपक्ष ने सरकार की नैतिक हार करार दिया हो। मत-विभाजन के बाद भाजपा ने आरोप लगाया कि सरकार ने जोड़-तोड़ से मत हासिल किए हैं। जबकि सरकार ने इसे किसान, व्यापारी संघों और राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श के बाद उठाया गया कदम बताया है।

इस बार एक मजेदार वाकया यह रहा कि मतदान से पहले खुद प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी, राजनीतिक खिलाडियों को अपने पक्ष में करने की कवायद करते नजर आए। मनोनीत सदस्यों ने तो सरकार को उपकृत करना ही था पर विपक्षी खेमे में भी कई दरारें नजर आई।
सरकार की जीत में सरकार का एक पहले उठाया गया कदम भी काफी मददगार रहा, जिसमें सरकार ने विदेशी किराना स्टोर को इजाजत देने का फैसला राज्यों पर छोड दिया था। इसी कारण कई क्षेत्रीय दलों ने सरकार का साथ दिया।

यह विडंबना ही कही जाएगी कि जिस बात को लेकर सरकार ने अपने सबसे बडे हितैषी तृणमूल का साथ खोया, जिसके कारण देश को बंद झेलना पडा, संसद का बहुमूल्य समय बर्बाद हुआ, उसका असर सिर्फ दस शहरों में ही दिखेगा। वह भी दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर ही होंगे। जबकी ऐसे शहरों की संख्या तकरीबन 53 है।

विदेशी स्टोर खोलने को अब तक केवल 11 राज्यों व केंद्र शासित प्रांतों ने अनुमति दी है। इनमें आंध्र प्रदेश, असम, दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, राजस्थान, उत्तराखंड, चंडीगढ़, दमन और दियू तथा दादर और नागर हवेली शामिल हैं। जबकी खुद कांग्रेस शासित राज्य केरल ने भी अब तक रिटेल में एफडीआइ को इजाजत नहीं दी है। इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार भी अभी पेशोपेश में नज़र आ रही है, क्योंकि राज्य की सत्ता में साझेदार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को इस मुद्दे पर ऐतराज है। इन सब बातों से विदेशी कंपनियां भी अचंभित हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि देश की वित्तीय राजधानी का दर्जा रखने वाली मुंबई में ही वे कारोबार क्यों नहीं कर सकतीं? इसकी भी संभावना कम ही है कि ये विदेशी कंपनियां छोटे शहरों की ओर रुख करेंगीं। ऊपर से उन्हें कुछ क्षेत्रीय सरकारों की वह धमकी भी हिचकिचवाएगी जिसमें ऐसे स्टोरों को आग लगा देने वाली धमकियां दी गयी हैं।    

जानकारों का आकलन है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए विदेशी कंपनियां अगले लोकसभा चुनाव तक इंतजार कर सकती हैं। उन्हें अपने व्यापार से मतलब है,  आखिर वे यहां धंदा  कर पैसे कमाने आईं हैं नाकी अपना नुक्सान करवाने। उधर क्षेत्रीय दल मौके का फ़ायदा उठा सरकार से जितनी सहूलियतें  बटोर सकें बटोरने में लगे हैं। उन्हें सिर्फ अपने गणित से मतलब है। उनका ऊसूल ही है कि  "जैसी बहे बयार, पीठ पुनि तैसी कीजे".  

अब सबको इंतजार है ऊंट की करवट का।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

जहां भी जाएं वहाँ की व्यवस्था को पूरी तौर से अंगीकार करें।


साल में दूसरी बार नार्वे में एक और  भारतीय दंपति अपनी ही संतान को लेकर वहां की सरकार का कोपभाजन बन गयी है। बच्चों का ठीक से पालन-पोषण नहीं करने के आरोप में पिछली बार एक दंपति को उनके बच्चों से अलग कर दिया गया था, तो इस बार अपने बेटे को डांटने-फटकारने के जुर्म में पिता, चंद्रशेखर को 18 माह और मां अनुपमा को 15 माह के लिए जेल भेज दिया गया है। हांलाकि इस परिवार ने उच्च न्यायालय में अपील करने की बात कही है। वैसे देखें तो ये घटनाएं व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप की तरह लग सकती हैं, पर यह एक सबक है दूसरे देश में जाने वाले हमारे लोगों के लिए। 

आज हर देश के नागरिक बेहतर भविष्य के लिए दूसरे देशों का रुख करते ही हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर कायदा यही कहता है कि हम जहां भी जाएं वहां के नियम-कानून को पूरा सम्मान दें और उसका पालन करें। 

अपने देश में बच्चों का पालन-पोषण करने का तरीका अलग है, सोच अलग है, हम बच्चों को भरपूर प्यार देते हैं तो उनकी गलती या उद्दंडता पर जरा प्रताडित भी करना ठीक समझते हैं। पर बाहर खासकर योरोप के देशों में बच्चे पर किसी भी तरह की जरा सी भी कठोरता जुर्म के रूप में देखी जाती है। वहां पारिवारिक डांट-डपट और पिटाई को अपराध माना जाता है। उनके अनुसार ऐसा करने से बच्चे का सही विकास नहीं हो पाता।  

दोनों जगहों के अपने-अपने तर्क अपनी-अपनी जगह ठीक हो सकते हैं। उस पर बहस अलग विषय है। यहां मुद्दा यह है कि यदि आप अपना कर्म-क्षेत्र किसी दूसरे देश में बनाते हैं तो वहां के कानून, वहां के नियम, वहां की व्यवस्था को पूरे तौर से अंगीकार करें। यह नहीं कि अपनी सहूलियत के अनुसार आधे-अधूरे रुप में अपने मतलब की चीज तो स्वीकारें और जो अच्छा ना लगे या अपने अनुकूल ना हो उसे दबे-छिपे तरीके से नकार दें। ऐसा करना कभी भी भारी पड सकता है। 

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

कूडेघर में बीतती जिन्दगी


आज एक खबर पढी। इंसान की मजबूरी , उसकी विवशता, उसकी परिस्थितियां उसे कैसे-कैसे जीवन-यापन के लिए लाचार कर देती हैं यह उसका एक जुगुप्सा पैदा कर देने वाला उदाहरण है।
बात है नई दिल्ली के मस्जिद मोठ इलाके की। वहां के एक बीस वर्ग फुट के कूडा घर में, जहां की सडांध और गंदगी के कारण उसके पास एक आम आदमी का दस सेकेंड भी खडा रहना नामुमकिन हो जाता है, एक बासठ वर्षीय व्यक्ति अपने छह जनों के परिवार के साथ 38 सालों से रह रहा है। 

मस्जिद मोठ का कूडा घर, इनसेट में शोभराज 
गोरखपुर, यूपी से अपने भविष्य को संवारने के लिए शोभराज ने वर्षों पहले  दिल्ली का रुख किया था। पर किस्मत की मार, कोई काम ना मिलने की हालत में उसे लोगों के घर का कूडा उठा अपना पेट पालना पडा। पहले वह अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ नेहरु प्लेस के स्लम में रहता था। स्लम हटाओ अभियानके दौरान उसे मदनपुर में एक फ्लैट प्रदान भी किया गया था पर वहां से अपने कर्म-क्षेत्र मस्जिद मोठ के दूर होने के कारण उसने इस जगह शरण ले ली। परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों समय के साथ-साथ इंसान का जीवन भी चलता रहता है। इसी बीच शोभराज के दोनों बेटों का विवाह भी हो गया, बच्चे भी हो गये।बडे बेटे ने एक  कमरे का फ्लैट संभाल लिया  और शोभराज अपनी पत्नी, बेटे, उसकी पत्नी और दो साल के पोते के साथ यहां रह रहा है। शीत-ताप नियंत्रित कक्षों में बैठ कर मानव हितों की रक्षा पर लाखों रुपयों की एवज में बडी-बडी बातें बनाने वालों के चेहरे पर तमाचे की तरह है कि इस नारकीय स्थिति में रहने के लिए भी उसे 800 रुपये महीना देना पडता है।

आस-पास के लोगों के इस परिवार के प्रति अलग-अलग विचार हैं। कोई इनकी बेचारगी पर तरस खाता है तो कोई सरकारी जमीन पर रहना इनका अतिक्रमण मानता है। पर जो भी हो अपने मृदु व्यवहार के चलते इस परिवार से किसी को कोई शिकायत नहीं है। शोभराज के अनुसार प्रकृति भी अमीर-गरीब में भेद करती है। जहां अमीर इस कूडेदान के पास आते ही अपने को बीमार समझने लगता है वहीं छोटी-मोटी तकलीफ के अलावा उसका पूरा परिवार स्वस्थ ही रहता है। 

सौजन्य
TOI          

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

उत्तर की तलाश में एक सवाल

आज कल भारतीय क्रिकेट की दुनिया में तूफान मचा हुआ है। जिसे देखो वही लठ्ठ लेकर सचिन तेंदुलकर के पीछे पडा हुआ है। आज आस्ट्रेलियाई  पूर्व कप्तान रिची पोंटिंग के रिटायरमेंट से तो जैसे उन्हें और शह मिल गयी है।  टीवी के चैनल पर कुछ स्वयंभू क्रिकेट विशेषज्ञ, जिन्हें पूरे खेल का ज्ञान तो दूर खेल के दौरान खिलाडियों के खडे होने की विभिन्न जगहों के पूरे नाम भी शायद ही पता हों, वे भी इस महान बल्लेबाज को नसीहत देने से नहीं चूक रहे। बार-बार गावस्कर या अभी-अभी रिटायर हुए तीनों दिग्गजों, गांगुली, लक्ष्मण और द्रविड़  का उदाहरण देते नहीं थकते पर उनके अवकाश ग्रहण करने के कारणों और परिस्थितियों को सिरे से नजरंदाज कर अपने चैनल को ओछी खुराक देने के चक्कर में ये भूल जाते हैं कि इस जीवट वाले इंसान ने बार-बार वापसी की है।  

 यह सच है कि सचिन अब चालीस के होने जा रहे हैं और दो दशकों से अधिक का समय उन्हें मैदान पर उतरे हो चुका है। यह भी सच है कि वे अब ना पैसे के लिए ना नाम के लिए मैदान पर उपस्थित हैं सिर्फ इस खेल के प्रति उनका लगाव और प्रेम ही उन्हें ज्यादा से ज्यादा खेलने की प्रेरणा दिए जा रहा है। यह भी कटु सत्य है कि वे दो-चार पारियां अच्छी खेल भी जाएं पर पूर्णतया वापसी  कुछ मुश्किल है क्योंकि इस भाग-दौड और तनाव भरे खेल के लिए चालीस की उम्र बहुत होती है। संसार में  शायद ही कोई और ऐसा खिलाडी हो जो लगातार इतने लम्बे समय तक शीर्ष के करीब रहते हुए खेल पाया हो। पर सचिन ने अपने खेल कौशल और मेहनत से जो स्थान अर्जित किया है उसके चलते वे भारत के ही नहीं विदेशों में भी खेल प्रेमियों के चहेते बन गये हैं। करोंडों लोगों को उन्होंने अपने खेल और सौम्य व्यवहार से अपना मुरीद बना डाला है। लोगों की भावनाएं उनसे जुडी हुई हैं। इसीलिए उनकी विदाई की बात करना लोगों की भावनाओं को आहत करना है।

 हर देश की हर टीम के साथ ऐसा दौर आता है कि उसके तीन चार दिग्गज खिलाडी एक के बाद एक अवकाश
प्राप्त करने लगते हैं और उनका विकल्प तुरंत मिलना आसान नहीं होता जिसका खामियाजा टीम की अवनति से मिलता है। अपने यहां भी सौरव गांगुली, लक्ष्मण और द्रविड रिटायर हो चुके हैं, उनकी जगह आए नए खिलाडी प्रतिभावान जरूर हैं पर उनकी अभी और कडी परीक्षा होनी बाकी है। वैसे भी हमारे इन तीनों दिग्गजों ने इस खेल को जिस उचाईयों तक पहुंचाया उसे ध्यान में रखते हुए उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। फिर भी इनकी विदाई सही समय पर ही हुई है, चाहे कारण कुछ भी हों। सचिन के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। वे समय की नजाकत और अपने प्रदर्शन को समझते हैं। खेल के प्रति उनका समर्पण किसी भी कीमत पर खेल का अहित होते नहीं देख सकता इसी लिए जैसा कि गावस्कर ने कहा है उनके साथ बीसीसीआई को मंत्रणा कर भविष्य की योजना पर विचार करना चाहिए। इससे खेल प्रबंधन को भी विकल्प चुनने के लिए समय मिल जाएगा। इस तरह इस अप्रतिम खेल-योद्धा की विदाई भी पूरे आदर और सम्मान के साथ हो पाएगी। सचिन सौभाग्यशाली हैं कि पूरा देश तथा खेल प्रबंधन उनके साथ है तथा किसी भी तरह के विवाद या खेल राजनीति से भी वे निर्लिप्त हैं। इसलिए उनके शानदार, गौरवशाली, अनोखे, किंवदंती  बन चुके करियर का समापन भी उतना ही यादगार होना चाहिए।  

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

आंसू तो दिल की जुबान हैं

वैज्ञानिकों के अनुसार आंसूओं में इतनी अधिक कीटाणुनाशक क्षमता होती है कि इससे  छह हजार गुना ज्यादा  जल में भी इसका प्रभाव बना रहता है। एक चम्मच आंसू, सौ गैलन पानी को कीटाणु रहित कर सकता है।

दुनिया में शायद ही कोइ ऐसा इंसान होगा जिसकी आँखों से कभी आंसू न बहे हों। जीवन के विभिन्न  हालातों, परिस्थितियों, घटनाओं  से इनका अटूट संबंध रहता है। समय कैसा भी हो, दुख का, पीड़ा का, ग्लानी का, परेशानी का, खुशी का, यह नयन जल नयनों का बांध तोड़ खुद को उजागर कर ही देते हैं। 

 मन की विभिन्न अवस्थाओं पर शरीर की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप आंखों से बहने वाला, जब भावनाएं बेकाबू हो जाती हैं तो मन को संभालने वाला, दुःख के समय मन को  हल्का करने वाला, सुख के अतिरेक में भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम, शरीर का साथी है यह  "अश्रु"। इतना ही नहीं सामान्य अवस्था में  यह हमारी आंखों को साफ तथा कीटाणुमुक्त भी  रखता है। 

इसके सामान्यतया तीन रूप होते हैं। पहला आँखों में नमी बनाए रखता है जिससे आँख साफ रहती है और आखों का सूखेपन से होने वाले नुक्सान से बचाव होता है। दूसरा कभी धूल कण या कोइ कीट वगैरह के आँख में पड़ जाने से आँखें जल से भर जाती हैं जिससे अवांछित  वस्तु  बाहर आ जाती है और तीसरा सबसे अहम् है इसका रुदन-समय पर बहने वाला रूप। वैसे  बीमारी तथा भोज्य पदार्थ की तीक्ष्णता  इत्यादि के कारण भी आँखों से पानी निकल आता है।    

आंसू का उद्गम "लैक्रेमेल सैक" नाम की ग्रन्थी से होता है। भावनाओं की तीव्रता आंखों में एक रासायनिक क्रिया को जन्म देती है, जिसके फलस्वरुप आंसू बहने लगते हैं। इसका रासायनिक परीक्षण बताता है कि इसका 94 प्रतिशत पानी तथा बाकी का भाग रासायनिक तत्वों का होता है। जिसमें कुछ क्षार और लाईसोजाइम नाम का एक यौगिक रहता है, जो कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसी के कारण हमारी आंखें जिवाणुमुक्त रह पाती हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार आंसूओं में इतनी अधिक कीटाणुनाशक क्षमता होती है कि इससे  छह हजार गुना ज्यादा  जल में भी इसका प्रभाव बना रहता है। एक चम्मच आंसू, सौ गैलन पानी को कीटाणु रहित कर सकता है।
ऐसा समझा जाता है कि कभी ना रोनेवाले या कम रोनेवाले मजबूत दिल के होते हैं। पर डाक्टरों का नजरिया अलग है, उनके अनुसार ऐसे व्यक्ति असामान्य होते हैं। उनका मन रोगी हो सकता है। ऐसे व्यक्तियों को रोने की सलाह दी जाती है। तो जब भी कभी आंसू बहाने का दिल करे (प्रभू की दया से मौके खुशी के ही हों) तो झिझकें नहीं।
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वैधानिक चेतावनी : आंसू की इस परिभाषा का भी ध्यान रखें -
It is a hydrolic force through which Masculine WILL POWER defeated by Feminine WATER POWER.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

सत्य रूपी बीज पनपता जरूर है।


  सत्य  रूपी बीज, उसे चाहे कितना भी नीचे क्यों न  दबाया गया हो,  सतह कितनी भी कठोर क्यों ना हो उसे फोड कर पनपता जरूर है। चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। समय कितना भी लग जाए।

जीवन को तरह तरह से परिभाषित किया गया है। कोई इसे प्रभू की देन कहता है, कोई सांसों की गिनती का खेल, कोई भूल-भुलैया, कोई समय की बहती धारा तो कोई ऐसी पहेली जिसका कोई ओर-छोर नहीं। कुछ लोग इसे पुण्यों का फल मानते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इसे पापों का दंड समझते हैं। 

कोई चाहे कितना भी इसे समझने और समझाने का दावा कर ले, रहता यह अबूझ ही है। यह एक ऐसे सर्कस की तरह है जो बाहर से सिर्फ एक तंबू नज़र आता है पर जिसके भीतर अनेकों हैरतंगेज कारनामे होते रहते हैं। ऐसा ही एक कारनामा है इंसान का सच से आंख मूंद अपने को सर्वोपरि समझना।

इंसान जब पैदा होता है तो अजब-गजब भविष्य-वाणियों के बावजूद कोई नहीं जानता कि वह बडा होकर क्या बनेगा या क्या करेगा, पर यह निर्विवादित रूप से सबको पता रहता है कि उसकी मौत जरूर होगी। इतने बडे सत्य को जानने के बाद भी इंसान इस छोटी सी जिंदगी में तरह-तरह के हथकंडे अपना कर अपने लिए सपनों के महल और दूसरों के लिए कंटक बीजने में बाज नहीं आता। कभी कभी अपने क्षण-भंगुर सुख के लिए वह किसी भी हद तक गिरने से भी नहीं झिझकता। लोभ, लालच, अहंकार, ईर्ष्या उसके ज्ञान पर पर्दा डाल देते हैं। वह अपने फायदे के लिए किसी का किसी भी प्रकार का अहित करने से नहीं चूकता। वह भूल जाता है कि बंद कमरे में बिल्ली भी अपनी जान बचाने के लिए उग्र हो जाती है। मासूम सी चिडिया भी हाथ से छूटने के लिए चोंच मार देती है। नीबूं से ज्यादा रस निकालने की चाहत उसके रस को कडवा बना डालती है। यहां तक कि उसे भगवान की उस लाठी का डर भी नहीं रह जाता जिसमें आवाज नहीं होती। उस समय उसे सिर्फ और सिर्फ अपना हित नजर आता है। असंख्य ऐसे उदाहरण हैं कि ऐसे लोगों को उनके दुष्कर्म का फल मिलता भी जरूर है पर विडंबना यह है कि उस समय उन्हें अपनी करतूतें याद नहीं आतीं।     

ऐसे लोगों के कारण मानव निर्मित न्याय व्यवस्था भी अब निरपेक्ष नहीं रह गयी है। कोई कितना भी कह ले कि हम मानव न्याय का सम्मान करते हैं तो सम्मान भले ही करते हों मानते नहीं हैं। उसमें इतने छल-छिद्र बना दिए गये हैं कि आदमी कभी-कभी बिल्कुल बेबस, लाचार हो जाता है अन्याय के सामने। न्याय को पाने के लिए समय के साथ-साथ पैसा पानी की तरह बहता तो है पर मिली-भगत से उसका हश्र भी वैसा ही होता है जैसे शुद्ध पीने का पानी गटर में जा गिरे। यूंही किस्से-कहानियों में या फिल्मों में न्याय व्यवस्था का मजाक नहीं बनाया जाता। ज्यादातर झूठ तेज तर्रार वकीलों की सहायता से सच को गलत साबित करने में सक्षम हो जाता है। सच कहीं दुबक जाता है झूठ के विकराल साये में। सामने वाला इसे अपनी जीत समझने लगता है, भूल जाता है समय चक्र को, भूल जाता है इतिहास को, भूल जाता है अपने ओछेपन को। पर सत्य  रूपी बीज, उसे चाहे कितना भी नीचे क्यों न  दबाया गया हो,  सतह कितनी भी कठोर क्यों ना हो उसे फोड कर पनपता जरूर है। चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। समय कितना भी लग जाए, असत्य को अपनी करनी का फल भोगना जरूर पडता है। इसमें कोई शको-शुबहा नहीं है।
और फिर कुछ ऐसा होता है कि !!!!!

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

दीपावली फिर आने का वायदा कर गई।


दीपावली आई, खुशियां, उल्लास और फिर आने का वायदा कर चली गई। इस पारंपरिक त्यौहार से हम आदिकाल से जुड़े हैं। यह अपने देश के सारे त्योहारों से एक अलग और अनोखे तरह का उत्सव है। रोशनी के त्योहार के रूप में तो यह अलग है ही, इसे सबसे ज्यादा उल्लास से मनाए जाने वाले त्योहारों में भी गिना जा सकता है। इसे चाहे किसी भी कथा, कहानी या आख्यान से जोड लें पर मुख्य बात असत्य पर सत्य की विजय की ही है। प्रकाश के महत्व की है। तम के नाश की है। उजाले के स्वागत की है।  इसीलिए इसके आते ही सब अपने अपने घरों इत्यादि की साफ-सफाई करने, रौशनी करने मे मशगूल हो जाते हैं। साफ-सफाई के अलावा इस त्योहार मे एक बात और है कि यह अकेला ऐसा त्योहार है, जिसमें हर आदमी, हर परिवार समृद्धि की कामना करता है। यह त्योहार हमें रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीने या जितनी चादर है उतने पैर पसारने की सलाह नहीं देता। इन उपदेशों का अपना महत्व जरूर है पर यह त्योहार यह सच्चाई भी बताता है कि भौतिक स्मृद्धि का भी जीवन में एक अहम स्थान है, इसका भी अपना महत्व है। 

धन की, सुख की आकांक्षा हरेक को होती है इसीलिए इस पर्व पर अमीर-गरीब अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार दीए जला, पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हां यह जरूर है कि अमीरों के ताम-झाम और दिखावे से यह लगने लगता है जैसे यह सिर्फ अमीरों का त्योहार हो।  

हमारे वेद-पुराणों में सर्व-शक्तिमान से यह प्रार्थना की गई है कि वे हमारे अंदर के अंधकार को दूर करें, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएं जिससे हमें ज्ञान और शांति प्राप्त हो जिसका उपयोग दूसरों की भलाई में किया जा सके। इसी बात को, इसी संकल्प को हमें अपने जेहन में संजोए रखना है पर यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो पाएगा जब तक इस पर्व को मनाने की क्षमता, समृद्धि का वास देश के हर वासी, हर गरीब-गुरबे के घर-आंगन में नहीं हो जाता। 

बुधवार, 14 नवंबर 2012

स्वर्ण मोह


 धक्का-मुक्की का हमारा हिंदुस्तानी "कल्चर" वहां अपने पूरे जोशो-खरोश के साथ उपस्थित था। कहीं से भी, किसी कोण से भी नहीं लग रहा था कि यह वही भारत है जहां दिन रात मंहगाई का रोना रोया जाता है। जहां की आधी आबादी को पेट भर भोजन नसीब नहीं होता। उल्टे यहां तो अमीरी भी किसी कोने में दुबकी खडी लग रही थी। 

पिछली धनतेरस पर सरकारी कंपनी MMTC के विज्ञापनों से प्रेरित हो दिल्ली के मशहूर अशोक होटल में चल रहे स्वर्ण-उत्सव को देखने का मन बना लिया। जिज्ञासा यह थी कि अखबारों में हर साल देश के विभिन्न शहरों में टनों सोने की बिक्री और अरबों के कारोबार का जो लेखा-जोखा पढ़ने को मिलता है  शायद उसका  एक छोटा सा जायजा मिल ही जाए।   

रात के आठ बज रहे थे। अशोक के सजे-धजे गलियारों से होते हुए, वहीं चल रही एक शादी के समारोह के मूक दर्शक बने हुए जब इस भव्य होटल के कंवेंशन हाल में दाखिल हुए तो आंखें खुली की खुली रह गयीं। विशाल हाल हर उम्र के लोगों से अटा पडा था। छोटे शहरों, गांवों में होने वाले मेलों-ठेलों जैसी भीड इक्ट्ठा थी।  लगा कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार ने दो रुपये कीलो गेंहू और चावल बांटने की तर्ज पर सोना भी रियायती  दर पर लोगों को उपलब्ध करवा दिया हो या फिर लोग एवंई मेले-ठेले की तर्ज पर घूमने चले आए हों? पर ये दोनों ही ख्याल गलत निकले क्योंकि ना तो सोना रियायती मुल्य पर बिक रहा था नाहीं लोग सिर्फ घूमने और अशोक की भव्यता देखने आए थे। 36000 रुपये का दस ग्राम की कीमत  वाला  सोना वहाँ  चने-मुरमुरे की तरह बिक रहा था। हालांकि वहां चांदी भी उपलब्ध थी पर भूसे के ढेर में सूई की मानींद। लोगों की रुचि सोने में ज्यादा थी। किसी को कीमत की या दर की परवाह नहीं थी। चिंता थी तो इस बात की कि कहीं उनकी पसंदीदा वस्तु उनके लेने के पहले ही खत्म ना हो जाए। हर स्टाल पर लोग उमडे पडे थे। धक्का-मुक्की का हमारा हिंदुस्तानी "कल्चर" वहां अपने पूरे जोशो-खरोश के साथ उपस्थित था। करीब-करीब हर स्टाल में  चीजें खात्मे की ओर थीं। कहीं से भी, किसी कोण से भी नहीं लग रहा था कि यह वही भारत है जहां दिन रात मंहगाई का रोना रोया जाता है। जहां गरीबी मुंह बाए खडी रहती है। जहां की आधी आबादी को पेट भर भोजन नसीब नहीं होता। उल्टे यहां तो अमीरी भी किसी कोने में दुबकी खडी लग रही थी। सभी यहां निश्फिक्र, चिंता विहीन, खुश-हाल ही नजर आ रहे थे। टेंशन में कोई था तो यहां के कर्मचारी। दस दिनों का तनाव और थकावट उनके चेहरों से साफ झलक रही थी। 

मैं हाल के एक कोने में बने खाली हो चुके ऊंचे स्टाल पर खडा सारा नजारा देख रहा था बिना इस बात की आशंका या  आभास के  कि इस सामुहिक खरीदी का जादू श्रीमती जी पर भी अपना असर डाल चुका है और वे अपने बेटों के साथ चांदी की लक्ष्मी-गणेश की मूर्ती लेने का मन बना चुकी हैं। इसके पहले की  इसकी भनक लगने पर मैं उनके पास जा किसी तरह का विघ्न डालूं वहां काम "डन" हो चुका था। 

सोमवार, 12 नवंबर 2012

"अनदेखे अपनों" को ज्योति पर्व की दिल से बधाई।


इस दीपोत्सव के पावन पर्व पर मेरी ओर से आप सब को सपरिवार हार्दिक शुभ कामनाएं। आने वाला समय हम सब के लिए मंगलमय हो, सभी सुखी, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें, प्रभू से यही प्रार्थना है।  


इस विधा यानि ब्लागिंग के माध्यम से जितना स्नेह, अपनापन तथा हौसला आप सब की तरफ से मुझे मिला है उससे रोमांचित और अभिभूत हूँ। कितनी अजीब सी बात है कि खुद भले ही 'जाल' पर उपस्थिति दर्ज ना करवाई जा सके पर एक-दो दिनों में जब तक सबके नाम दिख न जाएं तो खाली-खाली सा महसूस होता है। यदि खुदा न खास्ता किसी की उपस्थिति चार-पांच दिनों तक न दिखे तो मन बरबस उसकी ओर खींचा सा रहता है, हाल जानने के लिए। 

इस "अनदेखे अपनों" से हुए लगाव को क्या नाम दिया जाए? जबकि अपनी कूपमंडूकता के कारण बहुत कम लोगों से आमने-सामने मुलाक़ात हो पाई है। चाह कर, मौका रहते हुए भी वैसा नहीं हो पाया, इसका खेद रहता है, पर आपसी स्नेह ऐसा ही सब से बना रहे यही कामना है। 

फिर एक बार सब को ज्योति पर्व की दिल से बधाई।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

बारह सालों से चला आ रहा एक संघर्ष


बहुत कम लोगों को पता होगा कि अपने ही देश के एक राज्य मणिपुर में बारह सालों से एक महिला भूख हडताल पर बैठी हुई है। पर इसका  ना तो  प्रशासन और नहीं सरकार अब तक कोई हल निकाल पाए हैं।

2 नवम्बर 2000, मणिपुर की इम्फाल घाटी में स्थित मालोम शहर के एक बस स्टैंड पर अर्द्ध सैनिक बल के जवानों ने अंधाधूंध गोलियां चलाई थीं जिसके फलस्वरूप छात्र तथा महिलाओं समेत दस लोगों की मौके पर ही मृत्यु हो गयी थी। दूसरे दिन वहां के अखबारों में मृत लोगों की फोटो भी छपी थी जिसमें एक वयो-वृद्ध महिला और दो 1988 में अपनी बहादुरी के लिए सम्मानित छोटे बच्चों की तस्वीरें भी थीं। अखबारों ने इस घटना को "Malom Massacre" का नाम दिया था। इस घटना से आक्रोशित हो कर इरोम ने 5 नवम्बर 2000 को सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को हटाने की मांग को ले कर जो अनशन शुरु किया था वह आज तक जारी है। पिछली पांच तारीख को इस आंदोलन को शुरु हुए पूरे बारह साल हो चुके हैं। इरोम को जबर्दस्ती नाक में नली डाल कर तरल पदार्थों से उनकी जीवन रक्षा की जा रही है। इस अधिनियम का कई बार व्यापक विरोध हुआ है पर सरकार सुरक्षा बलों के दवाब के कारण इसे हटा नहीं पा रही है।

अपनी भूख हडताल के कारण सुर्खियों में आई इरोम शर्मिला चनु का जन्म 14.3.1974 में इंफाल में हुआ था। आम आदमी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए लडने वाली यह कवियित्री मणिपुर और उत्तरीपूर्व में अर्द्ध सैंनिक बलों को अशांत इलाकों में विशेष अधिकार देने वाले अधिनियम के खिलाफ वर्षों से आवाज उठा रही हैं और अपने इसी अनथक प्रयास के कारण इन्हें अब "लौह महिला" के नाम से भी जाना जाने लगा है।          

उपवास शुरु होने के तीसरे दिन उन्हें आत्महत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था। अनशन के कारण गिरते स्वास्थ्य को देख उन्हें तभी से नाक द्वारा भोजन दिया जा रहा है। अब तो उनकी ख्याति देश की सीमाओं को भी पार कर चुकी है और देश-विदेश की कई हस्तियां उनसे मुलाकात कर चुकी हैं। इसी दौरान उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है।   

इरोम का नाम एक संघर्ष का प्रयाय ही नहीं है वह यह भी इंगित करता है कि हमारे इस विशाल लोकतंत्र के कई पक्ष विवादास्पद भी हैं। इसके अलावा इरोम के प्रति देश के लोगों की आधी-अधुरी जानकारी इस बात को भी सामने लाती है कि शेष भारत के लोगों में सीमावर्ती प्रदेशों के बारे में ना तो ज्यादा जानकारी है नही वहां की समस्यायों के प्रति वहां के लोगों से सहानुभूति। जिस दि सारे देश वासी सारे देश को और वहां के वाशिंदों की तकलीफों  को अपना समझने लगेंगे तो फिर इस तरह के किसी कानून की जरूरत ही नहीं रह जाएगी।

सोमवार, 5 नवंबर 2012

सवाल तो अनछुए ही रहे


सच तो यह है कि आज भीड का जुटना किसी भी पार्टी की सफ़लता का आईना नहीं रह गया है।

भीड़ या समर्थक 
कुछ दिनों पहले हुई 'शफलिंग' के बाद रविवार चार नवम्बर को दिल्ली के रामलीला मैदान से कांग्रेस ने अपनी लीला दिखाते हुए एक रैली निकाली जिसे महारैली का नाम दिया गया। इसका कुछ और असर हुआ हो या ना हुआ हो पर एक बात या उपलब्धि जरूर नज़र आई और वह थी एक लम्बे अरसे बाद प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी तीनों ने एक ही मंच से विपक्ष पर आक्रणात्मक रूप से हल्ला बोला। पर बस रटी-रटाई बातें ही दोहराईं, महंगाई, भ्रष्टाचार और घोटालों के बारे में वह देश की जनता को किसी तरह का आश्वासन नहीं दे सके, जबकि यह बहुत जरूरी था क्योंकि इन्हीं सवालों का उत्तर ना पाने से ही आमजन इस पार्टी से छिटक और बिदक रहा है। पर एक बात यहां साफ भी हो गयी है कि आने वाले दिनों में, ममता जैसे साथियों का साथ ना होने के कारण अब सरकार और कडे कदम उठाने से नहीं झिझकेगी जिसके लिए आम आदमी को और कडवे घूटों को निगलने के लिए तैयार रहना होगा।      

आज राहुल गांधी व्यवस्था को बदलने की बात कर रहे हैं, पर सवाल है कि किस व्यवस्था को? पिछले आठ सालों से उन्हीं की पार्टी तो सत्ता में बनी हुई है और यही बात तो अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल भी कह रहे हैं तो समस्या क्या है? 

सच तो यह है कि आज भीड का जुटना किसी भी पार्टी की सफ़लता का आईना नहीं रह गया है। इस तरह के जुगाड को लोग भी समझने लग गये हैं। इसीलिए दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ कांग्रेस का यह जमावडा भले ही अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने में सफल हुआ हो, पर कोई बड़ा संदेश, कोई आशा, कोई दिलासा देने में वह नाकाम ही रहा है। 

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

फैशन में बदलता करवा चौथ


करवा चौथ, वर्षों से मनता और मनाया जाता हुआ पति-पत्नी के रिश्तों के प्रेम का प्रतीक एक त्योहार। सीधे-साधे तरीके से बिना किसी ताम-झाम के, बिना कुछ या जरा सा खर्च किए सादगी से मनाया जाने वाला एक छोटा सा उत्सव। पर इस पर भी बाज़ार की गिद्ध दृष्टि लग गयी। 

शुरुआत हुई फिल्मों से जिसने रफ्तार पकडी टी.वी. सीरियलों से। ऐसा ताम-झाम, ऐसी रौनक, ऐसे-ऐसे तमाशे और ऐसी-ऐसी तस्वीरें पेश की गयीं इस दिन के साथ कि जो त्योहार एक गृहणी अकेले या अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ मना लेती थी वह भी बाज़ार के झांसे में आ गयी।

अब बाज़ार तो बाज़ार ठहरा उसे सिर्फ अपने लाभ से मतलब होता है। उसने महिलाओं की मनोदशा को भांपा और शुरु हो गया तरह-तरह के लुभावने प्रस्तावों के साथ। देखते-देखते साधारण सी चूडी, बिंदी, टिकली, धागे सब "डिजायनर" होते चले गये। दो-तीन-पांच रुपये की चीजों की कीमत 100-150-200 रुपये हो गयी। अब सीधी-सादी प्लेट या थाली से काम नहीं चलता उसे सजाने की अच्छी खासी कीमत वसूली जाती है, कुछ घरानों में छननी से चांद को देखने की प्रथा घर में उपलब्ध छननी से पूरी कर ली जाती थी पर अब उसे भी बाज़ार ने साज-संवार, दस गुनी कीमत कर, आधुनिक रूप दे महिलाओं के लिए आवश्यक बना डाला है। चाहे फिर वह साल भर या सदा के लिए उपेक्षित घर के किसी कोने में पडी रहे।  पहले शगन के तौर पर हाथों में मेंहदी खुद ही लगा ली जाती थी या आस-पडोस की महिलाएं एक-दूसरे की सहायता कर देती थीं, पर आज यह लाखों का व्यापर बन गया है। कुछ दिनों पहले शादी-ब्याह के समय अपनी हैसियत के अनुसार लोग मेंहदी पर खर्च करते थे पर अब वह पैशन और फैशन बन चुका है।  

विश्वास नहीं होता पर कल जब एक हाथ पर मेंहदी "डिजायन" करने की कीमत 2000 से 2500 तक तथा दोनों हाथों की 4500 से 5000 रुपये जानी तब आंखें इतनी चौडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया। फिर हाथों के पीछे के अलग रेट, विरल के अलग, सघन के अलग और पता नहीं क्या-क्या। उस पर तुर्रा यह कि अपना नम्बर आने का घंटों इंतजार। कुछ सालों पहले कनाट-प्लेस के हनुमान जी के मंदिर के प्रांगण में शौकीया लोगों के लिए एक-दो महिलाओं द्वारा शुरु हुआ यह 'व्यापार' अब दिल्ली के हर गली-कूचे में पैर जमा चुका है। इसमें भी अब उस्ताद/उस्तादनियों और नौसिखियों की 'कैटेगिरि' बन गयी है जिनके रेट उसी हिसाब से हैं। एक छोटा सा हुनर एक रात में लाखों का वारा-न्यारा करने की क्षमता रखने लगा है।  

कल का एक घरेलू, आत्म केन्द्रित, कुछ तथाकथित आधुनिक नर-नारियों द्वारा पिछडे तथा दकियानूसी त्योहार की संज्ञा पाने वाला करवा चौथ, आज एक फैशन का रूप ले चुका है। एक आस्था को खिलवाड का रूप दे दिया गया है। शादी-शुदा महिलाओं के इस पारंपरिक त्योहार को आज कुवांरी लडकियां अपने बाल सखाओं की दीर्घ आयु की कामना करते हुए रखने लगी हैं। मिट्टी के बने कसोरों का स्थान मंहगी धातुओं ने ले लिया है। पारंपरिक मिठाइयों की जगह चाकलेट आ गया है। लगता है कि हमारी शिक्षा, संस्कृति, संस्कारों, उत्सव-त्योहारों, रस्मों-रिवाजों, परंपराओं सब पर यह गिद्ध रूपी बाज़ार हावी हो कर उन्हें तार-तार कर ही छोडेगा।

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

मैं छत्तीसगढ हूं। आज मेरा जन्मदिन है, अभिभूत हूं



मेरा यह सपना कोई बहुत दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें "छत्तीसगढिया सबसे बढिया" का खिताब हासिल नहीं हुआ है। 

C. G.
मैं छत्तीसगढ हूं। आज एक नवम्बर है मेरा जन्मदिन, अभी सिर्फ बारह सालों का ही हूं पर अभिभूत हूं, आज सबेरे से ही आपकी शुभकामनाएं, प्रेम भरे संदेश और भावनाओं से पगी बधाईयों से। मुझे याद रहे ना रहे पर आप सब को मेरा जन्म-दिन याद रहता है यह मेरा सौभाग्य है। 

मध्य प्रदेश परिवार से जुडे रहने के कारण मेरी स्वतंत्र छवि नहीं बन पाई थी और लोग मेरे बारे में बहुत कम ज्ञान रखते थे। जिसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों में मेरे प्रति अभी भी कई तरह की भ्रांतियां पनपी हुई हैं। अभी भी लोग मुझे एक पिछडा प्रदेश और यहां के आदिवासियों के बारे में अधकचरी जानकारी रखते है। पर जब यहां से बाहर जाने वालों से या बाहर से यहां घूमने आने वाले लोगों को मुझे देखने-समझने का मौका मिलता है तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि इतने कम समय में, सीमित साधनों के और ढेरों अडचनों के बावजूद मैं इतनी तरक्की कर पाया हूं। वे मुझे देश के सैंकडों शहरों से बीस पाते हैं। 

Railway Station
Nagar Nigam
कईयों की जिज्ञासा होती है मेरी पहचान अभी सिर्फ बारह सालों की है उसके पहले क्या था? कैसा था? तो उन सब को नम्रता पूर्वक यही कहना चाहता हूं कि जैसा था वैसा हूं यहीं था यहीं हूं। फिर भी सभी की उत्सुकता शांत करने के लिए कुछ जानकारी बांट ही लेता हूं। सैंकडों सालों से मेरा विवरण इतिहास में मिलता रहा है। मुझे दक्षिणी कोसल के रूप में जाना जाता रहा है। रामायण काल में मैं माता कौशल्या की भूमि के रूप में ख्यात था। मेरा परम सौभाग्य है कि मैं किसी भी तरह ही सही प्रभू राम के नाम से जुडा रह पाया। कालांतर से नाम बदलते रहे और अभी की वर्तमान संज्ञा "छत्तीसगढ" मुझे मेरे 36 किलों के कारण, जिनमें से बहुतेरे कालकल्वित हो चुके हैं, मिली है जिससे मुझे नए राज्य के रूप में जाना जाता है।

Airport
New Raipur
भारत गणराज्य में एक 1 नवम्बर 2000 तक मैं मध्य प्रदेश के रूप में ही जाना जाता था। पर अपने लोगों के हित में उनके समग्र विकास हेतु मुझे अलग राज्य का दर्जा मिल गया। वैसे इस बात की मांग 1970 से ही शुरु हो गयी थी पर गंभीर रूप से इस पर विचार 1990 के दशक में ही शुरु हो पाया था जिसका प्रचार 1996 और 1998 के चुनावों में अपने शिखर पर रहा जिसके चलते अगस्त 2000 में मेरे निर्माण का रास्ता साफ हो सका। इस ऐतिहासिक घटना का सबसे उज्जवल पक्ष यह था कि इस मांग और निर्माण के तहत किसी भी प्रकार के दंगे-फसाद, विरोधी रैलियों या उपद्रव इत्यादि को बढावा नहीं मिला हर काम शांति, सद्भावना, आपसी समझ और गौरव पूर्ण तरीके से संपन्न हुआ। इसका सारा श्रेय यहां के अमन-पसंद, भोले-भाले, शांति-प्रिय लोगों को जाता है जिन पर मुझे गर्व है। आज मेरे सारे कार्यों का संचालन मेरी राजधानी 'रायपुर' से संचालित होता है। धीरे-धीरे  यह शहर एक नया रूप ले रहा है और मुझे पूरा विश्वास है की जल्दी ही इसका शुमार देश के अग्रणी नगरों में होने लगेगा।   वैसे मेरे साथ ही भारत में अन्य दो राज्यों, उत्तराखंड तथा झारखंड भी अस्तित्व में आए हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हैं।  


Ghadi Chowk
Pics of  Progress

मुझे कभी भी ना तो राजनीति से कोई खास लगाव रहा है नाही ऐसे दलों से। मेरा सारा प्रेम, लगाव, जुडाव सिर्फ और सिर्फ यहां के बाशिंदों के साथ ही है। कोई भी राजनीतिक दल आए, मेरी बागडोर किसी भी पार्टी के हाथ में हो उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि छत्तीसगढ के वासी अमन-चैन के साथ, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन, यहां बिना किसी डर, भय, चिंता या अभाव के अपना जीवन यापन कर सकें। मेरा एक ही सपना है कि मैं सारे देश में एक ऐसे आदर्श प्रदेश के रूप में जाना जाऊं, जो देश के किसी भी कोने से आने वाले देशवासी का स्वागत खुले मन और बढे हाथों से करने को तत्पर रहता है। जहां किसी के साथ भेद-भाव नहीं बरता जाता, जहां किसी को अपने परिवार को पालने में बेकार की जद्दोजहद नहीं करनी पडती, जहां के लोग सारे देशवासियों को अपने परिवार का समझ, हर समय, हर तरह की सहायता प्रदान करने को तत्पर रहते हैं। जहां कोई भूखा नहीं सोता, जहां तन ढकने के लिए कपडे और सर छुपाने के लिए छत मुहैय्या करवाने में वहां के जन-प्रतिनिधि सदा तत्पर रहते हैं। 
Vidhan Sabha

मेरा यह सपना कोई बहुत दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें "छत्तीसगढिया सबसे बढिया" का खिताब हासिल नहीं हुआ है। 

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

सेहत ठीक रही तभी जीभ भी स्वाद लेने लायक रहेगी

कोशिश करें कि ऐसे खाद्य पदार्थों से जितना बचा जा सके बचे और खाने के बाद यथासंभव गर्म जल का सेवन कर अपने दिल और पेट को थोडा सहयोग प्रदान करें। क्योंकि यदि ये स्वस्थ रहे तभी जिह्वा का स्वाद भी रह पाएगा।

एक सर्वे से यह बात सामने आई है कि खाने के बाद यदि ठंडे पानी की बजाए गुनगुना या गर्म पानी पिया जाए तो ह्रदयाघात की आशंका बहुत कम हो जाती है। वैसे भी इलाज की हर पैथी में खाने के साथ पानी ना पीने या सिर्फ दो-तीन घूंट लेने की सलाह दी जाती है पर खाने के दौरान या तुरंत बाद ठंडा पानी पीना बहुत सकूनदायक लगता है इसलिए अधिकांश लोग खाने के तुरंत बाद पानी जरुर पीते हैं। पर वह खाए गये पदार्थों के तैलीय अंश को और गाढा बना उनके पचने में रुकावट ही डालता है। जिससे पाचन क्रिया बेहद धीमी हो जाती है। जिससे खाद्य पदार्थ पेट के एसिड से मिल जटिल पदार्थों का निर्माण कर देते हैं जो कुपथ्य हो तरह-तरह की बिमारियों का कारण बन जाते हैं। इसलिए ठंडे पानी की बजाए गरम सूप या पानी पीना बहुत लाभदायक होता है।

आजकल समय की कमी,  देखा-देखी या फैशन के तहत फ्रेंच फ्राई या बर्गर जैसे फास्ट-फूड का चलन बढता ही जा रहा है जो कि हमारे जठर के सबसे बडे दुश्मन हैं। उस पर इन सब चीजों के साथ बर्फ जैसे ठंडे पेय पदार्थों के सेवन का चलन है जो करेले की बेल को नीम के पेड की संगत दे देते हैं। जो कि हमारे दिल के लिए सबसे ज्यादा खतरा पैदा करने वाले पदार्थ बन जाते हैं। सिर्फ दूसरे देशों से आयातीत खाद्य पदार्थ ही नहीं अपने यहां के समोसे, कचौडी, पूरी, चाट  जैसे अति तेल रंजित खाद्य भी इसी श्रेणी में आते हैं। दुकानों इत्यादि में बनने वाले ऐसे पदार्थ और भी हानीकारक हो जाते हैं क्योंकि वहां इस्तेमाल हुआ तेल बदला नहीं जाता, रोज के बचे हुए तेल में ही नया तेल मिला कर उपयोग मे ले लिये जाने के कारण वह तेल खाने के लिहाज से बहुत हानीकारक हो जाता है खास कर हमारे दिल के लिए। इसलिए कोशिश करें कि ऐसे खाद्य पदार्थों से जितना बचा जा सके बचे और खाने के बाद यथासंभव गर्म जल का सेवन कर अपने दिल और पेट को थोडा सहयोग प्रदान करें। क्योंकि यदि ये स्वस्थ रहे तभी जिह्वा का स्वाद भी रह पाएगा।

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

इस नरक से छुटकारा पाना है


 इसी के लिए एक विदेशी ने भारत भ्रमण के बाद देश को A VAST OPEN-AIR LAVATRY बताया था। सुनने में बहुत बुरा लगता है पर यह कडवी सच्चाई भी तो है। देश के करोड़ों लोगों के पास शौचालय की सुविधा न हो, तो इससे बड़ा सामाजिक अन्याय या इससे बड़ी विषमता और क्या हो सकती है! 

वर्षों पहले बंगाल की राजधानी कलकत्ता (तब का नाम) को साफ-सुथरा रखने के लिए एक अभियान चलाया गया था जिसके तहत किसी भी आदमी को सडक किनारे लघु-शंका निवारण करते पाये जाने पर उसपर जुर्माना करने की पुलिस को छूट थी। विचार और इरादा नेक था पर अमल में लाने लायक नहीं था। क्योंकि इस तरह की जन सुविधाओं की शहर में हद दर्जे तक कमी थी। तो पहले सुविधा तो उपलब्ध हो फिर कानून लागू करवाया जाए तो बात समझ में आती है। वैसा ही कुछ आज-कल हमारी सरकार प्रचार कर रही हैं कि खुले में शौच करने वालों को गिरफ्तार कर लेना चाहिए या उन घरों में बेटियां नहीं देनी चाहिए, जिनके घरों में शौचालय न हों। सुनने में यह सब बहुत अच्छा लगता है लेकिन क्या इसे तत्कालिक रूप से व्यवहारिक बनाया जा सकता है? क्या रातों-रात बदलाव लाया जा सकता है?    

दुखद सत्य है कि स्वतंत्रता मिलने के सालों बाद भी सुबह होते ही करोंडों नर-नारियों को इस असहनीय, नाकाबिले-बर्दास्त  प्रकृति की पुकार का शर्मनाक तरीके से, लोक-लाज के बावजूइस द खुले में जा कर शमन करना पडता है। इसी के लिए एक विदेशी ने भारत भ्रमण के बाद देश को A VAST OPEN-AIR LAVATRY बताया था। सुनने में बहुत बुरा लगता है पर यह कडवी सच्चाई भी तो है। देश के करोड़ों लोगों के पास शौचालय की सुविधा न हो, तो इससे बड़ा सामाजिक अन्याय या इससे बड़ी विषमता और क्या हो सकती है! आखिर राजनीतिक दलों के नेता गणों या मानवाधिकार के झंडाबदारों या फिर महिलाओं की स्थिति पर घडियाली आंसू बहाने वालों को क्यों यह नरक नज़र नहीं आता? क्या कभी उन्होंने सोचा भी है कि इस स्थिति से रोज दो-चार होने वाली महिलाओं पर क्या गुजरती होगी? जब कि दुनिया के दूसरे देशों से तुलना करें तो इस मामले में कयी पायदानों पर हम ही हम हैं। हमारे बाद किसी देश का नम्बर आता है तो वह है इंडोनेशिया जहां कुछ लाख लोगों को ही इस संकट का सामना करना पडता है।  

विडंबना देखिए कि किसी के नेता बनते ही उसके  घर को झोंपडी से बंगला और फिर महल बनते देर नहीं लगती। जिनको लुभावने स्वप्न दिखाए जाते हैं वे सपनों में ही खोए रहते हैं और इधर करोंडों की मुर्तियां टूटती बनती रहती हैं और जिसके पैसों से यह सब होता है वह रोज जहालत झेलता रहता है। 

अब इसे नासमझी कह लें या अशिक्षा पर यह तो जाहिर है कि हमने या सरकारों ने शौचालय की व्यवस्था को जितनी प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी नहीं दी। हमने सामाजिक न्याय और समता की बातें तो खूब कीं, लेकिन जिंदगी की बुनियादी जरूरतों की ओर उतना ध्यान नहीं दिया। व्यापक तौर पर इसके पीछे गरीबी-बेरोजगारी और सरकारी तंत्र की नाकामी भी जिम्मेदार है। पर जब जागे तब सबेरा, निर्मल भारत अभियान से भी उम्मीद बनी है। पर जरूरत है लोगों को जागरूक करने की ना कि दंडित करने की। धीरे-धीरे ही सही पर इस तस्वीर को, उपर लिखे "टैग" को मिटाना ही है हमें, हर कीमत पर।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण का अंतर्द्वंद्व

हमारे प्राचीन साधू-संत, ऋषि-मुनि  अपने  विषयों के प्रकांड  विद्वान हुआ  करते थे।   उनके द्वारा  बताए   गए उपदेश,  कथाएँ,   जीवनोपयोगी  निर्देश   उनके जीवन   भर के      अनुभवों का सार हुआ करता था जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कहे पर शक करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही है। पर समय के साथ या फिर अपनी क्षुद्र बुद्धि से कुछेक लोगों ने  अपने हितों के लिए उनकी हिदायतों को तोड़ मरोड़ लिया हो, ऐसा भी संभव है। रामायण के सन्दर्भ में ही देखें तो करीब पांच हजार साल पहले  ऋषि वाल्मीकि जी  के   द्वारा    उल्लेखित रावण में  और आज के प्रचारित रावण  में जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है....      


अभी भी सूर्योदय होने में कुछ विलंब था। पर क्षितिज की सुरमयी कालिमा धीरे-धीरे सागर में घुलने लगी थी। कदर्थित रावण पूरी रात अपने महल के उतंग कंगूरों से घिरी छत पर बेचैन घूमता रहा था। पेशानी पर बल पड़े हुए थे। मुकुट विहीन सर के बाल सागर की हवा की शह पा कर उच्श्रृंखलित हो बार-बार चेहरे पर बिखर-बिखर जा रहे थे। रात्रि जागरण से आँखें लाल हो रहीं थीं। पपोटे सूज गए थे। सदा गर्वोन्नत रहने वाले मस्तक को कंधे जैसे संभाल ही नहीं पा रहे थे। तना हुआ शरीर, भीचीं हुई  मुट्ठियाँ, बेतरतीब डग, जैसे विचलित मन की गवाही दे रहे हों। काल की क्रूर लेखनी कभी भी रावण के तन-बदन या मुखमंडल पर बढती उम्र का कोई चिन्ह अंकित नहीं कर पायी थी। वह सदा ही तेजस्वी-ओजस्वी, ऊर्जावान नजर आता था । पर आज की घटना ने जैसे उसे प्रौढ़ता के द्वार पर ला खड़ा कर दिया था। परेशान, चिंताग्रस्त रावण को अचानक आ पड़ी विपत्ति से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। एक ओर प्रतिष्ठा थी, इज्जत थी, नाम था, धाक थी जगत मे। दूसरी ओर इस जीवन के साथ-साथ पूरी राक्षस जाति का विनाश था। 


कल की ही तो बात थी। रोती कलपती उच्छिन्ना शुर्पणखा ने भरे दरबार में प्रवेश किया था। सारा चेहरा खून से सना हुआ था, हालांकि नाक-कान पर खरुंड ज़मने लगा था पर खून का रिसना बंद नहीं हुआ था। जमते हुए रक्त ने जुल्फों को जटाओं में बदल कर रख दिया था। रेशमी वस्त्र धूल-मिटटी व रक्त से लथ-पथ हो चीथड़ों में बदल गए थे। रूप-रंग-लावण्य सब तिरोहित हो चुका था,बचा था वीभत्स, डरावना, लहुलूहान चेहरा। राजकुमारी को ऐसी हालत में देख चारों ओर सन्नाटा छा गया था। सारे सभासद इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर सकते मे आ खडे हो गये थे। विशाल बाहू रावण ने दौड कर अपनी प्यारी बहन को अपनी सशक्त बाहों का सहारा दे अपने कक्ष मे पहुंचाया तथा स्वयं मंदोदरी की सहायता से उसे प्राथमिक चिकित्सा देते हुए अविलम्ब सुषेण वैद्य को हाजिर होने का आदेश दिया। घंटों की मेहनत और उचित सुश्रुषा के बाद कुछ व्यवस्थित होने पर शुर्पणखा ने जो बताया वह चिंता करने के लिये पर्याप्त था।



 शुर्पणखाअपने भाईयों की चहेती, प्राणप्रिय, इकलौती बहन थी। बचपन से ही सारे भाई उस पर जान छिडकते आए थे। उसकी राह मे पलक-पांवडे बिछाये रहते थे। इसी से समय के साथ-साथ वह उद्दंड व उच्श्रृंखल होती चली गयी थी। विभीषण तो फिर भी यदा-कदा उसे मर्यादा का पाठ पढ़ा देते थे, पर रावण और कुम्भकर्ण तो सदा उसे बालिका मान उसकी जायज-नाजायज इच्छाएं पूरी करने को तत्पर रहते थे। यही कारण था कि पति के घर की अपेक्षा उसका ज्यादा समय अपने पीहर में ही व्यतीत होता था। यहां परम प्रतापी भाईयों के स्नेह का संबल पा शुर्पणखा सारी लोक-लाज, मर्यादा को भूल बरसाती नदी की तरह सारे तटबंधों को तोड दूनिया भर मे तहस-नहस मचाती घूमती रहती थी। ऋषि-मुनियों को तंग करना, उनके काम में विघ्न डालना, उनके द्वारा आयोजित कर्म-कांडों को दूषित करना उसके प्रिय शगल थे और इसमे उसका भरपूर साथ देते थे खर और दूषण।

इसी तरह अपने मद में मदहोश वह मूढ़मती उस  दिन अपने सामने राम और लक्ष्मण को पा उनसे प्रणय निवेदन कर बैठी और उसी का फल था यह अंगविच्छेद। क्रोध से भरी शुर्पणखा ने रावण को हर तरह से उकसाया था अपने अपमान का बदला लेने के लिए,  यहां तक   कि  पिता  समान बडे भाई पर व्यंगबाण छोडने से भी नहीं हिचकिचाई  थी। यही कारण था रावण की बेचैनी का, रतजगे का और शायद लंका के पराभव का। रावण धीर, गंभीर, बलशाली सम्राट के साथ-साथ विद्वान् पंडित तथा भविष्यवेता भी था। उसे साफ नजर आ रहा था अपने देश, राज्य तथा सारे कुल का विनाश।  इसीलिये वह उद्विग्न था। राम के अयोध्या छोड़ने से लेकर उनके लंका की तरफ़ बढ़ने के सारे समाचार उसको मिलते रहते थे पर उसने अपनी प्रजा तथा देश की भलाई के लिए कभी भी आगे बढ़ कर बैर ठानने की कोशिश नहीं की थी। युद्ध का अंजाम वह जानता था।  पर अब तो घटनाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। अब यदि वह अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेता है तो संसार क्या कहेगा !  दिग्विजयी रावण जिससे देवता भी कांपते हैं, जिसकी एक हुंकार से दसों दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैं वह कैसे चुप बैठा रह सकता है। इतिहास क्या कहेगा,   कि देवताओं को  भी त्रासित करने वाला  लंकेश्वर अपनी बहन के अपमान पर, वह भी तुच्छ मानवों  द्वारा, चुप बैठा रहा ?    क्या कहेगी राक्षस जाति,   जो  अपने प्रति  किसी की  टेढी भृकुटि भी  बर्दास्त नहीं कर सकती, वह कैसे इस अपमान को अपने                                                          
गले के नीचे उतारेगी? उस पर वह शुर्पणखा, जिसका भतीजा इन्द्र को पराजित करने वाला हो, कुम्भकर्ण जैसा सैकड़ों हाथीयों के बराबर बलशाली भाई हो,  कैसे अपमानित हो शांत रह जायेगी?

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर,   नाग, गंधर्व,  विहंगों मे कोई भी ऐसा  नहीं है  जो मेरे  समान बलशाली खर-दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई नहीं मार सकता। ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल मे, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है और फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी आ गया है।    यदी साक्षात प्रभू ही मेरे द्वार आये हैं तो    उनके तीक्ष्ण बाणों के   आघात से  प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभू के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा ! पर किस तरह !!  जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए ?

तभी गगन की सारी कालिमा सागर में विलीन हो गयी।   तम  का मायाजाल सिमट गया ।   भोर हो चुकी थी। कुछ ही पलों में आकाश मे अपने पूरे तेज के साथ भगवान भास्कर के उदय होते ही आर्यावर्त के दक्षिण मे स्थित सुवर्णमयी लंका अपने पूरे वैभव और सौंदर्य के साथ जगमगा उठी। जैसे दो सुवर्णपिंड एक साथ चमक उठे हों। एक आकाश मे तथा दूसरा धरा पर। परन्तु भगवान भास्कर की चमक मे जहां एक ताजगी थी, जिवन्तता थी, उमंग थी वहीं लंका मानो उदास थी, अपने स्वामी की परेशानी को लेकर। तभी रावण ने आखिर एक निष्कर्ष पर पहुंच ठंडी सांस ली। छत से अपनी प्रिय लंका को निहारा और आगे की रणनीति पर विचार करता हुआ मारीच से मिलने निकल पड़ा। 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

"मां सिद्धिदात्री"


नवरात्र-पूजन के नवें दिन "मां सिद्धिदात्री" की पूजा का विधान है।


मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व , ये आठ प्रकार की सिद्धियां होती हैं। मां इन सभी प्रकार की सिद्धियों को देनेवाली हैं। इनकी उपासना पूर्ण कर लेने पर भक्तों और साधकों की लौकिक-परलौकिक कोई भी कामना अधूरी नहीं रह जाती। परन्तु मां सिद्धिदात्री के कृपापात्रों के मन में किसी तरह की इच्छा बची भी नही रह जाती है। वह विषय-भोग-शून्य हो जाता है। मां का सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। संसार में व्याप्त समस्त दुखों से छुटकारा पाकर इस जीवन में सुख भोग कर मोक्ष को भी प्राप्त करने की क्षमता आराधक को प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था को पाने के लिए निरंतर नियमबद्ध रह कर मां की उपासना करनी चाहिए।

मां सिद्धिदात्री कमलासन पर विराजमान हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपरवाले दाहिने हाथ में गदा तथा नीचेवाले दाहिने हाथ में चक्र है। ऊपरवाले बायें हाथ में कमल पुष्प तथा नीचेवाले हाथ में शंख है। इनका वाहन सिंह है। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव को भी इन्हीं की कृपा से ही सारी सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी। इनकी ही अनुकंपा से शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था और वे "अर्धनारीश्वर" कहलाये थे।

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

"महागौरी", महाशक्ति का आठवां स्वरूप


आज नवरात्रों का आठवां दिन है। आज के दिन दुर्गा माता के "महागौरी" स्वरूप की पूजा होती है। पुराणों के अनुसार मां पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था। शिवजी ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर खुद इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कांतिमान, उज्जवल व गौर हो गया। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा।
इनकी आयु आठ वर्ष की मानी जाती है। इनके समस्त वस्त्र, आभूषण आदि भी श्वेत हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशुल है। ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे का बायां हाथ वर मुद्रा में है। मां शांत मुद्रा में हैं। ये अमोघ शक्तिदायक एवं शीघ्र फल देनेवालीं हैं। इनका वाहन वृषभ है।
भक्तजनों द्वारा मां गौरी की पूजा, आराधना तथा ध्यान सर्वत्र किया जाता है। इस कल्याणकारी पूजन से मनुष्य के आचरण से सयंम व दुराचरण दूर हो परिवार तथा समाज का उत्थान होता है। कुवांरी कन्याओं को सुशील वर तथा विवाहित महिलाओं के दाम्पत्य सुख में वृद्धि होती है। इनकी उपासना से पूर्व संचित पाप तो नष्ट होते ही हैं भविष्य के संताप, कष्ट, दैन्य, दुख भी पास नहीं फटकते हैं। इनका सदा ध्यान करना सर्वाधिक कल्याणकारी है।
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श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।।
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बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

हमारे शक्तिपीठ



एक बार दुर्वासा ऋषि ने पराशक्ति की आराधना कर एक दिव्य हार प्राप्त किया था। इसकी असाधारणता के कारण दक्ष ने उसे ऋषि से मांग लिया था पर गलती से उसने हार को अपने पलंग पर रख दिया। जिससे वह दुषित हो गया और उसी कारण दक्ष के मन में शिव जी के प्रति दुर्भावना पैदा हो गयी,

भागवत के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में विष्णु जी मांस पिण्ड सदृश पडे थे। जिनमें पराशक्ति ने चेतना जागृत की। तब प्रभू के मन में सृष्टि को रचने का विचार आया और उनकी नाभी से कमल और फिर ब्रह्मा जी का उदय हुआ। 

ब्रह्मा जी ने मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद को अपने मन की शक्तियों से उत्पन्न किया। नारद जी को छोड इन सभी को प्रजा विस्तार का काम सौंपा गया। नारद जी इन सब को विरक्ति का उपदेश देते रहते थे। जिससे कोई पारिवारिक माया में नहीं फंसता था। इस पर ब्रह्मा जी ने ध्यान लगाया तो उन्होंने जाना कि अभी तक महामाया का अवतार नहीं हो पाया है सो उन्होंने दक्ष को महामाया को प्रसन्न करने का आदेश दिया। दक्ष के कठोर तप से मां महामाया प्रसन्न हुईं और उसे वरदान दिया कि मैं तुम्हारे घर विष्णु जी के सत्यांश से सती के रूप में जन्म लूंगी और मेरा विवाह शिव जी से होगा। बाद में ऐसा हुआ भी, पर !!!

एक बार दुर्वासा ऋषि ने पराशक्ति की आराधना कर एक दिव्य हार प्राप्त किया था। इसकी असाधारणता के कारण दक्ष ने उसे ऋषि से मांग लिया था पर गलती से उसने हार को अपने पलंग पर रख दिया। जिससे वह दुषित हो गया और उसी कारण दक्ष के मन में शिव जी के प्रति दुर्भावना पैदा हो गयी, जिसके कारण यज्ञ का विध्वंस और सती का आत्मोत्सर्ग हुआ। शिव जी उनके शरीर को लेकर उन्मादित हो गये, जगत का अस्तित्व खतरे में आ गया तब विष्णु जी ने अपने चक्र से सती के शरीर को काट कर शिव जी से अलग किया। वही टुकडे जिन 51 स्थानों पर गिरे वे शक्ति पीठ कहलाए। वे स्थान निम्नानुसार हैं :-

1-  कीरीट,   2-  वृन्दावन,  3-  करनीर,   4-  श्री पर्वत,  5-  वाराणसी,  6- गोदवरी तट, 7- शुचि, 8- पंच सागर, 9- ज्वालामुखी,  10- भैरव पर्वत,  11- अट्टहास,  12- जनस्थान,  13- काश्मीर,  14- नंदीपुर,  15-  श्री शैल, 16- नलहटी,  17- मिथिला,  18- रत्नावली, 19-प्रभास, 20-जालंधर, 21-रामगीरी, 22- वैद्यनाथ, 23-वक्त्रेश्वर, 24- कन्यकाश्रम,  25-बहुला,  26- उज्जैयिनी,  27- मणिवेदिक,  28- प्रयाग,  29- उत्कल,  30-  कांची,  
31- काल माधव, 32- शोण, 33- कामगीरी, 34- जयन्ती, 35- मगध, 36- त्रिस्नोता, 37- त्रिपुरा,  38- विभाष, 39- कुरुक्षेत्र,  40- युगाधा,  41- विराट,  42- काली पेठ,  43- मानस,  44- लंका,  45- गण्डकी,  46- नेपाल,     47-  हिंगुला,   48- सुगंधा,  49- करतोयातर,  50- चट्टल  तथा   51- यशोद

जय माता की, गलतियां क्षमा हों  


सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

अपने-अपने पिता की सीख


व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।

बहुत समय पहले की बात है एक व्यापारी तरह-तरह का सामान दूर-दराज के क्षेत्रों में ले जा कर बेचा करता था और इसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। उस समय गाडी-घोडे का उतना चलन नहीं था, वैसे भी वह पैदल ही अपना काम करते चलता था।   

एक बार वह तरह-तरह की रंगबिरंगी टोपियां ले दूसरे शहर बेचने निकला। चलते-चलते दोपहर होने पर वह एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए रुक गया। भूख भी लग आई थी, सो उसने अपनी पोटली से खाना निकाल कर खाया और थकान दूर करने के लिए वहीं लेट गया। थका होने की वजह से उसकी आंख लग गयी। कुछ देर बाद नींद खुलने पर वह यह देख भौंचक्का रह गया कि उसकी सारी टोपियां अपने सिरों पर उल्टी-सीधी लगा कर बंदरों का एक झुंड़ पेड़ों पर टंगा हुआ है। व्यापारी ने सुन रखा था कि बंदर नकल करने मे माहिर होते हैं। भाग्यवश उसकी अपनी टोपी उसके सर पर सलामत थी। उसने अपनी टोपी सर से उतार कर जमीन पर पटक दी। देखा-देखी सारे बंदरों ने भी वही किया। व्यापारी ने सारी टोपियां समेटीं और अपनी राह चल पड़ा।

समय गुजरता गया। व्यापारी बूढ़ा हो गया उसका सारा काम उसके बेटे ने संभाल लिया। वह भी अपने बाप की तरह दूसरे शहरों मे व्यापार के लिए जाने लगा। दैवयोग से एक बार वह भी उसी राह से गुजरा जिस पर वर्षों पहले उसके पिता का सामना बंदरों से हुआ था। भाग्यवश व्यापारी का बेटा भी उसी पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठा। उसने कलेवा कर थोड़ा आराम करने के लिए आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद हल्के से कोलाहल से उसकी तंद्रा टूटी तो उसने पाया कि उसकी गठरी खुली पड़ी है और टोपियां बंदरों के सर की शोभा बढ़ा रही हैं। पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ और पिता की सीख के अनुसार उसने अपने सर की एक मात्र टोपी को जमीन पर पटक दिया।
पर यह क्या!!! एक मोटा सा बंदर झपट कर आया और उस टोपी को भी उठा कर पेड़ पर चढ़ गया।

व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

जाना महेंद्र का, तानाशाही का नमूना


 वैसे समय  की मार और भगवान की बेआवाज लाठी पडने के पहले भाग्यवश कुछ लोग इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि अपने आप को खुदा समझ बैठने की गलती कर बैठते हैं पर ऐसे लोगों का हश्र भी दुनिया सैंकडों बार देख चुकी है।


पिछले दिनों बीसीसीआई और महेंद्र अमरनाथ के बीच धोनी के कारण मतभेद होने के चलते क्रिकेट के प्रति समर्पित और सच्चाई के पक्षधर महेंद्र अमरनाथ को बाहर का रास्ता देखना पडा था। वह भी तब जब कुछ ही दिनों के बाद श्रीकांत के कार्य-काल के समापन के बाद उन्हें मुख्य चयनकर्ता का पद मिलना तय था। उन्हें वह साठ लाख की भारी-भरकम रकम का लालच भी अपने विचारों से नहीं डिगा पाया जो उन्हें पद ग्रहण करने के बाद मिलने वाली थी। पर जो अमरनाथ परिवार के बारे में जानते हैं उन्हें इस बात पर आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि सच कहना और वस्तुस्थिति उजागर करना इस खानदान की आदत रहा है, उसके लिए चाहे कितनी भी विपरीत  परिस्थितियों का सामना करना पडा हो।    

आजादी के पहले क्रिकेट के खेल पर राजा-महाराजाओं तथा सामंतों का दबादबा हुआ करता था। उनके सामने कोई अपना मत तो दूर जबान खोलने की हिम्मत भी नहीं रखता था। उस समय महेंद्र के पिता लाला अमरनाथ, जो एक स्वाभिमानी और सच्चाई के पक्षधर इंसान थे और जो स्वतंत्र भारत के पहले क्रिकेट कप्तान बने, ने 1936 के इंग्लैंड दौरे पर कप्तान महाराज कुमार विजयनगरम से मतभेद होने पर टीम में रहना गवारा ना करते हुए वापस घर का रुख कर लिया था। बाद में जिनकी अगुवाई में भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध पहला टेस्ट मैच जीता था।

हमारी बीसीसीआई का दबदबा तो दुनिया भर के क्रिकेट कंट्रोल बोर्डों पर हावी है। कोई भी इसकी अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि इसकी एक टेढी भृकुटि उस देश में क्रिकेट की लहलहाती फसल पर पाला मार सकती है। ऐसी शक्तिशाली संस्था को भी उसके विवादास्पद निर्णयों के कारण महेंद्र ने जोकरों का जमावडा कह दिया था। इसी से उनकी निर्भीकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। अब भी अंतर्राष्ट्रीय मैचों में धोनी की लगातार असफलता के कारण उन्होंने कप्तान बदलने की आवाज उठाई थी जो धोनी के आकाओं को नागवार गुजरी और उसी के फलस्वरूप उन्हें अपना पद छोडना पडा।

पर टी-20 के वर्ल्ड-कप में शर्मनाक हार के बाद अब धोनी के विरुद्ध जगह-जगह से आवाज उठने लगी हैं। यहां तक कि बीसीसीआई के एक सज्जन ने भी धोनी-सहवाग के बीच की अनबन को जाहिर कर दिया है। अब देखना यह  है कि धोनी के सरपरस्त  कुछ लोग उसके बचाव के लिए क्या करते हैं। वैसे समय  की मार और भगवान की बेआवाज लाठी पडने के पहले भाग्यवश कुछ लोग इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि अपने आप को खुदा समझ बैठने की गलती कर बैठते हैं पर ऐसे लोगों का हश्र भी दुनिया सैंकडों बार देख चुकी है। पर फिर भी यह नस्ल ख़त्म नहीं होती दिखती।  

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

आप भी मेरी तरह, ऐसा ही कुछ तो नहीं दे रहे दूसरों को ?



अब सोचता हूँ, यह कैसा है मेरा देना?  जो चारों ओर तनावयुक्त माहौल बनाता है। सभी को तो कुछ ना कुछ दिया ही पर कोई भी खुश नजर नही आया। यहां तक कि मैं खुद अजीब सा महसूस कर रहा हूं। सिर भारी हो गया है। धड़कनें तेज हो रही हैं। रक्त-चाप बढा हुआ लग रहा है। थकान हावी है......................

पिछला  सप्ताह "देने के सुख का सप्ताह"  यानी  "Joy of giving week"  के नाम से मना या  मनाया गया । मीडिया और बाजार बार-बार याद दिला रहा था,  कि कुछ दान दक्षिणा करो भाई;  देखो देने में  कितना सुख मिलता है  (किसे? खरीदना तो बाजार से ही है ना)  याद करो हमारे  पूर्वज कैसा-कैसा दान करते थे, देते-देते खुद नंगे-भिखमंगे हो जाते थे। बहुतों ने तो इस सुख के लिए अपनी जान तक गंवा दी थी। कई  रसातल में जा पहुंचे थे। बहुतों ने तो अपना परिवार तक गंवा दिया था। तुम भी सोचो मत दूसरों को कुछ तो दो। 

इस समझाइश से थोड़ा जागरुक हो कर मैंने भी  अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो पाया कि प्रकृति और भगवान जैसी दार्शनिकता को छोड़ भी दें तो भी कोई ना कोई, कुछ ना कुछ तो दे ही रहा है और बदले में खुशी हासिल कर रहा  है।  

मतलबी  देने लेने को देखें तो नेता वर्षों से आश्वासन देता आ रहा है और परिवार समेत खुश-समृद्ध रहता है। कारोबारी व्यक्ति  प्रलोभन देता है और अपनी खुशी का इंतजाम करता है। छोटे व्यापारी तीन के बदले चार जैसा कुछ देते हैं, देने वाला जेब कटवा कर और लेने वाला दाम बना कर खुश हो जाते हैं।

पर कहीं-कहीं आपको सचमुच कुछ देकर भी खुश होने वाले लोग हैं। जो बिना किसी अपेक्षा के खुशियाँ बाँटते हैं,  जिनसे आप रोज कुछ पाते हैं पर ध्यान नहीं देते। बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं जिससे आपको संबल मिलता है, मनोबल बना रहता है। पत्नी मुस्कान देती है, आपका हाथ बटाती है, घर-घर लगता है। भाई-बहन स्नेह देते हैं। बच्चे प्यार देते हैं। आपका जीवन सुखमय बना रहता है।

इतना सब मनन-चिंतन कर मैंने सोचा कि देखूं तो मैंने अब तक  क्या दिया है दूसरों को?  कुछ समझ नहीं आया, फिर थोड़ा ध्यान लगाया, याद किया  सुबह से अपनी गतिविधियों को तो पाया कि मैं भी किसी  से पीछे नहीं हूँ,   बहुत कुछ देता आ रहा हूँ सभी को। सबेरे-सबेरे मां पापा को बिना मिले, बताए निकल आया था।  चिंता सौंप आया था।  अब दिन भर फिक्र करेंगे कि गुमसुम सा गया है सब ठीक-ठाक हो। मंहगाई  का अंत नहीं  है,  पर्स कहता है मुझे हाथ मत लगाओ, पत्नी परेशान थी कुछ जरूरी खरीदारी करनी थी,  ड़पट दे कर आया था। बच्चे तना चेहरा देख दुबके रहे। घर के  माहौल का  भारीपन महसूस करते रहे होंगें, उन्हें नजरंदाजी दे  आया था। दफ्तर आ कर दो-चार को हड़कान दी बेवजह तनाव बनाया। आज बहुत जरूरी  काम था, बास सोच रहा था शर्मा आएगा तो हो जाएगा। पर  उसे भी टेंशन थमा दिया कि आज तो कुछ भी पूरा नहीं ही हो पाएगा।

अब सोचता हूँ, यह कैसा है मेरा देना?  जो चारों ओर तनावयुक्त माहौल बनाता है। सभी को तो कुछ ना कुछ दिया ही पर कोई भी खुश नजर नही आया। यहां तक कि मैं खुद अजीब सा महसूस कर रहा हूं। सिर भारी हो गया है। धड़कनें तेज हो रही हैं। रक्त-चाप बढा हुआ लग रहा है। थकान हावी है। यह कैसा सुख है देने का?

सोचिए,  ध्यान से, कहीं आप भी मेरी तरह, ऐसा ही कुछ तो नहीं दे रहे दूसरों को ?

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

जनता को ही आगे आ कर अंकुश लगाना होगा



एक हैं कलमाडी। जनता की यादाश्त चाहे कितनी भी अल्पजीवी हो पर इतनी भी कमजोर नहीं है कि वह इन महानुभाव को भूला बैठी हो। वैसे इनके द्वारा संपादित कार्य ही इतना महान था कि इतनी ज़ल्दी भूलना मुश्किल  था। सभी जानते हैं कि  राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में लिप्तता के कारण कलमाडी को गिरफ्तार किया गया था, और अब वह जमानत पर हैं। हालांकि जिस सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार किया था, उसी ने बाद में उन्हें क्लीन चिट भी दे दी थी, यह कैसे हुआ वह अलग मुद्दा है।  पर सरकार रूपी गठबंधन में उनके मौसेरे भाईयों ने पता नहीं अब  क्या समा बांधा, किसे क्या समझाया कि सरकार ने फिर उन्हें संसदीय समिति में मनोनीत कर दिया। पर शायद कुछ लोगों की  आंखों  की शर्म बची हुई है इसीलिए जब कलमाडी महाशय को भारतीय ओलंपिक संघ में फिर स्थान देने की अनुशंसा की गयी तो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने ऐसा ना करने का साफ एलान कर एक अनुकरणीय उदाहरण पेश कर दिया है।

सरकार ने जनता और  अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति को कलमाडी के बारे में जिस तरह अलग-थलग रखा  उससे भी  यह शक जोर पकड़ता था कि सरकार मामले की लीपापोती कर दोषियों को बचाने की कोशिश में है। पर इससे भी कलमाडी पर लगा दाग धुल नहीं सका । पर इतना जरूर हो गया कि इस  सरकारी प्रोत्साहन के कारण  कलमाडी लंदन ओलंपिक जाने की बात करने की धृष्टता करने लगे थे। पर उस वक्त खेल मंत्री ने उनकी नहीं चलने दी और अब भारतीय ओलंपिक संघ से उन्हें बाहर करने में जगदीश टाइटलर ने अहम्  भूमिका निभाई है,. यह अलग बात है कि वे  खुद संघ का मुखिया बनना चाहते हैं। 

संघ का चुनाव अगले महीने है, और कलमाडी अपना अध्यक्ष पद बरकरार रखने के लिए चुनाव लड़ने की हर तिकडम आजमाने को आतुर हैं। जबकि उनकी इस महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि यह चुनाव पूरी तरह आचार संहिता के आधार पर होना चाहिए। अब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के एथिक्स कमीशन ने भी टिप्पणी की है कि जब तक कलमाडी निर्दोष साबित नहीं होते, तब तक संघ में उनके लिए कोई जगह नहीं है।

पर सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा नैतिक साहस राजनीतिक व्यवस्था में क्यों नहीं दिखता? क्यों देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार की अनदेखी कर खुद सत्ता में आने के लिए अयोग्य, भ्रष्ट, धन-लोलूप पात्रों को बार-बार सामने ला उन्हें देश और प्रजा का शोषण करने का मौका देती रहती हैं? इस मामले में सत्तारूढ ही नहीं दूसरी पार्टियों का  भी एक जैसा ही रुख होता है।  इस बार भी वोटों की मजबूरी के चलते अकेले कलमाडी पर ही नज़रें इनायत नहीं की गयीं बल्कि  उसी थैली के कुछ और बट्टे, कनिमोझी और राजा को भी संसदीय समितियों में लाकर केंद्र ने कोई अच्छा संदेश जनता तक नहीं पहुंचाया है। वस्तुत: ऐसा कर कोयले की दलाली में काले हुए हाथों को अपने ही  चेहरे पर भी मल लिया है। 

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

यह गांधी का देश है


"ग्लोबल फाइनैंशल इंटीग्रिटी" की सूचना के अनुसार हमारे देश का करीब 210 अरब रुपया स्विस बैंकों में जमा है। यह रिपोर्ट 2008 की है। यह बेकार पड़ा जमा धन हमारी जीड़ीपी के पचास प्रतिशत के बराबर है। ये बैंक ही वहां की अर्थ व्यवस्था को संभालते हैं हमारे पेट को काट कर। चूंकी वहां के लोगों की रोजी-रोटी ऐसा ही धन जुगाड़ करवाता है सो वहां खाता खोलने में भी आपको ढेरों सहूलियतें मुहय्या करवाई जाती हैं। बस आपके पास "माया" होनी चाहिए। बिना ज्यादा झंझटों और दस्तावेजों के सिर्फ पासपोर्ट से ही 15-20 मिनट में आपका खाता खोल आपके हाथ में डेबिट कार्ड़ थमा दिया जाता है। भविष्य में भी एक ई-मेल से आप अपना धन उनके सदा खुले मुख में उडेल सकते हैं।

हम-आप अंदाज भी नहीं लगा सकते कि यदि स्विस बैंकों में पड़ी सडती रकम किसी तरह वापस अपने देश आ जाए तो क्या कुछ हो सकता है। इससे पैंतालिस करोड़ गरीब करोड़पति बन सकते हैं। हमारे सर पर लदा अरबों का विदेशी कर्ज चुकता कर देने के बावजूद बहुतेरे आधे-अधूरे प्रोजेक्ट पूरे किए जा सकते हैं। इतनी रकम को किसी ढंग की जगह लगा दिया जाए तो उसके ब्याज से ही सालाना बजट पूरा हो सकता है।

ऐसे धन का ढेर बनाने में वे लेन-देन सहायक होते हैं जो हवाला के जरिए किए जाते हैं। बड़े रक्षा और बहुतेरे सौदों का कमीशन ले बाहर ही छुपा दिया जाता है। आयात-निर्यात के उल्टे-सीधे बिल बना, उससे प्राप्त पैसे को बाहर बैंकों के अंधेरे लाकरों में गर्त कर दिया जाता है। बिना किसी रिकार्ड़ के देश से पैसा बाहर भेज दिया जाता है। ये सारा काम क्या आम इंसान के वश का है? सब जानते हैं कि कैसे लोग ऐसे तरीके से वैसा धन इकट्ठा कर सकते हैं।

ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ हमारे यहां से ही वहां धन पहुंच रहा हो। दुनिया के दूसरे देशों में भी नमकहराम बैठे हुए हैं। कम्यूनिज्म के पैरोकार रूस का इस मामले में दूसरा स्थान है, पर वह क्या खा कर हमारे चंटों का मुकाबला करेगा, दूसरा स्थान होने के बावजूद उसके धन की मात्रा हमारे से एक चौथाई भी नहीं है। जबकि हर जगह अपने को सर्वोच्च मानने वाला, धन कुबेर अमेरिका पहले के पांच स्थानों में भी जगह नहीं बना पाया है। हम उसकी ऐसी नकल क्यों नहीं करते?
स्विस बैंक के एक प्रबन्धक ने भारत की अर्थ व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि भारत की जनता गरीब हो सकती है पर देश गरीब नहीं है। उसने आगे कहा कि वहां का इतना पैसा स्विस बैंकों में जमा है जिससे :-

# भारत सरकार 30 सालों तक बिना टैक्स का बजट पेश कर सकती है।

# 60 करोड़ नौकरियां वहां उपलब्ध करवा सकती है।

# दिल्ली से देश के हर गांव तक 4 लेन सड़क बनवा सकती है।

# बिजली की अनवरत सप्लाई की जा सकती है

# वहां के हर नागरिक को साठ साल तक 2000 रुपये दे सकती है।

# ऐसे देश को किसी भी वर्ल्ड बैंक या कर्ज की कोई जरूरत नहीं पड़ सकती।

यह कहना था वर्ल्ड बैंक के एक जिम्मेदार अधिकारी का। जरा गंभीरता से सोचिये कि भ्रष्टता की यह कौन सी सीमा है। ऐसी कौन सी मजबूरी है सरकार की या वह कौन सी ताकते हैं जिनके सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कुछ करने की और उस धन को वापस लाने की।  

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